समन्तभद्र

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आचार्य समन्तभद्र / Acharya Samantbhadra

  • ये आचार्य कुन्दकुन्द के बाद दिगम्बर परम्परा में जैन दार्शनिकों में अग्रणी और प्रभावशाली तार्किक हुए हैं।
  • उत्तरवर्ती आचार्यों ने इनका अपने ग्रन्थों में जो गुणगान किया है वह अभूतपूर्व है।
  • इन्हें वीरशासन का प्रभावक और सम्प्रसारक कहा है।
  • इनका अस्तित्व ईसा की 2सरी 3सरी शती माना जाता है।
  • स्याद्वाददर्शन और स्याद्वादन्याय के ये आद्य प्रभावक हैं।
  • जैन न्याय का सर्वप्रथम विकास इन्होंने अपनी कृतियों और शास्त्रार्थों द्वारा प्रस्तुत किया है। इनकी निम्न कृतियाँ प्रसिद्ध हैं-
  1. आप्तमीमांसा (देवागम),
  2. युक्त्यनुशासन,
  3. स्वयम्भू स्तोत्र,
  4. रत्नकरण्डकश्रावकाचार और
  5. जिनशतक।
  • इनमें आरम्भ की तीन रचनाएँ दार्शनिक एवं तार्किक एवं तार्किक हैं, चौथी सैद्धान्तिक और पाँचवीं काव्य है।
  • इनकी कुछ रचनाएँ अनुपलब्ध हैं, पर उनके उल्लेख और प्रसिद्धि है। उदाहरण के लिए इनका 'गन्धहस्ति-महाभाष्य' बहुचर्चित है।
  • जीवसिद्धि प्रमाणपदार्थ, तत्त्वानुशासन और कर्मप्राभृत टीका इनके उल्लेख ग्रन्थान्तरों में मिलते हैं।
  • पं॰ जुगलकिशोर मुख्तार ने इन ग्रन्थों का अपनी 'स्वामी समन्तभद्र' पुस्तक में उल्लेख करके शोधपूर्ण परिचय दिया है।