महमूद ग़ज़नवी
यह यमीनी वंश का तुर्क सरदार ग़ज़नी के शासक सुबुक्तगीन का पुत्र था । उसका जन्म सं. 1028 वि. (ई. 971) में हुआ, 27 वर्ष की आयु में सं. 1055 (ई. 998) में वह शासनाध्यक्ष बना था । महमूद बचपन से भारतवर्ष की अपार समृद्धि और धन-दौलत के विषय में सुनता रहा था । उसके पिता ने एक बार हिन्दू शाही राजा जयपाल के राज्य को लूट कर प्रचुर सम्पत्ति प्राप्त की थी, महमूद भारत की दौलत को लूटकर मालामाल होने के स्वप्न देखा करता था । उसने 17 बार भारत पर आक्रमण किया और यहाँ की अपार सम्पत्ति को वह लूट कर ग़ज़नी ले गया था । उसके आक्रमण और लूटमार के काले कारनामों से तत्कालीन ऐतिहासिक ग्रंथों के पन्ने भरे हुए है ।
महमूद ने पहला आक्रमण हिन्दू शाही राजा जयपाल के विरुद्ध सं. 1058 (29 नबंवर सन् 1001) में किया। उन दोनों में भीषण युद्ध हुआ, परन्तु महमूद की जोशीली और बड़ी सेना ने जयपाल को हरा दिया । इस अपमान से व्यथित होकर वह जीते जी चिता पर बैठ गया और उसने अपने जीवन का अंत कर दिया । जयपाल के पुत्र आनंदपाल और उसके वंशज त्रिलोचनपाल तथा भीमपाल ने कई बार महमूद से युद्ध किया। पर हर बार उन्हें पराजय मिली। सं. 1071 में हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो गया । हिन्दू शाही राजाओं का राज्य समाप्त हो जाने पर महमूद को खुला मार्ग मिल गया। बाद के आक्रमणों में उसने मुल्तान, लाहौर, नगरकोट और थानेश्वर तक के विशाल भू-भाग में ख़ूब मार-काट की तथा भारतीयों को जबर्दस्ती मुसलमान बनाया । उसका नवाँ (कुछ लेखकों के मतानुसार बारहवाँ) आक्रमण सं. 1074 में कन्नौज के विरुद्ध हुआ था । उसी समय उसने मथुरा पर भी आक्रमण किया और उसे बुरी तरह लूटा ।
महमूद की लूट और महावन का युद्ध
ग्यारहवीं शती के आरम्भ में उत्तर-पश्चिम की ओर से मुसलमानों के धावे भारत की ओर होने लगे। ग़ज़नी के मूर्तिभंजक सुल्तान महमूद ने सत्रह बार भारत पर चढ़ाई की। उसका उद्देश्य लूटपाट करके ग़ज़नी लौटना होता था। अपने नवें आक्रमण का निशाना उसने मथुरा को बनाया। उसका वह आक्रमण 1017 ई. में हुआ। मथुरा को लूटने से पहले महमूद गज़नबी को यहाँ एक भीषण युद्ध करना पड़ा। यह युद्ध मथुरा के समीप महावनके शासक कुलचंद के साथ हुआ। महमूद के मीरमुंशी 'अल-उत्वी' ने अपनी पुस्तक 'तारीखे यामिनी' में इस आक्रमण का वर्णन किया है। उसने लिखा है – "कुलचंद का दुर्ग महावन में था । उसको अपनी शक्ति पर पूरा भरोसा था क्योंकि तब तक कोई भी शत्रु उससे पराजित हुए बिना नहीं रहा था। वह विस्तृत राज्य, अपार वैभव, असंख्य वीरों की सेना, विशाल हाथी और सुदृढ़ दुर्गों का स्वामी था, जिनकी ओर किसी को आँख उठा कर देखने का भी साहस नहीं होता था। जब उसे ज्ञात हुआ कि महमूद उस पर आक्रमण करने के लिए आ रहा है, तब वह अपने सैनिक और हाथियों के साथ उनका मुक़ाबला करने को तैयार हो गया। अत्यंत वीरतापूर्वक युद्ध करने पर भी जब महमूद के आक्रमण को विफल नहीं कर पाया, तब उसके सैनिक क़िले से निकल कर भागने लगे, जिससे वे यमुना नदी को पार कर अपनी जान बचा सकें। इस प्रकार लगभग 50,000 (पचास हज़ार)सैनिक उस युद्ध में मारे गये या नदी में डूब गये, तब कुलचंद्र ने हताश होकर पहले अपनी रानी और फिर स्वयं को भी तलवार से समाप्त कर दिया। उस अभियान में महमूद को लूट के अन्य सामान के अतिरिक्त 185 सुंदर हाथी भी प्राप्त हुए थे।"
फरिश्ता ने भी उस युद्ध का उत्वी से मिलता जुलता वर्णन किया है-"मेरठ आकर सुलतान ने महावन के दुर्ग पर आक्रमण किया था। महावन के शासक कुलचंद्र से उसका सामना हुआ। उस युद्ध में अधिकांश हिन्दू सैनिक यमुना नदी में धकेल दिये गये थे। राजा ने निराश होकर अपने स्त्री-बच्चों का स्वयं वध किया और फिर ख़ुद को भी मार डाला। दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार हो गया। महावन की लूट में उसे प्रचुर धन-सम्पत्ति तथा 80 हाथी मिले थे।" इन लेखकों ने महमूद गज़नबी के साथ भीषण युद्ध करने वाले योद्धा कुलचंद्र के व्यक्तित्व पर कुछ भी प्रकाश नहीं डाला है। इसके बाद सुल्तान महमूद की फौज मथुरा पहुँची। यहाँ का वर्णन करते हुए उत्वी लिखता है- "इस शहर में सुल्तान ने निहायत उम्दा ढंग की बनी हुई एक इमारत देखी, जिसे स्थानीय लोगों ने मनुष्यों की रचना न बताकर देवताओं की कृति बताया। नगर का परकोटा पत्थर का बना हुआ था, उसमें नदी की ओर ऊँचे तथा मजबूत आधार-स्तंभों पर बने हुए दो दरवाजे स्थित थे । शहर के दोनों ओर हज़ारों मकान बने हुए थे जिनमे लगे हुए देवमंदिर थे। ये सब पत्थर के बने थे और लोहे की छड़ों द्वारा मज़बूत कर दिये गये थे। उनके सामने दूसरी इमारतें बनी थी, जो सुदृढ़ लकड़ी के खम्भों पर आधारित थी। शहर के बीच में सभी मंदिरों से ऊँचा एवं सुन्दर एक मन्दिर था,जिसका पूरा वर्णन न तो चित्र-रचना द्वारा और न लेखनी द्वारा किया जा सकता है। सुल्तान महमूद ने स्वयं उस मन्दिर के बारे में लिखा कि 'यदि कोई व्यक्ति इस प्रकार की इमारत बनवाना चाहे तो उसे दस करोड़ दीनार (स्वर्ण-मुद्रा) से कम न ख़र्च करने पड़ेगें और उसके निर्माण में 200 वर्ष लगेंगें, चाहे उसमें बहुत ही योग्य तथा अनुभवी कारीगरों को ही क्यों न लगा दिया जाये।' सुल्तान ने आज्ञा दी कि सभी मंदिरों को जला कर उन्हें धराशायी कर दिया जाय। बीस दिनों तक बराबर शहर की लूट होती रही। इस लूट में महमूद के हाथ खालिस सोने की पाँच बड़ी मूर्तियाँ लगीं जिनकी आँखें बहुमूल्य माणिक्यों से जड़ी हुई थीं। इनका मूल्य पचास हज़ार दीनार था। केवल एक सोने की मूर्ति का ही वज़न चौदह मन था। इन मूर्तियों तथा चाँदी की बहुसंख्यक प्रतिमाओं को सौ ऊँटो की पीठ पर लाद कर ग़ज़नी ले जाया गया ।"[1]
सोमनाथ के मंदिर का ध्वंस
देश की पश्चिमी सीमा पर प्राचीन कुशस्थली और वर्तमान सौराष्ट्र ( गुजरात) के काठियावाड़ में सागर तट पर सोमनाथ महादेव का प्राचीन मंदिर है। स्कंद पुराण में उल्लेख है – "वैदिक सरस्वती वहाँ सागर में मिलती है, जहाँ सोमेश्वर का मंदिर है, उस पवित्र स्थल के दर्शन करने से अत्यंत पुण्य प्राप्त होता है। ये सोमेश्वर ही सोमनाथ है, जिनका मंदिर काठियावाड के वर्तमान जूनागढ़ राज्य में है।"
महमूद के समय के लेखक और उनके ग्रंथ
महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों को जिन लेखकों ने अपनी आँखों से देखकर लिपिबद्ध किया, उनमें 'महमूद अलउत्वी, बुरिहाँ, अलबरूनी और इस्लाम वैराकी' प्रमुख हैं । उनके लिखे हुए विवरण भी उपलब्ध होते है।
- महमूद अलउत्वी– यह महमूद ग़ज़नवी का मीर मुंशी था, हालाँकि आक्रमणों में वह साथ में नहीं था। उसने सुबुक्तगीन तथा महमूद के शासन-काल का सं. 1077 तक का इतिहास अरबी भाषा में अपनी किताब "उल-यमीनी" में लिखा है। इस किताब में महमूद के सं. 1077 तक के आक्रमणों का विस्तृत वर्णन मिलता है। उसका विवरण पक्षपात पूर्ण है। उसने भारतीयों की दुर्बलता और विदेशी मुसलमान आक्रमणकारियों की वीरता का अतिश्योक्तिपूर्ण विवरण किया है।
- अलबेरूनी– मुस्लिम लेखकों में अलबेरूनी का विवरण प्रायः पक्षपात रहित है। वह भारतीय दर्शन, ज्योतिष, इतिहास, आदि का उत्कृष्ट विद्वान और धीर गम्भीर प्रकृति का लेखक था। उसका जन्म एक छोटे से राज्य ख्यादिम में 4 सितंबर सन् 973 में हुआ था। वह महमूद ग़ज़नवी के आक्रमणों में उसके साथ रहा था, किंतु उसको लूट-मार से कोई मतलब नहीं था। वह भारतीयों से निकट संबंध स्थापित कर उनकी भाषा, संस्कृति, धर्मोपासना एवं विद्या-कलाओं की जानकारी प्राप्त करने में लगा रहता था। उसकी सीखने की क्षमता ग़ज़ब की थी। थोड़ी ही कोशिश में बहुत सीखने की उसमें अद्भुत प्रतिभा थी। भारतीय संस्कृति और धर्म-दर्शन का प्रामाणिक ज्ञान प्राप्त करने के लिए उसने संस्कृत एवं प्राकृत भाषाएँ सीखी थीं, और उनके ग्रंथो का अध्ययन किया था। उसने अनेक भारतीय ग्रंथों का अरबी भाषा में अनुवाद भी किया।
- इमाम वैराकी– उसका पूरा नाम इमाम, अबुल फ़ज़ल वैराकी था। वह महमूद ग़ज़नवी के दरबार में हाकिम था। उसने जो ग्रंथ लिखा, उसका नाम "तारीख़-ए-अरब-ए-सुबुक्तगीन" अर्थात सुबुक्तगीन वंश का इतिहास। इसमें सुबुक्तगीन और उसके पुत्र-पौत्र महमूद ग़ज़नवी एवं उसके शासन-काल की घटनाओं पर प्रकाश डाला गया है। इसमें प्रासंगिक रूप से महमूद के भारतीय आक्रमणों का भी कुछ विवरण लिखा गया है, जो उल्लेखनीय ईमानदारी का प्रमाण है। यह ग्रंथ तीन भागों में है किंतु इस समय उसका केवल तीसरा भाग ही उपलब्ध है। आरंभ के दो भाग नष्ट हो गये। उपलब्ध भाग फ़ारसी भाषा में है।
अपने अंतिम काल में महमूद गज़नबी असाध्य रोगों से पीड़ित होकर असह्य कष्ट पाता रहा था। अपने दुष्कर्मों को याद कर उसे घोर मानसिक क्लेश था। वह शारीरिक एवं मानसिक कष्टों से ग्रसित था। उसकी मृत्यु सं. 1087 (सन् 1030 , अप्रैल 30) में हुई थी।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ दे.ग्राउज - मेम्वायर, पृ. 31-32 ।