बृहदारण्यकोपनिषद अध्याय-1 ब्राह्मण-3

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  • बृहदारण्यकोपनिषद के अध्याय प्रथम का यह तीसरा ब्राह्मण है।
  • यहाँ प्रजापति-पुत्रों के दो वर्गों का उल्लेख है।
    • एक देवगण,
    • दूसरे असुर।
  • देवगण संख्या में कम थे और असुरगण अधिक। दोनों में प्रतिस्पर्द्धा होने लगी।
  • देवताओं ने निश्चय किया कि वे यज्ञ में 'उद्गीथ' (सामूहिक मन्त्रगान) द्वारा असुरों पर हावी होने का प्रयत्न करें।
  • ऐसा विचार करके उन्होंने, पहले वाक् से, फिर प्राण, चक्षु, कान, मन, मुख प्राण आदि से उद्गीथ पाठ करने का निवेदन किया।
  • सभी ने देवताओं के लिए 'उद्गीथ' किया, परन्तु हर बार असुरगणों ने उन्हें पाप से मुक्त कर दिया।
  • इस कारण वाणी, प्राण-शक्ति, चक्षु, कान या मन दूषित हो गये, किन्तु मुख में निवास करने वाले प्राण को वे दूषित नहीं कर सके।
  • वहां असुरगण पूरी तरह पराजित हो गये।
  • इस मुख में समस्त अंगों का रस होने के कारण इसे 'आंगिरस' भी कहा जाता है।
  • इस प्राण-रूप देवता ने इन्द्रियों के समस्त पापों को नष्ट करके उन्हें शरीर की सीमा से बाहर कर दिया।
  • तब उस प्राणदेवता ने वाग्देवता (वाणी), चक्षु, घ्राण-शक्ति, श्रवण-शक्ति, मन-शक्ति आदि से मृत्यु-भय को दूर कर दिया और फिर प्राण-शक्ति को भी मृत्यु-भय से दूर कर दिया।
  • समस्त देवगुण प्राण में प्रवेश कर गये और अभय हो गये।
  • यह प्राण ही 'साम' है। वाक् ही 'सा' और प्राण ही 'अम' है।
  • दोनों के सहयोग से 'साम' बनता है, अर्थात यदि प्राणतत्त्व से गायन किया जाये, तो वह जीवन-साधना को सफल बनाता है।
  • वाणी और हृदयगत भावों का संयोग सामगान को अमर बना देता है।
  • ऐसा गान करने वाला धन-धान्य व ऐश्वर्य से सम्पन्न होता है। उसे प्रतिष्ठा प्राप्त होती है।


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