तेरी शोहरतें हैं चारसू, तू हुस्न बेपनाह है
तेरे चाहने वाले बहुत, क़द्रदाँ कोई नहीं
तेरा सब्र भी कमाल है, बफ़ा तो बेमिसाल है
हासिल है आसमाँ तुझे, मिलती ज़मीं कोई नहीं
11 फ़रवरी, 2014
10 फ़रवरी, 2014
मेरे ताज़ा तरीन मित्र, श्री मुहम्मद ग़नी ने एक सच्ची और अच्छी कहानी चुनी फ़िल्म बनाने के लिए और बना भी डाली। फ़िल्म के 'ज़ीरो बजट' के चलते (जैसे आजकल ज़ीरो फ़िगर) इसमें तकनीक की कुछ कमियाँ ढूंढना बहुत आसान है लेकिन यदि तुलना इस बात से की जाय कि यथार्थ के क़रीब कौन सी फ़िल्म है तो 'थ्री इडियट' से कहीं बहुत-बहुत ज़्यादा यथार्थ आपको इस फ़िल्म में मिलेगा और 'तारे ज़मीन पर' से ज़्यादा ये आपके दिल को छुएगी।
मेरे निवास पर, ख़ास मेरे लिए, ग़नी साहिब ने इस फ़िल्म की स्क्रीनिंग रखी तो बहुत सुखदायी लगा। फ़िल्म के निर्देशक के साथ फ़िल्म देखना मेरे लिए एक प्रिय अहसास होता है।
मेरी लिखी कुछ पंक्तियों को इस फ़िल्म ने, जिसका कि नाम 'क़ैद' है, मायने दिए हैं।
"कोई मर जाय सहर होने पर दूर कहीं
ऐसा तो ज़माने का दस्तूर नहीं
एक मौक़ा उन्हें भी दो यारो
जिनको जीने का ज़रा भी शऊर नहीं"
और अब ग़नी साहिब के लिए:
मैं ख़ुसूसीयत और दिली अक़ीदत के साथ शामिल हूँ
तेरे हर शौक़ में ग़नी
तू अज़ीम हो न हो, फ़र्क़ क्या
तेरा अंदाज़ ए बयाँ अज़ीम है ग़नी
5 फ़रवरी, 2014
प्रश्न किया गया है कि- मन में भय कब आता है?
मेरा उत्तर है: मन में भय होने का अर्थ है
कि आपने कोई संकल्प किया है अन्यथा भय कैसा!
संकल्पवान व्यक्ति को भय सताता है।
भय की परिणति हमें नकारात्मक की ओर ही ले जाय ऐसा नहीं है बल्कि अनेक अद्भुत कृत्य भय का ही परिणाम हैं।
आपने वह विज्ञापन देखा होगा कि 'डर के आगे जीत है' इसका अर्थ ही यह है कि आपके मन में भय के उत्पन्न होने का कारण आपके द्वारा किया गया कोई संकल्प है।
5 फ़रवरी, 2014
सिद्धांतवादी, आदर्शवादी और परम्परावादी व्यक्ति का अहिंसक होना बड़ा कठिन है।
वह अपने उसूल-आदर्शों के पालन के लिए किसी भी शारीरिक, भावनात्मक या वैचारिक हिंसा के लिए तत्पर रहता है।
यहाँ तक कि जो किसी आदर्श या परम्परा के कारण ही अहिंसा में विश्वास करते हैं उनमें भी हिंसा का एक अलग रूप होता है।
5 फ़रवरी, 2014
मुझसे प्रश्न पूछा गया है कि सच्चे प्रेमी/प्रेमिका और सच्चे मित्र की पहचान कैसे हो?
मेरा उत्तर: आप कोई कार या मोटर साइकिल ख़रीद रहे हैं कि जिसकी क्वालिटी की जांच करेंगे? प्रेम में और मित्रता में किसी की गुणवत्ता की जांच नहीं की जाती। ज़रा सोचिए कि यदि सामने वाला आपकी जांच करने लगे तो ? क्या आप खरे उतरेंगे ? क्या आप विश्वास के साथ अपने बारे में कह सकते हैं कि आप पूरी तरह खरे प्रेमी या मित्र हैं?
प्रेमियों के प्रेम में, यदि प्रथम वरीयता प्रेम ही है तभी वह प्रेम है अन्यथा वह कुछ और ही होगा प्रेम नहीं।
मित्रों की मित्रता में, यदि सबसे पहला कारण मित्रता ही है तो उसे हम मित्रता कह सकते हैं।
सामान्यत: होता यह है कि जब हम कहते हैं कि हम किसी से प्रेम करते हैं या कोई हमारा मित्र है तो- उसके पीछे कुछ कारण छुपे होते हैं। ये कारण बहुत से हो सकते हैं जिनका कोई संबंध प्रेम या मित्रता से नहीं होता। हम इन कारणों की ओर या तो ध्यान नहीं देते या फिर ध्यान देना नहीं चाहते। ऐसी मित्रता या प्रेम अस्थाई होता है।
प्रेमी/प्रेमिका या मित्र को दुर्घटनावश 'खो देना' तो बहुत दु:खदायी है लेकिन जो यह कहते हैं कि 'प्यार में धोखा' हो गया या 'मित्रता में कपट' हो गया, वे ठीक नहीं कहते । प्यार या मित्रता कोई व्यवसाय नहीं है जो कोई धोखा या कपट कर देगा।
हम प्यार 'पाने' के प्रयास में अधिक रहते हैं, प्यार 'करने' के प्रयास में कम। इसी तरह मित्रता भी। हम जब कभी स्वयं की भावनाओं का विश्लेषण करें तो हम पाएँगे कि जिससे हम प्यार करते हैं वह हमारे साथ धोखा कर ही नहीं सकता। यदि आपको धोखे की संभावना दिखाई दे रही है तो इसका अर्थ है कि आप कुछ पाना चाहते हैं और कुछ पाने की चाह ही प्रेम और मित्रता की सबसे बड़ी शत्रु है।
4 फ़रवरी, 2014
पिकासो की मशहूर पेंटिंग 'ग्वेर्निका', फ़्रॅन्ज़ काफ़्का की कहानी 'मॅटा मॉर्फ़ोसिस', मुक्तिबोध की कविता 'अंधेरे में', वॅन गॉफ़ के सॅल्फ़ पोट्रेट और 'सनफ़्लावर', ऑल्वेयर कामू का उपन्यास 'ला पेस्त', हेमिंग्वे का उपन्यास 'द ओल्ड मैन एंड द सी', अकीरा कुरोसावा की फ़िल्म 'राशोमन' आदि कला के चरम को छूने के बाद की प्रयोगात्मक अद्भुत कृतियाँ हैं।
इन अद्भुत कृतियों को समझने के लिए हमें बहुत से ऐसे साहित्य को पढ़ना ज़रूरी है जिसमें- कुंठा की वेदना, युद्ध की विभीषिका, एकांत की अनुभूति, नपुंसक क्रोध, प्रतिभा का दमन, संतृप्ति की विवशता, सिकंदरिया और नालंदा जैसे पुस्तकालयों का जलना आदि का वर्णन हो या कुछ अनुभव स्वयं भी किया हो। ये क्लिष्ट रचनाएँ तभी समझ में आती हैं।
कला को मात्र मनोरंजन समझना, कला का अपमान करना तो है ही, अपनी अज्ञानता का प्रदर्शन भी है।
मनोरंजन तो कला की श्रेणियों के अथाह समंदर की एक चुलबुली सी श्रेणी मात्र है।
30 जनवरी, 2014
21 जनवरी, 2014
मकर संक्रांति निकल गयी, सर्दी कम होने के आसार थे, लेकिन हुई नहीं, होती भी कैसे 'चिल्ला जाड़े' जो चल रहे हैं। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं-
"हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा"
अमर कहानीकार मोपासां ने लिखा है-
"ठंड ऐसी पड़ रही थी कि पत्थर भी चटक जाय"
जाड़ा इस बार ज़्यादा पड़ रहा है। ज़बर्दस्त जाड़ा याने कि 'किटकिटी' वाली ठंड के लिए मेरी माँ कहती हैं-"चिल्ला जाड़ा चल रहा है"
मैं सोचा करता था कि जिस ठंड में चिल्लाने लगें तो वही 'चिल्ला जाड़ा!' लेकिन मन में ये बात तो रहती थी कि शायद मैं ग़लत हूँ। बाबरनामा (तुज़कि बाबरी) में बाबर ने लिखा है कि इतनी ठंड पड़ रही है कि 'कमान का चिल्ला' भी नहीं चढ़ता याने धनुष की प्रत्यंचा (डोरी) जो चमड़े की होती थी, वह ठंड से सिकुड़ कर छोटी हो जाती थी और आसानी से धनुष पर नहीं चढ़ पाती थी, तब मैंने सोचा कि शायद कमान के चिल्ले की वजह से चिल्ला जाड़े कहते हैं लेकिन बाद में मेरे इस हास्यास्पद शोध को तब बड़ा धक्का लगा जब पता चला कि 'चिल्ला' शब्द फ़ारसी भाषा में चालीस दिन के अंतराल के लिए कहा जाता है, फिर ध्यान आया कि अरे हाँ... कहा भी तो 'चालीस दिन का चिल्ला' ही जाता है।
17 जनवरी, 2014
निर्भय दामिनी को एक वर्ष होने पर...
कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ
उसने देखे थे यहाँ ख़ाब कई
उसके छाँटे हुए कुछ लम्हे थे
सर्द फ़ुटपाथ पर पड़ी थी जहाँ बेसुध वो
वहीं छितरे हुए थे अहसास कई
लेकिन अब वो ख़ाब नहीं सदमे थे
इक तरफ़ कुचला हुआ वो घूँघट था
जिसे उठना था किसी ख़ास रात
मगर वो रात अब न आएगी कभी
न शहनाई, न सेहरा, न बाबुल गाएगी कभी
लेकिन मुझे तो काम थे बहुत
जिनसे जाना था
उसे उठाने के लिए तो सारा ज़माना था
यूँ ही गिरी पड़ी रही बेसुध वो
मगर मैं रुक न सका पल भर को
कैसे कह दूँ कि मैं भी ज़िन्दा हूँ
कैसे कह दूँ कि मैं भी इंसा हूँ
16 जनवरी, 2014
उनकी ख़्वाहिश, कि इक जश्न मनाया जाय
छोड़कर मुझको हर इक दोस्त बुलाया जाय
रौनक़-ए-बज़्म के लायक़ मेरी हस्ती ही नहीं[1]
यही हर बार मुझे याद दिलाया जाय
कभी जो शाम से बेचैन उनकी तबीयत हो
किसी मेरे ही ख़त को पढ़ के सुनाया जाय
कहीं जो भूल से भी ज़िक्र मेरा आता हो
यही ताकीद कि मक़्ता ही न गाया जाय[2][3]
मेरे वो ख़ाब में ना आएँ बस इसी के लिए
ताउम्र मुझको अब न सुलाया जाय
कभी सुकून से गुज़रा था जहाँ वक़्त मेरा
उसी जगह मुझे हर रोज़ रुलाया जाय
क़ब्र मेरी हो, जिस पे उनका लिखा पत्थर हो
उन्ही का ज़िक्र हो जब मेरा जनाज़ा जाय
उनकी ख़्वाहिश, कि इक जश्न मनाया जाय
छोड़कर मुझको हर इक दोस्त बुलाया जाय
16 जनवरी, 2014
हे कृष्ण !
उत्तरा के गर्भ में
बनकर गदाधारी
रक्षा की परीक्षित की, ब्रह्मास्त्र से
क्योंकि वो वंश है
और बेटी ?
बेटी क्या शाप है, दंश है ?
बेटी भी तो, पुत्र की तरह ही
तुम्हारा ही अंश है
न जाने कितनी बेटियाँ
मारी गईं, गर्भ में
और तुम्हारा भी मौन है
इस संदर्भ में
इन बेटियों को बचाने भी
तो कभी आते
इन कंसों का संहार भी कर जाते
हे राम !
पिता के वचन के लिए
छोड़ दी राजगद्दी
सीता को साथ ले, बने वनवासी
क्योंकि वो मर्यादा है
और सीता ?
सीता क्या दासी है, धरमादा है ?
तुम्हारा जो कुछ भी है
उसमें सीता का भी तो आधा है
कैसे गई सीता
तुम्हारे बिना दोबारा वन को
क्यों नहीं छोड़ा
तुमने राजभवन को
ऐसे में तुम भी तो साथ निभाते
तभी तो
'भार्या पुरुषोत्तम' भी बन जाते
हे बुद्ध !
छोड़ा यशोधरा-राहुल को
संन्यास लिया
नया पाठ सिखलाया दुनिया को
क्योंकि वो 'धर्म' है
और यशोधरा ?
यशोधरा क्या वस्तु है, मात्र वैवाहिक कर्म है ?
उसे, सोते छोड़ जाना
भी तो अधर्म है
यदि तुम्हारे पिता ने
तुमको इस तरह छोड़ा होता
तो फिर, बुद्ध क्या
सिद्धार्थ भी नहीं होता
पहले गृहस्थ को निभाते
तो तुम्हारी प्रवज्या को
राहुल और उसकी मां भी समझ पाते
15 जनवरी, 2014
वो 'सुबह' जो कभी आनी थी
कब आएगी ?
जिस सुबह को,
सकीना भी स्कूल जाएगी ?
नहीं टपकेगी सुक्खो की छत
और संतो दादी भी पेंशन पाएगी
कल्लो नहीं धोएगी रईसों के पोतड़े
और चंदर की शराब भी छूट जाएगी
परसादी छोड़ देगा तीन पत्ती खेलना
और सुनहरी भी मायके से लौट आएगी
बैजंती छुड़ा लेगी चूड़ियाँ सुनार से
और दोबारा 'रखने' भी नहीं जाएगी
हवालात से छूटेगा बेकसूर घूरेलाल
और पुलिस भी बार-बार नहीं आएगी
इस बार सोनदेई जनमेगी बिटिया को
और उसकी सास भी घी के दीए जलाएगी
ऐसी सुबह मेरे गाँव में कब आएगी ?
ऐसी सुबह तेरे गाँव में कब आएगी ?
15 जनवरी, 2014
मंज़िलों की क़ैद से अब छूट भागे रास्ते
है बक़ाया ज़िन्दगी आवारगी के वास्ते
छोड़ कर रस्मो-रिवाजों की गली को आ गए
अब हुआ हर शख़्स हाज़िर दोस्ती के वास्ते
उसकी महफ़िल और उसके रंग से क्या साबिका[4]
अब हज़ारों मस्तियाँ हर बज़्म मेरे वास्ते[5]
ये सफ़र ताबीर है उन हसरतों के ख़ाब की[6]
जो कभी होती थीं तेरी सुह्बतों के वास्ते[7]
अब कोई आक़ा नियम क़ानून क्या बतलाएगा
आँधियाँ भी रुक गईं हैं इस सबा के वास्ते[8]
माजरा ये देखकर अब दश्त भी हैरान है
मरहले चलने लगे हैं क़ाफ़िलों के वास्ते[9]
मौत के आने से पहले एक लम्हा जी लिया
कौन रगड़े एड़ियाँ अब ज़िन्दगी के वास्ते
15 जनवरी, 2014
हमको मालूम है इन सब की हक़ीक़त लेकिन
दिल-ए-ख़ुशफ़हमी को कुछ दिन ये 'आप' अच्छा है
-जनाब असद उल्ला ख़ां ग़ालिब की याद में
15 जनवरी, 2014
विश्व के महानतम निर्देशकों में अल्फ़्रेड हिचकॉक का नाम आता है। वे मेरे बेहद पसंदीदा सिनेमा निर्देशकों में से एक रहे हैं। पिछले वर्ष उनके जीवन पर बनी फ़िल्म 'Hichcock' देखी। इसमें ऍन्थनी हॉपकिन (Anthony Hopkins) ने हिचकॉक की भूमिका की है। वे भी महान कलाकार हैं और मेरे पसंदीदा ऍक्टर हैं। यह फ़िल्म मेरी पसंदीदा और हिचकॉक की मशहूर फ़िल्म साइको (Psycho) के निर्माण पर आधारित है। हमेशा की तरह इस फ़िल्म में भी ऍन्थनी हॉपकिन का अभिनय देखने लायक़ है।
हिचकॉक की फ़िल्मों की नक़लें सारी दुनिया में होती रही है। उनकी फ़िल्म वर्टीगो (Vertigo) मुझे बहुत पसंद है। ये एक ज़बर्दस्त थ्रिलर है। इसमें हीरो ऍक्रोफ़ोबिया (Acrophobia) का मरीज़ होता है। ऍक्रोफ़ोबिया एक ऐसी फ़ोबिया है जिसमें बहुत ऊँचाई से नीचे देखने पर चक्कर आते हैं। राज़ की बात ये है कि मैं मुझे भी ऍक्रोफ़ोबिया है। हा हा हा
14 जनवरी, 2014
जो सीमाओं में बंधकर जीते हैं
उनका जीवन
उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है सीमाओं के परे, खुले आकाश में
विचरण करने वालों का जीवन
अनन्त काल तक चलता है।
14 जनवरी, 2014
भारत जैसे विशाल गणतंत्र के समग्र विकास के लिए
60-70 वर्ष का समय सामान्यत: बहुत कम है
भारत की आज़ादी को अभी इतना समय नहीं हुआ
कि भारत के संविधान का सही मूल्यांकन हो सके
भारत का गणतंत्र और संविधान अभी शैशवावस्था में ही हैं
फिर भी यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि इस शताब्दी में भारत विश्व का सबसे शक्तिशाली देश होगा।
14 जनवरी, 2014
आपसी रिश्तों में या समाज में
शिकायतों और उलाहनों के प्रति
यदि हमारा दृष्टिकोण
उन्हें गंभीरता से लेकर
स्वयं का विश्लेषण करने का रहता है
तो निश्चित ही हम ख़ुद को
एक सकारात्मक व्यक्ति के रूप में
देख सकते हैं
यह महान व्यक्तियों का एक ऐसा गुण भी जो उनको महान बनाता है
14 जनवरी, 2014
कभी-कभी ऐसा लगता है कि विश्वास वह भ्रम है जो अब तक टूटा नहीं...
14 जनवरी, 2014
उम्रे दराज़ मांग के लाए थे चार रोज़
दो FB पे कट गए दो बिग बज़ार में
(आज 'ज़फ़र' होते शायद तो यही लिखते)
14 जनवरी, 2014
प्राचीन काल के दक्षिण भारत में ग्राम प्रशासन, पंचायत और प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बेहतरीन नमूने हैं।
उत्तिरमेरूर की राजनैतिक व्यवस्थाएं चोंकाने वाली हैं। यह दक्षिण भारत में तमिलनाडु राज्य के कांचीपुरम ज़िले का एक पंचायती ग्राम है। चोल राज्य के अंतर्गत ब्राह्मणों (अग्रहार) के एक बड़े ग्राम में दसवीं शताब्दी के पश्चात अनेक शिलालेख स्थानीय राजनीति पर प्रकाश पर प्रकाश डालते हैं।
7 जनवरी, 2014
आम आदमी को परिभाषित करने और आम आदमी की समस्याओं को प्रस्तुत करने के काम जितने बढ़िया तरह से महान कार्टूनिस्ट आर॰ के॰ लक्ष्मण ने किया है उतना किसी ने नहीं।
इसके बदले में उनको लगभग हरेक सरकार द्वारा ऐसा न करने की चेतावनी दी गई और मुक़दमे चले।
अब दिल्ली सदन में आम आदमी की एक नई परिभाषा की गई है जो मेरी समझ के परे है। कहा गया है कि 'वह हरेक आदमी, आम आदमी है जो कि ईमानदार सरकार चाहता है चाहे वह ग्रेटरकैलाश और डिफ़ेन्स कॉलोनी का ही रहने वाला क्यों न हो।'
ईमानदार सरकार तो सभी चाहते हैं। मैंने किसी करोड़पति या अरबपति को कभी यह कहते नहीं सुना कि वे बेईमान सरकार चाहते हैं।
तो क्या अब 5-10 करोड़ के बंगले में रहने वाला भी आम आदमी है? बी॰ऍम॰डब्ल्यू और मर्सडीज़ का स्वामी भी आम आदमी है?
मैंने पहले लिखा था कि सत्ता की एक अपनी भाषा और संस्कृति होती है। जो सत्ता में आने के बाद अपनानी होती है। यदि ऐसा न करें तो ब्यूरो क्रेट ऐसा करवा देते हैं क्योंकि जनता को ग़लतफ़हमी चाहे कुछ भी हो लेकिन देश तो ब्यूरो क्रेट ही चला रहे हैं। -और ज़्यादा विस्तार से पढ़ना चाहें तो भारतकोश पर मेरा एक लेख पढ़ें-
7 जनवरी, 2014
ईमानदारी और सादगी की सार्थकता
विनम्रता के साथ ही है
यदि हमें अपनी ईमानदारी और सादगी
का अहंकार है तो ये भौंडे आडम्बरों
के अलावा और कुछ नहीं है।
6 जनवरी, 2014
हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि उसे कहते हैं जो कि अपने धर्म के धार्मिक और आध्यात्मिक रूप-स्वरूप में आस्था रखता है।
कट्टर हिन्दू, कट्टर मुसलमान, कट्टर ईसाई उसे कहते हैं जो अपने धर्म के व्यावसायिक और राजनैतिक रूप-स्वरूप में आस्था रखता है।
यदि ईमानदारी और गंभीरता से विचार करेंगे तो यह समझ में आ जाएगा कि धार्मिक या साम्प्रदायिक कट्टरता हमें अध्यात्म और धर्म दूर ले जाती है।
6 जनवरी, 2014
शेक्सपीयर तो अपने मशहूर नाटक हॅमलेट में "Frailty, thy name is woman." लिख कर जन्नत नशीं हो गए। मेरी तो हमेशा की तरह शामत आई हुई है, कि व्याख्या करो इसकी। सवाल इस वाक्य का अर्थ करने का नहीं है बल्कि पूछा गया है कि क्या यह सही है?
जैसे रामचरितमानस की एक-एक चौपाई के 24-24 अर्थ आजकल होते हैं वैसे ही शेक्सपीयर के नाटकों के मशहूर संवादों के भी कई-कई अर्थ होते हैं। हॅमलेट के ही एक और संवाद "To be or not to be" के अनुवाद का भी एक ज़माने में बड़ा हल्ला रहा। इसका अनुवाद रांगेय राघव जी ने भी किया, अमृतराय जी ने भी किया। कुल मिला कर ये तय हुआ कि मामला आत्महत्या करने का है कि 'करें या नहीं'।
...ख़ैर...
"Frailty, thy name is woman." का अर्थ तो ये निकलता है कि 'कमज़ोरी' तेरा ही नाम औरत है लेकिन नाटक हॅमलेट में इसका संदर्भ है कि औरत कमज़ोर होने के कारण ही बेवफ़ा हो जाती है, तो इसका अर्थ किया गया "बेवफ़ाई, तेरा ही दूसरा नाम औरत है।"
असल में यह बात आदमी पर भी लागू होती है। आदमी का भी दूसरा नाम बेवफ़ाई ही है। पुरुष के लिए स्त्री को और स्त्री के लिए पुरुष को वफ़ादार बनाने का काम प्रकृति ने तो किया नहीं है। नर और मादा एक दूसरे के लिए वफ़ादार हों ऐसा नियम प्रकृति का नहीं है, तो फिर ये निष्ठा और वफ़ा कहाँ से आयी?
असल में बात यह है कि जो पुरुष, इंसान पहले और बाद में पुरुष होगा वही किसी स्त्री के प्रति निष्ठा या वफ़ा निभाएगा। जो स्त्री इंसान पहले और बाद में स्त्री होगी वही किसी पुरुष के प्रति निष्ठा या वफ़ा निभाएगी।
जब हम अपने आप को आदमी या औरत पहले समझते हैं और इंसान बाद में, तो हम इंसानियत के नियमों से दूर हट जाते हैं। जब हम इंसानियत से ही दूर हट गए तो फिर वफ़ा का क्या काम? इसी तरह किसी आदमी या औरत के कमज़ोर होने अनेक संभावनाएँ हो सकती है लेकिन इंसान कभी कमज़ोर नहीं होता। ऐसा लगता है कि स्त्री-पुरुष के बीच सच्ची वफ़ादारी की वजह केवल इंसानियत ही होती है। बाक़ी और वजहें तो समाज का डर या किसी स्वार्थ आदि से प्रभावित होने की संभावना रखती हैं।
6 जनवरी, 2014
राजा महाराजाओं के काल में तो यह कहा जाना सही रहा होगा-
"यथा राजा तथा प्रजा" याने जैसा राजा वैसी प्रजा।
लेकिन लोकतंत्र में तो अपना राजा, हम चुनते हैं।
अब तो इसका ठीक उल्टा याने
"यथा प्रजा तथा राजा" ही सही बैठता है।
नेता जैसे भी हैं, उनके आचरण के लिए,
वे नहीं, बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ हम ज़िम्मेदार हैं।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अयोग्य नेताओं को गाली देने का अर्थ है,
अपने आप को ही गाली देना।
कभी यह सोचने में भी समय लगाना चाहिए कि क्या कारण है कि नेता दिन ब दिन 'अनेता' होते जा रहे हैं ?
कहीं इसका कारण ये तो नहीं कि हम में ही कुछ गड़बड़ है ?
ज़रा हम अपने गरेबाँ में भी झांक कर देखें...
28 दिसम्बर, 2013
यदि पड़ोस से रोते हुए बच्चे के रोने की आवाज़ से आपके ध्यान, पूजा या स्तुति जैसे कार्य में बाधा नहीं पड़ती और आपका ध्यान भंग नहीं होता, तो आप किसी संन्यासी, साधु, सन्त या धर्मात्मा की श्रेणी में नहीं बल्कि दुष्टात्मा की श्रेणी में आते हैं।
28 दिसम्बर, 2013
प्रताप सिंह कैरों पचास के दशक में पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। उनके शासन का उदाहरण आज भी दिया जाता है और महान नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल से उनकी तुलना की जाती है। उस दौर में भी अनाज की कालाबाज़ारी ज़ोरों पर थी। देश नया-नया आज़ाद हुआ था। राज्य सरकारों के पास संसाधन कम थे। जमाख़ोरों और दलालों ने अनाज गोदामों में बंद किया हुआ था, मंहगाई आसमान को छूने लगी थी, जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाना चाहिए। कैरों ने एक गंभीर जनहितकारी चाल चली... केन्द्र सरकार और रेल मंत्रालय की सहायता से कई मालगाड़ियाँ रेलवे स्टेशनों पर जा पहुँची जिनके डब्बे सील बंद थे और उनपर विभिन्न अनाजों के नाम लिखे हुए थे। शहरों में आग की तरह से ये ख़बर फैल गयी कि सरकार ने 'बाहर' से अनाज मंगवा लिया है। इतना सुनना था कि जमाख़ोरो ने अपना अनाज बाज़ार में आनन-फानन में बेचना शुरू कर दिया। मंहगाई तुरंत क़ाबू में आ गई।
एक सप्ताह बाद मालगाड़ियाँ ज्यों की त्यों वापस लौट गईं क्योंकि वे ख़ाली थीं।... यदि सरकार ठान ले तो देश की तरक्की के लिए हज़ार-लाख तरीक़े निकाल सकती है लेकिन...
14 दिसम्बर, 2013
माता, पिता, पुत्री और गुरु को हर जगह महिमा मंडित किया जाता है। पुत्र, शिष्य, पत्नी और पति को नहीं... ऐसा क्यों?
हो सकता है कि इसका कारण ये हो कि माल-मत्ता तो सब पुत्र, शिष्य, पत्नी और पति के हाथ पड़ता है...
अब बाक़ी बचे माता-िपता, पुत्री और गुरु तो इन बेचारों की प्रशंसा करते रहो तो 'सैट' रहेंगे... ऐसा है क्या ?
ये हो भी सकता है... और नहीं भी... !
एक नज़र इस नज़रिये पर भी-
पत्नी अपने पति को माँ से अधिक लाड़ और स्नेह, बहन से अधिक साथ, पुत्री से अधिक सम्मान और गुरु से अधिक शिक्षा देकर भी
अपने पति से सार्वजनिक प्रशंसा की चार लाइनों के लिए महरूम क्यों ? पति अपनी पत्नी को पिता से अधिक लाड़ और स्नेह, भाई से अधिक सुरक्षा, पुत्र से अधिक उसके ममत्व की संतृप्ति और गुरु से अधिक शिक्षा देकर भी अपनी पत्नी से सार्वजनिक प्रशंसा की चार लाइनों के लिए महरूम क्यों ? पति या पत्नी की प्रशंसा में लिखने में हमें क्या हिचक है ? कोई शर्म है क्या ?
एक बात और है जो लोग यारी-दोस्ती में ज़्यादा मशग़ूल रहते हैं। उनको शायद यह नहीं मालूम कि पति-पत्नी, आपस में सबसे बड़े राज़दार होते हैं। इसलिए सबसे बड़े दोस्त भी। ये दोस्ती ऐसी होती है जो कि रिश्ता ख़त्म होने पर भी एक-दूसरे के राज़ बनाए रखती है, खोलती नहीं।
वो बात अलग है कि जब ये उन राज़ों को खोलने पर आते हैं तो वो राज़ भी खुल जाते हैं जिनको हम भगवान से भी छुपाते हैं लेकिन सामान्यत: ऐसा होता नहीं है।
याद रखिए अपनी जान तो हमारे लिए कोई भी दे सकता है लेकिन अपना जीवन तो एक दूसरे को पति-पत्नी ही देते हैं।
यह सही है कि 'माता-पिता ही हमारे साक्षात् भगवान हैं'।
लेकिन यह भी मत भूलिए कि पति-पत्नी भी एक दूसरे के लिए
साक्षात न सही तो 'मिनी भगवान' हैं।
ऐसा नहीं है कि पति-पत्नी के रिश्ते का आधार केवल संतान है।
14 दिसम्बर, 2013
'पॉज़टिव थिंकिंग' याने सकारात्मक सोच के संबंध में कुछ लोग सिखाते हैं कि अपने प्रयत्न के अच्छे परिणाम के संबंध में आश्वस्थ रहना ही पॉज़िटिव थिंकिंग है। कुछ लोग इस शिक्षा को सीख भी जाते हैं। यह सकारात्मक सोच नहीं है बल्कि अति आशावादी होना है।
सकारात्मक सोच है परिणाम की प्रतीक्षा के प्रति सहज हो जाना। याने बिना बेचैनी के प्रतीक्षा करना। प्रतीक्षा में सहज होना ही सकारात्मक सोच है।
वैसे तो जीवन बहुत कुछ है लेकिन जीवन एक प्रतीक्षा भी है। सभी को किसी न किसी की प्रतीक्षा है और प्रतीक्षा करने में बेचैनी होना सामान्य बात है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो प्रतीक्षा करने में बेचैन नहीं होते। असल में हम जितने अधिक नासमझ होते हैं उतना ही प्रतीक्षा करने में बेचैन रहते हैं। बच्चों को यदि हम देखें तो आसानी से समझ सकते हैं कि किसी की प्रतीक्षा करने में बच्चे कितने अधीर होते हैं। धीरे-धीरे जब उम्र बढ़ती है तो यह अधीरता कम होती जाती है क्योंकि उनमें 'समझ' आ जाती है। इसी 'समझ' को समझना ज़रूरी है क्योंकि जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि हमारे जीवन में प्रतीक्षा का क्या महत्त्व है और इसका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव होता है तब तक हम सकारात्मक सोच नहीं समझ सकते।
सीधी सी बात है कि सकारात्मक सोच के व्यक्ति बहुत कम ही होते हैं। राजा हो या रंक इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। साधु-संत भी ईश्वर के दर्शन की या मोक्ष की प्रतीक्षा में रहते हैं। यहाँ समझने वाली बात ये है कि हम प्रतीक्षा कैसे कर रहे हैं। यदि कोई संत मोक्ष की प्रतीक्षा में है और वह सहज रूप से यह प्रतीक्षा नहीं कर रहा तो उसका मार्ग ही पूर्णतया अर्थहीन है। यदि और गहराई से देखें तो मोक्ष को 'प्राप्त' करने जैसा भी कुछ नहीं है। मोक्ष तो 'होता' और 'घटता' है, बस इसे समझना ज़रूरी है। जीवन में सहजता को प्राप्त हो जाना ही मोक्ष को प्राप्त हो जाना है।
प्रतीक्षा के प्रति सहज भाव हो जाना ही हमें सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति बनाता है। असल में प्रतीक्षा के प्रति निर्लिप्त हो जाना ही सकारात्मक सोच है। जो कि निश्चित रूप से कठिन है।
13 दिसम्बर, 2013
बहादुर उसे माना गया, जिसने अपने डर को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सहिष्णु वह माना गया, जिसने अपनी ईर्ष्या को प्रदर्शित नहीं होने दिया
विनम्र वह माना गया, जिसने अपने अहंकार को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सुन्दर वह माना गया, जिसने अपनी कुरूपता को प्रदर्शित नहीं होने दिया
चरित्रवान वह माना गया, जिसने अपने दुश्वरित्र को प्रदर्शित नहीं होने दिया
ईमानदार वह माना गया, जिसने अपनी बेईमानी को प्रदर्शित नहीं होने दिया
बुद्धिमान वह माना गया, जिसने अपनी मूर्खताओं को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सफल शिक्षक वह माना गया, जिसने अपने अज्ञान को प्रदर्शित नहीं होने दिया
अहिंसक और दयालु वह माना गया, जिसने अपनी हिंसा को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सफल प्रेमी/प्रेमिका, वे माने गए जिन्होंने अपनी पारस्परिक घृणा को प्रदर्शित नहीं होने दिया
किन्तु महान केवल वह ही है जिसने अपने 'उन कारणों' के पीछे छुपी कमज़ोरियों को भी नहीं छुपाया
'जिन कारणों' के चलते वह प्रशंसनीय और सफल हुआ।
13 दिसम्बर, 2013
मुझे गर्व है कि मैं, चौधरी दिगम्बर सिंह जी का बेटा हूँ। आज 10 दिसम्बर को उनकी पुन्य तिथि है। पिताजी स्वतंत्रता सेनानी थे। 4 बार लोकसभा सांसद रहे (तीन बार मथुरा, एक बार एटा) और 25 वर्ष लगातार, मथुरा ज़ि. सहकारी बैंक के अध्यक्ष रहे । सादगी का जीवन जीते थे। कभी कोई नशा नहीं किया और आजीवन पूर्ण स्वस्थ रहे। राजनैतिक प्रतिद्वंदी ही उनके मित्र भी होते थे। उनकी व्यक्तिगत निकटता पं. नेहरू, लोहिया जी, शास्त्री जी, पंत जी, इंदिरा जी, चौ. चरण सिंह जी, अटल जी, चंद्रशेखर जी आदि से रही।
सभी विचारधारा के लोग उनकी मित्रता की सूची में थे चाहे वह जनसंघी हो या मार्क्सवादी। सभी धर्मों का अध्ययन उन्होंने किया था। जातिवाद से उनका कोई लेना-देना नहीं था। वे बेहद 'हैंडसम' थे। उन्हें पहली संसद 1952 में मिस्टर पार्लियामेन्ट का ख़िताब भी मिला। संसद में दिए उनके भाषणों को राजस्थान में सहकारी शिक्षा के पाठ्यक्रम में लिया गया। उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि जब वे संसद में बोलते थे तो अपनी पार्टी के लिए नहीं बल्कि निष्पक्ष रूप से किसानों के हित में बोलते थे। इस कारण उनको केन्द्रीय मंत्रिमंडल में लेने से नेता सकुचाते थे कि पता नहीं कब सरकार के ही ख़िलाफ़ बोल दें। �उन्होंने ज़मींदार परिवार से होने के बावजूद अपना खेत उन्हीं को दान कर दिए थे जो उन्हें जोत रहे थे। सांसद काल में उन्होंने राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रीवीपर्स के ख़िलाफ़ वोट दिया था जब कि उन्हें उस वक्त लाखों रुपये का लालच दिया गया था। उन जैसा नेता और इंसान होना अब मुमकिन नहीं है। वे मेरे हीरो थे, गुरु थे और मित्र थे। आज भारतकोश के कारण विश्व भर में मुझे पहचान और सम्मान मिल रहा है किंतु मेरी सबसे बड़ी पहचान यही है कि मैं उनका बेटा हूँ।
10 दिसम्बर, 2013
फाँसी ग़रीब का जन्मसिद्ध अधिकार है क्या ?
कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में शायद ही कोई भी अरबपति हो। शायद एक भी नहीं...
ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति फाँसी के योग्य अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध कारित करने वाले की है।
6 दिसम्बर, 2013
'सन्यास' ही एकमात्र
ऐसा 'पलायन' है
जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है
24 नवम्बर, 2013
भारत का सर्वोच्च पद्म सम्मान, भारतरत्न से सम्मानित व्यक्ति, सम्मान देने वालों को यदि मूर्ख बता रहा है तो और कुछ हो न हो यह तो निर्विवाद ही है कि जिस व्यक्ति को यह सम्मान दिया गया है वह इस सम्मान से बड़ा है। निश्चित ही वैज्ञानिक श्री राव की गंभीर प्रतिष्ठा को किसी पद्म पुरस्कार की अपेक्षा नहीं है।
कोई भी सम्मान या पुरस्कार यदि किसी कुपात्र को दिया जाता है तो उन व्यक्तियों की प्रतिष्ठा को बहुत धक्का पहुँचता है जिनको कि वास्तविक योग्यता के आधार पर पुरस्कृत या सम्मानित किया जाता है। यहाँ उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है पर सभी जानते हैं कि भारतरत्न मिलने वालों की सूची में कुछ नाम ऐसे भी हैं जो इस सम्मान के योग्य नहीं हैं।
सचिन तेन्दुलकर नि:संदेह हमारे देश की शान हैं। उनका क्रिकेट के मैदान में आना ही हमें स्फूर्ति से भर देता था। सचिन को सम्मानित या पुरस्कृत करना हम सभी के लिए अपार हर्ष का विषय है लेकिन हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद जी से सचिन की तुलना करना व्यर्थ है। मेजर ध्यानचंद को भारतरत्न सम्मान से सम्मानित किया जाना तो एक बहुत ही सामान्य सी बात है। सही मायने में तो मेजर ध्यानचंद की प्रतिमा, संसद, राजपथ, इंडियागेट आदि पर लगनी चाहिए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सारी दुनिया हिटलर से दहशत खाती थी। जर्मनी में किसी की हिम्मत नहीं थी कि हिटलर का प्रस्ताव ठुकरा दे। जर्मनी में, हिटलर के सामने, हिटलर के प्रस्ताव को ठुकराने वाले मेजर ध्यानचंद ही थे?
ध्यानचंद जी भारत के एकमात्र खिलाड़ी हैं जो भारत में ही नहीं पूरे विश्व में, अपने जीवनकाल में ही किंवदन्ती ('मिथ') बन गए थे। यह सौभाग्य अभी तक किसी खिलाड़ी को प्राप्त नहीं है।
24 नवम्बर, 2013
मेरे एक पूर्व कथन पर पाठकों ने प्रश्न किए हैं कि कैसे पता चले किसी की नीयत का ?
मैंने लिखा था- "दोस्त का मूल्याँकन करना हो या जीवन साथी चुनना हो, तो... केवल और केवल उसकी 'नीयत' देखनी चाहिए। नीयत का स्थान सर्वोपरि है। बाक़ी सारी बातें तो महत्वहीन हैं। जैसे... रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि..."
मेरा उत्तर प्रस्तुत है:-
/) मेरा अभिप्राय केवल इतना था कि हम, रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि... के आधार पर ही चुनाव करते हैं। किसी को यदि चुन रहे हैं तो हमें उसकी नीयत को अनदेखा नहीं करना चाहिए। हम यह जानते हुए भी कि नीयत बुरी है, अनदेखा करते हैं जिसका कारण बहुत सीधा-सादा होता है। जब हम अपनी नीयत के बारे में सोचते हैं कि क्या हमारी नीयत अच्छी है? जो हम किसी की नीयत को बुरा समझें!
/) हम मित्र या जीवन साथी को चुनते या मूल्याँकन करते समय नीयत के अलावा कुछ और ही देखते हैं। नीयत देखने से तो हम बचते हैं क्योंकि हम स्वयं ही नीयत के कौन से अच्छे होते हैं जो उसकी नीयत देखें... वैसे भी दूसरे कारण अधिक रुचिकर और आकर्षक होते हैं। अक्सर सुनने में आता है "मुझे कोई भाई साब टाइप का पति नहीं चाहिए" या "मुझे कोई बहन जी टाइप की पत्नी नहीं चाहिए।"
/) सीधी सी बात है भई! अच्छी नीयत वाला लड़का तो 'भाई साब टाइप' ही होगा और अच्छी नीयत वाली लड़की भी 'बहन जी टाइप' ही होगी। (मुझे मालूम है कि मैं इन पंक्तियों को लिखकर, बहुतों को नाराज़ कर रहा हूँ...)। इन 'भाई साब' और 'बहन जी' को बड़ी मुश्किल से दोस्त और जीवन साथी मिलते हैं। लेकिन ये बहुत सुखी और आनंदित जीवन जीते हैं।
/) क्या ये सच नहीं है कि यदि हमें बिल्कुल अपनी नीयत जैसा ही कोई व्यक्ति मिल जाय तो हम ही सबसे पहले उससे दूर भागेंगे क्योंकि हम अपनी नीयत की अस्लियत जानते हैं। यही सोचकर हम समझौता कर लेते हैं कि चलो हमसे तो अच्छी नीयत का ही होगा। दूसरे की नज़र में हम कितने भी अच्छी नीयत वाले बनें लेकिन हमें काफ़ी हद तक अपना तो पता होता है।
/) जिस क्षण हमारे मन में यह प्रश्न आता है कि फ़लाँ व्यक्ति सत्यनिष्ठ है या नहीं ? समझ लीजिए कि उसके सत्यनिष्ठ होने की संभावना डावांडोल है। किसी ईमानदार व्यक्ति की ईमानदारी पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं होता। जिस पर प्रश्न चिन्ह हो वह नीयत का साफ़ नहीं।
... लेकिन ज़रूरत क्या पड़ी दूसरे की नीयत जाँचने की ? यदि हमारी नीयत साफ़ है तो सामने वाले की नीयत कैसी भी हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है ? अक्सर दूसरे की नीयत पर शक़ करने का अर्थ ही यह है कि हमारी नीयत में खोट है। जब बात लेन-देन की हो तो वह व्यापार की भाषा है, दोस्ती या प्यार की नहीं।
/) और अंत में एक बात और... कि यह सरासर झूठ होता है कि हमें फ़लां की ख़राब नीयत का पता नहीं था। असल में हम जानते हुए भी अनदेखा करते हैं।
17 नवम्बर, 2013
यूँ तो बहुत से कारण हैं, जिनसे मनुष्य, जानवरों से भिन्न है- जैसे कि हँसना, अँगूठे का प्रयोग, सोचने की क्षमता आदि... लेकिन वह कुछ और ही है जिसने मनुष्य को हज़ारों वर्ष तक चले, दो-दो हिम युगों को सफलता पूर्वक सहन करने की क्षमता प्रदान की।
प्रकृति की यह देन है 'पसीना'।
मनुष्य, जानवरों को भोजन बनाने की चाह में जानवरों से ज़्यादा दूरी तक भाग पाता था। पसीना बहते रहने के कारण मनुष्य का शारीरिक तापमान नियंत्रित रहता था। जानवर पसीना न बहने के कारण बहुत अधिक दूरी तक भाग नहीं पाते थे। पसीना न बहने से उनके शरीर का बढ़ता तापमान उनको रुकने पर मजबूर कर देता था और उन्हें हर हाल में लम्बे समय के लिए रुक जाना होता था।
जानवरों में मुख्य रूप से घोड़ा एक ऐसा जानवर है जो पसीना बहाने में लगभग मनुष्य की तरह ही है।
इसलिए शिकार करने में, घोड़ा मनुष्य का साथी भी बना और वाहन भी।
13 नवम्बर, 2013
जब बुद्धि थी तब अनुभव नहीं था अब अनुभव है तो बुद्धि नहीं है।
जब विचार थे तब शब्द नहीं थे, अब शब्द हैं तो विचार नहीं हैं।
जब भूख थी तब भोजन नहीं था अब भोजन है तो भूख नहीं है।
जब नींद थी तब बिस्तर नहीं था अब बिस्तर है तो नींद नहीं है।
जब दोस्त थे तो समझ नहीं थी अब समझ है तो दोस्त नहीं हैं।
जब सपने थे तब रास्ते नहीं थे अब रास्ते हैं तो सपने नहीं हैं।
जब मन था तो धन नहीं था अब धन है तो मन नहीं है।
जब उम्र थी तो प्रेम नहीं था अब प्रेम है तो उम्र नहीं है।
एक पुरानी कहावत भी है न कि-
जब दांत थे तो चने नहीं थे अब चने हैं तो दांत नहीं हैं।
और अंत में-
जब फ़ुर्सत थी तो फ़ेसबुक नहीं था अब फ़ेसबुक है तो...
11 नवम्बर, 2013
'प्रेम' व्यक्ति से होता है और उसकी यथास्थिति में ही होता है
जबकि 'श्रद्धा' किसी की प्रतिष्ठा के प्रति होती है
जो कि प्रतिष्ठा का क्षय होने से समाप्त हो जाती है
इसीलिए प्रेम शाश्वत और सर्वश्रेष्ठ है
श्रद्धा क्षणभंगुर है
और निश्चित ही, प्रेम की भांति
परम पद प्राप्त नहीं कर सकती
इसलिए किसी व्यक्ति से या ईश्वर से 'प्रेम' करने वाले
सदैव तृप्त और मस्त रहते हैं
जबकि 'श्रद्धा' रखने वाले
सदैव सशंकित और असमंजस से घिरे हुए...
6 नवम्बर, 2013
दोस्ती 'हो' जाती
और
दुश्मनी 'की' जाती है
6 नवम्बर, 2013
अक्सर सुनने में आता है-
असफलता और विपरीत परिस्थिति उसी व्यक्ति को अधिक मिलती है, जिसमें इनका का सामना करने की क्षमता होती है।
इसका अर्थ क्या है? क्या ऐसा होने में भाग्य या नियति की कोई भूमिका है?
नहीं ऐसा नहीं है।
इसका कारण सीधा-सादा है-
बुद्धिमान, योग्य, प्रतिभावान, समर्थ और सक्षम व्यक्ति अधिकतर अपनी महत्वाकांक्षा की पूर्ति के लिए प्रयासरत रहते हैं। जिससे, असफलता और संघर्ष का सामना होना सामान्य सी प्रक्रिया है।
शेष तो "संतोषी सदा सुखी" मंत्र को अपनाकर सामान्य जीवन व्यतीत करते हैं।
6 नवम्बर, 2013
मनुष्य को सभ्यता की शिक्षा दी जाती है क्योंकि समाज को मात्र 'सभ्य' लोग चाहिए।
वे 'भद्र' हैं या नहीं, इससे समाज को कोई लेना-देना नहीं है। जबकि भद्र होना ही सही मायने में इंसान होना है। 'सभ्य' होना आसान है लेकिन 'भद्र' होना मुश्किल है। हम अभ्यास से सभ्य हो सकते हैं भद्र तो विरले ही होते हैं।
सभ्य जन वे हैं जो समाज के सामने सभ्यता से पेश आते हैं, सधा और सीखा हुआ एक ऐसा व्यवहार करते हैं, जिससे यह मान लिया जाता है कि 'हाँ यह व्यक्ति सभ्य है'।
'भद्र' वह है, जो एकान्त में भी सभ्य है, जो शक्तिशाली होने पर भी सभ्य है, जो आपातकाल में भी सभ्य है, जो अभाव में भी सभ्य है, जो भूख में भी सभ्य है, जो कृपा करते हुए भी सभ्य है, जो अपमानित होने पर भी सभ्य है, जो विद्वान होने पर भी सभ्य है, जो निरक्षर होने पर भी सभ्य है...
जिस तरह धर्म और जाति किसी दूसरे की उपस्थिति में ही अस्तित्व में आते हैं उसी तरह सभ्यता भी किसी दूसरे के आने पर ही जन्म लेती है। भद्रता के लिए किसी की उपस्थिति की आवश्यकता नहीं है।
अभद्रता वह स्थिति है जहाँ हम सोचते हैं- 'यहाँ कौन देख रहा है मुझे... ऐसा करने में क्या बुराई है?' जैसे ही हम ऐसा सोचते हैं, वैसे ही हम अभद्र हो जाते हैं।
5 नवम्बर, 2013
प्रत्येक धर्म के अनुयायी, ईश्वर से प्रार्थना करते हैं।
यह भी चाहते हैं कि ईश्वर उनकी प्रार्थना सुने तो फिर
ईश्वर से प्रार्थना भी ऐसी ही करनी चाहिए जिसे कि ईश्वर सुने...
राज़ की बात ये है कि केवल एक ही प्रार्थना ऐसी है जिसे वह सुनता है-
"हे ईश्वर ! सभी का कल्याण कर।"
इसके अलावा बहुत सी प्रार्थनाएँ ऐसी हैं जो ईश्वर ने कभी नहीं सुनी और न ही कभी सुनेगा, जैसे कि-
"हे ईश्वर मेरा भला कर।" या फिर "उसका बुरा कर" आदि-आदि।
कारण सीधा सा है-
ईश्वर पक्षपाती नहीं हो सकता और जो पक्षपाती है वह ईश्वर कैसे हो सकता है?
5 नवम्बर, 2013
कल श्री सुनील आचार्य (Sunil Acharya) मुझसे मिलने मेरे घर आए थे। वे स्टेट बैंक में कार्यरत हैं और मेरे स्कूल के समय से परिचित हैं। स्कूल में वे मेरे सीनियर थे, शायद 3-4 वर्ष।
वे उस सादगी और सहजता से जीवन जीते हैं जिसे प्राप्त करने के लिए मेरे जैसे कूढ़-मगज तरसते रहते हैं। हमने लगभग 2 घन्टे बातें की। पारिवारिक बातों के अलावा हमने कुछ और चर्चा भी कीं, जैसे कि दर्शन आदि। मैंने अपनी विद्वता झाड़ने की आदत पर काफ़ी लगाम रखते हुए उनसे बातें करने का प्रयास किया। वे सभी बातें बहुत सावधानी से सुनते रहे। यह उनका गुण है।
मैं एक वर्ष तक गाँव में पेड़ के नीचे झोंपड़ी बनाकर और मात्र दो वस्त्र पहन कर रहा लेकिन फिर भी अपने भीतर के ज़मीदार, सामंत और सूडो-विद्वान का पूरी तरह वध करने में असफल हुआ... (ये अभी भी, कभी-कभी मेरे पास आकर, मुझे डराते रहते हैं)।
सुनील जी से मेरी मुलाक़ात लम्बे-लम्बे अंतरालों के बाद होती है, जैसे कि 5 वर्ष 10 वर्ष। उनसे मिलकर हमेशा अच्छा लगता है। मेरे जैसे लोग न जाने कितने पूर्वाग्रह, कुण्ठा, और हीन-श्रेष्ठ भावनाओं से ग्रसित रहते हैं और सुनील जी जैसे लोग सहजता की प्रेरणा बने रहते हैं।
मेरे मित्रों की सूची में पूर्व प्रधानमंत्रियों का नाम भी है लेकिन मुझे जिन लोगों का मित्र होने में गर्व है उनमें से एक सुनील जी हैं। कुछ और नाम अगर लूँ तो मेरे बचपन के सहपाठी, आशुतोष चतुर्वेदी (Ashutosh Chaturvedi) का नाम तुरंत ही मन में कौंधता है...ख़ैर...
सुनील जी तो अपना स्कूटर स्टार्ट करके चले गए...
लेकिन, हे आदित्य चौधरी ! तुम कब सुधरोगे, कब ???
31 अक्तूबर, 2013
विकसित होने के क्रम में हमने बहुत कुछ पाया पर कुछ खोया भी...
ज्ञानी बढ़ रहे हैं, विचारक कम हो रहे हैं
व्यापारी बढ़ रहे हैं, उद्यमी कम हो रहे हैं
कलाविज्ञ बढ़ रहे हैं, कलाकार कम हो रहे हैं
परिवार बढ़ रहे हैं, समाज कम हो रहे हैं
विज्ञ बढ़ रहे हैं, वैज्ञानिक कम हो रहे हैं
सम्प्रदायी बढ़ रहे हैं, धार्मिक कम हो रहे हैं
मनुष्य बढ़ रहे हैं, इंसान कम हो रहे हैं
29 अक्तूबर, 2013
महान वैज्ञानिक अल्बर्ट आंइस्टाइन ने एक अत्यंत महत्वपूर्ण बात कही थी-
"आगे आने वाले समय में, प्रत्येक विषय विज्ञान हो जाएगा"
याने इसे यूँ कहें कि प्रत्येक विषय के प्रश्न का उत्तर, विज्ञान ही देगा और प्रत्येक विषय के अध्ययन का माध्यम भी विज्ञान ही होगा । हम किसी भी विषय का अध्ययन करेंगे तो विज्ञान तक जा पहुँचेंगे ।
बात तो बहुत सही कही उन्होंने लेकिन हुआ कुछ और ही...
आज के समय में प्रत्येक विषय 'व्यापार' हो गया है
26 अक्तूबर, 2013
आग का उपयोग सीखने के बाद मनुष्य ने, नर-नारी के बीच, कार्य की प्रकृति के अनुसार बँटवारा किया। नर ने भोजन की तलाश को चुना तो नारी ने भोजन पकाना, संग्रहीत करना और निवास को सुविधाजनक बनाना। नारी के, नौ महीने बच्चे को गर्भ में रखने के दायित्व के चलते, यह बँटवारा एक सामान्य नियम बनने लगा।
इस बँटवारे से नर-नारी में कार्य और दायित्व की आवश्यकता के अनुसार शारीरिक भेद भी विकसित होने लगे। नर, बलिष्ठ तो नारी सुन्दर और कोमल होने लगी। इससे पहले अन्य प्रजातियों की तरह ही नर-नारी भी समान रूप से सक्रिय होने के कारण शारीरिक रूप से भी लगभग समान शक्तिशाली ही थे और भोजन की तलाश में व्यस्त रहते थे। बँटवारे से दोनों के पास अतिरिक्त समय भी होने लगा। जिसका उपयोग नर-नारी ने अपनी आवश्यकता और रुचि के अनुसार किया।
बच्चों को बोलना सिखाने के कारण नारी की भाषा सीखने-सिखाने क्षमता नर से अधिक हो गयी। नर के अधिक घूमने फिरने के कारण वह गणित, दर्शन और विज्ञान में उलझ गया।
यह एक मुख्य कारण था जिसके कारण मनुष्य अन्य प्रजातियों के मुक़ाबले में बेहतर और सभ्य हो सका जबकि अन्य प्रजातियाँ आज भी नर-मादा में कार्य का बँटवारा करने में अक्षम हैं और विकास क्रम की धारा से वंचित।
26 अक्तूबर, 2013
सुख की तलाश न होती तो कोई ईश्वर की तलाश भी न करता
सुख की तलाश में ही ईश्वर की स्तुति की जाती है यदि सभी सुखी होते तो भला ईश्वर को कौन याद करता,
लगता है कि इसीलिए ईश्वर ने सबको सुखी नहीं बनाया कि कम से कम उसे याद तो करें।
24 अक्तूबर, 2013
समय-समय पर समाज सुधारक, विभिन्न धर्मों के कुछ ऐसे संस्कारों का विरोध करते रहे हैं, जो संस्कार, नारी और समाज के प्रति किसी भी अर्थ में उचित नहीं थे जैसे कि सती प्रथा। ये विरोध, समाज में बहुत से अच्छे परिवर्तनों का कारण भी रहे हैं।
मैंने अक्सर यह अनुभव किया है कि आधुनिकता, नारी मुक्ति, नर-नारी समान अधिकार, मानवता वाद आदि जैसे मसलों के चलते कुछ अति उत्साही जन, विभिन्न धर्मों से संबंधित कुछ संस्कारों का विरोध करते रहते हैं जिसकी कोई आवश्यकता शायद नहीं है। ऐसा ही एक संस्कार करवा चौथ है।
अनेक अन्य धर्मों की तरह ही हिन्दू धर्म में भी बहुत से संस्कार काफ़ी हद तक वैज्ञानिक और समाज हितैषी हैं।
कुछ समय पहले तक भारत में सम्मिलित परिवारों का प्रचलन था (वैसे कुछ आज-कल भी है)। किसी भी परिवार में घर की बहू को विशेष महत्व देने के लिए ही यह करवा चौथ का व्रत प्रचलन में आया। कम से कम वर्ष में एक दिन पूरे परिवार का ध्यान बहू पर ही होता है, कि उसने भोजन किया या नहीं या पानी पिया या नहीं कि उसके पास ज़ेवर-नये कपड़े हैं या नहीं...
आज कल तो नये जोड़ो में पति-पत्नी दोनों ही व्रत रखने लगे हैं। यदि गृहस्थ आश्रम के महत्व को हम मानते हैं और विवाह को आवश्यक, तो इससे जुड़े उत्सव को मनाने में बुराई क्या है। हाँ इतना ज़रूर करें कि अपनी समझ से इन त्योहारों में कुछ अच्छे फेर-बदल कर लें जैसे कि हमारे घर में 'अहोई अष्टमी' का व्रत बेटे के लिए ही नहीं बल्कि बेटी के लिए भी रखा जाता है। पता नहीं कि आप क्या सोचते हैं लेकिन मुझे तो करवा चौथ प्रेम का त्योहार लगता है, नारी ग़ुलामी का तो कहीं से नहीं...
...ये बंधन तो प्यार का बंधन है...
23 अक्तूबर, 2013
महान दार्शनिक श्री जे. कृष्णमूर्ति से किसी ने पूछा "मैं अपने माता पिता को अहसास दिलाना चाहता हूँ कि
मैं उनका सम्मान करता हूँ, मुझे क्या करना चाहिए ?"
कृष्णमूर्ति ने उत्तर दिया "सिर्फ़ इतना करें कि आप अपने माता पिता का अपमान करना बंद कर दें,
वे हमेशा अपने आप को सम्मानित ही महसूस करेंगे।"
20 अक्तूबर, 2013
जब प्रसिद्ध शास्त्रीय गायक, कुमार गंधर्व जी से कहा
गया कि शास्त्रीय संगीत के सुनने वाले धीरे-धीरे कम
होते जा रहे हैं लेकिन आपके गायन की लगन में कोई
कमी नहीं आ रही, ऐसा कैसे ? तो उन्होंने उत्तर दिया
कि मैं तो अंतिम बचे हुए एक श्रोता के लिए भी ऐसे ही
गाऊँगा क्योंकि एक अंतिम श्रोता तो अवश्य ही रहेगा
और वही मेरा सबसे पहला श्रोता भी है, मेरा ईश्वर
19 अक्तूबर, 2013
जिसका आदर हम दिल से करते हैं , गुरु केवल वही होता है । जिसका हम आदर नहीं करते , वह गुरु कैसे हो सकता है ? इसलिए जगह-जगह यह लिखना कि-
"गुरु का आदर करना चाहिए"
कितना अर्थहीन है !
ठीक इसी तरह ‘ममतामयी’ मां अथवा ‘आज्ञाकारी’ पुत्र आदि विशेषण युक्त शब्दों का भी कोई अर्थ नहीं है। यदि मां होगी तो ममतामयी तो होगी ही अन्यथा कुमाता होगी, पुत्र तो वही है जो आज्ञाकारी हो, अन्यथा तो कुपुत्र ही होगा।
17 अक्तूबर, 2013
यदि आप ‘कुछ अंतराल’ के लिए ख़ुद को व्यस्त बताते हैं, तब तो ठीक है...
यदि आप, अपनी अनवरत व्यस्तता के संबंध में एक व्यापक घोषणा करते रहते हैं
कि आप व्यस्त हैं तो आज के समय में आप उपहास के ही पात्र हैं क्योंकि आज के समय में तो सभी व्यस्त हैं। व्यस्तता तो अब अप्रासंगिक हो गई है।
6 अक्तूबर, 2013
कुछ दिन पहले गाँधी जी के लेख को लेकर कुछ मुद्दे उठे थे। आज प्रसंग वश मैं इस संबंध में कुछ बातें बता रहा हूँ।...
कुछ लोग गाँधी जी को ही प्रत्येक नकारात्मक घटना के लिए दोषी ठहरा रहे हैं। मैं कुछ बातें बिन्दुवार लिख रहा हूँ।
/).गाँधी जी देश के बँटवारे के ख़िलाफ़ थे। उन्होंने तो यहाँ तक कहा था कि चाहे मेरे शरीर के दो टुकड़े हो जाएँ पर देश के दो टुकड़े नहीं होंगे। इसके लिए उन्होंने चाहा कि जिन्हा को ही प्रधानमंत्री बना दिया जाय। इसके लिए नेहरू जी ने अपना विरोध, पटेल जी के मुख से कहलवाया। पटेल जी ने गाँधी जी को राज़ी किया। यदि गाँधी जी अपनी बात पर अड़े रहते तब भी कांग्रेसी नेता उनकी एक न चलने देते। बहुत कम ही पाठक इस तथ्य को जानते होंगे कि भारत के धार्मिक आधार पर बँटवारे के मुद्दे पर जिन्हा के साथ सारवकर जी भी सहमत थे।
/). जब जिन्हा एक वर्ष में ही चल बसे तब नेहरू जी ने कहा कि मुझे क्या पता था कि ऐसा होगा वरना मैं तो जिन्हा को ही प्रधानमंत्री बनने देता।
/). गाँधी जी की अहिंसा में कहीं कोई कायरता जैसी बात नहीं थी। कश्मीर के लिए उन्होंने कहा कि कश्मीर को बचाने के लिए भारत का बच्चा बच्चा क़ुर्बान हो जाए तब भी मुझे दु:ख नहीं होगा। जबकि पटेल जी ने कहा कश्मीर को पाकिस्तान को देदो। (दोनों ही अपनी-अपनी जगह ठीक थे)।
/). नेताजी सुभाष कांग्रेस में पट्टाभि सीता रमैया (गाँधी जी के उम्मीदवार) को हराकर अध्यक्ष बने। उनकी और गाँधी जी के वैचारिक और नीतिगत मतभेद मूल रूप से थे। गाँधी जी ने सीताभिरमैया की हार को अपनी हार बताया। नेताजी ने इस्तीफ़ा दे दिया। अपना राजनैतिक अस्तित्व बचाने के लिए तो भगवान राम ने सीता को वनवास दे दिया वे सीता के साथ वन नहीं गए जबकि सीता महल के आराम को छोड़कर राम के साथ वनवास गई थी।
/). काँग्रेस में, जिन्हा को बढ़ाने का काम भी गाँधी जी ने किया क्यों कि सर सैयद, अंग्रेज़ों के समर्थन में थे। अंंग्रेज़ों के समर्थक तो गोखले जी भी थे जो कि गाँधी जी के गुरु भी थे। गोपाल कृष्ण गोखले अँग्रेज़ो को विश्व की सर्वश्रेष्ठ जाति मानते थे किन्तु गाँधी जी ने विश्व मंच पर अंग्रेज़ों की इस छवि को धूल-धूसरित कर दिया।
/). किसी भी देश के किसी भी हिंसक आंदोलन को वैश्विक पटल पर समर्थन मिलना मुश्किल होता है। यह बात गाँधी जी अच्छी तरह समझ गए थे। इसीलिए अहिंसक आंदोलन चलाए गये। जैसे कि थॉरो से प्रेरित सविनय अवज्ञा। 1857 में क्राँति की जो असफल कोशिश हुई उसका प्रभाव गाँधी जी पर और सभी तत्कालीन विचारकों पर गहरा था। हमारे हिंसक आंदोलन इतनी ताक़त नहीं रखते थे कि क्रांति हो जाती।
/). चौरी-चौरा काण्ड सन 1922 में हुआ। चौरी-चौरा का समय इंग्लॅन्ड में जॉर्ज पंचम के शासन का समय था, उस समय इंग्लॅन्ड में लिबरल पार्टी का प्रधानमंत्री डेविड लॉयड जॉर्ज था और वॉयसरॉय था लॉर्ड रीडिंग (रफ़स आइज़क)। प्रधानमंत्री जॉर्ज भारत और कनाडा को आज़ाद करने के पक्ष में था लेकिन जॉर्ज पंचम तो पक्के तौर पर भारत में अंग्रेज़ी शासन की नींव को जमा रहा था। इसीलिए राजधानी कोलकाता से दिल्ली कर दी गई थी। वॉयसरॉय कोई प्रभावशाली व्यक्ति नहीं था और प्रधानमंत्री को भी इंग्लॅन्ड में विरोधों का सामना करना पड़ रहा था। यह क्रांति के लिए सही समय नहीं था।
/). द्वितीय विश्व युद्ध को कन्जरवेटिव पार्टी के प्रधानमंत्री चर्चिल ने जीत तो लिया लेकिन चुनाव हार गया। इसके बाद लेबर पार्टी का एटिली प्रधानमंत्री बना। यह भारत के लिए बहुत अच्छा रहा। एटिली भारत की आज़ादी के पक्ष में था। यह सही समय था।
/). सन् बयालीस में जब अंग्रज़ों के ख़िलाफ़ गाँधी जी ने भारत छोड़ो और करो या मरो आंदोलन शुरू किया तो हिन्दू महासभा, मार्क्सवादी पार्टी और जिन्हा की मुस्लिम लीग ने इसका विरोध किया। जिन्हा ने अंग्रेज़ों से समझौता करके फ़ौज में बड़े पैमाने पर मुस्लिमों की भर्ती कराई। भारत छोड़ो आंदोलन के विरोध के कई अलग-अलग कारण थे जिनमें से कोई भी देश हित में नहीं था। जैसे कि छोटी बड़ी रियासतों के राजा अपने राज्य के जाने के भय से इस आंदोलन का विरोध किया।
/). आज जब हम 70-80 साल बाद, स्वतंत्रता आंदोलन को सामान्य रूप से देखते हैं तो हमें ऐसा लगता है कि उस समय सभी नेता केवल देश हित में लगे थे लेकिन जब बहुत गहराई से जानने का प्रयास करते हैं तो ये जानकर बड़ा सदमा लगता है कि भारत की आज़ादी से अधिक रुचि इस बात में थी कि आज़ाद भारत के शासन में हमारा हिस्सा क्या होगा। जैसे आज़ादी न हुई कोई लूटी हुई जायदाद हो गयी।
2 अक्तूबर, 2013
केन्द्रीय विद्यालय मथुरा में मेरे 'ज़माने' के छात्र-सहपाठी जमा हो रहे हैं (अध-बूढ़े हैं सब...)। 14 सितम्बर को... पवन चतुर्वेदी, सुनील आचार्य, संदीपन नागर और, और भी मित्रों ने याद किया है...
दोस्तों की याद में-
दोस्त वो निठल्ला होता है जिसके साथ बिना काम-काज की बात किए सारा दिन गुज़ारा जा सके।
दोस्त वो रिश्ता होता है जिसकी बहन की शादी में पूरी रात काम करने के बाद भी उसके और अपने
मां-बाप से डांट पड़ती है।
दोस्त वो राहत होता है जो महबूब की बेवफ़ाई में टिशू-नॅपकिन से लेकर ज़बर्दस्ती खाना खिलाने
का काम भी करता है।
दोस्त वो खड़ूस होता है जो हमें चैन से दारू और सिगरेट नहीं पीने देता।
दोस्त वो ड्रामा होता है जो हमारी बीवी के सामने अपनी इमेज हमेशा, भारतभूषण और प्रदीप कुमार जैसी बनाकर
रखता है जिससे हम अपनी बीवी को प्रेम चौपड़ा और रंजीत नज़र आते हैं
दोस्त वो पंगा होता है जो हमारी लड़ाई में अपना दांत तुड़वा लेता है या अपनी में हमारा...
दोस्त वो कलेस होता है जिसकी पजॅसिवनॅस की वजह से हमारा महबूब हमेशा कहता रहता है-
"उसी के पास जाओ! वोई है तुम्हारा दोस्त-गर्लफ़्रॅन्ड-बॉयफ़्रॅन्ड सबकुछ सबकुछ..."
दोस्त वो शॅर्लॉक होम्स होता है जो हमारी परेशानियों का कोई न कोई हल चुपचाप और बिना अहसान दिखाए करता रहता है।
दोस्त वो याड़ी होता है जिसे एक बार नज़र लग जाय तो उस पर न्यौछावर करने के लिए सारी दुनिया की दौलत भी कम पड़ जाती है...
13 सितम्बर, 2013
एक और फ़ेसबुक वार्ता:
Ajit Dixit बापू जी के बारे में नई पीढ़ी में बहुत सारी भ्रांतियां प्रचलित हो गई हैं. उनके बारे में अभद्र और मनगढ़ंत टिप्पणियां पढ़कर मन खिन्न हो जाता है. अधकचरा ज्ञान रखने वालों को मेरी सलाह है की पहले उनके बारे में पूरी जानकारी करें फिर टिप्पणी करें।
Aditya Chaudhary: अजित जी आपने सही कहा, किसी भी विराट व्यक्तित्व की आलोचना करना आसान है, किन्तु उस जैसा बनना बहुत कठिन है। गाँधी जी की तरह यदि सभी महापुरुष और नेता अपने व्यक्तिगत जीवन को भी सार्वजनिक करने की हिम्मत करते, तभी उनका सही मूल्यांकन होता। किन्तु किसी ने ऐसा किया नहीं...। महात्मा गाँधी के अनेक कार्यों का अनुसरण करने का प्रयास किया गया और ज़ाहिर है कि आलोचना भी की गई लेकिन कोई भी गाँधी जी की तरह से अपने व्यक्तिगत जीवन की गतिविधियों को सार्वजनिक करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
राकेश जैन जी Shreesh Rakesh Jain ने मेरे फ़ोटो पर कमेंट किया है कि मेरी मुद्रा गंभीर है... उनके सम्मान में मैंने उत्तर दिया है...
जैन साहिब बड़ी अजीब बात यह है कि मुद्रा और रूप दोनों ही शब्द ऐसे हैं जिनका अर्थ पैसा है। रूप शब्द से ही रुपया शब्द बना है। प्राचीन काल में मुद्रा-विशेषज्ञ को रूप-कला विज्ञ कहते थे।
यहाँ तक कि अर्थ का अर्थ भी वही है...। आपको मेरी मुद्रा गंभीर लगी! यह सोचकर मैं बड़ा खुश हूँ। उम्मीद है कि कभी न कभी मुद्रा (पैसा) भी मुझे लेकर गंभीर हो जाएगी। मैं तो चाहे जब गंभीर मुद्रा बना लेता हूँ लेकिन मुद्रा (पैसा) मुझे लेकर कभी गंभीर नहीं होती...
15 अगस्त, 2013
अफ़साना निगार याने कहानीकार और उपन्यासकार इतिहास को अपने मन मुताबिक़ घुमा-फिरा देते हैं। इसके बाद फ़िल्मकार तो और भी ज़्यादा मसाले का तड़का लगा देते हैं। मुग़ल इतिहास में अकबर की पत्नी, जो सलीम (जहाँगीर) की मां भी थी, का नाम जोधाबाई, कहीं भी नहीं है। अकबरनामा, जहाँगीरनामा कहीं भी देख लीजिए आपको जोधाबाई नाम जहाँगीर की पत्नी के रूप में मिलेगा, अकबर की पत्नी का नहीं। ये हिंदू रानी जो अकबर की पत्नी बनी आमेर (जयपुर) के राजा बिहारी मल (भारमल) की पुत्री थी। इसका नाम हरका, रुक्मा या हीरा था। शादी के बाद नाम हो गया था मरियम-उज़-ज़मानी। कर्नल टॉड के लोक-कथाओं पर आधारित इतिहास और मुग़ल-ए-आज़म फ़िल्म के कारण जोधाबाई नाम, अकबर की रानी के रूप में प्रसिद्ध हो गया।
फ़तेहपुर सीकरी आगरा से 22 मील दक्षिण में, मुग़ल सम्राट अकबर का बसाया हुआ भव्य नगर जिसके खंडहर आज भी अपने प्राचीन वैभव की झाँकी प्रस्तुत करते हैं। अकबर से पूर्व यहाँ फ़तेहपुर और सीकरी नाम के दो गाँव बसे हुए थे जो अब भी हैं। इन्हें अंग्रेज़ी शासक ओल्ड विलेजेस के नाम से पुकारते थे। सन् 1527 ई. में चित्तौड़-नरेश राणा संग्रामसिंह और बाबर ने यहाँ से लगभग दस मील दूर कनवाहा नामक स्थान पर भारी युद्ध हुआ था जिसकी स्मृति में बाबर ने इस गाँव का नाम फ़तेहपुर कर दिया था। तभी से यह स्थान फ़तेहपुर सीकरी कहलाता है। कहा जाता है कि इस ग्राम के निवासी शेख सलीम चिश्ती के आशीर्वाद से अकबर के घर सलीम (जहाँगीर) का जन्म हुआ था। जहाँगीर की माता मरियम-उज़्-ज़मानी (आमेर नरेश बिहारीमल की पुत्री) और अकबर, शेख सलीम के कहने से यहाँ 6 मास तक ठहरे थे जिसके प्रसादस्वरूप उन्हें पुत्र का मुख देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था।
सन् 1584 में एक अंग्रेज़ व्यापारी अकबर की राजधानी आया, उसने लिखा है− 'आगरा और फ़तेहपुर दोनों बड़े शहर हैं। उनमें से हर एक लंदन से बड़ा और अधिक जनसंकुल है। सारे भारत और ईरान के व्यापारी यहाँ रेशमी तथा दूसरे कपड़े, बहुमूल्य रत्न, लाल, हीरा और मोती बेचने के लिए लाते हैं।' सन् 1600 के बाद शहर वीरान होता चला गया हालांकि कुछ नए निर्माण भी यहाँ हुए थे। और जानने के लिए भारतकोश पर जाएँ...
18 जुलाई, 2013
महान स्वतंत्रता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई (रानी झांसी) के संबंध में भारतकोश के कुछ सुधी और जागरूक पाठक गणों ने अपने प्रश्न और शंकाएँ जताई हैं।
इस संबंध में उनकी शंकाओं का निवारण करना मैं अपना कर्तव्य समझता हूँ। चूँकि हम भारतीयों में इतिहास लिखने की परंपरा नहीं रही, इसलिए ये झंझट सामने आते हैं। आइए कुछ तारीख़ों पर ग़ौर करें...
राजा झांसी गंगाधर राव के मनु (बाद में लक्ष्मीबाई) से विवाह का वर्ष लगभग सभी उल्लेखों में 1842 मिलता है। महान स्वतंत्रता सेनानी रानी लक्ष्मीबाई के जन्म का वर्ष अधिकतर 1835 ही मिलता है। इस हिसाब से विवाह की उम्र रही मात्र 7 वर्ष...? लेकिन कई स्थानों पर यह 13-14 वर्ष भी है।
गंगाधर राव का कोई जीवन चरित नहीं मिलता और न ही जन्म की तारीख़... लेकिन फिर भी ये सोच कर कि वह राजा था... तो कम से कम विवाह की और मरने की तारीख़ तो सही होगी... विवाह 1842 में और गंगाधर की मृत्यु हुई 1853 में...। महारानी लक्ष्मीबाई की वीरगति प्राप्त करने की तारीख़ भी दो हैं 17 जून और 18 जून।
गंगाधर राव स्त्री पोशाक पहन कर नाटकों में हिस्सा लेता था या नहीं इसका फ़ैसला करने वाला मैं कौन होता हूँ। जो कुछ भी इतिहासकारों ने लिखा और मैंने पढ़ा वही मैं भी आप तक पहुँचाने का प्रयत्न करता हूँ...
एक बात जो मुझे महसूस हुई वह यह है कि माने हुए बड़े इतिहासकारों ने रानी लक्ष्मीबाई का जीवन-वृत्त क्यों नहीं लिखा ? इसका कारण यह हो सकता है कि ये इतिहासकार 1857 के स्वतंत्रता समर को महज़ एक आर्थिक विद्रोह की संज्ञा देते हैं और रानी लक्ष्मीबाई के संघर्ष को यह लिख कर हलका बना देते हैं कि लक्ष्मीबाई के दत्तक पुत्र को अंग्रेज़ों ने उत्तराधिकारी मानने से इंकार कर दिया और झांसी को शासक विहीन मान लिया गया और अंग्रेज़ों ने झांसी को पूर्णत: अपने अधिकार में लेना चाहा जो कि लक्ष्मीबाई को नागवार गुज़रा...।
अब बताइए मैं क्या करूँ ? मेरे प्रपितामह याने मेरे पिताजी के दादाजी 'बाबा देवकरण सिंह' को भी अंग्रेज़ों ने फाँसी दी थी इसी 1857 के प्रथम स्वातंत्र्य संग्राम में... उनका नाम इतिहास में तो दर्ज है लेकिन फाँसी की सही-सही तारीख़ नहीं मिलती।
ख़ैर मुझे बहुत अच्छा लगा कि लोग मेरे जैसे साधारण आदमी की पोस्ट में भी दिलचस्पी लेते हैं... मैं तो समझ रहा था कि जनता को नवरत्न तेल बेचने वाले महान व्यक्तित्वों से फ़ुर्सत ही नहीं...
18 जून, 2013
आज पिता दिवस है। मैं गर्व करता हूँ कि मैं चौधरी दिगम्बर सिंह जी जैसे पिता का बेटा हूँ। वे स्वतंत्रता सेनानी थे और चार बार संसद सदस्य रहे। वे मेरे गुरु और मित्र भी थे। भारतकोश के संचालक ट्रस्ट के संस्थापक भी हैं।
उनके स्वर्गवास पर मैंने एक कविता लिखी थी...
ये तो तय नहीं था कि
तुम यूँ चले जाओगे
और जाने के बाद
फिर याद बहुत आओगे
मैं उस गोद का अहसास
भुला नहीं पाता
तुम्हारी आवाज़ के सिवा
अब याद कुछ नहीं आता
तुम्हारी आँखों की चमक
और उनमें भरी
लबालब ज़िन्दगी
याद है मुझको
उन आँखों में
सुनहरे सपने थे
वो तुम्हारे नहीं
मेरे अपने थे
मैं उस उँगली की पकड़
छुड़ा नहीं पाता
उस छुअन के सिवा
अब याद कुछ नहीं आता
तुम्हारी बलन्द चाल
की ठसक
और मेरा उस चाल की
नक़ल करना
याद है मुझको
तुम्हारे चौड़े कन्धों
और सीने में समाहित
सहज स्वाभिमान
याद है मुझको
तुम्हारी चिता का दृश्य
मैं अब तक भुला नहीं पाता
तुम्हारी याद के सिवा कुछ भी
मुझे रुला नहीं पाता
17 जून, 2013
आज मन उदास है... मेहदी हसन साहिब नहीं रहे... मैंने बहुत कम उम्र से ही उनको सुना और अब भी सुनता हूँ... उनके गायन की प्रशंसा करने के लिए मैं अति तुच्छ व्यक्ति हूँ... कभी-कभी सोचता हूँ कि राजस्थान की मिट्टी में ऐसा क्या अद्भुत है जिसने मेहदी हसन जैसे कला शिरोमणि को जन्म दिया... उनकी गाई और ज़फ़र (बहादुर शाह ज़फ़र) की कही ग़ज़ल आज बहुत याद आई-
बात करनी मुझे मुश्किल कभी ऐसी तो न थी ।
जैसी अब है तेरी महफ़िल कभी ऐसी तो न थी ॥
ले गया लूट के कौन आज तिरा सब्र-उ-क़रार ।
बे-क़रारी तुझे दिल कभी ऐसी तो न थी ॥
14 जून, 2013
'कला' शब्द का अर्थ वात्स्यायन (तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व) के बाद बदल गया। वात्स्यायन ने पहली बार 'कला' शब्द को इस अर्थ में प्रयोग किया जिसे कि अंग्रेज़ी में 'आर्ट' कहते हैं। जयमंगल ने भी 64 कलाओं के बारे में बताया। इससे पहले इसका अर्थ था 'अंश' (हिस्सा)। इसी लिए चन्द्रमा या सूर्य की पृथ्वी के सापेक्ष स्थितियों को बाँटा गया तो उन्हें कला कहा गया। चन्द्रमा को सोलह अंश में और सूर्य को बारह में। इसीलिए चन्द्रमा की सोलह कला हैं और सूर्य की बारह कला। अवतारों की कला का भी यही रहस्य है। लोग अक्सर पूछते हैं कि कृष्ण की सोलह कलाएँ कौन-कौन सी थी ? असल में कृष्ण के काल में कला का अर्थ अंश था न कि आज की तरह 'आर्ट'।
ख़ैर... नृत्य कला पर भी भारतकोश पर कुछ है शायद आपकी रुचि हो
10 जून, 2013
नर्गिस दत्त, जिस पृष्ठ भूमि से आयीं थीं, कोई सोच भी नहीं सकता था कि वे एक संवेदनशील समाजसेविका भी बनेंगी। ये भी उल्लेखनीय है कि वे समाजसेवा का ढोंग नहीं करती थीं (जैसा कि आजकल फ़ॅशन है)। जब वे कॅन्सर से हार कर अपनी अंतिम सांसे ले रही थीं, उस समय, पति सुनील दत्त उनके पास थे। उनके अंतिम समय की बातें सुनकर मैं इतना भावुक हो गया कि आँसू नहीं रोक पाया। आप चाहें तो भारतकोश पर उनके लेख के सबसे नीचे की ओर, बाहरी कड़ियों में उनके जीवन पर बनी छोटी सी डॉक्यूमेन्ट्री को लिंक क्लिक करके देख सकते हैं। इसमें उनकी आवाज़ की अंतिम रिकॉर्डिंग भी है। ... विस्तार में जानने के लिए क्लिक करें
1 जून, 2013
ईश्वर, अवतार, पैग़म्बर और संत किसी भी रूप में पक्षपाती नहीं होते। इसलिए ये किसी व्यक्ति विशेष का हित या अहित करेंगे ऐसा सोचना व्यर्थ ही है। जब इनके अस्तित्व पर हमारी आलोचना का असर नहीं होता तो फिर प्रार्थना का भी असर कैसे होगा। ज़रा सोचिए कि क्या हम यह मान सकते हैं कि ईश्वर पक्षपाती है, असंभव ही है ना ? तो फिर करें क्या ?
... प्रार्थना तो करें पर माँगे कुछ नहीं। प्रार्थना हमें विनम्र बनाती है। कर्म करें अकर्मण्य न रहें।
19 मई, 2013
मेरे मित्र श्री पी. के. वार्ष्णेय ने प्रश्न किया है- Varshney Mathura :
ADITITYA JI KYA HAMARA DHARM HINDU HAI YA SANATAN ?
मैंने उत्तर दिया है--------:------
तकनीकी दृष्टि से आप सनातन वैष्णव हैं। यदि आज की भाषा में कहें तो आप हिन्दू धर्म के वैष्णव संप्रदायी हैं। हिन्दू या हिन्दी तो भारतवासियों को कहा जाता था (पुराने समय में)। सिन्धु नदी को ईरानियों ने हिन्दु कहा और यूनानियों ने इंदु। हिन्दु से हिन्दू हुआ और इंदु से इंडिया। जहाँ तक मेरे धर्म का सवाल है और यदि अपना धर्म चुनने की मुझे स्वतंत्रता है तो मैं तो मरने के बाद ही अपना धर्म चुनूंगा। ऊपर जाकर जिस धर्म के भी लोग अधिक सुविधा देंगे उसे ही चुन लूंगा। ये भी हो सकता है कि कुछ चीजें किसी एक की पसंद आए और कुछ किसी दूसरे की। पता नहीं क्या पसंद आए जैसे कि अप्सरा स्वर्ग की या हूर जन्नत की, अमृत स्वर्ग का या आब-ए-हयात बहिश्त का...वग़ैरा-वग़ैरा
16 मई, 2013
मेरे बचपन के प्रिय सहपाठी और मित्र हैं, श्री संदीपन विमलकांत । उन्होंने FB पर पूछा " Kahan ho koi khabar naheen?" तो मैने उनके जवाब में एक शेर कहा-
वो पूछते हैं मुझसे अपनी ख़बर नहीं ।
बंदा तो दर-ब-दर है कोई एक दर नहीं ।।