परंपरा को अंधी लाठी से मत पीटो।
उसमे बहुत कुछ है,
जो जीवित है,
जीवन दायक है,
जैसे भी हो,
ध्वसं से बचा रखने लायक है।
पानी का छिछला होकर
समतल मे दोडना,
यह क्रंनति का नाम है।
लेकिन घाट बँआनधकर
पानि को गहरा बनाना
यह पुरमपरा का नाम है।
पंरपरा और क्रंनति में
संघषऋ चलने दो।
आग लगि है, तो
सूखि डालो को जलने दो।
मगर जो डालें
आज भी हरि है ,
उनपर तो तरस खाओ।
मेरि एक बात तुमा मान लो।
लोगो कि असथा के अधार
टुट जाते है,
उखडे हुए पेड़ो के समान
वे अपनि ज़डो से छुट जाते है।
परुमपरा जब लुपत होति हैं
सभयता अकेलेपन के
दर्द मे मरति है।
कलमे लगना जानते हो,
तो जरुर लगाओ,
मगर ऐसी कि फ़लो मे
अपनि मिट्टी का सवाद रहे।
और ये बात याद रहे
परुमपरा चिनि नहि मधु है।
वह न तो हिन्दू है, ना मुसलिम