पंडित श्रद्धाराम शर्मा
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इस देश के घर-घर और मंदिरों में जिसके शब्द बरसों से गूंज रहे हैं, दुनिया के किसी भी कोने में बसे किसी भी सनातनी हिंदू परिवार में ऐसा व्यक्ति खोजना मुश्किल है जिसके ह्रदय-पटल पर बचपन के संस्कारों में उसके लिखे शब्दों की छाप न पड़ी हो। उनके शब्द उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत के हर घर और मंदिर मे पूरी श्रध्दा और भक्ति के साथ गाए जाते हैं। बच्चे से लेकर युवाओं को और कुछ याद रहे या न रहे इसके बोल इतने सहज, सरल और भावपूर्ण है कि एक दो बार सुनने मात्र से इसकी हर एक पंक्ति दिल और दिमाग में रच-बस जाती है। हम बात कर रहे हैं देश और दुनियाभर के करोड़ों हिन्दुओं के रग-रग में बसी ओम जय जगदीश की आरती की। हजारों साल पूर्व हुए हमारे ज्ञात-अज्ञात ऋषियों ने परमात्मा की प्रार्थना के लिए जो भी श्लोक और भक्ति गीत रचे, ओम जय जगदीश की आरती की भक्ति रस धारा ने उन सभी को अपने अंदर समाहित सा कर लिया है। यह एक आरती संस्कृत के हजारों श्लोकों, स्तोत्रों और मंत्रों का निचोड़ है।
करीब डेढ़ सौ वर्ष में मंत्र और शास्त्र की तरह लोकप्रिय हो गई ओम जय जगदीश की आरती जैसे भावपूर्ण गीत के रचयिता थे पंडित श्रद्धाराम शर्मा (प. श्रद्धाराम फिल्लौरी)। प. श्रध्दाराम शर्मा का जन्म 30 सितम्बर 1837 में पंजाब के जिले जालंधर में लुधियाना के पास एक गाँव फिल्लौर (फुल्लौर) में हुआ था। उनके पिता जयदयालु खुद एक अच्छे ज्योतिषी और धार्मिक प्रवृत्ति के थे। ऐसे में बालक श्रद्धाराम को बचपन से ही धार्मिक संस्कार विरासत में मिले थे। उन्होंने अपने बेटे का भविष्य पढ़ लिया था और भविष्यवाणी की थी कि यह एक अद्भुत बालक होगा। बचपन से ही उन्हें ज्यौतिष और साहित्य के विषय में गहरी रूचि थी। उन्होनें वैसे तो किसी प्रकार की शिक्षा हासिल नहीं की थी परंतु उन्होंने सन् 1844 में अर्थात् मात्र सात वर्ष की उम्र में ही गुरुमुखी भाषा सीख लिया था। दस साल की उम्र में संस्कृत, हिन्दी, फ़ारसी, पर्शियन (पारसी), ज्योतिष, और संस्कृत की पढाई शुरु की और कुछ ही वर्षो में वे इन सभी विषयों के निष्णात हो गए। उनका विवाह सिख महिला महताब कौर के साथ हुआ था।
पंडित श्रद्धाराम शर्मा सनातन धर्म प्रचारक, ज्योतिषी, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संगीतज्ञ तथा हिंदी के ही नहीं बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में थे। पं. श्रद्धाराम शर्मा गुरूमुखी और पंजाबी के अच्छे जानकार थे और उन्होनें अपनी पहली पुस्तक गुरूमुखी मे ही लिखी थी परंतु वे मानते थे कि हिंदी के माध्यम से इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुंचाई जा सकती है। उन्होंने अपने साहित्य और व्याख्यानों से सामाजिक कुरीतियों और अंधविश्वासों के खिलाफ जबर्दस्त माहौल बनाया।
पं. श्रध्दाराम ने सन् 1866 में पंजाबी (गुरूमुखी) में प्रकाशन 'सिखों दे राज दी विथिया' और 'पंजाबी बातचीत' जैसी किताबें लिखकर मानो क्रांति ही कर दी। अपनी पहली ही किताब 'सिखों दे राज दी विथिया' से वे पंजाबी साहित्य के पितृपुरुष के रूप में प्रतिष्ठित हो गए। बाद में इस रचना का रोमन में अनुवाद भी हुआ। इस पुस्तक मे सिख धर्म की स्थापना और इसकी नीतियों के बारे में बहुत सारगर्भित रूप से बताया गया था। पुस्तक में तीन अध्याय है। इसके अंतिम अध्याय में पंजाब की संकृति, लोक परंपराओं, लोक संगीत आदि के बारे में विस्तृत जानकारी दी गई थी। अंग्रेज सरकार ने तब होने वाली आईसीएस (जिसका भारतीय नाम अब आईएएस हो गया है) परीक्षा के कोर्स में इस पुस्तक को शामिल किया था।
श्रद्धाराम फिल्लौरी जी का गुरुमुखी और हिन्दी साहित्य में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। 1870 में 32 वर्ष की उम्र में पंडित श्रद्धाराम शर्मा ने ओम जय जगदीश की आरती की रचना की। प. श्रध्दाराम की विद्वता और भारतीय धार्मिक विषयों पर उनकी वैज्ञानिक दृष्टि के लोग कायल हो गए थे। जगह-जगह पर उनको धार्मिक विषयों पर व्याख्यान देने के लिए आमंत्रित किया जाता था और तब हजारों की संख्या में लोग उनको सुनने आते थे। वे लोगों के बीच जब भी जाते अपनी लिखी ओम जय जगदीश की आरती गाकर सुनाते। उनकी आरती सुनकर तो मानो लोग बेसुध से हो जाते थे। आरती के बोल लोगों की जुबान पर ऐसे चढ़े कि आज कई पीढियाँ गुजर जाने के बाद भी उनके शब्दों का जादू कायम है। इस आरती का उपयोग प्रसिद्ध निर्माता निर्देशक मनोज कुमार ने अपनी एक फिल्म में किया था और इसलिए कई लोग इस आरती के साथ मनोज कुमार का नाम जोड़ देते हैं।
वैसे पं. श्रद्धाराम शर्मा धार्मिक कथाओं और आख्यानों के लिए काफी प्रसिद्ध थे। उन्होंने धार्मिक कथाओं और आख्यानों का उध्दरण देते हुए अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ जनजागरण का ऐसा वातावरण तैयार कर देते थे उनका आख्यान सुनकर प्रत्यैक व्यक्ति के भीतर देशभक्ति की भावना भर जाती। इससे अंग्रेज सरकार की नींद उड़ गई। श्री श्रद्धाराम जी को देश के स्वतन्त्रता आन्दोलनों में भाग लेने तथा अपने भाषणों में महाभारत के उद्धरणों का उल्लेख करते हुए ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंकने का संदेश देते थे और लोगों में क्रांतिकारी विचार पैदा करते थे। पंडित श्रद्धाराम शर्मा की गतिविधियों से तंग आकर 1865 में ब्रिटिश सरकार ने उनको उनके गाँव फुल्लौरी से निष्कासित कर दिया और आसपास के गाँवों तक में उनके प्रवेश पर पाबंदी लगा दी गई। लेकिन उनके द्वारा लिखी गई किताबों का पठन विद्यालयों में हो रहा था और वह जारी रहा। पं. श्रद्धाराम ने अपने व्याख्यानों से लोगों में अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई बल्कि साक्षरता के लिए भी ज़बर्दस्त काम किया।
पं. श्रध्दाराम खुद ज्योतिष के अच्छे ज्ञाता थे और अमृतसर से लेकर लाहौर तक उनके चाहने वाले थे इसलिए इस निष्कासन का उन पर कोई असर नहीं हुआ, बल्कि उनकी लोकप्रियता और बढ गई। लोग उनकी बातें सुनने को और उनसे मिलने को उत्सुक रहने लगे। इसी दौरान उन्होंने हिन्दी में ज्योतिष पर कई किताबें लिखी और लोगों के सम्पर्क में रहे। लेकिन एक इसाई पादरी फादर न्यूटन जो पं. श्रध्दाराम के क्रांतिकारी विचारों से बेहद प्रभावित थे, के हस्तक्षेप पर अंग्रेज सरकार को थोड़े ही दिनों में उनके निष्कासन का आदेश वापस लेना पड़ा। पं. श्रध्दाराम ने पादरी के कहने पर सन् 1868 में बाईबिल के कुछ अंशों का गुरुमुखी में अनुवाद किया था। पं. श्रध्दाराम ने अपने व्याख्यानों से लोगों में अंग्रेज सरकार के खिलाफ क्रांति की मशाल ही नहीं जलाई बल्कि साक्षरता के लिए भी ज़बर्दस्त काम किया।
आज जिस पंजाब में सबसे ज्यादा कन्याओं की भ्रूण हत्याएं होती है इसका एहसास उन्होंने बहुत पहले कर लिया था और इस विषय पर उन्होंने ‘भाग्यवती‘ उपन्यास लिखकर समाज को चेता दिया था। श्री श्रद्धाराम को भारत के प्रथम उपन्यासकार के रूप में भी जाना जाता है। उन्होनें 1877 में भाग्यवती नामक एक उपन्यास लिखा था जो हिन्दी में था. माना जाता है कि यह हिन्दी का पहला उपन्यास है, इस उपन्यास की पहली समीक्षा अप्रैल 1887 में हिन्दी की मासिक पत्रिका प्रदीप में प्रकाशित हुई थी। उपन्यास 'भाग्यवती' जिसको निर्मल प्रकाशन ने सन 1888 में प्रकाशित किया था। इसके प्रकाशन से पहले ही पं. श्रद्धाराम का निधन हो गया परंतु उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी ने काफी कष्ट सहन करके भी इस उपन्यास का प्रकाशन करावाया था। इसे पंजाब सहित देश के कई राज्यो के स्कूलों में कई सालों तक पढाया जाता रहा। इस उपन्यास में उन्होंने काशी के एक पंडित उमादत्त की बेटी भगवती के किरदार के माध्यम से बाल विवाह पर ज़बर्दस्त चोट की। इस उपन्यास में उन्होंने भारतीय स्त्री की दशा और उसके अधिकारों को लेकर क्रांतिकारी विचार प्रस्तुत किए।
पं. श्रध्दाराम के जीवन और उनके द्वारा लिखी गई पुस्तकों पर गुरू नानक विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के डीन और विभागाध्य्क्ष श्री डॉ. हरमिंदर सिंह ने ज़बर्दस्त शोध कर तीन संस्करणों में श्रध्दाराम ग्रंथावली का प्रकाशन भी किया है। उनका मानना है कि पं. श्रध्दाराम का यह उपन्यास हिन्दी साहित्य का पहला उपन्यास है। लेकिन यह मात्र हिन्दी का ही पहला उपन्यास नहीं था बल्कि कई मायनों में यह पहला था। उनके उपन्यास की नायिका भाग्यवती पहली बेटी पैदा होने पर समाज के लोगों द्वार मजाक उडा़ए जाने पर अपने पति को कहती है कि किसी लड़के और लड़की में कोई फर्क नहीं है। उन्होंने इस उपन्यास के जरिए बाल विवाह जैसी कुप्रथा पर ज़बर्दस्त चोट की। उन्होंने तब लड़कियों को पढाने की वकालात की जब लड़कियों को घर से बाहर तक नहीं निकलने दिया जाता था, परंपराओं, कुप्रथाओं और रुढियों पर चोट करते रहने के बावजूद वे लोगों के बीच लोकप्रिय बने रहे। जबकि वह एक ऐसा दौर था जब कोई व्यक्ति अंधविश्वासों और धार्मिक रुढियों के खिलाफ कुछ बोलता था तो पूरा समाज उसके खिलाफ हो जाता था। निश्चय ही उनके अंदर अपनी बात को कहने का साहस और उसे लोगों तक पहुँचाने की जबर्दस्त क्षमता थी।
हिन्दी के जाने माने लेखक और साहित्यकार पं. रामचंद्र शुक्ल ने पं. श्रध्दाराम शर्मा और भारतेंदु हरिश्चंद्र को हिन्दी के पहले दो लेखकों में माना है। पं. श्रध्दाराम शर्मा हिन्दी के ही नहीं बल्कि पंजाबी के भी श्रेष्ठ साहित्यकारों में थे, लेकिन उनका मानना था कि हिन्दी के माध्यम इस देश के ज्यादा से ज्यादा लोगों तक अपनी बात पहुँचाई जा सकती है। पं. शर्मा सदैव प्रचार और आत्म प्रशंसा से दूर रहे थे। शायद यह भी एक वजह हो कि उनकी रचनाओं को चाव से पढने वाले लोग भी उनके जीवन और उनके कार्यों से परिचित नहीं हैं। श्री श्रद्धाराम फिल्लौरी का स्वर्गवास मात्र 44 वर्ष की अल्पायु में 24 जून 1881 को लाहौर में हुआ।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ