आपातकाल (भारत)
आपातकाल (अंग्रेज़ी: The Emergency) स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे विवादास्पद और अलोकतांत्रिक काल था। 26 जून, 1975 से 21 मार्च, 1977 तक 21 महीने की अवधि में भारत में आपातकाल घोषित था। तत्कालीन राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने तत्कालीन भारतीय प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के कहने पर भारतीय संविधान की धारा 352 के अधीन आपातकाल की घोषणा कर दी थी। आपातकाल में चुनाव स्थगित हो गए तथा नागरिक अधिकारों को समाप्त कर दिया गया। इंदिरा गांधी के राजनीतिक विरोधियों को कैद कर लिया गया और प्रेस पर प्रतिबंधित लगा दिया गया। जयप्रकाश नारायण ने आपातकाल के इस समय को "भारतीय इतिहास की सर्वाधिक काली अवधि" कहा था। आपातकाल लागू होने के बाद जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई और अन्य सैकड़ों छोटे-बड़े नेताओं को गिरफ़्तार करके जेल में डाल दिया गया। ऐसा माना जाता है कि आपातकाल के दौरान एक लाख व्यक्तियों को देश की विभिन्न जेलों में बंद किया गया। इनमें मात्र राजनीतिक व्यक्ति ही नहीं, आपराधिक प्रवृत्ति के लोग भी थे जो ऐसे आंदोलनों के समय लूटपाट करते थे। साथ ही भ्रष्ट कालाबाज़ारियों और हिस्ट्रीशीटर अपराधियों को बंद कर दिया गया।
आपातकाल की पृष्ठभूमि
आपातकाल की पृष्ठभूमि इंदिरा गांधी की सरकार के न्यायपालिका के टकराव के साथ बननी शुरु हो गई थी। लालबहादुर शास्त्री की मौत के बाद इंदिरा गांधी प्रधानमंत्री बनी थीं। ऐसे में क्या पार्टी और क्या पार्टी के बाहर न्यायपालिका से टकराव के हालात, किसी ने सोचा नहीं था। लेकिन 1967 में हुए लोकसभा चुनावों के बाद जब इंदिरा गांधी ने 13 मार्च को दोबारा प्रधानमंत्री की कुर्सी संभाली, उसके थोड़े समय पहले ही यानी 27 फ़रवरी, 1967 को उच्चतम न्यायालय का एक बड़ा फैसला आया। पहली बार गठित हुई 11 जजों की खंडपीठ ने गोलकनाथ मामले में अपना फैसला सात बनाम छह जजों के बहुमत से सुनाया। चीफ जस्टिस सुब्बाराव की अगुआई वाले बहुमत फैसले के तहत ये तय किया गया कि संसद में दो तिहाई बहुमत के साथ भी किसी संविधान संशोधन के जरिये मूलभूत अधिकारों के प्रावधान का न तो खात्मा किया जा सकता है और न ही इन्हें सीमित किया जा सकता है। सरकार को ये फैसला काफी नागवार गुजरा, क्योंकि ये संसद के अधिकार पर न्यायपालिका की तरफ से हमला माना गया। कुछ समय बाद जब राष्ट्रपति के चुनाव हुए, तो विपक्ष ने इंदिरा गांधी के प्रतिनिधि जाकिर हुसैन के सामने सुब्बाराव को मैदान में उतार दिया। सुब्बाराव ने चीफ जस्टिस के पद से त्यागपत्र देकर राष्ट्रपति चुनाव के लिए नामांकन भरा था, इससे इंदिरा गांधी काफी नाराज हो गई थीं।[1]
इंदिरा गाँधी तथा न्यायपालिका
यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट के दो तात्कालिक फैसलों को इंदिरा गाँधी ने 1971 के लोकसभा चुनावों को जल्दी कराने का आधार बनाया। पहला फैसला 5 मई, 1970 का रहा, जो बैंक राष्ट्रीयकरण केस के तौर पर मशहूर है। 11 जजों की बेंच ने सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस जे. सी. शाह की अगुआई में इस मामले की सुनवाई की। चीफ जस्टिस हिदायतुल्ला ने कार्यकारी राष्ट्रपति की भूमिका में खुद उस बिल पर हस्ताक्षर किये थे, जिसकी वैधता को इस केस में चुनौती दी गई थी, इसलिए वे इस मामले की सुनवाई से अलग रहे।
ग्यारह जजों की इस बेंच ने जो फैसला सुनाया, उसमें एक जज जस्टिस ए. एन. रे को छोड़कर बाकी सभी जजों ने इंदिरा गांधी सरकार के उस कदम को खारिज कर दिया, जिसके तहत पचास करोड़ रुपये या उससे अधिक के कारोबार वाले चौदह बैंकों का राष्ट्रीयकरण कर दिया गया था। ऐसा इस कानून की कई खामियों के मद्देनजर किया गया था, जिसमें से एक पर्याप्त मुआवजा न देना भी था। यही नहीं, अपने साम्यवादी सोच वाले सहयोगियों के दबाव और राजाओं-महाराजाओं की बहुतायत वाली स्वतंत्र पार्टी से मिल रही चुनौती के मद्देनजर जब इंदिरा गांधी ने एक ऑर्डिनेंस के जरिये प्रीवी पर्स को समाप्त करने की कोशिश की, तो उसे भी सुप्रीम कोर्ट ने 15 दिसंबर, 1970 के अपने फैसले में खारिज कर दिया। चीफ जस्टिस हिदायतुल्ला की अगुआई वाली ग्यारह जजों की बेंच में ये फैसला नौ बनाम दो जजों के बहुमत से हुआ। जिन दो जजों ने इस फैसले का समर्थन नहीं किया, वो थे- जस्टिस जी. के. मित्तर और जस्टिस ए. एन. रे। इसी फैसले से क्रोधित इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव करवाने का फैसला किया और इस मुद्दे पर चुनाव जीतकर आने के साथ ही संविधान संशोधन के जरिये प्रीवी पर्स खत्म कर दिया।
न्यायपालिका के साथ इंदिरा गांधी का टकराव शीर्ष पर तब पहुंचा, जब केशवानंद भारती केस में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया। सुप्रीम कोर्ट के इतिहास में पहली और आखिरी बार तेरह जजों की बेंच ने कोई फैसला सुनाया। हालांकि तेरह जजों की बेंच ने ये फैसला सात बनाम छह के बहुमत से 24 अप्रैल, 1973 को सुनाया। बहुमत वाले इस फैसले में, जिसमें चीफ जस्टिस सिकरी, जस्टिस शेलत, जस्टिस हेगड़े और जस्टिस ग्रोवर शामिल थे, ये तय किया कि संसद अपनी संवैधानिक भूमिका में संविधान के सभी प्रावधानों को बदल नहीं सकती। यही नहीं, ये भी साफ किया गया कि संविधान के अनुच्छेद 368 के तहत संसद संविधान के मूल ढांचे के साथ कोई छेड़छाड़ नहीं कर सकती।
भारतीय न्यायपालिका के इतिहास में बेसिक स्ट्रक्चर जजमेंट के तौर पर मशहूर इस फैसले के अगले दिन ही सरकार ने अपने इरादे जाहिर कर दिये। सरकार ने चीफ जस्टिस सिकरी की सिफ़ारिश को दरकिनार कर दिया, जिसमें जस्टिस शेलत को अगला मुख्य न्यायाधीश बनाने के लिए कहा गया था। यही नहीं, न्यायाधीश हेगड़े और न्यायाधीश ग्रोवर को भी सुपरसीड कर अगले मुख्य न्यायाधीश के तौर पर न्यायाधीश ए. एन. रे के नाम का ऐलान कर दिया गया। ये वही जस्टिस ए. एन. रे थे, जिन्होंने बैंक नेशनलाइजेशन, प्रीवी पर्स या फिर केशवानंद भारती मामले में सरकार के रुख का समर्थन अपने जजमेंट में किया था। सुपरसीड किये गये तीनों जजों ने तत्काल इस्तीफा दे दिया, लेकिन ये तो शुरुआत थी, इंदिरा सरकार के उस इरादे की, जिसमें सरकारी रुख का विरोध करने वाले जजों को परेशान किया जाना अघोषित नियम बना दिया गया।[1]
गुजरात तथा बिहार में आंदोलन
हालांकि एक तरफ जहां इंदिरा गांधी कानूनी और अदालती मोर्चे पर लड़ाई लड़ रही थीं, वहीं सियासी मोर्चे पर भी विपक्षी पार्टियों के साथ उनकी लड़ाई तेज होती गई। 1973 आते-आते महंगाई और भ्रष्टाचार के आरोपों ने इंदिरा और उनकी सरकार को घेरना शुरु कर दिया। मुद्रास्फीती रिकॉर्ड बीस फीसदी तक जा पहुंची। विपक्ष के तेवर उग्र होते चले गये। इसकी शुरुआत हुई गुजरात से। राज्य के कुछ इंजीनियरिंग कॉलेजों में मेस बिल में हुई बढ़ोतरी से जो आंदोलन शुरु हुआ, वो ‘संपूर्ण क्रांति’ के जेपी के आह्वान का आधार बना। हालत इस हद तक बिगड़े कि आखिरकार जनभावनाओं को ध्यान में रखते हुए इंदिरा गांधी को गुजरात विधानसभा भंग करवा नये सिरे से चुनाव तक कराने को मजबूर होना पड़ा। गुजरात के बाद ये आंदोलन बिहार में भी उग्र होना शुरु हुआ। छात्रों ने शैक्षणिक सुधार की मांग करते हुए आंदोलन तेज किया। तत्कालीन मुख्यमंत्री अब्दुल गफूर ने छात्रों के संघर्ष को दबाने के लिए गोलियां तक चलवा दीं, जिससे मामला और बिगड़ा। तीन हफ्ते तक हिंसा का दौर चला, हालत इस हद तक बिगड़े कि सेना और अर्धसैनिक बलों को बिहार की सड़कों पर उतरना पड़ा। इसी दौरान जयप्रकाश नारायण ने छात्रों के आंदोलन की अगुआई ली, 8 अप्रैल, 1974 को पटना की सड़कों पर मूक रैली निकाली और औपचारिक तौर पर आह्वान कर डाला ‘संपूर्ण क्रांति’ का।
जल्दी ही जेपी के साथ न सिर्फ छात्र, बल्कि विपक्ष के ज्यादातर दल जुड़ते चले गये। इस गठजोड़ के एक तरफ जनसंघ था, तो दूसरी तरफ सीपीएम। सिर्फ सीपीआई ही एक मात्र ऐसी बड़ी पार्टी रही, जो इस गैर-कांग्रेसी गठबंधन में शामिल नहीं हुई। जेपी की अगुआई में इकट्ठा हुए इन दलों ने राष्ट्रीय स्तर की अपनी समन्वय समिति भी बना डाली और इंदिरा गांधी की सरकार के सामने धरने, प्रदर्शन और आक्रमण का सिलसिला तेज होता गया। जॉर्ज फर्नांडीस ने तो अप्रैल, 1974 में रेलवे स्ट्राइक की तरफ कदम बढ़ा दिये। इंदिरा गांधी के लिए इस चौतरफा हमले से निबटना आसान नहीं रहा। ‘डिफेंस ऑफ इंडिया एक्ट’ का सहारा लेकर भले ही काफी कठोरता के साथ इंदिरा ने रेल कर्मचारियों की हड़ताल को तीन हफ्ते में ही तोड़ डाला, लेकिन मामला शांत नहीं हुआ। आम आदमी, श्रमिक वर्ग, सरकारी कर्मचारी, सबका असंतोष बढ़ता चला गया और इंदिरा के लिए ये खतरे की घंटी थी। इसके साथ ही देश में इंदिरा गांधी और उनके सहयोगियों को आपातकाल लगाने का बहाना मिलने लगा था।[1]
राजनारायण की याचिका
हालांकि इंदिरा गांधी ने आपातकाल लगाने का जो विवादित फैसला किया, उसके तात्कालिक और सबसे प्रमुख कारण वो दो अदालती फैसले भी थे, जो आपातकाल लगाये जाने के ठीक पहले के चौदह दिनों के अंदर आए थे। पहला फैसला इलाहाबाद हाईकोर्ट से आया था, तो दूसरा फैसला उच्चतम न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) से। दोनों ही फैसले सिंगल जज बेंच के थे और दोनों ही प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के लोकसभा चुनाव से संबंधित थे। हालांकि ये फैसले कोई अचानक नहीं आए थे, इनकी पृष्ठभूमि में थे 1971 के लोकसभा चुनाव, वो चुनाव जिनमें इंदिरा गांधी ने अपनी पार्टी को जबरदस्त कामयाबी दिलाई थी। हालांकि खुद इंदिरा गांधी की जीत पर सवाल उठाते हुए उनके चुनावी प्रतिद्वंद्वी राजनारायण ने अदालत का दरवाजा खटखटा 1971 में ही खटखटा दिया था। संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के उम्मीदवार के तौर पर इंदिरा गांधी के सामने रायबरेली लोकसभा सीट पर चुनाव लड़ने वाले राजनारायण ने अपनी याचिका में आरोप लगाया था कि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए गलत तरीकों का इस्तेमाल किया है। राजनारायण 1971 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी से 1, 11, 810 वोटों के अंतर से हारे थे। अपनी जीत को लेकर वो इतने सुनिश्चित थे कि नतीजे घोषित होने के पहले ही विजय जुलूस निकाल डाला था। लेकिन परिणाम घोषित हुए तो राजनारायण के होश उड़ गये। हालांकि इतनी बड़ी मार्जिन से हारने के बाद भी राजनारायण चुप नहीं बैठे। उन्होने अदालत से ये गुहार लगाई कि चूंकि इंदिरा गांधी ने चुनाव जीतने के लिए न सिर्फ सरकारी मशीनरी और संसाधनों का इस्तेमाल किया है, बल्कि वोट खरीदने के लिए पैसे भी बांटे हैं, ऐसे में उनका चुनाव निरस्त कर दिया जाए।
इस मामले की सुनवाई 15 जुलाई, 1971 को इलाहाबाद हाईकोर्ट में शुरु हुई। जस्टिस बीएन लोकुर इस मामले की सुनवाई करने वाले पहले जज थे; लेकिन जस्टिस लोकुर से जस्टिस जगमोहन लाल सिन्हा के पास ये केस आते-आते एक बार राजनारायण तो दूसरी बार इंदिरा गांधी ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया अपने हक में राहत हासिल करने के लिए। आखिरकार मार्च, 1975 का महीना आया। जस्टिस सिन्हा की कोर्ट में दोनों तरफ से दलीलें पेश होती रहीं। दोनों पक्षों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी को उनका बयान दर्ज कराने के लिए अदालत में पेश होने का फरमान जारी किया। इंदिरा गांधी अदालत में पेश भी हुईं, लेकिन प्रधानमंत्री होते हुए भी उनके सम्मान में उनके वकील सिर्फ आधा ही उठे, बाकी सभी बैठे रहे, क्योंकि अदालत का आदेश साफ था, इंदिरा गांधी आरोपी के तौर पर अदालत में थीं।[1]
आपातकाल की घोषणा
दोनों पक्षों की दलीलों को सुनने के बाद जस्टिस सिन्हा ने 12 जून, 1975 को अपना फैसला सुनाया और इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया। हालांकि जस्टिस सिन्हा ने उन्हें सुप्रीम कोर्ट में अपील करने की मोहलत दी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट से भी इंदिरा गांधी को पूर्ण राहत नहीं मिली। वैकेशन जज की भूमिका में जस्टिस वी. आर. कृष्ण अय्यर ने इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर स्टे तो लगाया, लेकिन आंशिक तौर पर। 24 जून, 1975 के अपने फैसले में जस्टिस अय्यर ने इंदिरा गांधी को बतौर प्रधानमंत्री संसद में आने की इजाजत तो दी, लेकिन बतौर लोकसभा सदस्य वोट करने पर प्रतिबंध लगा दिया। इस फैसले से इंदिरा गांधी इतना क्रोधित हो गईं कि अगले दिन ही उन्होने बिना कैबिनेट की औपचारिक बैठक के आपातकाल लगाने की अनुशंसा राष्ट्रपति से कर डाली, जिस पर राष्ट्रपति फ़ख़रुद्दीन अली अहमद ने 25 जून और 26 जून की मध्य रात्रि में ही अपने हस्ताक्षर कर डाले और इस तरह देश में पहला आपातकाल लागू हो गया।
अगली सुबह समूचे देश ने रेडियो पर इंदिरा की आवाज में संदेश सुना कि- "भाइयो और बहनो, राष्ट्रपति जी ने आपातकाल की घोषणा की है। इससे आतंकित होने का कोई कारण नहीं है।" ...लेकिन, सच इंदिरा जी की घोषणा से ठीक उलटा था। देश भर में हो रही गिरफ्तारियों के साथ आतंक का दौर पिछली रात से ही शुरू हो गया था। रामलीला मैदान में हुई 25 जून की रैली की खबर देश में न पहुंचे इसलिए, दिल्ली के बहादुर शाह जफर मार्ग पर स्थित अखबारों के दफ्तरों की बिजली रात में ही काट दी गई। रात को ही इंदिरा गांधी के विशेष सहायक आर. के. धवन के कमरे में बैठ कर संजय गांधी और ओम मेहता उन लोगों की लिस्ट बना रहे थे, जिन्हें गिरफ्तार किया जाना था। नामों पर बार-बार इंदिरा गांधी से सलाह-मश्विरा किया जा रहा था। 26 जून की सुबह जब इंदिरा सोने गईं, तब तक जयप्रकाश नारायण, मोरारजी देसाई समेत तमाम बड़े नेता गिरफ्तार किए जा चुके थे। मगर ये तो अभी शुरुआत ही थी।[2]
सरकार के असीमित अधिकार
आपातकाल वो दौर था, जब सत्ता ने आम आदमी की आवाज को कुचलने की सबसे निरंकुश कोशिश की। इसका आधार वो प्रावधान था जो धारा-352 के तहत सरकार को असीमित अधिकार देती है। आपात काल का मतलब था-
- इंदिरा गाँधी जब तक चाहें सत्ता में रह सकती थीं।
- लोकसभा-विधानसभा के लिए चुनाव की जरूरत नहीं थी।
- मीडिया और अखबार आजाद नहीं थे।
- सरकार कैसा भी कानून पास करा सकती थी।
- सारे विपक्षी नेताओं को जेल, मीसा-डीआईआर का कहर झेलना।
सरकार का विरोध करने पर दमनकारी कानून मीसा और डीआईआर के तहत देश में एक लाख ग्यारह हजार लोग जेल में ठूंस दिए गए। खुद जेपी की किडनी कैद के दौरान खराब हो गई। कर्नाटक की मशहूर अभिनेत्री डॉ. स्नेहलता रेड्डी जेल से बीमार होकर निकलीं, बाद में उनकी मौत हो गई। उस काले दौर में जेल-यातनाओं की दहला देने वाली कहानियां भरी पड़ी हैं। देश के जितने भी बड़े नेता थे, सभी के सभी सलाखों के पीछे डाल दिए गए। एक तरह से जेलें राजनीतिक पाठशाला बन गईं। बड़े नेताओं के साथ जेल में युवा नेताओं को बहुत कुछ सीखने-समझने का मौका मिला। लालू, नीतीश और सुशील मोदी जैसे बिहार के नेताओं ने इसी पाठशाला में अपनी सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक पढ़ाई की।
नेताओं की गिरफ़्तारियाँ
आपातकाल की घोषणा के साथ ही सभी नागरिकों के मौलिक अधिकार निलंबित कर दिए गए थे। अभिव्यक्ति का अधिकार ही नहीं, लोगों के पास जीवन का अधिकार भी नहीं रह गया। 25 जून की रात से ही देश में विपक्ष के नेताओं की गिरफ्तारियों का दौर शुरू हो गया। जयप्रकाश नारायण, लालकृष्ण आडवाणी, अटल बिहारी वाजपेयी, जॉर्ज फर्नाडीस आदि बड़े नेताओं को जेल में डाल दिया गया। जेलों में जगह नहीं बची। आपातकाल के बाद प्रशासन और पुलिस के द्वारा भारी उत्पीड़न की कहानियां सामने आई। प्रेस पर भी सेसरशिप लगा दी गई। हर अखबार में सेंसर अधिकारी बैठा दिया, उसकी अनुमति के बाद ही कोई समाचार छप सकता था। सरकार विरोधी समाचार छापने पर गिरफ्तारी हो सकती थी। यह सब तब थम सका, जब 23 जनवरी, 1977 को मार्च महीने में चुनाव की घोषणा हो गई।
संजय गांधी का पांच सूत्रीय कार्यक्रम
एक तरफ नेताओं की नई पौध राजनीति सीख रही थी, दूसरी तरफ देश को इंदिरा के बेटे संजय गांधी अपने दोस्त बंसीलाल, विद्याचरण शुक्ल और ओम मेहता की तिकड़ी के जरिए चला रहे थे। संजय गांधी ने वीसी शुक्ला को नया सूचना प्रसारण मंत्री बनवाया, जिन्होंने मीडिया पर सरकार की इजाजत के बिना कुछ भी लिखने-बोलने पर पाबंदी लगा दी, जिसने भी इनकार किया, उसके लिए जेल के दरवाजे खुले थे। मीडिया ही नहीं न्यायपालिका भी डर गई थी। दरअसल, जबलपुर के एडीएम ने अपने आदेश में कहा था कि आपातकाल में संविधान के अनुच्छेद 19 के तहत स्वतंत्रता और नागरिक अधिकार खत्म हो जाते हैं। सुप्रीम कोर्ट (उच्चतम न्यायालय) ने भी इस पर मुहर लगा दी। यहां तक कहा गया कि किसी निर्दोष को गोली भी मार दी जाए तो भी अपील नहीं हो सकती, क्योंकि अनुच्छेद 21 के तहत जीने के आधिकार भी खत्म हो चुके हैं।[2]
दूसरी तरफ संजय गांधी ने देश को आगे बढ़ाने के नाम पर पांच सूत्रीय एजेंडे पर काम करना शुरू कर दिया था, जिसमें शामिल था-
- वयस्क शिक्षा
- दहेज प्रथा का खात्मा
- पेड़ लगाना
- परिवार नियोजन
- जाति प्रथा उन्मूलन
कहते हैं कि सुंदरीकरण के नाम पर संजय गांधी ने एक ही दिन में दिल्ली के तुर्कमान गेट की झुग्गियों को साफ करवा डाला, लेकिन पांच सूत्रीय कार्यक्रम में ज्यादा जोर परिवार नियोजन पर था। लोगों की जबरदस्ती नसबंदी कराई गई। कांग्रेस नेता सत्यव्रत चतुर्वेदी कहते हैं कि उस समय यूथ कांग्रेस ने बहुत अच्छा काम भी किया था, लेकिन नसबंदी प्रोग्राम ने खेल खराब कर दिया क्योंकि यूथ कांग्रेस और अधिकारियों ने जबरदस्ती शुरू की और जनता में आक्रोश फैल गया। यह भी कहा जाता है कि 19 महीने के दौरान देश भर में करीब 83 लाख लोगों की जबरदस्ती नसबंदी करा दी गई। कहा तो ये भी जाता है कि पुलिस बल गांव के गांव घेर लेते थे और पुरुषों को पकड़कर उनकी नसबंदी करा दी जाती थी।
शॉक ट्रीटमेंट
आपातकाल क्यों लगा? क्या इसलिए कि जेपी ने सेना-पुलिस तक से सरकार का आदेश न मानने को कहा था? क्या इसलिए कि बगावत का अंदेशा था? शायद नहीं क्योंकि आपातकाल के बहुत बाद एक साक्षात्कार में इंदिरा जी ने कहा था कि- "उन्हें लगता था कि भारत को शॉक ट्रीटमेंट की जरूरत है।" लेकिन, इस शॉक ट्रीटमेंट की योजना 25 जून की रैली से छह महीने पहले ही बन चुकी थी। 8 जनवरी, 1975 को सिद्धार्थ शंकर रे ने इंदिरा को एक चिट्ठी में आपातकाल की पूरी योजना भेजी थी। चिट्ठी के मुताबिक ये योजना तत्कालीन कानून मंत्री एच. आर. गोखले, कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ और बांबे कांग्रेस के अध्यक्ष रजनी पटेल के साथ उनकी बैठक में बनी थी। इंदिरा जी जिस शॉक ट्रीटमेंट से विरोध शांत करना चाहती थीं, उसी ने 19 महीने में देश का बेड़ागर्क कर दिया। संजय गांधी और उनकी तिकड़ी से लेकर सुरक्षा बल और नौकरशाही सभी निरंकुश हो चुके थे। सुशील मोदी कहते हैं कि एक मरघट की शांति पूरे देश में स्थापित हो गई। स्वयं मुझे 9 महीने जेल में रहना पड़ा था। हम लोगों ने जवानी का बड़ा हिस्सा जेल के अंदर बिता दिया। सुरेंद्र किशोर बताते हैं कि अफसर तानाशाह हो गए थे। पुलिस कुछ भी कर सकती थी। राजनीतिक गतिविधियां बिल्कुल बंद थीं। कोई जुलूस-प्रदर्शन नहीं। जनता की परेशानियों के लिए कोई जगह नहीं थी सिर्फ तानाशाही चल रही थी।[2]
बॉलीवुड पर चला सरकारी डंडा
विरोध प्रदर्शन का तो सवाल ही नहीं उठता था, क्योंकि जनता को जगाने वाले लेखक-कवि और फिल्म कलाकारों तक को नहीं छोड़ा गया। कहते हैं मीडिया, कवियों और कलाकारों का मुंह बंद करने के लिए ही नहीं बल्कि इनसे सरकार की प्रशंसा कराने के लिए भी विद्याचरण शुक्ला सूचना प्रसारण मंत्री बनाए गए थे। उन्होंने फिल्मकारों को सरकार की प्रशंसा में गीत लिखने-गाने पर मजबूर किया, ज्यादातर लोग झुक गए, लेकिन किशोर कुमार ने आदेश नहीं माना। उनके गाने रेडियो पर बजने बंद हो गए। उनके घर पर आयकर के छापे पड़े। अमृत नाहटा की फिल्म 'किस्सी कुर्सी का' को सरकार विरोधी मान कर उसके सारे प्रिंट जला दिए गए। गुलज़ार की 'आंधी' पर भी पाबंदी लगाई गई। आर के धवन कहते हैं कि "संजय गांधी के पॉलीटिक्स में आने के बाद 5 सूत्रीय प्रोग्राम के तहत नसबंदी का मामला खराब हो गया और जब इंदिरा जी को लगा कि अब दुरुपयोग हो रहा है तो उन्होंने इमरजेंसी हटाने का फैसला किया।" वरिष्ठ पत्रकार कुलदीप नैयर कहते हैं कि- "संजय गांधी ने मुझे बताया कि वो 35 साल तक इमरजेंसी रखना चाहते थे, लेकिन मां ने चुनाव करवा दिए।"
पहली ग़ैर कांग्रेसी सरकार
आपातकाल लागू करने के लगभग दो साल बाद विरोध की लहर तेज़ होती देख प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने लोकसभा भंग कर चुनाव कराने की सिफारिश कर दी। चुनाव में आपातकाल लागू करने का फ़ैसला कांग्रेस के लिए घातक साबित हुआ। ख़ुद इंदिरा गांधी अपने गढ़ रायबरेली से चुनाव हार गईं। जनता पार्टी भारी बहुमत से सत्ता में आई और मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री बने। संसद में कांग्रेस के सदस्यों की संख्या 350 से घट कर 153 पर सिमट गई और 30 वर्षों के बाद केंद्र में किसी ग़ैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ।
कांग्रेस को उत्तर प्रदेश, बिहार, पंजाब, हरियाणा और दिल्ली में एक भी सीट नहीं मिली। नई सरकार ने आपातकाल के दौरान लिए गए फ़ैसलों की जाँच के लिए "शाह आयोग" गठित की। हालाँकि नई सरकार दो साल ही टिक पाई और अंदरूनी अंतर्विरोधों के कारण 1979 में सरकार गिर गई। उप प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह ने कुछ मंत्रियों की दोहरी सदस्यता का सवाल उठाया जो जनसंघ के भी सदस्य थे। इसी मुद्दे पर चरण सिंह ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और कांग्रेस के समर्थन से उन्होंने सरकार बनाई, लेकिन चली सिर्फ़ पाँच महीने। उनके नाम कभी संसद नहीं जाने वाले प्रधानमंत्री का रिकॉर्ड दर्ज हो गया।" इंदिरा गाँधी तथा संजय गाँधी दोनों ही चुनाव हार चुके थे। इस प्रकार 21 मार्च को आपातकाल खत्म हो गया, लेकिन पीछे छोड़ गया 'लोकतंत्र का सबसे बड़ा सबक'।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 1.2 1.3 आपातकाल की पूरी कहानी (हिंदी) faltutopics.blogspot.in। अभिगमन तिथि: 07 अक्टूबर, 2016।
- ↑ 2.0 2.1 2.2 41 साल पहले कैसे लगा आपातकाल, कैसे बरपा सरकारी कहर? (हिंदी) khabar.ibnlive.com। अभिगमन तिथि: 07 अक्टूबर, 2016।
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