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स्वाधीनता संग्राम के दो महान सिपाही, मौलाना आज़ाद और चाचा नेहरू के जन्म के बीच केवल एक साल का अन्तर था। मौलाना सन 1888 में और नेहरू सन 1889 में पैदा हुए थे। इससे कुछ ही साल पहले सन 1885 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना हुई थी। महान सेनानी और गुरु गांधी जी का तो 1869 में जन्म हो चुका था। देश की स्वतंत्रता के शस्त्रहीन महाभारत के युद्ध की तैयारियाँ हो चुकी थीं।

बचपन

अन्य किसी छोटे लड़के की तरह बचपन में आज़ाद को गैस वाले रंगीन गुब्बारों, तैरने और खेल-कूद का बहुत शौक था। उनकी याददाश्त इतनी तेज थी कि विश्वास नहीं होता था। सीखने, पढ़ने-लिखने और बोलने की इच्छा उनमें दिन-ब-दिन बढ़ती जाती थी। दूसरे बच्चों की तरह स्कूल जाना, अपनी ही उम्र बच्चों के साथ रहना, मैदानों में खुलकर खेलना, बच्चे आमतौर से जो करते हैं, वैसी शरारतें करना—यह सब उन्हें पसंद था। लेकिन वह ये कर नहीं सकते थे। उनके पिता यह चाहते थे कि वह एक निष्ठावान धार्मिक विद्वान बनें और इसीलिए वे सब चीजें करने की उन्हें इजाज़त नहीं थी।

मौलाना आज़ाद एक विद्वान थे, पत्रकार, लेखक, कवि, दार्शनिक थे और इन सबसे बढ़कर अपने समय के धर्म के एक महान विद्वान थे। महात्मा गांधी की तरह भारत की भिन्न-भिन्न जातियों के बीच, विशेष तौर पर हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच एकता के लिए कार्य करने वाले कुछ महान लोगों में से वह भी एक थे। अपने गुरु की तरह उन्होंने भी जीवनभर दो दुश्मनों—ब्रिटिश सरकार और हमारे राष्ट्र की एकता के विरोधियों का सामना किया।  

विद्वान

आज़ाद के पास बहुत सी किताबें थीं और बड़े-बड़े विद्वान शिक्षक उन्हें अरबी, फ़ारसी, उर्दू और धार्मिक विषयों के साथ-साथ गणित, यूनानी चिकित्सा पद्धति, सुलेखन और दूसरे विषयों की शिक्षा देते थे। अंग्रेजी सीखना तो मानों मना ही था। क्योंकि वह तो 'घृणित फिरंगियों' की भाषा थी। भाग्य से ऐसे एक आदमी से भेंट हो गई जो अंग्रेजी भाषा जानते थे। आज़ाद ने कुछ दिनों में उनसे अंग्रेजी वर्णमाला और पहली कक्षा की किताब पढ़ना सीख लिया। कुछ ही समय बाद उन्होंने शब्दकोश के सहारे बाइबिल और अंग्रेजी अखबार पढ़ना शुरू कर दिया। मोमबत्ती की हल्की रोशनी में वह रात में देर तक पढ़ते रहते थे। सवेरे जल्दी उठकर भी वह पढ़ते थे और कभी-कभी तो वह खाना भी भूल जाते थे। अकसर अपने पैसे वह किताबों पर ही खर्च कर देते थे। उन्होंने कहा, "लोग बचपन खेल-कूद में बिताते हैं, लेकिन मैं बारह-तेरह साल की उम्र में ही किताब लेकर लोगों की नज़रों से बचने के लिए एक कोने में अपने आपको छिपाने की कोशिश करता था।

उनके लेखन के बारे में एक बड़े विद्वान ने लिखा है, "प्रसिद्ध ब्रिटिश लेखक सॉमरसेट मॉम की तरह ही मौलाना आज़ाद ने लिखना शुरू किया वैसे ही जैसे मछली अपने आप तैरना सीख लेती है या बच्चा सांस लेना सीख लेता है।" आज़ाद में एक नया गुण यह था कि बहुत-सी बातों में वह अपनी उम्र से बहुत आगे रहे। बारह वर्ष के होने से पहले ही वह एक पुस्तकालय वाचनालय और डिबेटिग सोसाइटी चला रहे थे। जब वह केवल पन्द्रह वर्ष के थे तब वह अपने से दुगुनी उम्र के विद्यार्थियों की एक क्लास को पढ़ाते थे। तेरह से अठारह साल की उम्र के बीच उन्होंने बहुत-सी पत्रिकाओं का संपादन किया और सोलह साल की उम्र में स्वयं एक उच्च स्तर की पत्रिका निकाली। इन बातों को देखते हुए नेहरू का यह कहना कि मौलाना आ­ज़ाद सन 1923 में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे युवा प्रमुख थे, कोई ताज्जुब की बात नहीं है। उर्दू बोलने वाले लोगों ने एक बार 'एक बड़े विद्वान' को सन 1904 में एक राष्ट्रीय कान्फ्रेंस में भाषण देने के लिए आमंत्रित किया। उस 'बड़े विद्वान' के लेखों के वे बड़े प्रशंसक थें लेकिन जब मौलाना वर्ष के दुबले-पतले, बिना दाढ़ी के और गोरे रंग के मौलाना आज़ाद रेल की प्रथम श्रेणी के डिब्बे से उतरे तो लाहौर स्टेशन पर जमा हुए उनके हज़ारों प्रशंसकों को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हुआ। कुछ लोगों को निराशा भी हुई और जब उस लड़के ने कोई ढाई घंटे तक बिना लिखित भाषण के सीधे ही अपना भाषण दिया तो कॉन्फ्रेंस के अध्यक्ष मौलाना हाली, जो स्वयं सड़सठ वर्ष के मशहूर शायर और विद्वान थे, उनको प्यार से अपनी बांहों में भरकर बोले, "प्यारे बेटे, अब मैं अपनी ज्ञानेंद्रियों पर तो भरोसा कर रहा हूँ, लेकिन अभी भी मेरा आश्चर्य बना हुआ है।" इस तरह सन् 1910 के क़रीब एक लज्जाशील युवक, जो अपनी तस्वीर तक प्रकाशित कराने के लिए तैयार नहीं होता था, उसका शरीर दुर्बल था, लेकिन निश्चय दृढ़ था; उसके दिल में आग सुलगती थी पर मन शान्त था; उसकी आदतें उत्कृष्ट थीं किन्तु निश्चय अटल था; उसकी बुद्धि तेज़ थी पर स्वभाव कोमल था—देश को आज़ादी की ओर ले जाने वाले महान सिपाहियों के दल में शामिल हो जाने के लिए तैयार हो गया था। सच कहा जाए तो मौलाना किताबों की दुनिया में रहने वाले थे। कड़ी सर्दी, एकांत, संगीत और सबसे बढ़िया चाय—इनकी पसंद थे। वह सवेरे जल्दी उठते थे और समय के पाबन्द थे। किसी भी कठिनाई को सह लेने के लिए और अपने देश और उसके लोगों की ख़ातिर कुछ भी बलिदान कर देने के लिए तैयार रहते थे।

दूरदृष्टि

गांधीजी दक्षिण अफ्रीका में बसे हुए भारतीयों के लिए संघर्ष कर रहे थे। उनके एक लेफटेनेन्ट जवाहरलाल नेहरू यूरोप से लौटकर रणभूमि का, अर्थात भारत की स्थिति का निरिक्षण कर रहे थे। यहाँ भारत में गांधीजी के दूसरे लेफटेनेन्ट मौलाना आज़ाद भी युद्ध की तैयारियाँ कर रहे थे। वह जोशीले भाषण देते, उत्तेजना भरे लेख लिखते और पढ़े-लिखे मुसलमानों के साथ सम्पर्क बढ़ा रहे थे। बंगाल के क्रांतिकारी श्याम सुन्दर चक्रवर्ती से उन्होंने क्रांन्ति के लिए प्रशिक्षण प्राप्त किया था और उसकी ही सहायता से सन् 1905 में महान क्रांतिकारी अरविन्द घोष से उनकी मुलाकात हुई थी। मुसलमानों के कुछ गुप्त मंडलों की भी उन्होंने स्थापना की थी। मौलाना को लगा कि कुछ ऐसे कारण है जिनको लेकर सन् 1857 की आज़ादी की लड़ाई के बाद मुसलमान बहुत सी बातों में अपने दूसरे देशवासियों से पीछे रह गए हैं। बहुत से मुसलमान ऐसा सोच रहे थे कि भारत में हमेशा अंग्रेजों का ही राज बना रहेगा और इसलिए उनको अंग्रेजों के विरुद्ध संघर्ष करने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेकिन अपने लेखों द्वारा मौलानाने उन्हें समझाया कि विदेशी सरकार की ग़ुलामी से छुटकारा पाना सिर्फ राष्ट्रीय ध्येय ही नहीं है बल्कि यह उनका धार्मिक कर्तव्य भी है। एक बार उन्होंने घोषणा की, "मुसलमानों के लिए बिच्छू और साँप से सुलह कर लेना, पहाड़, ग़ुफा और बिलों के भीतर घूमना और वहाँ जंगली जानवरों के साथ चैन से रहना आसान है, लेकिन उनके लिए अंग्रेजों के साथ संधि के लिए हाथ बढ़ाना मुमकिन नहीं है।" अपने इस संदेश को फैलाने के लिए सन् 1912 में उन्होंने अपना प्रसिद्ध साप्ताहिक अखबार 'अल-हिलाल' आरम्भ किया।

अल-हिलाल

यह अखबार भारत और विदेशों में इसलिए इतनी जल्दी प्रसिद्ध हो गया कि आज यह बात एक चमत्कार ही लगती है। कुछ ही दिनों में 'अल-हिलाल' की 26,000 प्रतियाँ बिकने लगीं। लोग इकट्ठे होकर उस अखबार के हर शब्द को ऐसे पढ़ते या सुनते जैसे वह स्कूल में पढ़ाया जाने वाला कोई पाठ हो। कुछ ही दिनों में उस अखबार ने न सिर्फ मुसलमानों में बल्कि उस समय के उर्दू पढ़ने वाले बहुत से लोगों में जागृति की एक लहर उत्पन्न कर दी। आखिर सरकार ने 'अल-हिलाल' की 2,000 रुपये और 10,000 रुपये की जमानतें ज़ब्त कर लीं और मौलाना आज़ाद को सरकार के ख़िलाफ़ लिखने के जुर्म में बंगाल से बाहर भेज दिया। बाद में वह चार साल से भी ज्यादा समय तक रांची, बिहार में क़ैद रहे। गांधीजो को मौलाना के सशक्त लेखों के बारे में पता था। मौलाना जब रांची के जेल में थे तब गांधीजी उनसे मुलाकात करना चाहते थे। लेकिन सरकार ने इसकी स्वीकृति नहीं दी। उसके तुरन्त बाद जनवरी सन् 1920 में रिहा होने के बाद उनकी दिल्ली में हक़ीम अजमल ख़ाँ के घर गांधीजी से भेंट हुई। उस मुलाकात को याद करते हुए मौलानाने बाद में लिखा, "...आज तक...हम जैसे एक ही छत के नीचे रहते आए हैं.....हमारे बीच मतभेद भी हुए....लेकिन हमारी राहें कभी अलग नहीं हुईं। जैसे-जैसे दिन बीतते, वैसे-वैसे उन पर मेरा विश्वास और भी दृढ़ होता गया।" दूसरी ओर गांधीजी ने कहा, "मुझे खुशी है कि सन् 1920 से मुझे मौलाना के साथ काम करने का मौका मिला है। जैसी उनकी इस्लाम में श्रृद्धा है वैसा ही दृढ़ उनका देश प्रेम है। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे महान नेताओं में से वह एक हैं। यह बात किसी को भी नहीं भूलनी चाहिए......"

एकता के लिए कार्य

शुरू से ही मौलाना यह जानते थे कि अगर भारत के लोग आपस में मिलजुल कर रहेंगे तभी वे एक मज़बूत राष्ट्र बना सकेंगे। महात्मा गांधी की तरह उनके लिए भी लोगों की एकता से बढ़कर कुछ और प्यारा नहीं था। जिस तरह उनके गुरु ने उसी ध्येय के लिए अपने जीवन का बलिदान कर दिया था, उसी तरह मौलाना भी राष्ट्र की एकता के लिए सब कुछ न्योछावर कर देने के लिए तैयार थे। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सन् 1923 के अपने प्रथम अध्यक्षीय भाषण में उर्दू के अपने विशेष अन्दाज में मौलाना ने कहा था, "आज अगर आसमान से फ़रिश्ता भी उतर आए और दिल्ली के क़ुतुब मीनार की चोटी पर से एलान करे कि हिन्दुस्तान अगर हिन्दू-मुस्लिम एकता का ख्याल छोड़ दे तो वह चौबीस घंटों में आज़ाद हो सकता है, तो हिन्दू-मुस्लिम एकता के बजाय देश की आज़ादी को मैं छोड़ दूंगा—क्योंकि अगर आज़ादी आने में देर लग भी जाए तो इससे सिर्फ भारत का ही नुकसान होगा, लेकिन हिन्दू-मुसलमानों के बीच एकता अगर न रहे तो इससे दुनिया की सारी इन्सानियत का नुकसान होगा।" बदकिस्मती यह थी कि देश में कुछ लोग ऐसे थे जो इस तरह की एकता नहीं चाहते थे। स्वाभाविक ही है कि गांधीजी की तरह मौलाना के भी ऐसे ही लोग जिन्दगीभर कट्टर दुश्मन बने रहे। उन लोगों ने मौलाना की हंसी उड़ाई, उन्हें गालियाँ दीं, उन्हें तरह-तरह के नाम और ताने दिये, उनका मज़ाक उड़ाया। लेकिन मौलाना ने इन लोगों के साथ कभी समझौता नहीं किया। सन् 1924 में महात्मा गांधी ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए आमरण अनशन शुरू किया। उस वक्त मौलाना ने दिन-रात घूम-घूम कर सभी सम्प्रदायों के लोगो को समझाया और गांधीजी से प्रार्थनी की कि वह अपना अनशन तोड़ दें। उसी तरह गांधीजी ने अपनी हत्या के कुछ ही दिन पहले जब आख़िरी बार जनवरी 1948 में अनशन किया तो राष्ट्रपिता के जीवन को बचाने के लिए मौलाना उसी तरह पागलों की तरह घूमे। यह बिल्कुल सच है कि अपने देश और देशवासियों के प्रति उनके दिल में जो प्रेम और कर्तव्य की भावना थी उसी ने विद्वान आज़ाद को उनके विस्तृत संग्रहालय से बाहर लाकर करोड़ों देशवासियों के बीच खड़ा कर दिया। मौलाना सचमुच ही एक आदित्य इंसान थे। जिस दिन उन्होंने अपने साथियों के साथ बड़े ही महत्वपूर्ण विषयों पर चर्चा की हो, देश के भविष्य को निश्चित करने वाले किसी प्रतिनिधिमंडल का नेतृत्व किया हो या दिनभर कांग्रेस की किसी बैठक के प्रमुख के नाते कार्यवाही को सम्भाला हो, उसी दिन शाम को यहाँ तक की आधी रात में वह अपने आप स्वादिष्ट चाय बनाकर, गम्भीर शैक्षिक कार्य करते हुए या कुछ बेहतर साहित्य की रचना करते हुए या फिर धर्म सम्बन्धी कोई अधूरा लेख पूरा करते हुए दिखाई पड़ते थे। मौलाना का अपने दिमाग पर पूरा-पूरा नियंत्रण था और वह अपने समय का इस्तेमाल बहुत ही बढ़िया तरीके से करना जानते थे।

भारत छोड़ो

8 अगस्त सन् 1942 को रात में अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी (आल इंडिया कांग्रेस कमेटी) की ऐतिहासिक बैठक में मौलाना की अध्यक्षता में अंग्रेज सरकार को 'भारत छोड़ो' के नारे द्वारा भारत छोड़ने के लिए कहा गया। दूसरे दिन बड़े सवेरे देश के महान नेता एक विशेष ट्रेन के डिब्बों में पाए गए। ट्रेन पूना स्टेशन पर रुकी और उसमें से गांधीजी और सरोजिनी नायडू कुछ पुलिस अफसरों के साथ बाहर आये। दोपहर को मौलाना को उनके साथियों के साथ अहमदनगर के ऐतिहासिक क़िले में ले जाया गया। वहाँ से उन्होंने अपने एक दोस्त को लिखा, "सिर्फ नौ महीन पहले ही.....नैनी सेन्ट्रल जेल के दरवाज़े मेरे लिए खोले गए थे (मेरी रिहाई के लिए) और कल 9 अगस्त सन् 1942 के दिन अहमदनगर के पूराने क़िले के नए दरवाज़े मेरे पीछे बंद कर दिए गए।" दूसरे दिन उन्होंने लिखा, "यह छठवाँ अनुभव है...पिछली पाँच बार में मैंने जेलों में कुल मिलाकर सात साल और आठ महीने की अवधि बताई है..... जो मेरी आज तक की तिरप्पन साल की उम्र का सांवता हिस्सा है।" इस बार के कारावास के अंत तक (जुलाई 1945) उन्होंने दस साल और पाँच महीने जेल में ग़ुजारे थे। अहमदनगर के क़िले की जेल एक छोटी और शान्त जगह थी। सभा, चर्चा जलूस और भाषण बिल्कुल भी नहीं थे। मौलाना की प्यारी किताबें भी वहाँ बहुत कम थीं। एक दिन दोपहर को, मौलाना जेल के जिस कमरे में थे वहाँ बहुत सारी चिड़ियाँ जोरों से चहकती हुईं एक कोने से दूसरे कोने तक उड़ने लगीं। सफेद खादी का कुर्ता पजामा पहने मुल्ला की तरह छोटी-सी दाढ़ी वाले मौलाना एक बाँस उठाकर उन चिड़ियों को भगाने लगे। कुछ ही देर में वह बिल्कुल थक गये और हांफते हुए एक पुराने सोफे पर जा गिरे। कुछ पल बीतने के बाद उन्होंने अपनी ऊनी टोपी, शेरवानी और टेबल पर पड़ी हुईं किबावों और काग़ज़ों पर से धूल झाड़ी और फिर पलंग के नीचे झाड़ू लेकर धूल, घास-फूस और चिड़ियों की बीट बुहारने लगे। झाड़ू लगाते हुए वह उर्दू के शेर भी गुनगुनाते रहे। फिर मन ही मन बोले, चलो हम दोस्त बन जाएँ। एक दिन दोपहर के सन्नाटे में वह लिखने में बिल्कुल खोये हुए थें तभी एक चिड़िया आकर हिचकिचाते हुए पहले एक सोफे पर बैठी, फिर फुदक कर उनकी कुर्सी पर जा बैठी और आख़िर में मौलाना के कंधे पर बैठ गई। मौलाना ने बाई आँख के कोने से उस चिड़िया को प्यार से देखा और फिर धीरे से अपनी मुट्ठी खोल दी जिसमें बाजरे के कुछ दाने थे। चिड़िया कूद कर उनकी हथेली के किनारे पर बैठ गई और दाने चुगने लगी। आख़िर मौलाना ने चिड़िया के साथ दोस्ती कर ही ली थी। कुछ महीनों के बाद जेल के अंग्रेज सुपरिन्टेन्डट ने, जो फौजी अफसर था और इस समय वर्दी में था, दरवाज़े पर धीरे से दस्तक दी। "तशरीफ लाइये।" "यह आज का अखबार है, "अफसर बुदबुदाया। "साहब आपके लिए इसमें खास खबर है।" "शुक्रिया, "मौलाना ने उसकी ओर देखे बिना ही नम्रता से मगर भारी आवाज़ में कहा। "मेहरबानी करके अखबार छोड़ जाइये।" अफसर चला गया और भारी क़दमों से चलते हुए मौलाना ने अखबार उठा लिया। अखबार में कुछ पढ़ा और धम्म से सोफे पर बैठ गए। अब वह गहरे सोच में डूबे हुए और कुछ उदास लग रहे थे। कुछ देर बाद, मौलाना जवाहर लाल नेहरू के साथ बड़ी गम्भीरता से बात करते हुए दिखाई दिए। जवाहरलाल ने कुछ कहा और गहरी सोच में खड़े हुए मौलाना ने सिर्फ अपना सिर हिला दिया। "अब कुछ भी हो," मौलाना ने आखिर दृढ़ स्वर में कहा, " अपनी पत्नी से मिलने की खातिर मैं देश के दुश्मनों से रिहाई के लिए भीख नहीं मांगूँगा। जवाहर लाल नज़रे झुकाकर और उदास चेहरा लिए वापस चले गए। मौलाना भारी क़दमों से कमरे में टहलने लगे। कुछ दिनों बाद, जवाहरलाल ने ही मौलाना को यह खबर दी कि उनकी पत्नी जुलैखा की मृत्यु हो गई है। जब जवाहरलाल ने इस बात पर ज़ोर दिया कि कुछ हफ्तों के लिए ही सही, मौलाना को बाहर जाना चाहिए, तो मौलाना न नम्रता से लेकिन दृढ़ स्वर में जवाब दिया, "भाई मेरे, जो सरकार हमें सही मायने में आज़ादी देने से इनकार कर रही है, उससे कुछ हफ्तों के लिए आज़ादी माँगने का कोई फायदा नहीं है।" कुछ देर तक वह रुके और बिल्कुल ही अपने ख्यालों में खोय हुए बोले, "अब अगर खुदा चाहे तो हम जन्नत में मिलेंगे।" बाद में उन्होंन लिखा की वह उस घटना से बिल्कुल ही टूट चुके थे, फिर भी उन्होंने अपने पर नियंत्रण रखा। कुछ समय बाद वह अपनी स्वस्थ और स्वाभाविक स्थिति में आ गये। वह जेल में ही थे कि उनकी प्यारी बड़ी बहन भी चल बसीं। तब उन्होंने लिखा, " जेल में ज्यादातर समय मैंने भारी मानसिक तनाव के बीच गुज़ारा। इससे मेरी तबीयत पर बहुत बुरा असर पड़ा। मेरी गिरफ्तारी के वक्त मेरा वजन 170 पौंड था। जब मुझे बंगाल के बांकुरा जेल में भेज गया तब मेरा वजन कम होकर 130 पौंड रह गया था। मैं बड़ी मुश्किल से ही कुछ खा पाता था।"

चुनौतियाँ

अपनी रिहाई के बार में मौलाना ने लिखा, "हावड़ा स्टेशन पर लोगों का समन्दर उमड़ा हुआ था। हम अभी चलने ही लगे थे कि तभी मैंने देखा कि मेरी कार के आगे मेरी रिहाई की खुशी में बैंड बजने लगा। मुझे यह अच्छा नहीं लगा और मैंने कहा कि यह कोई खुशी का मौका नहीं है....मेरे हज़ारों दोस्त और साथी अभी जेलों में हैं।" जब तीन साल पहले वह कलकत्ते से चले थे उस वक्त की यादें सफर के दौरान उनके मन में ताजा हो गई। उन्होंने लिखा..."मेरी पत्नी फाटक तक मुझे छोड़ने के लिए आई थी। अब मैं तीन साल के बाद लौट रहा हूँ पर वह अपनी कब्र में है और मेरा घर सूना पड़ा है.....मेरी कार में फूलों के हारों के ढेर हैं। उनमें से एक हार उठाकर मैंने उसकी कब्र पर रख दिया और "फातिहा" (प्रार्थना) पढ़ने लगा। एक बार राजनीति में आ जाने के बाद मौलाना ने सारी जिम्मेवारियों और चुनौतियों को स्वीकार कर लिया। तीन बार वह कांग्रेस के अध्यक्ष बने। सन् 1923 में वह कांग्रेस के सबसे युवा अध्यक्ष थे। इसके अलावा सन् 1940 से सन् 1946 तक प्रमुख के नाते अपने आखिरी सत्र के दौरान उन्होंने छः साल से भी लम्बे अर्से तक कांग्रेस का नेतृत्व किया। आज़ादी के पहले के दिनों में कांग्रेस के अध्यक्ष के लिए यह सबसे लम्बी अवधि थी। यही नहीं, कांग्रेस के समूचे इतिहास में यह सबसे ज्यादा कठिनाइयों का समय भी था। मौलाना ने लिखा, "मैंने सोचा कि....मैं अगर फिर से इनकार कर दूँ तो मैं अपने कर्तव्य का पालन नहीं करूँगा......जब गांधीजी ने मुझसे विनती की कि मैं कांग्रेस का अध्यक्ष बनूं तो मैं फौरन ही राजी हो गया।" दूसरा विश्वयुद्ध आरम्भ हो गया था और सबका ऐसा ख्याल था कि देश आज़ादी की दहलीज पर खड़ा है। हमारे देश का उस समय का इतिहास बड़ा ही दिलचस्प है। सन् 1942 में क्रिप्स मिशन भारत की आज़ादी और युद्ध में भारत के सहयोग के बारे में चर्चा करने के लिए भारत आया। मिशन असफल रहा। "भारत छोड़ो" आंदोलन 8 अगस्त सन् 1942 के दिन छेड़ा गया। हज़ारों नर-नारियाँ और सभी बड़े-बड़े नेता जेल गए और बहुत कष्ट झेले। मार्च सन् 1946 को ब्रिटिश कैबिनेट मिशन भारत आया। उस मिशन के एक प्रस्ताव के आधार पर कांग्रेस ने चुनाव लड़ा और केन्द्र में और अधिकतर राज्यों की विधान सभाओं में उसे विजय मिली। अंतरिम सरकार बनाई गई। कांग्रेस के अध्यक्ष ही नहीं, बल्कि एक ब़ड़े राष्ट्रीय नेता होने के कारण मौलाना ने बड़े जोश के साथ काम किया और दूसरे नेताओं के साथ मिलकर एक बड़े ही मुश्किल समय में देश का नेतृत्व किया। वास्वत में, कांग्रेस के लोग चाहते थे कि वह अगले सत्र के लिए भी कांग्रेस के अध्यक्ष रहें। लेकिन उन्होंने उस पद के लिए जवाहर लाल नेहरू का नाम सुझाया। नेहरू जी के शब्दों में, "कांग्रेस के इतिहास में और भारत के इतिहास में भी बहुत कम लोग यह जानते हैं कि कांग्रेस के प्रस्ताव और नीतियों को बनाने में कोग्रेस के प्रमुख के रूप में या कार्यकारी समिति के सदस्य के रूप में उन्होंने कितना महत्वपूर्ण कार्य किया है। कांग्रेस के नेताओं में मौलाना को उनकी अन्य महान विशेषता के लिए भी याद किया जाता था। जब कभी भी कांग्रेसियों के बीच मतभेद हो जाते थे। तब मौलाना ही उन्हें फिर से एक करते थे क्योंकि सब लोग उनका आदर करते थे। बहुत सालों से मौलाना यह चाह रहे थे कि वह अपने जीवन के आख़िरी साल शान्ति में बिताएँ ताकि विद्या के क्षेत्र में अपना सबसे प्यारा काम कर सकें। अहमदनगर जेल से बाहर आने पर नेहरू जी ने भी मौलाना से उनके प्रमुख होने के नाते यह प्रार्थना की कि तुरन्त कांग्रेस की कोई मीटिंग न बुलाई जाए। क्योंकि वह भी कुछ आराम चाहते थे और एक किताब लिखने का काम भी पूरा करना चाहते थे। लेकिन मौलाना ने लिखा, "उस वक्त मुझे यह मालूम नहीं था कि हमको रिहा किया जाएगा....और (तब तो) शायद हमारे जीवन के आख़िरी पल तक हमको आराम का सवाल ही नहीं उठेगा।" कुछ ही दिनों के बाद जवाहरलाल नेहरू और मौलाना को ऐतिहासिक शिमला कान्फ्रेंस में भाग लेने के लिए दौड़ना पड़ा। मौलाना के डाक्टर ने प्रार्थना की कि कान्फ्रेंस दो हफ्ते तक स्थगित कर दी जाये। लेकिन मौलाना इसके लिए राजी नहीं हुए। मौलाना की हालत देखकर वाइसराय लार्ड वेवल ने इन्हें वाइसरीगल इस्टेट में ही एक मकान में ठहराया और उनकी देखभाल के लिए अपने निजी स्टाफ के कुछ लोगों को तैनात किया। कर्तव्य पूरा करने की निष्ठा के बारे में मौलाना ने एक दोस्त को लिखा, "यदि कोई आदमी फौज में भर्ती होने से इन्कार कर दे तो यह कोई ग़ुनाह नहीं है। लेकिन सिपाही बनने के बाद युद्ध के मैदान से भाग निकलना--इसके लिए तो सिवाह मौत के और कोई सजा हो ही नहीं सकती है।" इसमें कोई शक नहीं है कि मौलाना हमारे स्वाधीनता संग्राम के सबसे बहादुर सिपाहियों में से एक थे।

स्वतंत्रता प्राप्ति

15 अगस्त सन् 1947 के दिन भारत को आज़ादी मिली। गांधीजी, नेहरूजी, सरदार पटेल, मौलाना आज़ार और दूसरे नेताओं ने उस आज़ादी का भारी मन से स्वागत किया क्योंकि अखंड भारत का उनका सपना साकार नहीं हुआ था। देश का बंटवारा हो गया। लेकिन चैन की साँस लिए बिना वे सब फौरन ही आधुनिक भारत के निर्माण के काम में जुट गये। करोड़ों के प्यारे नेता और हमारे प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाला नेहरू ने कहा, "मध्यरात्रि के ठीक बारह बजे......भारत के जीवन का, उसकी आज़ादी के युग का आरम्भ होगा......इस पवित्र क्षण में हम सब यह प्रतिज्ञा करते हैं कि भारत और उसकी जनता की सेवा में हम अपने को समर्पित कर देंगे......और इसलिए अपने सपनों को वास्वतिक रूप देने के लिए हमें और मेहनत करनी है और काम करना है।" ख़राब स्वास्थ्य और कलम और किताबों की दुनिया में लौटने की इच्छा के बावजूद मौलाना ने नई जिम्मेदारियाँ भी सम्भाल लीं। भारत सरकार के शिक्षा, सभ्यता और कला मंत्रालय के प्रथम मंत्री की हैसियत से वह शिक्षा का इस तरह प्रचार करना चाहते थे जिससे भारत के लोगों में एक नई मनोवृत्ति पैदा हो सके। उन्होंने सिर्फ शालाएँ, कालेज और महाविद्यालयों की ही नहीं, बल्कि साहित्य अकादमी, संगीत नाटक अकादमी और ललित कला अकादमी जैसी महान संस्थाओं की भी स्थापना की ताकि भारत की महान संस्कृति को नया जीवन मिल सके। आख़िरी दिन तक वह जवाहरलाल नेहरू के सबसे निकटतम मित्र और साथी बने रहे। वह उनके सबसे विश्वनीय सलाहकार और समर्थक भी थे। 22 फरवरी सन् 1958 को हमारे राष्ट्रीय नेता अल्बम का यह रंगीन पन्ना बन्द हो गया। भिन्न-भिन्न—धार्मिक नेता, लेखक, पत्रकार, कवि, व्याख्याता, राजनीति और प्रशासन में काम करने वाले—भारत के इस महान सपूत को अपने-अपने ढंग से याद करते रहेंगे। इन सबसे बढ़कर मौलाना आज़ाद धार्मिक वृत्ति के व्यक्ति होते हुए भी सही अर्थों में भारत की धर्मनिरपेक्ष सभ्यता के प्रतिनिधि थे।