कन्फ़्यूशियस

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कन्फ़्यूशियस

कन्फ़्यूशियस एक प्रसिद्ध दार्शनिक तथा सुधारक, जिसका जन्म चीन में हुआ था। उस समय चीन में 'झोऊ राजवंश' का बसन्त और शरद काल चल रहा था। समय के साथ झोऊ राजवंश की शक्ति कम पड़ने के कारण चीन में बहुत से राज्य कायम हो गये, जो सदा आपस में लड़ते रहते थे। इस कारण इसे 'झगड़ते राज्यों का काल' कहा जाने लगा। अतः चीन की प्रजा बहुत ही कष्ट झेल रही थी। इसी समय में चीन वासियों को नैतिकता का पाठ पढ़ाने हेतु महात्मा कन्फ़्यूशियस का उदय हुआ। कन्फ़्यूशियस ने कभी इस बात का दावा नहीं किया कि उसे कोई दैवी शक्ति या ईश्वरीय संदेश प्राप्त होते थे। वह केवल इस बात का चिंतन करता था कि व्यक्ति क्या है और समाज में उसके कर्तव्य क्या हैं। उसने शक्ति प्रदर्शन, असाधारण एवं अमानुषिक शक्तियों, विद्रोह प्रवृत्ति तथा देवी-देवताओं का जिक्र कभी नहीं किया। उसका कथन था कि "बुद्धिमत्ता की बात यही है कि प्रत्येक व्यक्ति पूर्ण उत्तरदायित्व और ईमानदारी से अपने कर्तव्य का पालन करे।"

जन्म

इतिहासकार स्ज़ेमा चिएन के मतानुसार कन्फ़्यूशियस का जन्म 550 ई. पू. में हुआ। उनका जातीय नाम 'कुंग' था। कुंग फूत्से का लातीनी स्वरूप ही कन्फ़्यूशियस है, जिसका अर्थ होता है- 'दार्शनिक कुंग'। वर्तमान 'शांतुंग' कहलाने वाले प्राचीन लू प्रदेश का वह निवासी था, और उसका पिता 'शू-लियागहीह' त्साऊ ज़िले का सेनापति था। कन्फ़्यूशियस का जन्म अपने पिता की वृद्धावस्था में हुआ था, जो उसके जन्म के तीन वर्ष के उपरांत ही स्वर्गवासी हो गया। पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ उसका परिवार बड़ी कठिन परिस्थितियों में फँस गया, जिससे उसका बाल्यकाल बड़ी ही आर्थिक विपन्नता में व्यतीत हुआ। परंतु उसने अपनी इस निर्धनता को ही आगे चलकर अपनी विद्वता तथा विभिन्न कलाओं में दक्षता का कारण बनाया। जब वह केवल पाँच वर्ष का था, तभी से अपने साथियों के साथ जो खेल खेलता, उसमें धार्मिक संस्कारों तथा विभिन्न कलाओं के प्रति उसकी अभिरुचि स्पष्ट रूप से परिलक्षित होती थी।[1]

विवाह

19 वर्ष की अवस्था में 'सुंग' नामक प्रदेश की एक कन्या से उसका विवाह हो गया। विवाह के दूसरे वर्ष उसके एक पुत्र उत्पन्न हुआ और उसके पश्चात्‌ दो कन्याएँ। विवाह के थोड़े ही दिन पश्चात्‌ त्साऊ नामक ज़िले के स्वामी के यहाँ, जो की जाति का प्रधान था, उसे नौकरी मिल गई।

विद्यालय की स्थापना

22 वर्ष की अवस्था में कन्फ़्यूशियस ने एक विद्यालय की स्थापना की। इसमें ऐसे युवक और प्रौढ़ शिक्षा ग्रहण करते थे, जो सदाचरण एवं राज्य संचालन के सिद्धांतों में पारंगत होना चाहते थे। अपने शिष्यों से वह यथेष्ट आर्थिक सहायता लिया करता था। परंतु कम से कम शुल्क दे सकने वाले विद्यार्थी को भी वह अस्वीकार नहीं करता था; किंतु साथ ही ऐसे शिक्षार्थियों को भी वह अपने शिक्षा केंद्र में नहीं रखता था, जिनमें शिक्षा और ज्ञान के प्रति अभिरुचि तथा बौद्धिक क्षमता नहीं होती थी।

लाओत्से से भेंट

517 ई. पू. में दो सिअन युवक अपने जातीय प्रधान के मृत्युकालीन आदेश के अनुसार कन्फ़्यूशियस की शिष्य मंडली में सम्मिलित हुए। उन्हीं के साथ वह राजधानी गया, जहाँ उसने राजकीय पुस्तकालय की अमूल्य पुस्तकों का अवलोकन किया ओर तत्कालीन राजदरबार में प्रचलित उच्च कोटि के संगीत का अध्ययन किया। वहाँ उसने कई बार 'ताओवाद' के प्रवर्तक 'लाओत्से' से भेंट की और उससे बहुत प्रभावित भी हुआ।

लू प्रदेश को वापसी

जब कन्फ़्यूशियस लौटकर लू प्रदेश में आया तो उसने देखा, प्रदेश में बड़ी अराजकता उत्पन्न हो गई है। मंत्रियों से झगड़ा हो जाने के कारण उक्त प्रदेश का सामंत भाग कर पड़ोस के त्सी प्रदेश में चला गया है। कन्फ़्यूशियस को ये सब बातें रुचिकर नहीं लगीं और वह भी अपनी शिष्य मंडली के साथ त्सी प्रदेश को चल दिया। कहा जाता है, जब वे लोग एक पर्वत के बीच से जा रहे थे, तब उन्हें वहाँ एक स्त्री दिखाई दी, जो किसी कब्र के पास बैठी विलाप कर रही थी। कारण पूछने पर उसने बताया कि एक चीते ने वहाँ पर उसके श्वसुर को मार डाला था, इसके बाद उसके पति की भी वहीं दशा हुई और अब उसके पुत्र को चीते ने मार डाला है। इस पर उस स्त्री से यह प्रश्न किया गया कि वह ऐसे वन्य तथा भयंकर स्थान में क्यों रहती है, तो उसने उत्तर दिया कि उस क्षेत्र में कोई दमनकारी सरकार नहीं है। इस पर कन्फ़्यूशियस ने अपने शिष्यों को बताया कि क्रूर एवं अनुत्तरदायी सरकार चीते से भी अधिक भयानक होती है। कन्फ़्यूशियस को त्सी में भी रहना ठीक नहीं लगा। वहाँ के शासक के दरबारियों ने उसकी बड़ी आलोचना की, उसे अगणित विचित्रताओं से भरा हुआ अव्यावहारिक तथा आत्माभिमानी मनुष्य बताया, फिर भी वहाँ का शासक सामंत उसका बहुत आदर करता था और उसने उसे राजकीय आय का बहुत बड़ा भाग समर्पित करने का प्रस्ताव किया। किंतु कन्फ़्यूशियस ने कुछ भी लेना स्वीकार न किया और स्पष्ट रूप से कह दिया कि यदि उसके परामर्शो पर राज्य का संचालन न किया गया तो उसे किसी भी प्रकार की सहायता या प्रतिष्ठा स्वीकृत न होगी। असंतुष्ट मन से वह लू प्रदेश को पुन: लौट आया और लगभग 15 वर्ष तक एकांत जीवन व्यतीत करता हुआ स्वाध्याय में दत्तचित्त रहा।[1]

न्यायाधीश का पद

52 वर्ष की अवस्था में उसे चुंगतू प्रदेश का मुख्य न्यायाधीश बना दिया गया। उसके इस पद पर आते ही जनता के व्यवहार में आश्चर्यजनक सुधार दिखाई देने लगा। तत्कालीन सामंत शासक ने, जो विगत भागे हुए सांमत का छोटा भाई था, कन्फ़्यूशियस को अधिक उच्च पद प्रदान किया और अंत में उसे अपराध विभाग का मंत्री नियुक्त कर दिया। इसी समय उसके दो शिष्यों को भी उच्च एवं प्रभावशाली पद प्राप्त हो गए। अपने इन शिष्यों की सहायता से कन्फ़्यूशियस ने जनता के आचार एवं व्यवहार में बहुत अधिक सुधार किया। शासन का जैसे कायापलट हो गया, बेईमानी और पारस्परिक अविश्वास दूर हो गए। जनता में उसका बड़ा आदर सम्मान होने लगा और वह सबका पूज्य बन गया।

शत्रु सामंतों की साजिश

कन्फ़्यूशियस के इस बढ़ते हुए प्रभाव से त्सी के सामंत और उसके मंत्रिगण आतंकित हो उठे। उन्होंने सोचा कि यदि कन्फ़्यूशियस इसी प्रकार अपना कार्य करता रहा तो संपूर्ण राज्य में लू प्रदेश का प्रभाव सर्वाधिक हो जाएगा और त्सी प्रदेश को बड़ी क्षति पहुँचेगी। पर्याप्त विचारविमर्श के पश्चात्‌ त्सी के मंत्रियों ने संगीत एवं नृत्य में कुशल अत्यंत सुंदर तरुणियों का एक दल लू प्रदेश को भेजा। यह चाल चल गई। लू की जनता ने इन विलासिनी रमणियों का खूब स्वागत किया। जनता का ध्यान इनकी ओर आकृष्ट होने लगा और उसने संत कन्फ़्यूशियस के परामर्शों तथा आदर्शों की अवहेलना आरंभ कर दी। कन्फ़्यूशियस को इससे बड़ा खेद हुआ और उसने लू प्रदेश छोड़ देने का विचार किया। सामंत भी उसकी अवहेलना करने लगा। किसी एक बड़े बलिदान के पश्चात्‌ मांस का वह भाग कन्फ़्यूशियस के पास नहीं भेजा, जो उसे नियमानुसार उसके पास भेजना चाहिए था। कन्फ़्यूशियस को राज्यसभा छोड़ देने का यह अच्छा अवसर मिला और वह धीरे-धीरे वहाँ से अलग होकर चल दिया। यद्यपि वह बड़े बेमन से जा रहा था और यह आशा करता था कि शीघ्र ही सामंत की बुद्धि सन्मार्ग पर आ जाएगी और उसे वापस बुला लेगा, किंतु ऐसा हुआ नहीं और इस महात्मा को अपने जीवन के 56वें वर्ष में इधर-उधर विभिन्न प्रदेशों में भटकने के लिए चल देना पड़ा।

विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण

13 वर्ष तक कन्फ़्यूशियस विभिन्न प्रदेशों का भ्रमण इस आशा से करता रहा कि उसे कोई ऐसा सामंत शासक मिल जाए जो उसे अपना मुख्य परामर्शदाता नियुक्त कर ले और उसके परामर्शों पर शासन का संचालन करे, जिससे उसका प्रदेश एक सार्वदेशिक सुधार का केंद्र बन जाए, किंतु उसकी सारी आशाएँ व्यर्थ सिद्ध हुईं। शासकगण उसका सम्मान करते थे, उसको प्रतिष्ठा एवं आदर सम्मान तथा राजकीय सहायता देने के लिए उद्यत थे, किंतु कोई उसके परामर्शों को मानने और अपनी कार्यप्रणाली में परिवर्तन करने के लिए तैयार न था। इस प्रकार 13 वर्ष भ्रमण करने के पश्चात्‌ अपने जीवन के 69वें वर्ष में कन्फ़्यूशियस फिर से लू प्रदेश में वापस लौट आया। इसी समय उसका एक शिष्य एक सैनिक अभियान में सफल हुआ और उसने प्रदेश के महामंत्री को बताया कि उसने अपने गुरु द्वारा प्रदत्त शिक्षा और ज्ञान के आधार पर ही उक्त सफलता प्राप्त की। इस शिष्य ने महामंत्री से कन्फ़्यूशियस को पुन: उसका पद प्रदान करने की प्रार्थना की और वह मान भी गया, किंतु कन्फ़्यूशियस ने दुबारा राजकीय पद ग्रहण करना स्वीकार नहीं किया और अपने जीवन के अंतिम दिन अपनी साहित्यिक योजनाओं की पूर्ति तथा शिष्यों को ज्ञानदान करने में लगा देना उसने अधिक श्रेयस्कर समझा। 482 ई. पू. में उसके पुत्र का स्वर्गवास हो गया, किंतु जब 481 ई. पू. में उसके अत्यंत प्रिय शिष्य 'येनह्यइ' की मृत्यु हो गई, तब वह बहुत ही शोकाकुल हुआ। उसके एक और शिष्य 'त्जे तू' की भी मृत्यु कुछ समय पश्चात्‌ हो गई।[1] एक दिन प्रात: काल वह अपने द्वार पर टहलते हुए कह रहा था-

ऊँचा पर्वत अब नीचे गिरेगा
मजबूत शहतीर टूटने वाली है
बुद्धिमान मनुष्य भी पौधे के समान नष्ट हो जाएँगे।

निधन तथा समाधि

उसका शिष्य त्जे कुंग यह सुनकर तुरंत उसके पास आया। कन्फ़्यूशियस ने उससे कहा कि पिछली रात मैंने एक स्वप्न देखा है, जिससे मुझे संकेत मिला कि मेरा अंत अब निकट है। उसी दिन से कन्फ़्यूशियस ने शैया ग्रहण की और सात दिन पश्चात्‌ वह महात्मा इस लोक से विदा हो गया। उसके अनुयायियों ने बड़ी धूमधाम से उसके शरीर को समाधिस्थ किया। उनमें से बहुत से तीन वर्ष तक उसी स्थान पर शोक प्रदर्शन के लिए बैठे रहे और उसका सर्वप्रिय शिष्य 'त्जे कुंग' तो अगले तीन वर्ष भी उसी स्थान पर जमा रहा। कन्फ़्यूशियस की मृत्यु का समाचार सभी प्रदेशों में फैल गया और जिस महापुरुष को उसके जीवन काल में इतनी अवहेलना की गई थी, मृत्यु के उपरांत वह सर्वप्रशंसा और आदर का पात्र बन गया। कुइफ़ाउ नगर के बाहर कुंग समाधि स्थल से अलग कन्फ़्यूशियस की समाधि अब भी विद्यमान है। समाधि के सामने संगमरमर का एक चौखटा लगा हुआ है, जिस पर यह अभिलेख अंकित है-

प्राचीन महाज्ञानी सतगुरु, संपूर्ण विद्याओं में पारंगत, सर्वज्ञ नराधिप।

रचनाएँ

कन्फ़्यूशियस ने कभी भी अपने विचारों को लिखित रूप देना आवश्यक नहीं समझा। उसका मत था कि वह विचारों का वाहक हो सकता है, उनका स्रष्टा नहीं। वह पुरातत्व का उपासक था, कयोंकि उसका विचार था कि उसी के माध्यम से यथार्थ ज्ञान प्राप्त प्राप्त हो सकता है। उसका कहना था कि मनुष्य को उसके समस्त कार्यकलापों के लिए नियम अपने अंदर ही प्राप्त हो सकते हैं। न केवल व्यक्ति के लिए वरन संपूर्ण समाज के सुधार और सही विकास के नियम और स्वरूप प्राचीन महात्माओं के शब्दों एवं कार्य शैलियों में प्राप्त हो सकते हैं। कन्फ़्यूशियस ने कोई ऐसा लेख नहीं छोड़ा, जिसमें उसके द्वारा प्रतिपादित नैतिक एवं सामाजिक व्यवस्था के सिद्धांतों का निरूपण हो। किंतु उसके पौत्र 'त्जे स्जे' द्वारा लिखित 'औसत का सिद्धांत'[2] और उसके शिष्य त्साँग सिन द्वारा लिखित 'महान्‌ शिक्षा'[3] नामक पुस्तकों में तत्संबंधी समस्त सूचनाएँ प्राप्त होती हैं। 'बसंत और पतझड़'[4] नामक एक ग्रंथ, जिसे 'लू का इतिवृत्त' भी कहते हैं, कन्फ़्यूशियस का लिखा हुआ बताया जाता है। यह समूची कृति प्राप्त है और यद्यपि बहुत छोटी है तथापि चीन के संक्षिप्त इतिहासों के लिए आदर्श मानी जाती है।[1]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 कन्फ़्यूशियस (हिन्दी) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 01 अगस्त, 2014।
  2. अंग्रेज़ी अनुवाद, डाक्ट्रिन ऑव द मीन
  3. अंग्रेज़ी अनुवाद, द ग्रेट लर्निंग
  4. अंग्रेज़ी अनुवाद, स्प्रिंग ऐंड आटम

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