महाराणा प्रताप

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
  • 'धर्म रहेगा और पृथ्वी भी रहेगी, (पर) मुग़ल-साम्राज्य एक दिन नष्ट हो जायगा। अत: हे राणा! विश्वम्भर भगवान के भरोसे अपने निश्चय को अटल रखना।'-अब्दुलरहीम खानखाना [1]
  • महाराणा का वह निश्चय लोकविश्रुत है—भगवान एकलिंग की शपथ है, प्रताप के इस मुख से अकबर तुर्क ही कहलायेगा। मैं शरीर रहते उसकी अधीनता स्वीकार करके उसे बादशाह नहीं कहूँगा। सूर्य जहाँ उगता है, वहाँ पूर्व में ही उगेगा। सूर्य के पश्चिम में उगने के समान प्रताप के मुख से अकबर को बादशाह निकलना असम्भव है। [2]
  • 31 मई सन 1539 (वि0 सं0 1516 ज्येष्ठ शुक्ल 13) की वह तिथि धन्य है, जब मेवाड़ की शौर्य-भूमि पर मेवाड़-मुकुट मणि प्रताप का जन्म हुआ। बाप्पा रावल के कुल की अक्षुण्ण कीर्ति की उज्ज्वल पताका, राजपूती आन एवं शौर्य का वह पुण्य प्रतीक, महाराणा सांगा का वह पावन पौत्र जब (वि0 सं0 1628 फाल्गुन शुक्ल 15) ता0 1 मार्च सन 1573 को सिंहासनासीन हुआ, अधिकांश राजपूत नरेश परम कूटनीतिज्ञ सम्राट अकबर के दरबार में उपस्थित हो चुके थे। अनेकों ने अपनी कन्याएँ देकर बादशाह से सम्बन्ध कर लिया था। शौर्य की मूर्ति प्रताप एकाकी थे। अपनी प्रजा के साथ और एकाकी ही उन्होंने जो धर्म एवं स्वाधीनता के लिये ज्योतिर्मय बलिदान किया, वब विश्व में सदा परतन्त्रता और अधर्म के विरुद्ध संग्राम करनेवाले, मानधनी, गौरवशील मानवों के लिये मशाल सिद्ध होगा।
  • सम्राट अकबर की कूटनीति व्यापक थी, राज्य को जिस प्रकार उन्होंने राजपूत-नरेशों से सन्धि एवं वैवाहिक सम्बन्ध द्वारा निर्भय एवं विस्तृत कर लिया था, धर्म के सम्बन्ध में भी वे अपने 'दीन इलाही' के द्वारा हिन्दू-धर्म की श्रद्धा थकित करने के प्रयास में नहीं थे- कहना कठिन है। आज कोई कुछ कहे, किंतु उस युग में सच्ची राष्ट्रियता थी हिंदुत्व, और उसकी उज्ज्वल ध्वजा गर्व पूर्वक उठाने वाला एक ही अमर सेनानी था- प्रताप। अकबर का शक्ति सागर इस अरावली के शिखर से व्यर्थ ही टकराता रहा- नहीं झुका।
  • अकबर के महासेनापति मानसिंह शोलापुर विजय करके लौट रहे थे। उदय सागर पर महाराणा ने उनके स्वागत का प्रबन्ध किया। हिन्दू नरेश के यहाँ, भला अतिथि का सत्कार न होता, किंतु महाराणा प्रताप ऐसे राजपूत के साथ बैठकर भोजन कैसे कर सकते थे, जिसकी बुआ मुग़ल-अन्त:पुर में हो। मानसिंह को बात समझने में कठिनाई नहीं हुई। अपमान से जले वे दिल्ली पहुँचे। उन्होंने सैन्य सज्जित करके चित्तौड़ पर आक्रमण कर दिया।

हल्दीघाटी

राजपूताने की वह पावन बलिदान-भूमि, विश्व में इतना पवित्र बलिदान स्थल कोई नहीं। इतिहास के पृष्ठ रंगे हैं उस शौर्य एवं तेज की भव्य गाथा से। भीलों का अपने देश और नरेश के लिये वह अमर बलिदान, राजपूत वीरों की वह तेजस्विता और महाराणा का वह लोकोत्तर पराक्रम— इतिहास का, वीरकाव्य का वह परम उपजीव्य है। मेवाड़ के उष्ण रक्त ने श्रावण संवत 1633 वि0 में हल्दीघाटी का कण-कण लाल कर दिया। अपार शत्रु सेना के सम्मुख थोड़े–से राजपूत और भील सैनिक कब तक टिकते? महाराणा को पीछे हटना पड़ा और उनका प्रिय अश्व चेतक-उसने उन्हें निरापद पहुँचाने में इतना श्रम किया कि अन्त में वह सदा के लिये अपने स्वामी के चरणों में गिर पड़ा।

महाराणा एक कुशल शासक

वे प्रजा के आज से शासक नहीं, हृदय पर शासन करने वाले थे। एक आज्ञा हुई और विजयी सेना ने देखा उसकी विजय व्यर्थ है । चित्तौड़ भस्म हो गया, खेत उजड़ गये, कुएँ भर दिये गये और ग्राम के लोग जंगल एवं पर्वतों मं अपने समस्त पशु एवं सामग्री के साथ अदृश्य हो गये। शत्रु के लिये इतना विकट उत्तर, यह उस समय महाराणा की अपनी सूझ है। अकबर के उद्योग में राष्ट्रीयता का स्वप्न देखने वालों को इतिहासकार बदायूँनी आसफख़ाँ के ये शब्द स्मरण कर लेने चाहिये- 'किसी की ओर से सैनिक क्यों न मरे, थे वे हिन्दू ही और प्रत्येक स्थिति में विजय इस्लाम की ही थी।' यह कूटनीति थी अकबर की और महाराणा इसके समक्ष अपना राष्ट्रगौरव लेकर अडिंग भाव से उठे थे।

महाराणा का वनवास

महाराणा चित्तौड़ छोड़कर वनवासी हुए। महाराणी, सुकुमार राजकुमारी और कुमार घास की रोटियों और निर्झर के जल पर किसी प्रकार जीवन व्यतीत करने को बाध्य हुए। अरावली की गुफ़ाएँ ही आवास थीं और शिला ही शैया थी। दिल्ली का सम्राट सादर सेनापतित्व देने को प्रस्तुत था, उससे भी अधिक- वह केवल चाहता था प्रताप अधीनता स्वीकार कर लें, उसका दम्भ सफल हो जाय। हिंदुत्व पर दीन-इलाही स्वयं विजयी हो जाता। प्रताप-राजपूत की आन का वह सम्राट, हिंदुत्व का वह गौरव-सूर्य इस संकट, त्याग, तप में अम्लान रहा- अडिंग रहा। धर्म के लिये, आन के लिये यह तपस्या अकल्पित है । कहते हैं महाराणा ने अकबर को एक बार सन्धि-पत्र भेजा था, पर इतिहासकार इसे सत्य नहीं मानते। यह अबुल फजल की गढ़ी हुई कहानी भर है। अकल्पित सहायता मिली, मेवाड़ के गौरव भामाशाह ने महाराणा के चरणों में अपनी समस्त सम्पत्ति रख दी। महाराणा इस प्रचुर सम्पत्ति से पुन: सैन्य-संगठन में लग गये। चित्तौड़ को छोड़कर महाराणा ने अपने समस्त दुर्गों का शत्रु से उद्वार कर लिया। उदयपुर उनकी राजधानी बना। अपने 24 वर्षों के शासन काल में उन्होंने मेवाड़ की केशरिया पताका सदा ऊँची रक्खी।

महाराणा की प्रतिज्ञा

'चित्तौड़ के उद्धार से पूर्व पात्र में भोजन, शय्यापर शयन दोनों मेरे लिये वर्जित रहेंगे।' महाराणा की प्रतिज्ञा अक्षुण्ण रही और जब वे (वि0 सं0 1653 माघ शुक्ल 11) ता0 29 जनवरी सन 1597 में परमधाम की यात्रा करने लगे, उनके परिजनों और सामन्तों ने वही प्रतिज्ञा करके उन्हें आश्वस्त किया। अरावली के कण-कण में महाराणा का जीवन-चरित्र अंकित है। शताब्दियों तक पतितों, पराधीनों और उत्पीड़ितों के लिये वह प्रकाश का काम देगा। चित्तौड़ की उस पवित्र भूमि में युगों तक मानव स्वराज्य एवं स्वधर्म का अमर सन्देश झंकृत होता रहेगा।

माई एहड़ा पूत जण, जेहड़ा राण प्रताप।
अकबर सूतो ओधकै, जाण सिराणै साप॥

टीका-टिप्पणी

  1. ध्रम रहसी, रहसी धरा, खिस जासे खुरसाण।
    अमर बिसंभर ऊपरे रखिओ नहचो राण॥
    -अब्दुलरहीम खानखाना
  2. तुरक कहासी मुख पतो इण तनसूँ इकलिंग।
    ऊगै हाँईं ऊगसी, प्राची बीच पतंग॥