भारत में यूरोपीय व्यापार का प्रारम्भ

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भारत में यूरोप से विदेशियों का आगमल प्राचीन काल से ही हो रहा था। यहाँ की व्यापारिक सम्पदा से आकर्षित होकर समय-समय पर अनेक यूरोपीय जातियों का आगमन होता रहा। 15वीं शताब्दी में हुई भौगोलिक खोजों ने संसार के विभिन्न देशों में आपसी सम्पर्क स्थापित कर लिया। इसी प्रयास के अन्तर्गत कोलम्बस स्पेन से भारत के समुद्री मार्ग की खोज में निकला और चलकर अमेरिका पहुँच गया। 'बार्थोलेम्यू डायज' 1487 ई. में 'आशा अन्तरीप' पहुँचा। 17 मई, 1498 को वास्कोडिगामा ने भारत के पश्चिमी तट पर स्थित बन्दरगाह कालीकट पहुँच कर भारत के नये समुद्र मार्ग की खोज की। कालीकट के तत्कालीन शासक जमोरिन ने वास्कोडिगामा का स्वागत किया। जमोरिन का यह व्यापार उस समय भारतीय व्यापार पर अधिकार जमाये हुए अरब के व्यापारियों को पसन्द नहीं आया।

पुर्तग़ालियों का आगमन

आधुनिक काल में भारत आने वाले यूरोपीय के रूप के पुर्तग़ाली सर्वप्रथम रहे। पोप अलेक्जेण्डर षष्ठ ने एक आज्ञा पत्र द्वारा पूर्वी समुद्रों में पुर्तग़ालियों को व्यापार करने का एकाधिकार प्रदान कर दिया। प्रथम पुर्तग़ीज तथा प्रथम यूरोपीय यात्री वास्कोडिगामा 90 दिन की समुद्री यात्रा के बाद 'अब्दुल मनीक' नामक गुजरात के पथ प्रदर्शक की सहायता से 1498 ई. में कालीकट (भारत) के समुद्री तट पर उतरा।

वास्कोडिगामा के भारत आगमन से पुर्तग़ालियों एवं भारत के मध्य व्यापार के क्षेत्र में एक नये युग का शुभारम्भ हुआ। वास्कोडिगामा के भारत आने से और भी पुर्तग़ालियों का भारत आने का क्रम जारी हो गया। पुर्तग़ालियों के भारत आने के दो प्रमुख उद्देश्य थे-

  1. अरबों और वेनिस के व्यापारियों का भारत से प्रभाव समाप्त करना।
  2. भारत में ईसाई धर्म का प्रचार करना।

दुर्ग की स्थापना

9 मार्च, 1500 को 13 जहाज़ों के एक बेड़े का नायक बनकर 'पेड्रों अल्वारेज केब्राल' जलमार्ग द्वारा लिस्बन से भारत के लिए रवाना हुआ। वास्कोडिगामा के बाद भारत आने वाला यह दूसरा पुर्तग़ाली यात्री था। पुर्तग़ाली व्यापारियों ने भारत में कालीकट, गोवा, दमन, दीव एवं हुगली के बंदरगाहों में अपनी व्यापारिक कोठियाँ स्थापित कीं। पूर्वी जगत के काली मिर्च और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त करने के उद्देश्य से पुर्तग़ालियों ने 1503 ई. में कोचीन (भारत) में अपने पहले दुर्ग की स्थापना की।

1505 ई. में 'फ़्राँसिस्कों द अल्मेड़ा' भारत में प्रथम पुर्तग़ाली वायसराय बन कर आया। उसने सामुद्रिक नीति[1] को अधिक महत्व दिया तथा हिन्द महासागर में पुर्तग़ालियों की स्थिति को मजबूत करने का प्रयत्न किया। 1509 में अल्मेड़ा ने मिस्र, तुर्की और गुजरात की संयुक्त सेना को पराजित कर दीव पर अधिकार कर लिया। इस सफलता के बाद हिन्द महासागर पुर्तग़ाली सागर के रूप में परिवर्तित हो गया। अल्मेड़ा 1509 ई. तक भारत में रहा।

राज्य विस्तार

अल्मेड़ा के बाद अलफ़ांसों द अल्बुकर्क 1509 ई. में पुर्तग़ालियों का वायसराय बनकर भारत आया। इसे भारत में पुर्तग़ाली शक्ति का वास्तविक संस्थापक माना जाता है। यह भारत में दूसरा पुर्तग़ाली गर्वनर था। उसने कोचीन को अपना मुख्यालय बनाया। अल्बुकर्क के गोवा का अधिकार करने से पूर्व एक 'तिमैथा' नामक हिन्दू ने अल्बुकर्क को अत्यंत महत्वपूर्ण सलाह देकर प्रोत्साहित किया था, जिसके बाद 1510 ई. में उसने बीजापुर के शासक यूसुफ़ आदिलशाह से गोवा को छीन कर अपने अधिकार में कर लिया। गोवा के अलावा अल्बुकर्क ने 1511 में मलक्का (दक्षिण पूर्व एशिया) और 1515 में फ़ारस की खाड़ी में स्थित हरमुज पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार दमन और दीव, सालसेट, बसीन, चोल, मुम्बई, हुगली तथा सेन्ट थोमे पर पुर्तग़ालियों का अधिकार हो गया। पुर्तग़ालियों की आबादी को बढ़ाने के उद्देश्य से अलफ़ांसों द अल्बुकर्क ने भारतीय स्त्रियों से विवाह को प्रोत्साहन दिया। उसने अपनी सेना में भारतीयों को भर्ती किया। 1515 में अलबुकर्क की मृत्यु हो गई। उसे गोवा में दफ़ना दिया गया।

अल्बुकर्क के बाद नीनो-डी-कुन्हा अगला पुर्तग़ीज गर्वनर बनकर भारत आया। 1530 में उसने अपना कार्यालय कोचीन से गोवा स्थानान्तित किया और गोवा को पुर्तग़ाल राज्य की औपचारिक राजधानी बनाया। कुन्हा ने 'सैन्थोमी' (चेन्नई), 'हुगली' (बंगाल) तथा 'दीव' (काठमाण्डू) मे पुर्तग़ीज बस्तियों को स्थापित कर भारत में पूर्वी समुद्र तट की ओर पुर्तग़ाली वाणिज्य का विस्तार किया। उसने 1534 ई. में बसीन और 1535 में दीव पर अधिकार किया। नीनो-डी-कुन्हा के बाद जोवा-डी-कैस्ट्रों भारत का अगला पुर्तग़ाली गर्वनर नियुक्त हुआ। 1518 ई. में पुर्तग़ालियों ने कोलम्बा में और फिर मलक्का में कारखानों की स्थापना की। गोवा को पुर्तग़ालियों ने अपनी सत्ता और संस्कृति के महत्वपूर्ण केन्द्र के रूप में स्थापित किया। 1559 ई. तक पुर्तग़ालियों ने गोवा, दमन, दीव, सालसेट, बसीन, चैल, मुम्बई, सान्थोमी और हुगली पर अपना अधिकार कर लिया। पुर्तग़ाली पड़ोसी राज्यों में भारतीयों को ही राजदूत और जासूस बनाकर भेजते थे। इन्हें भी देखें: अल्बुकर्क एवं नीनो-डी-कुन्हा

तुर्की आक्रमण
वर्ष आक्रांता स्थान
1529 ई. सुलेमान रईस गुजरात तट पर
1538 ई. सुलेमान पाशा दीव पर
1551 ई. पेरी रईस मस्कट एवं भुज पर
1554 ई. अली रईस पश्चिमी समुद्र तट पर

डचों तथा अंग्रेज़ों का प्रभाव

अपनी शक्ति के विस्तार के साथ ही पुर्तग़ालियों ने भारतीय राजनीति में भी हस्तक्षेप करना प्रारम्भ कर लिया। इसका स्वाभाविक परिणाम यह हुआ कि वे कालीकट के राजा से, जिसकी समृद्धि अरब सौदागरों पर निर्भर थी, शत्रुता रखने लगे। वे कालीकट के राजा के शत्रुओं से, जिनमें कोचीन का राजा प्रमुख था, संधियाँ करने लगे। भारत में पुर्तग़ालियों ने सबसे पहले प्रवेश किया, लेकिन अठाहरवी सदी तक आते-आते भारतीय व्यापार के क्षेत्र में उनका प्रभाव जाता रहा। उनके पतन के महत्वपूर्ण कारणों में उनकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति, अल्बुकर्क के अयोग्य उत्तराधिकारी, डच तथा अंग्रेज़ शक्तियों का विरोध, बर्बरतापूर्वक समुद्री लूटमार की नीति का पालन, स्पेन द्वारा पुर्तग़ाल की स्वतन्त्रता का हरण, विजयनगर साम्राज्य का विध्वंस आदि को गिनाया जाता हे। उनकी धार्मिक असहिष्णुता की नीति से भारतीय शक्तियाँ रुष्ट हो गयीं। जिन पर पुर्तग़ाली विजय नहीं प्राप्त कर सके। पुर्तग़ालियों को चुपके-चुपके व्यापार करना अन्त में उन्हीं के लिए घातक सिद्ध हुआ। ब्राजील का पता लग जाने पर पुर्तग़ाल की उपनिवेश संबंधी क्रियाशीलता पश्चिम की ओर उन्मुख हो गयी। अंततः उनके पीछे आने वाली यूरोपीय कंपनियों से उनकी प्रतिद्वंदिता हुई, जिसमें वे पिछड़ गये। अधिकांश भाग उनके हाथ से निकल गए।

पुर्तग़ालियों का पतन

डच और ब्रिटिश कम्पनियों के हिन्द महासागर में आ जाने से पुर्तग़ालियों का पतन होने लगा और उनका एकाधिकार समाप्त हो गया। 1538 ई. में अदन पर तुर्की का अधिकार हो गया। 1602 ई. में डचों ने वाण्टम के समीप पुर्तग़ाली बेड़े पर आक्रमण कर उसे पराजित कर दिया। 1641 ई. में डचों ने पुर्तग़ालियों के महत्वपूर्ण मलक्का दुर्ग को जीत लिया। 1628 ई. में फ़ारस की सेना की सहायता से अंग्रेज़ों ने हरमुज पर क़ब्ज़ा कर लिया तथा मराठों ने 1739 ई. में सालसेट और बसीन पर अधिकार कर लिया। 1661 ई. तक केवल गोवा, दमन और दीव ही पुर्तग़ालियों के अधिकार में रह गया।

हिन्द महासागर और दक्षिणी तट पर पुर्तग़ालियों के प्रभुत्व के लिए निम्नलिखित दो कारण जिम्मेदार थे-

  1. एशियाई जहाज़ों की तुलना में पुर्तग़ाली नौसेना का अधिक होना।
  2. सामजिक एवं व्यापारिक दृष्टिकोण से स्थापित महत्वपूर्ण व्यापारिक बस्तियों तथा स्थानीय लोगों का सहयोग प्राप्त करना।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. नीले पानी की नीति

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