भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-135

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भागवत धर्म मिमांसा

8. संसार-प्रवाह

(22.3) सोऽयं दीपोर्चिषां यद्धत् स्रोतसां तदिदं जलम् ।
सोऽयं पुमानिति नृणां मृषा गीर् धीर् मृषायुषाम् ।।[1]

हमें भास होता है कि वही दीप जल रहा है, लेकिन ऐसा नहीं है। पुराना जाता है और नया आता है। अर्चिषाम् यानी ज्वालाएँ। ज्वालाएँ जल रही हैं, उनमें हमें सातत्य का भास होता है। वे सतत् जलती हैं। हमें लगता है कि दीपक जल रहा है। गंगा का पानी बह रहा है, लेकिन वही पानी नहीं बहता। पुराना पानी जाता और नया आता है, लेकिन हमें भास होता है कि वही पानी बह रहा है। इसी तरह ‘यह वही आदमी है’ ऐसा मिथ्याभास हमें होता है। आदमी वही पुराना नहीं है, वह बदल गया है। अभी एक, दूसरे क्षण में दूसरा, तीसरे क्षण में तीसरा, ऐसा सतत् बदलता है। इसलिए कभी किसी से गुस्सा नहीं करना चाहिए, क्योंकि जिसने अपराध किया, वह तो खतम हो गया। दूसरे क्षण वह रहा ही नहीं। रवीन्द्रनाथ ने कहा है : नूतन करे नूतन प्राते – हर प्रातःकाल नया व्यवहार करो। यहाँ रवीन्द्रनाथ एक दिन की ही बात कहते हैं। लेकिन भागवत प्रतिक्षण की बात करती है। मनुष्य को प्रतिक्षण बदल रहा है। प्रायः होता क्या है? राम ने अपराध किया, गोविन्द पर मुकदमा चलाया, कृष्ण को सजा दी और हरि को फाँसी चढ़ाया। जिसने अपराध किया, वह दूसरे क्षण रहा ही नहीं। जिसने अपराध किया, वह पुराना हो गया। यदि यह बात ध्यान में रखें, तो पुरानी बातें चित्त से चिपकी नहीं रहेंगी। पुरानी चीजें ध्यान में रखनी ही नहीं चाहिए। अब सवाल पूछा जायेगा कि मनुष्य का अखण्ड अनुसन्धान न हो, तो कर्मपल का क्या होगा? व्यवहार भी खतम होगा। एक आदमी था, वह एक होटल में भोजन के लिए गया। अच्छा भोजन कर लिया। भोजन का पैसा देना था। वह मैनेजर के पास गया और कहने लगा कि ‘संसार का चक्र तो चलता ही रहेगा। आदमी मरता है और फिर जन्म पाता है। इसलिए मैं आगे आनेवाला हूँ, तब तुम्हारे पैसे दूँगा।’ मैनेजर ने कहा : ‘आप कहते हैं, वह बात तो ठीक है। लेकिन इसके पहले आप जो खाये ते, उसका पैसा तो दे दीजिये, उसे लिये बगैर मैं आपको छोड़ूँगा नहीं।’ समझना चाहिए कि भागवत का अक्षरशः अर्थ करेंगे, तो व्यवहार ही नहीं चलेगा। यहाँ जो कहा है, वह दर्शन के तौर पर नहीं। उसका अर्थ यह है कि मनुष्य में परिवर्तन हुआ होगा, वह जानने की वृत्ति होनी चाहिए। ‘वही यह मनुष्य है’ – यह भाषा, वाणी - ‘गीर्’ और यह बुद्धि - ‘धीर्’ व्यर्थ ही है। कहा गया है कि सात साल में शरीर का खून बदल जाता है। पहले जमाने में तपस्या बारह साल की मानी जाती थी, यानी उस अवधि में मनुष्य पूरा बदल जाता है, ऐसा माना जाता था। भागवत में जो ‘प्रतिक्षण बदल’ की बात कही गयी, वह उत्कट भावना के कारण है। यदि यह बात ध्यान में आ जाए, तो दुनिया के सारे झगड़े ही खतम हो जायेंगे। फिर पुराने बुरे भाव ध्यान में रखे जायेंगे? मनुष्य प्रतिक्षण बदलता है, यह मानने में दार्शनिक प्रश्न खड़े होंगे। लेकिन दार्शनिक प्रश्नों की चर्चा शंकराचार्य, रामानुजाचार्य आदि करेंगे। भागवत के सामने तो जीवन-दृष्टि का ही प्रश्न है। मनुष्य का शरीर तो बदलता ही है। बच्चा घर से चला गया और बारह साल बाद घर आया, तो माँ ने पहचाना नहीं – ऐसी कहानियाँ सुनते ही हैं। जैसे उम्र बढ़ती है, वैसे शरीर जीर्ण होता है। बचपन में मैं जैसा था, वैसा अभी नहीं हूँ। पहले रोज दस-बारह मील चलता था, लेकिन अब दिनभर में दो बार मिलकर डेढ़ मील चलता हूँ। मन को तो सवाल ही नहीं। फिर दिनभर में तीन गुणों का चक्कर तो चलता ही है। रात में तमोगुण आता है, दिन में रजोगुण काम करता है। सुबह-शाम तो सत्वगुण होता है। गुण भी बदलते रहते हैं। पूछा जायेगा कि मनुष्य बदलता है, तो कर्म-फल कौन भोगेगा? समझने की बात है कि कर्म-फल से हम तुरन्त मुक्त हो सकते हैं, यदि अहंकार से मुक्त हो जाएँ। लेकिन मनुष्य अपने अहंकार से चिपका रहता है। अहंकार छूट जाता है, तो पुराने पाप खतम हो जाते हैं। लेकिन अहं कहाँ छूटता है? ‘यह मैंने किया, वह मैंने किया’ – इस तरह का अहंकार मनुष्य को रहता ही है। इसलिए उसे पाप-पुण्य का फल भोगना ही पड़ता है। अहंकार को तोड़ सकें, तो सबसे मुक्त हो सकते हैं। अतः अहंकार-मुक्ति ही मुख्य बात है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.22.44

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