ग़ालिब का प्रारम्भिक काव्य
ग़ालिब नवाबी ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे और मुग़ल दरबार में उंचे ओहदे पर थे इसलिये उन्हें अपनी अय्याशियों पर लगाम लगाना बेहद मुश्किल था।
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दिल्ली में ससुर तथा उनके प्रतिष्ठित साथियों एवं मित्रों के काव्य प्रेम का इन पर अच्छा असर हुआ। इलाहीबख़्श ख़ाँ पवित्र एवं रहस्यवादी प्रेम से पूर्ण काव्य-रचना करते थे। वह पवित्र विचारों के आदमी थे। उनके यहाँ सूफ़ियों तथा शायरों का जमघट रहता था। निश्चय ही ग़ालिब पर इन गोष्ठियों का अच्छा असर पड़ा होगा। यहाँ उन्हें तसव्वुफ़ (धर्मवाद, आध्यात्मवाद) का परिचय मिला होगा, और धीरे-धीरे यह जन्मभूमि आगरा में बीते बचपन तथा बाद में किशोरावस्था में दिल्ली में बीते दिनों के बुरे प्रभावों से मुक्त हुए होंगे। दिल्ली आने पर भी शुरू-शुरू में तो मिर्ज़ा का वही तर्ज़ रहा, पर बाद में वह सम्भल गए। कहा जाता है कि मनुष्य की कृतियाँ उसके अन्तर का प्रतीक होती हैं। मनुष्य जैसा अन्दर से होता है, उसी के अनुकूल वह अपनी अभिव्यक्ति कर पाता है। चाहे कैसा ही भ्रामक परदा हो, अन्दर की झलक कुछ न कुछ परदे से छनकर आ ही जाती है। इनके प्रारम्भिक काव्य के कुछ नमूने इस प्रकार हैं-
देखता हूँ उसे थी जिसकी तमन्ना मुझको।
आज बेदारी[3] में है ख़्वाबे-ज़ुलेखा मुझको।
इक गर्म आह की तो हज़ारों के घर जले।
रखते हैं इश्क़ में ये असर हम जिगर जले।
परवाने का न ग़म हो तो फिर किसलिए ‘असद’
हर रात शमअ शाम से ले तास हर जले।
ऊपर जो शेर दिए गए हैं, उनमें एक संवेदना, रसशीलता तो है पर उनकी अपेक्षा उनमें एक छटपटाहट, बेचैनी, जवानी के उड़ते हुए सपनों की छाया और कृत्रिम और कल्पनाओं की उछल-कूद अधिक है। कोई मौलिक भावना नहीं; कोई उथल-पुथल कर देने वाली प्रेरणा नहीं। हाँ, इतना है कि बचपन से ही इनमें कवि-प्रतिभा के बीज दिखाई पड़ते हैं। 7-8 वर्ष की आयु में यह उर्दू (रेखती) तथा 11-12 वर्ष में फ़ारसी में कविता करने लगे थे।
ग़ालिब का प्रारम्भिक काव्य |
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
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