आनंद बख़्शी
आनंद बख़्शी
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पूरा नाम | आनंद प्रकाश बख़्शी आनंद बख़्शी |
प्रसिद्ध नाम | आनंद बख़्शी |
अन्य नाम | 'नंद' और 'नंदो' |
जन्म | 21 जुलाई, 1930 |
जन्म भूमि | रावलपिंडी, पाकिस्तान |
मृत्यु | 30 मार्च, 2002 |
मृत्यु स्थान | मुम्बई, भारत |
कर्म-क्षेत्र | कवि, गीतकार |
मुख्य रचनाएँ | 'बड़ा नटखट है किशन कन्हैया', 'सावन का महीना पवन कर शोर..', 'कुछ तो लोग कहेंगे', 'चांद सी महबूबा हो मेरी...', 'परदेसियों से न अंखियां मिलाना..', 'इश्क बिना क्या जीना' आदि |
मुख्य फ़िल्में | 'कटी पतंग (1970)', 'बॉबी (1973)', 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम् (1978)', 'अमर अकबर एन्थॉनी (1977)', 'इक दूजे के लिए (1981)' , 'हीरो (1983)', 'कर्मा (1986)', 'राम-लखन (1989)', 'खलनायक (1993)', 'ताल (1999)', 'यादें (2001) आदि |
पुरस्कार-उपाधि | चार बार फ़िल्मफ़ेयर पुरस्कार |
नागरिकता | भारतीय |
आनंद बख़्शी (अंग्रेज़ी: Anand Bakshi, जन्म- 21 जुलाई 1930 ; मृत्यु- 30 मार्च 2002) एक लोकप्रिय भारतीय कवि और गीतकार थे।
जीवन परिचय
आनंद बख़्शी का जन्म पाकिस्तान के रावलपिंडी शहर में 21 जुलाई 1930 को हुआ था। आनंद बख़्शी को उनके रिश्तेदार प्यार से नंद या नंदू कहकर पुकारते थे। बख़्शी उनके परिवार का उपनाम था, जबकि उनके परिजनों ने उनका नाम 'आनंद प्रकाश' रखा था, लेकिन फ़िल्मी दुनिया में आने के बाद 'आनंद बख़्शी' के नाम से उनकी पहचान बनी। आनंद बख़्शी के दादाजी सुघरमल वैद बख़्शी रावलपिण्डी में ब्रिटिश राज के दौरान सुपरिंटेंडेण्ट ऑफ़ पुलिस थे। उनके पिता मोहन लाल वैद बख़्शी रावलपिण्डी में एक बैंक मैनेजर थे, और जिन्होंने देश विभाजन के बाद भारतीय सेना को सेवा प्रदान की। नेवी में बतौर सिपाही उनका कोड नाम था 'आज़ाद'। आनंद बख़्शी ने केवल 10 वर्ष की आयु में अपनी माँ सुमित्रा को खो दिया और अपनी पूरी ज़िंदगी मातृ प्रेम के पिपासु रह गए। उनकी सौतेली माँ ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। इस तरह से आनंद अपनी दादीमाँ के और करीब हो गए। आनंद बख़्शी साहब ने अपनी माँ के प्यार को सलाम करते हुए कई गानें भी लिखे जैसे कि "माँ तुझे सलाम" (खलनायक), "माँ मुझे अपने आंचल में छुपा ले" (छोटा भाई), "तू कितनी भोली है" (राजा और रंक) और "मैंने माँ को देखा है" (मस्ताना)।
पहली फ़िल्म
'मोम की गुड़िया' सन् 1972 की फ़िल्म थी। यह मोहन कुमार की फ़िल्म थी जिसमें मुख्य कलाकार थे रतन चोपड़ा और तनूजा। यह कम बजट की फ़िल्म थी, जिसमें संगीतकार थे लक्ष्मीकांत प्यारेलाल। यही वह फ़िल्म थी जिसमें पहली बार आनंद बख़्शी को गीत गाने का मौका मिला था। एक बार मोहन कुमार ने बख़्शी साहब को एक चैरिटी फ़ंक्शन में गाते हुए सुन लिया था। उसके बाद उन्होंने लक्ष्मीकांत प्यारेलाल को राज़ी करवाया कि वो कम से कम एक गीत बख़्शी साहब से गवाए 'मोम की गुड़िया' में। और इस तरह से बख़्शी साहब ने एक एकल गीत गाया "मैं ढूंढ रहा था सपनों में"। यह गीत सब को इतनी पसंद आया कि मोहन कुमार ने सब को आश्चर्य चकित करते हुए घोषणा कर दी कि आनंद बख़्शी एक डुएट भी गाएँगे लता मंगेशकर के साथ। और इस तरह से बना "बाग़ों में बहार आई"। इस गीत के रिकार्डिंग के बाद बख़्शी साहब ने उनके साथ युगल गीत गाने के लिए लता जी को फूलों का एक गुलदस्ता उपहार में दिया। फ़िल्म के ना चलने से ये गानें भी ज़्यादा सुनाई नहीं दिए, लेकिन इस युगल गीत को आनंद बख़्शी पर केन्द्रित हर कार्यक्रम में शामिल किया जाता है।
गीतकार के रूप में
आनंद बख़्शी बचपन से ही फ़िल्मों में काम करके शोहरत की बुंलदियों तक पहुंचने का सपना देखा करते थे, लेकिन लोगों के मज़ाक उड़ाने के डर से उन्होंने अपनी यह मंशा कभी ज़ाहिर नहीं की थी। वह फ़िल्मी दुनिया में गायक के रूप में अपनी पहचान बनाना चाहते थे। आनंद बख़्शी अपने सपने को पूरा करने के लिए 14 वर्ष की उम्र में ही घर से भागकर फ़िल्म नगरी मुंबई आ गए, जहाँ उन्होंने 'रॉयल इंडियन नेवी' में कैडेट के तौर पर 2 वर्ष तक काम किया। किसी विवाद के कारण उन्हें वह नौकरी छोड़नी पड़ी। इसके बाद 1947 से 1956 तक उन्होंने 'भारतीय सेना' में भी नौकरी की। बचपन से ही मज़बूत इरादे वाले आनंद बख़्शी अपने सपनों को साकार करने के लिए नए जोश के साथ फिर मुंबई पहुंचे, जहाँ उनकी मुलाकात उस जमाने के मशहूर अभिनेता भगवान दादा से हुई। शायद नियति को यही मंजूर था कि आनंद बख़्शी गीतकार ही बने।
भगवान दादा ने उन्हें अपनी फ़िल्म 'बड़ा आदमी' में गीतकार के रूप में काम करने का मौक़ा दिया। इस फ़िल्म के जरिए वह पहचान बनाने में भले ही सफल नहीं हो पाए, लेकिन एक गीतकार के रूप में उनके सिने कॅरियर का सफर शुरू हो गया। अपने वजूद को तलाशते आनंद बख़्शी को लगभग सात वर्ष तक फ़िल्म इंडस्ट्री में संघर्ष करना पड़ा। वर्ष 1965 में 'जब जब फूल खिले' प्रदर्शित हुई तो उन्हें उनके गाने 'परदेसियों से न अंखियां मिलाना..', 'ये समां समां है ये प्यार का..', 'एक था गुल और एक थी बुलबुल..' सुपरहिट रहे और गीतकार के रुप में उनकी पहचान बन गई। इसी वर्ष फ़िल्म 'हिमालय की गोद में' उनके गीत 'चांद सी महबूबा हो मेरी कब ऐसा मैंने सोचा था..' को भी लोगों ने काफ़ी पसंद किया। वर्ष 1967 में प्रदर्शित सुनील दत्त और नूतन अभिनीत फ़िल्म 'मिलन' के गाने 'सावन का महीना पवन कर शोर..', 'युग युग तक हम गीत मिलन के गाते रहेंगे..', 'राम करे ऐसा हो जाए..' जैसे सदाबहार गानों के जरिए उन्होंने गीतकार के रूप में नई ऊंचाइयों को छू लिया। चार दशक तक फ़िल्मी गीतों के बेताज बादशाह रहे आनंद बख़्शी ने 550 से भी ज़्यादा फ़िल्मों में लगभग 4000 गीत लिखे।
प्रसिद्ध गीत
यह सुनहरा दौर था जब गीतकार आनन्द बख़्शी ने संगीतकार लक्ष्मीकांत-प्यारेलाल के साथ काम करते हुए 'फ़र्ज़ (1967)', 'दो रास्ते (1969)', 'बॉबी (1973'), 'अमर अकबर एन्थॉनी (1977)', 'इक दूजे के लिए (1981)' और राहुल देव बर्मन के साथ 'कटी पतंग (1970)', 'अमर प्रेम (1971)', हरे रामा हरे कृष्णा (1971)' और 'लव स्टोरी (1981)' फ़िल्मों में अमर गीत दिये। फ़िल्म 'अमर प्रेम' (1971) के 'बड़ा नटखट है किशन कन्हैया', 'कुछ तो लोग कहेंगे', 'ये क्या हुआ', और 'रैना बीती जाये' जैसे उत्कृष्ट गीत हर दिल में धड़कते हैं और सुनने वाले के दिल की सदा में बसते हैं। अगर फ़िल्म निर्माताओं के साक्षेप चर्चा की जाये तो राज कपूर के लिए 'बॉबी (1973)', 'सत्यम् शिवम् सुन्दरम् (1978)'; सुभाष घई के लिए 'कर्ज़ (1980)', 'हीरो (1983)', 'कर्मा (1986)', 'राम-लखन (1989)', 'सौदाग़र (1991)', 'खलनायक (1993)', 'ताल (1999)' और 'यादें (2001)'; और यश चोपड़ा के लिए 'चाँदनी (1989)', 'लम्हें (1991)', 'डर (1993)', 'दिल तो पागल है (1997)'; आदित्य चोपड़ा के लिए 'दिलवाले दुल्हनिया ले जायेंगे (1995)', 'मोहब्बतें (2000)' फ़िल्मों में सदाबहार गीत लिखे।[1]
गीत | फ़िल्म | गीत | फ़िल्म |
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गीत | फ़िल्म | गीत | फ़िल्म |
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नये गायकों को दिया जीवन
आनंद बख़्शी ने शैलेंद्र सिंह, उदित नारायण, कुमार सानू, कविता कृष्णमूर्ति और एस. पी. बालसुब्रय्मण्यम जैसे अनेक गायकों के पहले गीत का बोल भी लिखा है।
पुरस्कार
आनंद बख़्शी 40 बार 'फ़िल्मफेयर पुरस्कार' के लिए नामित किये गये और चार बार यह पुरस्कार उनके खाते में आया। अंतिम बार 1999 में सुभाष घई की 'ताल' के गीत 'इश्क बिना क्या जीना' के लिए उन्हें फ़िल्मफ़ेयर से नवाजा गया था। इसके अलावा भी उन्होंने कई पुरस्कार प्राप्त किए थे।
निधन
सिगरेट के अत्यधिक सेवन की वजह से वह फेफड़े तथा दिल की बीमारी से ग्रस्त हो गए। आखिरकार 72 साल की उम्र में अंगों के काम करना बंद करने के कारण 30 मार्च, 2002 को उनका निधन हो गया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ आनंद बख़्शी (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.) आवाज़। अभिगमन तिथि: 10 जुलाई, 2011।
- ↑ आनंद बख़्शी (हिन्दी) (एच.टी.एम.एल.) हिन्दी साहित्य काव्य संकलन। अभिगमन तिथि: 21 जुलाई, 2013।
बाहरी कड़ियाँ
- आनंद बख्शी: जिंदगी के सफर में गुजर जाते हैं जो मुकाम वो..
- सदा यादों में रहेंगे आनंद बख्शी
- भूल गया सब कुछ .... याद रहे मगर बख्शी साहब के लिखे सरल सहज गीत
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