उपनिषद ब्राह्मण
उपनिषद-ब्राह्मण का नामान्तर छान्दोग्य-ब्राह्मण भी है। इसमें 10 प्रपाठक हैं। इसी नाम से दुर्गामोहन भट्टाचार्य ने इसे सम्पादित कर कलकत्ता से प्रकाशित कराया है। प्रथम दो प्रपाठकों में गृह्यकृत्यों में विनियुक्त मन्त्र संकलित है। इसीलिए सौविध्यवश इस अंश को मन्त्रब्राह्मण या मन्त्र-पर्व भी कह दिया जाता है। शेष आठ प्रपाठक छान्दोग्य उपनिषद कहलाते हैं। मन्त्र और उपनिषद दोनों ही अंशों को मिलाकर सम्पूर्ण ग्रन्थ 'उपनिषद-ब्राह्मण' के रूप में प्रसिद्ध रहा है, जैसा कि कतिपय हस्तलेखों की पुष्पिकाओं में कहा गया है।[1] तात्पर्य यह है कि इस ब्राह्मण के दोनों भागों कर्मकाण्डपरक मन्त्रभाग और उपनिषदंश- को मिलाकर एक पूर्ण ग्रन्थ बन जाता है। मन्त्र-ब्राह्मण का ही दूसरा नाम छान्दोग्य-ब्राह्मण नहीं है जैसा कि कतिपय विद्वानों ने कहा है।
छान्दोग्य ब्राह्मण में कुल 268 गृह्यमन्त्र हैं। ये सभी मन्त्र गोभिल और खादिर गृह्यसूत्रों के अन्तर्गत विभिन्न गृह्यकृत्यों में विनियुक्त हैं। छान्दोग्य ब्राह्मण का मन्त्र-क्रम गृह्यसूत्र के क्रम का अनुगामी है। गोभिल और खादिर दोनों ही सूत्रकार प्राय: गृह्यकृत्य का वर्णन करके पठनीय मन्त्र के लिए छान्दोग्य ब्राह्मण का सन्दर्भ दे देते हैं। छान्दोग्य ब्राह्मण के साथ सूत्रग्रन्थों की निकटता के आधार पर प्रो. नॉयेर (Knauer) ने मत व्यक्त किया है कि गोभिलगृह्यसूत्र छान्दोग्य ब्राह्मण पर आधृत है।[2] विण्टरनित्स ने भी इससे सहमति प्रकट की है, किन्तु ओल्डेन वर्ग का विचार है कि छान्दोग्य ब्राह्मण और गोभिल ग्गृह्यसूत्र दोनों ही ग्रन्थ किसी समानान्तर योजना के अन्तर्गत रचित हैं।[3] खादिर गृह्यसूत्र में भाष्यकार रुद्रस्कन्द ने 'अथातो गृह्यकर्माणि' के विषय में कहा है कि यह किसी पूर्ववर्ती वैदिकग्रन्थ का द्योतक है, जिसमें 'देव सवित:' मन्त्र संकलित था- 'अथ अनन्तरम्। कस्मात् अनन्तरम्। 'देव सवित', इत्यादि मन्त्रवत् शाखाध्ययनात्।' यहाँ स्पष्टरूप से छान्दोग्य ब्राह्मण का सन्दर्भ निहित है, क्योंकि उसी का प्रारम्भ 'देव सवित:' मन्त्र से है।
छान्दोग्य ब्राह्मण पर दो व्याख्याएँ हैं- गुणविष्णुकृत 'छान्दोग्य-मन्त्र-भाष्य' तथा सायण-कृत 'वेदार्थप्रकाश'। गुणविष्णु सायण से पूर्ववर्ती हैं। छान्दोग्य ब्राह्मण में मन्त्र-भाग के अतिरिक्त आठ प्रपाठकों अथवा अध्यायों में सुप्रसिद्ध छान्दोग्योपनिषद है।[4] छान्दोग्य उपनिषद और केनोपनिषद के शान्तिपाठ एक हैं, इस आधार पर कतिपय अध्येताओं ने इसे तवलकार शाखीय बतलाया है।[5] किन्तु यह पूर्णतया कौथुमशाखीय है, क्योंकि शंकराचार्य ने इसे 'ताण्डिनामुपनिषद' के रूप में ही उद्धृत किया है। छान्दोग्य उपनिषद की वर्णन शैली अत्यन्त क्रमबद्ध और युक्ति युक्ति है। इसमें तत्त्वज्ञान और तदुपयोगी कर्म तथा उपासनाओं का विशद वर्णन है। शंकराचार्य ने इस पर भाष्य प्रणयन किया है, जिसके कारण इसका महत्त्व स्वयमेव स्पष्ट है। उपनिषद के प्रथम पाँच अध्यायों में विभिन्न उपासनाओं का मुख्यतया वर्णन है और अन्तिम तीन अध्यायों में तत्त्वज्ञान का इसमें अनेक महत्त्वपूर्ण आख्यान और उपाख्यान आये हैं, यथा- शिलक, दाल्भ्य और प्रवाहण का संवाद, उपस्ति, शौवसाम, राजा जानश्रुति और रैक्व, सत्यकाम तथा केकय अश्वपति के आख्यान। साम-गान की दार्शनिक अधिष्ठान पर व्याख्या करते हुए ऊंकार तथा साम के निगूढ स्वरूप का विवेचन किया गया है। शौव उद्गीथ में भौतिक प्रयोजनों से प्रेरित होकर यज्ञानुष्ठान और साम-गान करने वालों पर व्यंग्य किया गया है। इसमें संभवत: सामविधान ब्राह्मण और षडविंश ब्राह्मण के अद्भुत शान्तिप्रकरण में विहित विभिन्न अभिचार और काम्यकर्मों की ओर संकेत है। उपनिषदंश पर शांकरभाष्य के अतिरिक्त आनन्द तीर्थ आदि के भाष्य भी उपलब्ध हैं।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ इत्युपनिषदब्राह्मणे मन्त्राध्यायस्य कर्मकाण्डे द्वितीय: प्रपाठक:।
- ↑ दास गोमिलगृह्य सूत्र, त्स्वाइटेस हेफ्ट, पृ. 22-43; वेदिशे फ्रागेन इनफास्टगुस एन राथ, पृ. 61
- ↑ छान्दोग्य उपनिषद के विषय में आगे 'उपनिषत्-साहित्य' में देखें।
- ↑ आपस्तम्ब मन्त्रपाठ, एनेक्डोटा ओक्सोनिन्सीया (Inecdota Oxoniensia,) पृ. 31
- ↑ द्रष्टव्य, गीताप्रेस, गोरखपुर के संस्करण की प्रस्तावना।
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