यान
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यान का शाब्दिक अर्थ है, जिससे जाया जाय। इस दृष्टि से गन्तव्य मार्ग और यात्रा का साधन (सवारी)- ये दो अर्थ सम्भव होते हैं। प्रथम अर्थ में 'यान' शब्द का वैदिक साहित्य में प्रयोग मिलता है, जैसे देवयान और पितृयान।[1]
यान शाब्द का प्रयोग
प्रारम्भ में इस शब्द से मार्ग का ही अर्थ लिया जाता है। यात्रा के साधन- सवारी के अर्थ में यह शब्द पालि निकायों में प्रयुक्त हुआ है। पालि निकायों और पालि संयुक्तागम के चीनी अनुवाद में एकयान, ब्रह्मयान, धम्मयान, विनययान, देवयान और सद्धर्म-विनययान का उल्लेख है। संयुक्तनिकाय में 'यान' शब्द का सवारी के अर्थ में रूपक के साथ वर्णन मिलता है। इस प्रकार इससे वहाँ तत्त्व के प्रापक मार्गपर व्यक्ति को अग्रसर करने वाले साधन का अर्थ द्योतित होता है। बौद्ध धर्म के इतिहास में, निकायों के उपरान्त, सर्वप्रथम महासांघिकों ने इस शब्द का प्रयोग किया। अपने विपक्षी स्थविरों की हीनता प्रदर्शित करने के लिए उन्होंने द्वियान, त्रियान, श्रावकयान, अर्हत्यान और अन्त में हीनयान तथा अपने सिद्धान्तों का गौरव दिखाने के लिए स्वयं के लिए एक यान, अनुत्तरयान, बुद्धयान, बोधिसत्वयान और अन्त में महायान शब्द का प्रयोग किया। इससे यान का तात्पर्य निश्चित ही निर्वाण का प्रापक लोकोत्तर मार्ग और साधन ही रहा। नागार्जुन, ज्ञानविधि तथा अन्य वज्रयान आचार्यों ने यान का इसी अर्थ में प्रयोग किया है। आज जो अर्थ 'पंथ' शब्द (जैसे- कबीर पंथ, दादू पंथ) से लिया जाता है, लगभग वही अर्थ यान शब्द से भी लिया जाता है।
हीनयान और महायान
बौद्ध धर्म के ये दो प्रमुख यान हैं।[2] ये ही प्रारम्भिक यान थे। बाद में महायान के दार्शनिक सम्प्रदायों का विकास हुआ। योगाचार और माध्यमिक और तन्तों के प्रभाव से, साधन-प्रधान यानों- वज्रयान, मन्त्रयान, कालचक्रयान और सहजयान का उदय हुआ। शून्य या शून्यता के विश्लेषण और व्याख्यान को इन यानों ने प्रमुखता दी और शून्यता को वज्र, तथा प्रज्ञा, इड़ा, वाम, प्रभृति संकेतात्मक शब्दों से (वज्रयान) या सहज, महासुख और निरंजन जैसे प्रतीकात्मक संकेतों से बताया। इन यानों का साहित्य संस्कृत, संकर संस्कृत और अपभ्रंश में सुरक्षित है।
साहित्य में यान
इन यानों की प्रमुख विचारधाराओं के प्रभाव से ही सिद्ध साहित्य का उदय हुआ, जो अधिकांशत: अपभ्रंश में लिखा गया। सिद्ध-साहित्य का उदय हुआ, जो अधिकांशत अपभ्रंश में लिखा गया। सिद्ध-साहित्य का पर्याप्त अंश केवल भोटभाषीय अनुवादों में ही सुरक्षित है, जो तिब्बती 'कंजूर' में संगृहीत है। अपभ्रंश में प्राप्त सिद्धों का साहित्य हिन्दी के विकास की एक महत्त्वपूर्ण रेखा प्रस्तुत करता है। अपभ्रंश से ही हिन्दी का वर्तमान स्वरूप विकसित हुआ है। सिद्धों के 'दोहकोश' और चर्यागीतियों का इस दृष्टि से विचारणीय महत्त्व है। सिद्ध-साहित्य की प्राप्ति के पूर्व हिन्दी साहित्य का प्रारम्भ दसवीं शताब्दी से माना जाता था, परन्तु अब ईसा की सातवीं-आंठवीं शताब्दी से ही माना जाने लगा है। सिद्ध लोक-प्रचलित रीतियों, सहज-मार्ग और तान्त्रिक साधना से प्रभावित थे और उन्होंने अपने समय की प्रचलित लोकभाषा, जो सम्भवत अपभ्रंश थी, में ही रचनाएँ कीं। इनमें सरहपा, लुईपा, शान्तिपा, तिलोपा, शबरपा, वीरूपा प्रभृति के नाम उल्लेखनीय हैं।[3]
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ऋ. सं., 1:16:4, 10:110:2,को. उ. 1:3, मु. उ. 3:1:6, छा. उ. 5:10:2, प्रश्न. 1:9
- ↑ देखे- हीनयान, महायान
- ↑ सहायक ग्रन्थ- हरप्रसाद शास्त्री: चिप्स् फ्राम बुद्धिस्ट वर्क शाप; शिशिरदास गुप्त: इण्ट्रोउक्शन टु तान्त्रिक बुद्धिज्म; नागेन्द्रनाथ उपाध्याय: तान्त्रिक बौद्ध साधना और साहित्य; राहुल : हिन्दी काव्यधारा ; दोहा-कोश। -- क. शु.
बाहरी कड़ियाँ
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