याज्ञवल्क्य और मैत्रियी की कथा
महर्षि याज्ञवल्क्य वैदिक युग में एक अत्यन्त विद्वान् व्यक्ति हुए हैं। वे ब्रह्मज्ञानी थे। उनकी दो पत्नियां थीं। एक का नाम कात्यायनी तथा दूसरी का मैत्रियी था । कात्यायनी सामान्य स्त्रियों के समान थीं, वह घर गृहस्थी में ही व्यस्त रहती थी। सांसारिक भोगों में उसकी अधिक रुचि थी। सुस्वादी भोजन, सुन्दर वस्त्र और विभिन्न प्रकार के आभूषणो में ही वह खोई रहती थी। याज्ञवल्क्य जैसे प्रसिद्ध महर्षि की पत्नी होते हुए भी उसका धर्म में उसे कोई आकर्षण नहीं दिखाई देता था। वह पूरी तरह अपने संसार में मोहित थी। जबकि मैत्रियी अपने पति के साथ प्रत्येक धार्मिक कार्य में लगी रहती थी। उनके प्रत्येक कर्मकाण्ड में सहायता देना तथा प्रत्येक आवश्यक वस्तु उपलब्ध कराने में उसे आनन्द आता था। अध्यात्म में उसकी गहरी रुचि थी तथा अपने पति के साथ अधिक समय बिताने के कारण आध्यात्मिक जगत् में उसकी गहरी पैठ थी। वह प्रायः महर्षि याज्ञवल्क्य के उपदेशों को सुनती, उनके धार्मिक क्रिया-कलापों में सहयोग देती तथा स्वंय भी चिन्तन-मनन में लगी रहती थी। सत्य को जानने की उसमें तीव्र जिज्ञासा थी।
एक बार महर्षि याज्ञवल्क्य ने गृहस्थ त्यागकर सन्न्यास लेने का निश्चय किया। उन्होंने अपनी दोनों पत्नियों को अपने समीप बुलाया और उनसे बोले, 'हे मेरी प्रिय धर्मपत्नियों, मैं गृहस्थ त्यागकर सन्न्यास ले रहा हूं। मैं चाहता हूं कि मेरे पश्चात् तुम दोनों में किसी प्रकार का विवाद न हो। इसलिए मेरी जो भी धन-सम्पत्ति है तथा घर में जो भी सामान है, उसे तुम दोनों में आधा-आधा बांट देना चाहता हूं।' कात्यायनी तुंरत तैयार हो गई लेकिन मैत्रियी सोचने लगी कि ऐसी क्या वस्तु है जो गृहस्थ से भी अधिक सुख, सतोंष देने वाली है और जिसे प्राप्त करने के लिए महर्षि गृहस्थ का त्याग कर रहे हैं। वह बोली, 'भगवन आप जिस स्थिति को प्राप्त करने के लिए गृहस्थ का त्याग कर रहे हैं, क्या वह इस गृहस्थ जीवन से अधिक मूल्यवान है?' महर्षि ने उत्तर दिया, 'मैत्रियी वह अमृत है, यह संसार नाशवान है। इसका सुख क्षणिक है, वह स्थायी आनन्द है। उसी की खोज में मैं अपना शेष जीवन व्यतीत कर देना चाहता हूं।' मैत्रियी फिर बोली, 'भगवन यदि धन-धान्य से पूर्ण यह समस्त पृथ्वी मुझे मिल जाए तो क्या मृत्यु मेरा पीछा छोड़ देगी, मैं अमर हो जाऊंगी।' महर्षि याज्ञवल्क्य ने कहा, 'प्रिय मैत्रियी, धन से तो सांसारिक वस्तुओं का ही प्रबंध किया जा सकता है। यह तो शारीरिक आवश्यकताओं की पूर्ति, भोग-विलास तथा वैभव का ही साधन है। इससे अमरत्व का कोई सम्बंध नहीं है।' तब मैत्रियी ने कहा, 'यदि ऐसा है तो आप मुझे इससे क्यों बहला रहे हैं। मुझें इसकी आवश्यकता नहीं है। मुझे तो आप उस तत्त्व का उपदेश दीजिए जिसमें मैं सदा रहने वाला सुख पा सकूं। उसे जान सकूं जिसे जानने के पश्चात् कुछ भी जानना शेष नहीं रहता तथा इस आवागमन के चक्र से मुफ़्त होकर सदा-सदा के लिए अमर हो जाऊं।'
महर्षि अपनी पत्नी की सत्य के प्रति जिज्ञासा को जानकर अत्यन्त प्रसन्न हुए और उन्होंने अपनी पत्नी की प्रशंसा करते हुए कहा, 'हे मैत्रियी, तुम्हारी इस सच्ची लगन को देखकर मैं पहले भी तुमसे प्रसन्न था और तुम्हें प्यार करता था, अब तुम्हारी बातें सुनकर मैं तुमसे बहुत अधिक प्रसन्न हूं, आओ, मेरे पास बैठो, मैं तुम्हें वह ज्ञान दूंगा जिससे वास्तव में तुम्हारी आत्मा का कल्याण होगा और तुम संसार के माया-मोह से सदा के लिए मुफ़्त हो जाओगी।' और ऐसा ही हुआ, मैत्रियी ने अपने पति के द्वारा ज्ञान प्राप्त करके, ईश्वर को पा लिया और उसका मन स्थायी शांति तथा आनन्द से परिपूर्ण हो गया।
ज्ञात्वा शिवं शान्तिमत्यन्मेति[1]।
उस कल्याणकारी परमात्मा को जानकर ही भक्त अत्यन्त शान्ति (मोक्ष) को प्राप्त करता है।
टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ श्वेताश्वतरोपिनषद 4/14