राधाकुण्ड गोवर्धन

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राधाकुण्ड / Radha Kund

राधा कुण्ड, गोवर्धन, मथुरा
Radha Kund, Govardhan, Mathura

पद्म पुराण में कहा गया है कि जिस प्रकार समस्त गोपियों में राधाजी श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय हैं, उनकी सर्वाधिक प्राणवल्लभा हैं, उसी प्रकार राधाजी का प्रियकुण्ड भी उन्हें अत्यन्त प्रिय है।<balloon title="यथा राधा प्रिया विष्णों: तस्या: कुण्डं प्रियं तथा। सर्वगोपीषु सेवैका विष्णोंरत्यन्तवल्लभा।।(पद्म पुराण)" style="color:blue">*</balloon> और भी वराह पुराण में है कि<balloon title="सर्वपापहरस्तीर्थ नमस्ते हरिमुक्तिद:। नम: कैवल्यनाथाय राधाकृष्णभिधायिने।। (वराह पुराण)" style="color:blue">*</balloon> हे श्रीराधाकुण्ड! हे श्रीकृष्णकुण्ड! आप दोनों समस्त पापों को क्षय करने वाले तथा अपने प्रेमरूप कैवल्य को देने वाले हैं। आपको पुन:-पुन: नमस्कार है इन दोनों कुण्डों का माहत्म्य विभिन्न पुराणों में प्रचुर रूप से उल्लिखित है। श्री रघुनाथदास गोस्वामी यहाँ तक कहते हैं कि ब्रजमंडल की अन्यान्य लीलास्थलियों की तो बात ही क्या, श्री वृन्दावन जो रसमयी रासस्थली के कारण परम सुरम्य है तथा श्रीमान गोवर्धन भी जो रसमयी रास और युगल की रहस्यमयी केलि–क्रीड़ा के स्थल हैं, ये दोनों भी श्रीमुकुन्द के प्राणों से भी अधिक प्रिय श्रीराधाकुण्ड की महिमा के अंश के अंश लेश मात्र भी बराबरी नहीं कर सकते। ऐसे श्रीराधाकुण्ड में मैं आश्रय ग्रहण करता हूँ।[1]


श्रीराधाकुण्ड गोवर्धन से प्राय: 3 मील उत्तर–पूर्व कोण में स्थित है। गाँव का नाम आरिट है। यहीं अरिष्टासुर का वध हुआ था। कंस का यह अनुचर बैल या साँड का रूप धारण कर कृष्ण को मारना चाहता था, किन्तु कृष्ण ने यहीं पर इसका वध कर दिया था। वृन्दावन और मथुरा दोनों से यह 14 मील की दूरी पर अवस्थित है। श्रीराधाकुण्ड श्रीराधाकृष्ण युगल के मध्याह्रक–लीलाविलासका स्थल है। यहाँ श्रीराधाकृष्ण की स्वच्छन्दतापूर्वक नाना प्रकार की केलि–क्रीड़ाएँ सम्पन्न होती हैं। जो अन्यत्र कहीं भी सम्भव नहीं है। इसलिए इसे नन्दगाँव, बरसाना, वृन्दावन और गोवर्धन से भी श्रेष्ठ भजन का स्थल माना गया है। इसलिए श्रीराधाभाव एवं कान्ति सुवलित श्री चैतन्य महाप्रभु ने स्वयं इस परमोच्च भावयुक्त रहस्यमय स्थल का प्रकाश किया है। उनसे पूर्व श्रीमाधवेन्द्रपुरी , श्रीलोकनाथ गोस्वामी, श्रीभूगर्भ गोस्वामी श्री ब्रज में आये और कृष्ण की विभिन्न लीलास्थलियों का प्रकाश किया, किन्तु उन्होंने भी इस परमोच्च रहस्यमयी स्थली का प्रकाश नहीं किया। स्वयं श्रीराधाकृष्ण मिलिततनु श्रीगौरसुन्दर ने ही इसका प्रकाश किया।

कथा-प्रसंग

श्री कृष्ण ने जिस दिन अरिष्टासुर का वध किया, उसी दिन रात्रिकाल में इसी स्थल पर श्रीकृष्ण के साथ श्री राधिका आदि प्रियाओं का मिलन हुआ। श्रीकृष्ण ने बड़े आतुर होकर राधिका का आलिंगन करने के लिए अपने कर पल्लवों को बढ़ाया, उस समय राधिका परिहास करती हुई पीछे हट गयी और बोलीं– आज तुमने एक वृष (गोवंश) की हत्या की है। इसलिए तुम्हें गो हत्या का पाप लगा है, अत: मरे पवित्र अंगों का स्पर्श मत करो। किन्तु कृष्ण ने मुस्कराते हुए उत्तर दिया। –प्रियतमे! मैंने एक असुर का वध किया है। उसने छलकर साँड का वेश बना लिया था। अत: मुझे पाप कैसे स्पर्श कर सकता है? राधिका ने कहा- जैसा भी हो तुमने साँड के रूप में ही उसे मारा हैं। अत: गो हत्या का पाप अवश्य ही तुम्हें स्पर्श कर रहा है। सखियों ने भी इसका अनुमोदन किया। प्रायश्चित्त का उपाय पूछने पर राधिकाजी ने मुस्कराते हुए भूमण्डल के समस्त तीर्थों में स्नान को ही प्रायश्चित्त बतलाया। ऐसा सुनकर श्रीकृष्ण ने अपनी एड़ी की चोट से एक विशाल कुण्ड का निर्माण कर उसमें भूमण्डल के सारे तीर्थों को आह्वान किया। साथ ही साथ असंख्य तीर्थ रूप धारण कर वहाँ उपस्थित हुए। कृष्ण ने उन्हें जलरूप से उस कुण्ड में प्रवेश करने को कहा। कुण्ड तत्क्षणात परम पवित्र एवं निर्मल जल से परिपूर्ण हो गया। श्रीकृष्ण उस कुण्ड में स्नान कर राधिकाजी को पुन: स्पर्श करने के लिए अग्रसर हुए: किन्तु राधिका स्वयं उससे भी सुन्दर जलपूर्ण वृहद कुण्ड को प्रकाश कर प्रियतम के आस्फालन का उत्तर देना चाहती थीं। इसलिए उन्होंने तुनक-कर पास में ही सखियों के साथ अपने कंकण के द्वारा एक परम मनोहर कुण्ड का निर्माण किया। किन्तु उसमें एक बूँद भी जल नहीं निकला। कृष्ण ने परिहास करते हुए गोपी|गोपियों को अपने कुण्ड से जल लेने के लिए कहा, किन्तु राधिकाजी अपनी अगणित सखियों के साथ घड़े लेकर मानसी गंगा से पानी भर लाने के लिए प्रस्तुत हुई, किन्तु श्रीकृष्ण ने तीर्थों को मार्ग में सत्याग्रह करने के लिए इंगित किया। तीर्थों ने रूप धारणकर सखियों सहित राधिकाजी की बहुत सी स्तुतियाँ कीं, राधिकाजी ने प्रसन्न होकर अपने कुण्ड में उन्हें प्रवेश करने की अनुमति दी। साथ ही साथ तीर्थों के जल प्रवाह ने कृष्णकुण्ड से राधाकुण्ड को भी परिपूर्ण कर दिया। श्रीकृष्ण ने राधिका एवं सखियों के साथ इस प्रिय कुण्ड में उल्लासपूर्वक स्नान एवं जल विहार किया। अर्धरात्रि के समय दोनों कुण्डों का प्रकाश हुआ था। उस दिन कार्तिक माह की कृष्णाष्टमी थी, अत: उस बहुलाष्टमी की अर्द्धरात्रि में लाखों लोग यहाँ स्नान करते हैं।


श्रीराधाकुण्ड गोवर्धन पर्वत की तलहटी में शोभायमान है, कार्तिक माह की कृष्णाष्टमी (इन दोनों कुण्ड की प्रकट तिथि बहुलाष्टमी) के दिन यहाँ स्नान करने वालों श्रद्धालुओं को श्रीराधा–कुञ्जविहारी श्रीहरि की सेवामयी प्रेमाभक्ति प्राप्त होती है।[2] कार्तिक माह की दीपावली के दिन श्रीराधाकुण्ड में श्रीराधाकृष्ण के ऐकान्तिक भक्तों को अखिलब्रह्माण्ड तथा सम्पूर्ण ब्रजमण्डल दीख पड़ता है ।[3]

कुण्डों का उद्धार

कुछ समय बाद श्रीकृष्ण के द्वारका गमन के प्रश्चात ये दोनों कुण्ड लुप्त हो गये थे। महाराज वज्रनाभ ने (कृष्ण के प्रपौत) शाण्डिल्य आदि ऋषियों के अनुगत्य में ब्रज की लीलास्थलियों को प्रकाश करते समय इन दोनों कुण्डों का भी पुन: उद्धार किया, किन्तु पाँच हजार वर्षों के पश्चात ये दोनों कुण्ड पुन: लुप्त हो गये। जिस समय श्री चैतन्य महाप्रभु यहाँ पधारे, उस समय यहाँ के लोगों से राधाकुण्ड एवं श्याम कुण्ड के विषय में पूछा, किन्तु वे लोग इसके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं बता सके। केवल इतना ही बताया कि सामने कालीखेत एवं गौरीखेत हैं, जहाँ कुछ-कुछ जल है। महाप्रभु ने बड़े आदर के साथ कालीखेत को श्यामकुण्ड और गौरीखेत को राधाकुण्ड सम्बोधन कर प्रणाम किया। उनमें स्नान करते ही वे भाव-विभोर हो उठे, उनका सारा धैर्य जाता रहा, वे हा राधे! वे हा राधे! हा कृष्ण! कहते हुए मूर्छित हो गये। जिस स्थान पर वे बैठे थे वह आज भी तमालतला के नाम से प्रसिद्ध है। उसे महाप्रभु जी की वैठक भी कहा जाता है।


श्रीचैतन्य महाप्रभु के अप्रकट होने के प्रश्चात श्री रघुनाथदास गोस्वामी जगन्नाथ पुरी से राधाकुण्ड में आकर भजन करने लगे, एक समय मुग़ल सम्राट अकबर, अपनी बड़ी सेना के साथ इसी रास्ते से कहीं जा रहा था, सारी सेना, उसके हाथी, घोड़े, ऊँट सभी बहुत प्यासे थे। उसने दास गोस्वामीजी से पूछा– कहीं बड़ा सरोवर उपलब्ध हो सकता है? उन्होंने कालीखेत एवं गौरीखेत में पानी पीने एवं पिलाने के लिए इंगित किया। बादशाह ने सोचा यह पानी उसके एक हाथी के लिए भी पर्याप्त नहीं है, इसमें सभी की प्यास कैसे बुझ सकती है? किन्तु दास गोस्वामी के पुन:–पुन: कहने से उसने देखा कि सारी सेनाएँ, घोड़े, हाथी और ऊँट उस जल से तृप्त हो गये, जल तनिक भी कम नहीं हुआ। बादशाह के आश्चर्य की सीमा नहीं रही।

कुण्डों का पुन:उद्धार

राधा कुण्ड द्वार, गोवर्धन, मथुरा
Radha Kund Dwar, Govardhan, Mathura

कुछ दिनों के बाद श्रीरघुनाथदास गोस्वामी जब वहाँ पर भजन कर रहे थे, उस समय उनके मन में उन दोनों कुण्डों के पुन: उद्धार की बात आयी। किन्तु साथ ही श्रीराधाकुण्ड की अप्राकृत महिमा का स्मरण कर अपने को धिक्कारने लगे। उसी समय एक धनी व्यक्ति बद्रिकाश्रम से परम विरक्त श्रीदास गोस्वामी की खोज करता हुआ वहाँ पर पहुँचा। उसने गोस्वामी जी के चरणों में दण्डवत प्रणाम कर बतलाया कि मैं बद्रिकाश्रम से लौट रहा हूँ। भगवान श्रीबद्रीनारायण ने मुझे आपके पास भेजा है, मैं उनकी आज्ञा से आपको इन दोनों कुण्डों के सुन्दर रूप में पुन: उद्धार के लिए सारा ख़र्च दे रहा हूँ, आप इसे स्वीकार करें। श्रीदास गोस्वामी यह सुनकर गदगद हो गये। उन्होंने पहले तो लौटा दिया, किन्तु श्रीराधाकृष्ण की अभिलाषा जानकर उसे लेकर पुनः र्निर्माण का कार्य आरम्भ कर दिया। श्रीराधाकुण्ड सहज रूप में ही परम रमणीय चौकोर रूप में प्रकट हुआ, किन्तु जब श्यामकुण्ड निर्माण का कार्य आरम्भ हुआ तब उसे भी चौकोर बनाने के लिए उसके किनारे खड़े कुछ पेड़ों को काटने की बात हुई। रात में भजन करते समय श्रीदास गोस्वामी को झपकी सी आई, तो उन्होंने देखा पाँच व्यक्ति खड़े होकर कह रहे हैं– हम पाँचों पाण्डव हैं। वृक्ष के रूप में हम यहाँ युगल किशोर की आराधना कर रहे हैं। कृपया हमें कटवायें नहीं, टेड़े-मेड़े जिस रूप में कुण्ड है उसी रूप में संस्कार करा दें। इसलिए श्रीदास गोस्वामी ने वृक्षों को कटवाया नहीं, श्रीकृष्ण जैसे टेढ़े–मेढ़े रूप में केवल गहरा बनाकर घाटों को पक्का करवा दिया। ये दोनों कुण्ड उसी रूप में आज भी विराजमान हैं। बीच–बीच में कुछ–कुछ संस्कार किये गये होंगे।

श्रीगिरिराज गोवर्द्धन उत्तर से दक्षिण की ओर मयूराकार में स्थित हैं। पिछला दक्षिणी भाग पूंछरी कहलाता है। उत्तर में मुख–मण्डल में दो नेत्रों के समान श्रीराधाकुण्ड और श्रीश्यामकुण्ड स्थित हैं।

कुञ्ज

राधा कुण्ड, गोवर्धन, मथुरा
Radha Kund, Govardhan, Mathura

श्री विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर ने कृष्णभावनामृत ग्रन्थ में श्रीराधाकुण्ड और श्रीश्यामकुण्ड का बड़ा ही रमणीय रसपूर्ण उल्लेख किया है– व्रजेन्द्र नन्दन श्री कृष्ण समस्त अवतारों के अवतारी, सबके आदि स्वयं अनादि, अखिल रसामृतमूर्ति तथा सर्वशक्तिमान तत्व होने पर भी महाभाव स्वरूपा सर्वकान्ता शिरोमणि राधिका प्रेम के अधीन हैं। वे सर्वदा अपने से भी अधिक अपनी प्रियतमा श्रीकिशोरी जी की महिमा की प्रतिष्ठा करते हैं। श्रीराधाकुण्ड और श्यामकुण्ड अब अपने स्वरूप से अभिन्न स्वयं श्रीराधा और श्यामसुन्दर हैं। फिर भी उन्होंने स्वयं श्रीराधाकुण्ड को ही प्रसिद्धि प्रदान की। श्रीराधाकुण्ड के उत्तर में सुवर्णमय अष्टदल कमलाकार ललितानन्द नामक श्री ललिता देवी का कुञ्ज है। श्रीकुण्ड के ईशान कोण में मणिमय सोलह दल कमल के आकार का विशाखा सखी का विशाखानन्द कुञ्ज है। पूर्व दिशा में चित्रा सखी का चित्र–विचित्र चित्रानन्द कुञ्ज है। अग्नि कोण में इन्दुलेखा सखी का हीरा निर्मित अष्टदलाकार इन्दु लेखानन्द कुञ्ज है। दक्षिण में चम्पकलता सखी का सुवर्ण कमलाकार चम्पक लता नन्द कुञ्ज है और नैऋत कोण में नीलमणि कमलाकार रंगदेवीसुखद रंगदेवी का कुञ्ज है। पश्चिम दिशा में लाल मणिमय कमलाकार तुंग वि़द्यानन्द नामक तुर्गविद्या सखी कुञ्ज और वायुकोण में मरकत मणिविरचित कमलाकार सुदेवीजी का सुदेवीसुखद या आनन्द कुञ्ज तथा श्रीराधाकुण्ड के मध्य में चन्द्रकान्तमणि विरचित षोडश दल कमलाकार अनंगमंजरी–आनन्द कुञ्ज है, जिसे स्वानन्दसुखद कुञ्ज भी कहते हैं। यह अनंगमंजरी का कुञ्ज है। वहाँ जाने के लिए चन्द्रकान्त मणिका सेतु है।

इसी प्रकार श्रीराधाकुण्ड के वायुकोण में हीरा–पन्ना जवाहरात से निर्मित एक परम रमणीय स्थान है, जहाँ राधिका नित्य स्नान करती हैं। इसके उत्तर में सुबल सखा सुबलानन्द कुञ्ज है, जिसे उन्होंने राधिका जी को अर्पण कर दिया है। यहाँ श्रीराधाकृष्ण शयन करते हैं। कृष्णकुण्ड के उत्तर में श्वेतमणिमय मधुमंगला नन्द नामक मधुमंगल जी का कुञ्ज हैं, जिसे उन्होंने ललिताजी को अर्पण कर रखा है। यहाँ श्रीयुगलकिशोर नाना-प्रकार से हास–परिहास करते हैं। ईशान कोण में उज्जवल सखा, अरुणमणिमय, उज्जवला नन्द कुञ्ज है, जिसे उन्होंने विशाखा सखी को अर्पण कर दिया है। पूर्व दिशा में अर्जुन सखा का नीलमणिमय अर्जुनान्द कुञ्ज है, जिसे उन्होंने चित्रा सखी को अर्पण कर दिया है। अग्नि कोण में गन्धर्व सखा का चित्र-विचित्र मणिमय गन्धर्वानन्द कुञ्ज है, जिसे उन्होंने इन्दुलेखा सखी को अर्पण कर दिया है। दक्षिण कोण में हरित मणिमय विदग्धानन्द नामक विदग्ध सखा का कुञ्ज है, जिसे उन्होंने चम्पकलता को दिया है। यहाँ युगलकिशोर चौपड़ खेलते हैं। नेऋत कोण में भृग्ङसखा का भृग्ङनन्द कुञ्ज है, जिसे भृग्ङ सखा ने रंगदेवी को अर्पित कर रखा है तथा पश्चिम में विचित्र मणिमय दक्षसनन्दानन्द कुञ्ज है। दोनों कुण्डों के मध्य विविध प्रकार की मणियों से रचित संगमस्थल है, जिसे कृष्णलीला का योगपीठ भी कहते हैं तथा पश्चिम में कोकिला नन्द कुञ्ज कोकिलसखा ने सुदेवी को अर्पण कर दिया है।

प्राकृतिक वातावरण

श्री कृण्ड के दक्षिण में चम्पक वृक्ष की डालियों में रत्न के झूले लगे हैं। पूर्व दिशा में कदम्ब वृक्ष की डालियों में रत्नमय झूले, पश्चिम में आम्र वृक्ष की डालियों में रत्न निर्मित हिंडोले तथा उत्तर में मौलश्री वृक्ष की डालियों में रत्न के हिंडोले लगे हुए हैं, जिस पर रसिक श्रीकृष्ण राधिका एवं अन्यान्य सखियों के साथ झूले पर झूलते हैं। दोनों कुण्डों के चारों ओर हरे–भरे फल–फूलों से युक्त आम, कटहल, कदम्ब, मौलश्री आदि कल्प तरू हैं, जिनके मूल नाना प्रकार की मणियों से चबूतरों के रूप में बँधे हुए हैं। बसंत ऋतु के आनुगत्य में सभी ऋतुएँ सदा–सर्वदा युगल की सेवा करती हैं। वृन्दादेवी विविध प्रकार की परिपाटियों के साथ युगल सेवा के अनुरूप सारी व्यवस्था सम्पन्न करती हैं। वहाँ कोयलें कुहकती हैं। मयूर मधुर 'के' 'का' निनाद करते हुए नृत्य करते हैं। श्रीकुण्डों में नीलकमल, लालकमल तथा नाना प्रकार के केतकी पुष्प कुण्डों की तरंगों पर अठखेलियाँ करते हैं तथा मतवाले भृंग उन पर झंकार करते हैं। उस जल में राजहंस-हंसी, चक्रवाक-चक्रवाकी, सारस-सारसी कलरव करते हुए विहार करते हैं। वृक्ष की डालियों पर विभिन्न प्रकार के पक्षी श्रीराधाकृष्ण युगल को रस काव्य सुनाकर उनकी प्रीति उत्पादन कराते हैं। वहाँ के सुरम्य कुञ्जों के आस-पास हिरण-हिरणियाँ विचरण करती हैं। इस वन में राधिकाजी एकान्त सहेलियों के अतिरिक्त किसी का भी प्रवेश नहीं है।

श्रीराधाकुण्ड के दर्शनीय स्थल

श्रीराधाकुण्ड के पश्चिम में झूलनतला है। एक समय श्रीसनातन गोस्वामी और श्रीरूप गोस्वामी राधाकुण्ड की उत्तर–पूर्वी दिशा में श्रीरघुनाथदास गोस्वामी की भजनकुटी के निकट बैठे हुए कृष्ण कथा में विभोर हो रहे थे। श्रीसनातन गोस्वामी ने श्रीरूप गोस्वामी से पूछा– रूप आजकल क्या लिख रहे हो? श्रीलरूप गोस्वामी स्वरचित 'चाटुपुष्पाञ्जलि:' नामक स्तोत्र उनके हाथों में दे दिया। उसका पहला श्लोक था–

नव–गोरोचना–गौरीं प्रवेरेन्दीवराम्बराम्।

मणि–स्तवक–विद्योति–वेणीव्यालग्ङणाफणां।।[4]

श्रीसनातन गोस्वामी ने उसे पढ़कर कहा –रूप! तुमने 'वेणीव्यालग्ङणाफणा' पद के द्वारा राधिका की लहराती हुई काली बंकिम वेणी की तुलना विषधर काली नागिन से की है। राधिका तो सर्वगुण सम्पन्न, परम लावण्यवती, सुकोमल एवं परम मधुर कृष्ण की प्रिया हैं। उनकी सुन्दर वेणी की यह उपमा मुझे रूचिकर प्रतीत नहीं हो रही हैं। श्रीरूप गोस्वामी ने मुस्कुराते हुए नम्रतापूर्वक इसमें संशोधन करने के लिए प्रार्थना की। श्रीसनातन गोस्वामी को उस समय अन्य कोई उपमा सूझी 'पीछे संशोधन करूँगा' ऐसा कहकर वे इसी विषय की चिन्ता करते हुए वहाँ से विदा हुए। जब वे कुण्ड की पश्चिम दिशा में इस स्थल पर पहुँचे, तो उन्होंने कदम्ब वृक्ष की डालियाँ पर एक सुन्दर झूले पर एक गोपकिशोरी की झूलते हुए देखा। उसकी सहेलियाँ मल्लार राग का गायन करती हुई उसे झुला रही थीं। श्रीसनातन गोस्वामी ने उस झूलती हुई किशोरी की लहराती हुई काली वेणी पर अपने फणों को लहराती हुई काली नागिन को देखा। वे उसे बचाने के लिए उधर ही दौड़ते हुए पुकारने लगे– लाली! लाली! सावधान तुम्हारी वेणी पर काली नागिन है। किन्तु, जब निकट पहुँचे तो देखा कुछ भी नहीं है। वहाँ न किशोरी है न सखियाँ हैं और न झूला। वे उस दृश्य का स्मरणकर आनन्द से क्रन्दन करने लगे और उल्टे पाँव रूप गोस्वामी के पास पहुँचे और बोले– रूप! तुम्हारी उपमा सर्वांगसुन्दर है। किशोरीजी ने मुझ पर अनुग्रह कर अपनी बंकिम वेणी का स्वयं ही दर्शन कराया है। उसमें संशोधन की कोई आवश्यकता नहीं हैं।

प्राचीन मन्दिर

'नैऋत कोण में कदम्बवृक्ष के पास ही श्रीराधाकृष्ण का प्राचीन मन्दिर है। जनश्रुति के अनुसार श्रीदास गोस्वामी श्रीराधाकृष्ण के इस विग्रह को कुण्ड संस्कार के समय प्राप्त किया था। अकिंञ्चन दास गोस्वामी ने इस विग्रह को सेवा के लिए ब्रजवासियों को अर्पित कर दिया था। पास ही श्रीकृष्ण कुण्ड के वायुकोण में श्रीश्यामानन्द प्रभु के आराध्यदेव श्रीश्यामसुन्दरजी का मन्दिर है। उसी के उत्तर में श्री जीव गोस्वामी जी के आराध्य श्रीराधादामोदर जी का दर्शन है। उसी के उत्तर में श्रीनिवासाचार्य प्रभु की भजन–कुटी है। वहाँ श्रीचैतन्य महाप्रभु जी का श्रीविग्रह है। श्रीश्यामसुन्दर जी की पूर्व दिशा में तथा श्रीकुण्ड के उत्तर में श्रीजाह्नवा ठकुरानी का घाट एवं बैठक है। पास ही श्रीगोपीनाथजी का मन्दिर है। पास ही रघुनाथदास गोस्वामी का वासस्थान एवं पुष्प समाधि है। इससे आगे श्रीगोविन्ददेव का मन्दिर है। पास ही में श्रीगिरिराज जी की जिह्वारूपी शिला है। श्रीकुण्ड के पूर्वीतट पर श्रीगोपालभट्ट गोस्वामी की भजन कुटी और इसके पूर्व दिशा में निकट ही श्यामकुण्ड के तट पर श्रीरघुनाथदास गोस्वामी की भजन कुटी है।

श्रीरघुनाथ गोस्वामी की भजन कुटी

श्रीरघुनाथदास गोस्वामी जगन्नाथपुरी से आकर श्रीराधाकुण्ड के समीप जगमोहन कुण्ड पर रहते थे। यहाँ एक समय होली के दिन राधिका सहेलियों के साथ बैठी हुई थीं और शंखचूड़ अकस्मात उन्हें हरण कर ले जाने लगा। कृष्ण ने उसका वधकर उसके मस्तक से मणि निकाल ली और उसे श्रीबलदेव जी को दे दिया। बलदेव जी ने धनिष्ठा के हाथों से राधिका के पास भिजवा दिया। यद्यपि श्रीदास गोस्वामी पहले उक्त जगमोहन कुण्ड पर रहते थे, किन्तु बाद में वे श्रीराधाकुण्ड के तट पर भजन करने लगे। एक दिन श्रीरघुनाथदास गोस्वामी इस स्थान पर खुले आकाश के नीचे भजन कर रहे थे। वे भजन में ऐसे आविष्ट थे कि उन्हें तन मन की भी सुध नहीं थी। आँखों से अविरल अश्रु धारा प्रवाहित हो रही थी। उनके मुख से कभी-कभी हा राधे! हा राधे! शब्द निकल पड़ते थे। उसी समय श्रीसनातन गोस्वामी उनके निकट आ रहे थे। श्रीसनातन गोस्वामी ने कुछ दूर से देखा एक खूंखार बाघ एवं बाघिनी का जोड़ा रघुनाथदास के बगल से होता हुआ कुण्ड में जलपान कर पुन: उसी मार्ग से लौट गया, मानो उस जोड़े ने रघुनाथदास गोस्वामी को देखा ही नहीं।


श्री सनातन गोस्वामी श्री दास गोस्वामी के निकट आये और उन्हें छोटे भाई की भाँति बड़े प्यार से एक भजन कुटी निर्माण कर भजन करने का परामर्श दिया। उन्होंने स्वयं ही एक पर्णकुटी बनवा दी। और उसी में उनको भजन करने का निर्देश दिया। अब वह भजन कुटी तो रही नहीं, उसके स्थान पर पक्की भजन कुटी बना दी गई है। इस भजन कुटी के पास ही युधिष्ठर, भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव ये पाँचों पाण्डव तथा द्रौपदी वृक्ष रूप धारणकर भजन करते थे। अभी कुछ ही दिन पहले वे वृक्ष अप्रकट हो गये हैं। इस भजन कुटी एवं श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी की भजन कुटी के बीच में भूगर्भ गोस्वामी, दास गोस्वामी एवं कविराज गोस्वामी की समाधियाँ हैं। श्रीरघुनाथदास गोस्वामी की भजन कुटी के उत्तर में श्रीकृष्णदास कविराज गोस्वामी की भजन कुटी कहते हैं कि उन्होंने श्रीचैतन्य चरितामृत का कुछ अंश यहाँ भी लिखा था। अधिकांश भाग वृन्दावन में श्रीराधादामोदर मन्दिर की भजन कुटी में लिखा था। पास ही ईशानकोण में श्रीगदाधर चैतन्य का मन्दिर है। इस मन्दिर के वायुकोण में श्रीराधागोविन्दजी का मन्दिर है। इसी मन्दिर के प्रवेश द्वार के पास श्रीगोवर्द्धन की जिह्वा शिला का दर्शन है।

जिह्वा–शिला

श्रीदास गोस्वामी नित्य क्रिया से निवृत होकर श्रीश्यामकुण्ड की पूर्व दिशा में स्थित गोपी कूप के जल में स्नान करने के पश्चात श्रीकुण्ड में स्नान करते थे। कुछ दिनों के पश्चात गोपी कूप से जल खींचते समय उसमें गोवर्धन की एक शिला निकली। उस दिन दास गोस्वामी वहाँ स्नान कर चले गये। रात में कन्दरा में भजन करते समय उन्होंने स्वप्न में देखा कि वह शिला श्रीगिरिराज जी की जिह्वा है तथा उसकी विधिवत पूजन करने का भी उन्हें आदेश हुआ। उन्होंने उस जिह्वा–शिला को श्रीगोविन्ददेवजी के प्रवेश द्वार के समीप एक मन्दिर बनाकर उसमें रख दिया तथा विधिवत पूजा की व्यवस्था की। आज भी यह शिला दर्शनीय है। श्रीदास गोस्वामी ने तब से गोपी कूप में स्नान करना बन्द कर दिया तथा ललिता कुण्ड के पूर्वी तट पर एक नया कुआँ प्रस्तुत करवाकर उसी कुएँ के जल में स्नानादि करते थे। वह नया कुआँ अब भी है। उससे आगे नरहरि सरकार का कुञ्ज है। ललिताकुण्ड ललितानन्द कुञ्ज के स्थान पर स्थित है। विशाखा आदि बहुत से कुण्डों का इसमें समावेश है। अन्यान्य कुण्ड अब लुप्त हो चुके हैं। आगे श्रीराधाविनोद बिहारीजी एवं श्रीसीतानाथ के मन्दिर हैं। जगमोहन कुण्ड के पास में ही परिक्रमा मार्ग पर श्रीराजेन्द्र गोस्वामी की समाधि है। श्रीराजेन्द्र गोस्वामी ने कृष्ण विरह में यहीं पर प्राण त्याग किया था। श्रीराधाकुण्ड के पश्चिम में श्रीराधाकुञ्जविहारी गौड़ीय मठ है। विश्व में महाप्रभु के द्वारा आचरित एवं प्रचारित विमल वैष्णव धर्म एवं श्रीहरिनाम संकीर्तन का प्रचार करने वाले जगद्-गुरु परमहंस परिव्राजकाचार्यवर्य ऊँ विष्णुपाद श्रीश्रीमद्भक्तिसिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी प्रभुपाद ने यहाँ श्रीराधाकुञ्जबिहारी जी की प्रतिष्ठा की है। श्रीरघुनाथदास गोस्वामी की समाधि पीठ से आगे निकट ही सप्तम गोस्वामी श्रीसच्चिदानन्द भक्ति विनोद ठाकुर एवं श्रीभक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी की भजनकुटी दर्शनीय है।

शिवखोर

उद्धव कुण्ड से चलकर श्रीराधाकुण्ड गाँव में प्रवेश करते ही परिक्रमा मार्ग पर दाहिनी ओर यह स्थान स्थित है। कहते हैं, प्राचीन काल में एक समय एक श्रृगाली भूली–भटकी दिन के समय इधर चली आयी। कुत्तों ने उसे मार डाला। यह देखकर गाँव वालों ने इसी स्थान पर मृत श्रृगाली का दाह–संस्कार सम्पन्न किया। आश्चर्य की बात यह हुई कि दाह–संस्कार के समय श्रृगाली के शरीर से एक किशोरी गोपी प्रकट होकर आकाश में अन्तर्धान हो गयी। कहते हैं, कि श्रीराधाकुण्ड में मृत्यु होने पर जीव को गोलोक वृन्दावन की गति प्राप्त होती है।

माल्यहारिणी कुण्ड

यह कुण्ड राधाकुण्ड के पश्चिम में हैं। यहाँ माधवी कुंज में बैठकर राधिकाजी ने मुक्ताओं की माला पिरोई थी। श्रीदास गोस्वामी ने मुक्ताचरित–ग्रन्थ में इस लीला का बड़ा ही मनोरम वर्णन प्रस्तुत किया है।

प्रसंग

एक समय कार्तिक माह में गिरिराज गोवर्द्धन में दीपावली महोत्सव के अवसर पर ब्रजवासी अपनी–अपनी गायों आदि को विविध प्रकार की वेषभूषाओं से सुसज्जित करने में संलग्न थे। गोपियाँ भी अपने–अपने घर से विविध प्रकार की वेषभूषा लाकर गौओं को भूषित कर रही थीं। श्रीराधिका जी भी सहेलियों के साथ माल्यहारिणी कुण्ड के निकट माधवी चबूतरे पर बैठकर सुन्दर–सुन्दर मुक्ताओं से नाना प्रकार के भूषण प्रस्तुत करने लगीं। इसी बीच विचक्षण नामक शुक पक्षी के मुख से श्रीराधिकाजी द्वारा मुक्ता द्वारा विविध प्रकार के श्रृग्ङारों के बनाये जाने की बात सुनकर श्रीकृष्ण श्रीराधिका जी के पास उपस्थित हुए और उनसे कुछ मुक्ता माँगे किन्तु श्रीराधिका जी तथा उनकी सहेली गोपियों ने गर्व पूर्वक दो-चार बातें सुनाकर मुक्ता देने के लिए निषेध कर दिया। फिर भी श्रीकृष्ण ने कहा– 'सखियों!' यदि तुम अधिक संख्या में मुक्ता नहीं दे सकती हो, तो थोड़े से ही मुक्ता दे दो, जिससे मैं अपनी प्यारी हंसिनी और हरिणी नामक गौओं का श्रंगार कर सकूँ। परन्तु हठीली गोपियों ने श्रीकृष्ण की इस प्रार्थना को भी अस्वीकार कर दिया। ललिताजी तो कुछ उत्तम -उत्तम मुक्ताओं को हाथों में लेकर श्रीकृष्ण को दिखलाती हुई कहने लगी– कृष्ण! ये मुक्ताएँ साधारण नहीं हैं, जिनसे तुम अपनी गायों का श्रृंगार कर सको, ये बड़ी मूल्यवान मुक्ताएँ हैं, समझे? श्रीकृष्ण निराश होकर घर लौट आये। उन्होंने मैया यशोदा से हठपूर्वक कुछ मुक्ता लेकर यमुना के पनघट के समीप ही ज़मीन को खोद खोदकर उसमें उन मुक्ताओं को रोप दिया। उस स्थान को चारों ओर से इस प्रकार घेर दिया, जिससे पौधे निकलने पर उसे पशु-पक्षी नष्ट नहीं कर सकें, श्रीकृष्ण प्रतिदिन प्रचुर गो दुग्ध से उस खेत की सिंचाई भी करने लगे। इसके लिए उन्होंने गोपियों से दूध भी माँगा, परंतु उन्होंने उसके लिए भी अस्वीकार कर दिया। बड़े आश्चर्य की बात हुई– दो-चार दिनों में ही उन सारी मुक्ताओं में अंकुर लग गये तथा देखते-देखते कुछ ही दिनों में पौधे बड़े हो गये तथा उनमें प्रचुर मुक्ताओं के फल लग गये। उनसे अत्यन्त सुन्दर-सुन्दर प्रचुर मात्रायें मुक्ताएँ भी निकलने लगी। यमुना जल भरने के लिए पनघट पर आती-जाती हुई गोपियों ने इस आश्चर्चजनक मुक्ता के खेत को मुक्ताओं से भरे हुए देखा। वे आपस में काना-फूँसी भी करने लगीं।


इधर श्रीकृष्ण ने बहुत-सी मुक्ताओं को लाकर बड़ी प्रसन्नतापूर्वक घर लाकर मैया के आँचल में रख दिया। मैया ने आश्चर्यपूर्वक पूछा– कन्हैया! तुम्हें इतनी उत्तम मुक्ताएँ कहाँ से मिलीं। श्रीकृष्ण ने उन्हें सारी बातें बतलायीं। अब श्रीकृष्ण सखाओं के साथ अपनी सारी गौओं का श्रृंगार करने के लिए अगणित मुक्ता मालाएँ बनाने लगे। उनकी गौएँ भी उन मुक्तामालाओं से विभूषित होकर इधर–उधर डोलने लगीं। परंतु गोपियों को यह बात बड़ी असहृय हुई उन्होंने भी अपने-अपने घरों से छिपा-छिपाकर बहुत-सी मुक्ताओं को लेकर श्रीकृष्ण जैसी मुक्ता की खेती की। उसे गौओं के दूध से प्रचुर सिंचन भी किया। उन मुक्ताओं से पौधे भी निकले; किन्तु आश्चर्य की बात यह हुई कि उनसे लता उगने लगीं। ऐसा देखकर गोपियाँ बड़ी चिन्तित हुई। उन्होंने सारी घटना सुनाकर श्रीकृष्ण से कुछ मुक्ता के लिए प्रार्थना की। रसिक शिरोमणि श्रीकृष्ण ने अवहेलना पूर्वक मुक्ता देना अस्वीकार कर दिया; परन्तु अन्त में उन मुक्ताओं के बदले उनसे उनके श्रीअंगों का स्पर्श, आलिंगन, चुम्बन आदि का दान माँगा। इस प्रकार यह रहस्यपूर्ण लीला इस कुण्ड पर सम्पन्न होने के कारण इस कुण्ड का नाम माल्यहारिणी कुण्ड हुआ। मुक्ताचरित–ग्रन्थ में श्रीदास गोस्वामी ने अत्यन्त सरसता पूर्वक इस गंभीर लीला का उसमें वर्णन किया है।==श्रीराधाकुण्ड और श्यामकुण्ड के प्रसिद्ध घाट==

  1. श्रीगोविन्द घाट– यह श्रीराधाकुण्ड के पूर्व तट पर स्थित है। श्रीसनातन गोस्वामी ने इसी घाट पर राधिका जी को झूले पर झूलते हुए देखकर श्रीरूप गोस्वामी कृत चाटुपुष्पाञ्जलि के 'वेणीव्यालंगणाफणा' पद का रहस्य हृदयंगम किया था। यह घाट श्रीगोपाल भट्ट गोस्वामी की भजनकुटी और बिहारी जी के मन्दिर के मध्य स्थित है।
  2. श्री मानस पावन घाट– श्यामकुण्ड के वायुकोण में स्थित यह घाट राधिका जी को अत्यन्त प्रिय है।
  3. पञ्च पाण्डव घाट– यह घाट श्रीश्यामकुण्ड के उत्तर में मानस घाट से संलग्न है। इसी घाट से ऊपर पाँचों पाण्डवों ने श्रीरघुनाथ दास गोस्वामी को वृक्षों के रूप में अपना परिचय दिया था। इसी घाट पर एक प्राचीन छोहरा वृक्ष है। उसने श्रीविश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर को अपना परिचय काशीवासी ब्राह्मण के रूप में दिया था। यह वृक्ष श्रीगदाधर–चैतन्य मन्दिर के प्रवेश द्वार पर स्थित है।
  4. मधुमंगल घाट– इसी घाट के ऊपर मधुमग्ङलानन्द नामक श्रीमधुमग्ङल जी का कुञ्ज है, जिसे इन्होंने श्रीललिता सखी को अर्पण कर रखा है। इस घाट पर हितहरिवंश गोस्वामी की बैठक है।
  5. श्रीजीव गोस्वामी घाट– यहीं पर ऊपर में श्रीजीव गोस्वामी की भजन कुटी है। वे प्रतिदिन इसी घाट पर स्नान करते थे।
  6. गया घाट– इसका नामान्तर धन माधव घेरा घाट भी है। इसी के ऊपर श्रीमाधवेन्द्रपुरी की बैठक एवं श्रीहरिराम व्यासजी की भजन–स्थली है।
  7. अष्टसखी का घाट– यह गया घाट और तमालतला के मध्य में अवस्थित है।
  8. तमालतला घाट– यह श्यामकुण्ड के दक्षिण तट पर स्थित है। इसी घाट के ऊपर तमाल वृक्ष के नीचे श्रीचैतन्य महाप्रभु जी बैठे थे तथा उन्होंने ग्रामवासियों से दोनों कुण्डों के सम्बन्ध में पूछा था। किन्तु ग्रामवासी उत्तर नहीं दे सके। उन्होंने केवल पास में ही काली और गौरी नामक खेतों को दिखलाया। महाप्रभु ने ही उनका राधाकुण्ड एवं श्यामकुण्ड नामकरण कर उनमें स्नान किया। इस प्रकार उन्होंने महाराज वज्रनाभ द्वारा प्रतिष्ठित श्रीराधाकुण्ड और श्रीश्यामकुण्ड का जगत में प्रकाश किया। बाद में श्रीरघुनाथदास गोस्वामी ने इनके घाटों को पक्का बनवा दिया।
  9. श्रीवल्लभ घाट– यह तमालतला से पश्चिम में श्यामकुण्ड के दक्षिण तट पर अवस्थित है। श्रीवल्लभाचार्य ने अपने परिवारों के साथ इस घाट पर छोहरा वृक्ष की छाया में बैठकर दोनों कुण्डों का माहात्म्य गान किया था। वे कुछ दिन यहाँ पर रहे थे तथा प्रतिदिन इस घाट पर स्नान करते और श्रीमद्भागवत का प्रवचन भी करते थे।
  10. श्रीमदनमोहन घाट– इसी घाट के दक्षिण भाग में श्रीमदनमोहन जी का मन्दिर है।
  11. संगम घाट– यह दोनों कुण्डों के मध्य में स्थित है। यहीं पर नीचे ही नीचे दोनों कुण्डों का परस्पर संगम होता है। यह श्रीराधाकृष्ण युगल की नित्य लीला का योगपीठ है। वैष्णव लोग पहले श्रीराधाकुण्ड में स्नान कर पीछे श्रीश्यामकुण्ड में स्नान करते हैं। कहते हैं– यहाँ एक तमाल का पुराना वृक्ष था। किसी भक्त को उसने अगस्त ऋषि के रूप में अपना परिचय दिया था।
  12. रासवाड़ी घाट– यह श्रीराधाकुण्ड के दक्षिण भाग में स्थित है। इस घाट पर श्रीरास मण्डल स्थित है।
  13. झूलन घाट– यह घाट श्रीराधाकुण्ड के पश्चिमी तट पर स्थित है। यहाँ श्रीराधाकृष्ण झूला-झूलते थे। आज भी राधाकुण्ड की ब्रज रमणियाँ बड़े समारोह से झूला-झूलती हैं। इस घाट का दूसरा नाम राधाकृष्ण का घाट भी है।
  14. श्रीजाह्नवा घाट– यह घाट राधाकुण्ड के उत्तर में स्थित है तथा श्रीनित्या नन्द प्रभु की पत्नी श्रीजाह्नवा ठाकुरानी के स्नान करने का घाट है। यहीं पर वे भजन भी करती थी। आज भी वह बैठक विद्यमान है।
  15. श्रीवज्रनाभ कुण्ड– यह कुण्ड श्रीकृष्ण कुण्ड के मध्य में स्थित है।
  16. श्रीकक्ङण कुण्ड– श्रीराधा जी ने सखियों की सहायता से अपने कक्ङणों के द्वारा इस कुण्ड का निर्माण किया था। श्रीराधाकुण्ड के बीचों-बीच में यह कुण्ड स्थित है।

श्रीराधाकुण्ड के रासमण्डल

  1. श्रीराधाकुण्ड के दक्षिण में अत्यन्त प्राचीन रासमण्डल है। वहाँ पर रासमण्डल वेदी बनी हुई है।
  2. श्रीराधाकुण्ड के ईशान कोण में गोविन्द मन्दिर के पीछे यह रासमण्डल है।
  3. ग्राम के उत्तर में भानुखोर के दक्षिण में यह रासमण्डल है।
  4. श्रीश्यामकुण्ड के उत्तर में राधावल्लभ घाट के उत्तर में यह रासमण्डल स्थित है।
  5. नन्दिनी घेरा में रासमण्डल है।
  6. ललितविहारी जी में यह रासमण्डल है।

श्रीराधाकुण्ड के क्षेत्रपाल महादेव

  1. श्रीराधाकुण्ड के नैऋत कोण में कुण्डेश्वर महादेव हैं।
  2. ग्राम के पश्चिम में शिवखोर के उत्तर में महादेव हैं।
  3. श्रीराधारमण जी मन्दिर में एक महादेव हैं।
  4. श्रीश्यामकुण्ड के उत्तर में महादेव हैं।
  5. श्रीश्यामकुण्ड के अग्नि कोण में बनखण्डी महादेव हैं।
  6. माल्यहारणी कुण्ड पर महीमेश्वर महादेव हैं।
  7. वल्लभाचार्य की बैठक के पश्चिम भाग में एक महादेव हैं।

टीका-टिप्पणी

  1. श्री वृन्दाविपिनं सुरम्यमपि तच्छ्रीमान् स गोवर्द्धन: सा रासस्थलिकाप्यलं रसमयी किं तावदन्यत् स्थलम्। यस्याप्यंशलवेन नार्हति मनाक् साम्यं व मुकुन्दस्य तत्। प्राणेभ्योऽप्यधिकप्रियेव दयितं तत्कुण्डमेवाश्रये।। श्रीरघुनाथदास गोस्वामी
  2. गोवर्धनगिरौ रम्ये राधाकुण्डं प्रियं हरे:। कार्तिके बहुलाष्टम्यां तत्र स्नात्वा हरे: प्रिय: ।। नरो भक्तो भवेद्धितत्स्थितस्य तस्य प्रतोषणाम् ।। (पद्म पुराण)
  3. दीपोत्सवे कार्तिके च राधाकुण्डे युधिष्ठिर। दृश्यते सकलं विश्वं भृत्यैर्विष्णुपरायणै:।।(पद्म पुराण)
  4. हे वृन्दावनेश्वरि! मैं तुम्हारी पुन:-पुन: वन्दना करता हूँ, तुम नित्य नवीन गोरोचना की भाँति गौराग्ङी हो, सुन्दर नीलकमल जैसे तुम्हारे वस्त्र हैं, तुम्हारे मस्तक से नीचे की ओर लम्बित वेणी के ऊपर मणिरत्नों ग्रथित कवरीबन्ध को देखकर ऐसा प्रतीत होता है, मानो वह फणायुक्त काली भुजग्ङिनी हो।

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