आंग्ल-सिक्ख युद्ध द्वितीय
द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध 1848-1849 ई. में लड़ा गया। तत्कालीन रेजीडेन्ट 'सर हेनरी लॉरेन्स', महाराज दलीप सिंह की संरक्षक परिषद का अध्यक्ष नियुक्त हुआ। संरक्षक परिषद में अन्य व्यक्तियों के साथ रानी जिन्दा कौर को भी सम्मिलित किया गया। शीघ्र ही कई सिक्ख सरदारों में सन्धि की शर्तों तथा अंग्रेज़ों के निर्देशन में प्रान्त का शासन चलाये जाने पर तीव्र असंतोष उत्पन्न हो गया। विशेष रूप से रानी जिन्दा कौर को यह सन्धि बहुत अखरी, उन्होंने अंग्रेज़ों के विरुद्ध षड्यंत्र प्रारम्भ कर दिए। फलस्वरूप उन्हें राज्य से निष्कासित कर शेखपुरा भेज दिया गया। सेवामुक्त सिक्ख सैनिक भी राज्य में गड़बड़ी उत्पन्न करते रहते थे।
युद्ध का कारण
अंग्रेज़ों के विरुद्ध असंतोष उत्तरोत्तर बढ़ता ही गया। यह असंतोष उस समय चरम सीमा पर पहुँच गया, जब मुल्तान के शासक 'मूलराज' ने आय-व्यय का लेखा प्रस्तुत करने में असमर्थता प्रकट कर त्यागपत्र दे दिया। शीघ्र ही मूलराज के स्थान पर एक सिक्ख उत्तराधिकारी की नियुक्ति हुई और उसे दो अंग्रेज़ अधिकारियों के संरक्षण में मुल्तान भेज दिया गया। पर मार्ग में ही अचानक आक्रमण करके अप्रैल, 1848 ई. में दोनों अंग्रज़ों को मार डाला गया। इस घटना को अनुकूल अवसर मानकर मूलराज ने मुल्तान और उसके दुर्ग पर अधिकार कर लिया। अंग्रेज़ों ने स्थानीय सेना खड़ी करके दुर्ग को घेर लिया। शेरसिंह की अधीनता में लाहौर से एक सिक्ख सेना भेजी गई, किन्तु यह सेना मूलराज से मिल गई। इस प्रकार एक स्थानीय विद्रोह ने एक बृहत रूप धारण कर लिया और 'द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध' आरम्भ हो गया।
अंग्रेज़ों की क्षति
इस युद्ध का तात्कालिक कारण मुल्तान का विद्रोह था, जिसे समय से दबाया नहीं जा सका। द्वितीय आंग्ल-सिक्ख युद्ध के समय भारत का गवर्नर-जनरल लॉर्ड डलहौज़ी था। पंजाब प्रशासन के कौंसिल अध्यक्ष सर हेनरी लॉरेन्स ने बड़ी संख्या में सिक्ख सेना को भंग किया, परिणामस्वरूप पंजाब में भयानक अराजकता फैल गई। हेनरी के बाद उसके भाई जॉन लॉरेन्स ने अपने सुधार कार्यक्रमों को लागू किया। कालान्तर में मूलराज के त्यागपत्र और अंग्रेज़ी पर्यवेक्षक की हत्या के कारण इसके प्रतिकार के रूप में डलहौज़ी की धमकी के साथ ही चिनाब नदी के किनारे अंग्रेज़ों और सिक्खों में प्रारम्भिक झड़प हुई। इस झड़प में हारने के बाद डलहौज़ी ने इसे एक दु:खद घटना कहा। 13 जनवरी, 1849 ई. को सिक्ख नेता शेर सिंह और अंग्रेज़ सैनिक कमाण्डर गफ़ के मध्य 'चिलियानवाला का युद्ध' लड़ा गया। इस युद्ध का कोई निर्णय नहीं निकल सका और अंग्रेज़ों को भारी क्षति उठानी पड़ी।
सिक्खों की पराजय
गफ़ ने युद्ध के निर्णय को अपने पक्ष में बताया था, परन्तु डलहौज़ी ने इस सफलता पर कहा कि, "हमें विजय मिली, परन्तु ऐसी ही एक और विजय हमें सदा के लिए नष्ट कर देगी"। इस युद्ध के 40 घण्टे के अन्दर ही गफ़ को उसके पद से हटा दिया गया और उसके स्थान पर चार्ल्स नेपियर को सेनाध्यक्ष बनाकर अन्तिम लड़ाई पंजाब में चिनाब नदी के किनारे लड़ने के लिए भेजा गया। 21 फ़रवरी, 1849 ई. को लड़ी गई इस लड़ाई में सिक्ख बुरी तरह से पराजित हुए और उन्होंने अंग्रेज़ों के आगे आत्म समर्पण कर दिया। तत्पश्चात् लार्ड डलहौज़ी ने 29 मार्च, 1849 ई. को पंजाब को अंग्रेज़ी राज्य में मिला लिया और इसके साथ ही दलीप सिंह को पेंशन दे दी गई। लाहौर दरबार एवं पंजाब के अस्तित्व को समाप्त कर दिया गया। महाराजा दलीप सिंह को कालान्तर में रानी जिन्दा कौर के साथ 5 लाख रुपये वार्षिक पेन्शन पर इंग्लैण्ड भेज दिया गया।
- सर हेनरी लॉरेन्स, जो पहले पंजाब में ब्रिटिश रेजीडेन्ट था, के अनुसार पंजाब का साम्राज्य में विलय सम्भवत: न्यायसंगत भले ही हो, परन्तु अनुचित था। जॉन लॉरेन्स के अनुसार यह कार्य न केवल न्यायसंगत ही था, अपितु आवश्यक और तात्कालिक भी था। सर हेनरी लॉरेन्स ने पंजाब विलय के विरोध में त्यागपत्र तक दे दिया था, किन्तु लॉर्ड हार्डिंग के कहने पर उसने त्यागपत्र वापस ले लिया था।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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