अल्ताफ़ हुसैन हाली

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अल्ताफ़ हुसैन हाली
अल्ताफ़ हुसैन हाली
अल्ताफ़ हुसैन हाली
पूरा नाम अल्ताफ़ हुसैन हाली
जन्म 11 नवम्बर, 1837
जन्म भूमि पानीपत
मृत्यु 30 सितम्बर, 1914
अभिभावक पिता- ईजद बख्श, माता- इमता-उल-रसूल
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र उर्दू साहित्य
मुख्य रचनाएँ 'मुसद्दस-ए-हाली', 'यादगार-ए-हाली', 'हयात-ए-हाली', 'हयात-ए-जावेद' आदि।
प्रसिद्धि उर्दू शायर, साहित्यकार
नागरिकता भारतीय
सक्रिय काल 1860–1914
अन्य जानकारी अल्ताफ़ हुसैन हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब के जीवन जीने के ढंग में बड़ा अन्तर था। पाखण्ड की कड़ी आलोचना करते हुए हाली एक पक्के मुसलमान का जीवन जीते थे। मिर्ज़ा ग़ालिब ने शायद ही कभी नमाज़ पढ़ी हो। मिर्ज़ा ग़ालिब के प्रति हाली के दिल में बहुत आदर-सम्मान था।
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अल्ताफ़ हुसैन हाली (अंग्रेज़ी: Altaf Hussain Hali, जन्म- 11 नवम्बर, 1837, पानीपत; मृत्यु- 30 सितम्बर, 1914) का नाम उर्दू साहित्य में बड़े ही सम्मान के साथ लिया जाता है। वे सर सैयद अहमद ख़ान साहब के प्रिय मित्र व अनुयायी थे। हाली जी ने उर्दू में प्रचलित परम्परा से हटकर ग़ज़ल, नज़्म, रुबाईया व मर्सिया आदि लिखे हैं। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी सहित कई किताबें भी लिखी हैं।

परिचय

अल्ताफ़ हुसैन हाली का जन्म 11 नवम्बर, 1837 ई. में पानीपत (हरियाणा) हुआ था। उनके पिता का नाम ईजद बख्श व माता का नाम इमता-उल-रसूल था। जन्म के कुछ समय के बाद ही उनकी माता का देहान्त हो गया। हाली जब नौ वर्ष के थे तो उनके पिता का देहान्त हो गया। इन हालात में हाली की शिक्षा का समुचित प्रबन्ध नहीं हो सका। परिवार में शिक्षा-प्राप्त लोग थे, इसलिए वे अरबी व फ़ारसी का ज्ञान हासिल कर सके। हाली के मन में अध्ययन के प्रति गहरा लगाव था। हाली के बड़े भाई इम्दाद हुसैन व उनकी दोनों बड़ी बहनों- इम्ता-उल-हुसेन व वजीह-उल-निसां ने हाली की इच्छा के विरूद्ध उनका विवाह इस्लाम-उल-निसां से कर दिया।

मुस्लिम समाज और हाली

अल्ताफ़ हुसैन हाली का जन्म मुस्लिम परिवार में हुआ। हाली ने तत्कालीन मुस्लिम-समाज की कमजोरियों और खूबियों को पहचाना। हाली ने मुस्लिम समाज को एकरूपता में नहीं, बल्कि उसके विभिन्न वर्गों व विभिन्न परतों को पहचाना। हाली की खासियत थी कि वे समाज को केवल सामान्यीकरण में नहीं, बल्कि उसकी विशिष्टता में पहचानते थे। इसलिए उनको मुस्लिम समाज में भी कई समाज दिखाई दिए। हाली के समय में मुस्लिम समाज एक अजीब किस्म की मनोवृत्ति से गुजर रहा था। अंग्रेज़ों के आने से पहले मुस्लिम-शासकों का शासन था, जो सत्ता से जुड़े हुए थे। वे मानते थे कि अंग्रेज़ों ने उनकी सत्ता छीन ली है। भारत पर अंग्रेज़ों का शासन एक सच्चाई बन चुका था, जिसे मुसलमान स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। वे अपने को राजकाज से जोड़ते थे, इसलिए काम करने को हीन समझते थे।

हाली और मिर्ज़ा ग़ालिब

अपने दिल्ली निवास के दौरान अल्ताफ़ हुसैन हाली के जीवन में जो महत्त्वपूर्ण घटना घटी, वह थी उस समय के प्रसिद्ध शायर मिर्ज़ा ग़ालिब से मुलाकात व उनका साथ। हाली के मिर्ज़ा ग़ालिब से प्रगाढ़ सम्बन्ध थे। उन्होंने मिर्ज़ा ग़ालिब से रचना के गुर सीखे थे। हाली ने जब ग़ालिब को अपने शेर दिखाए तो उन्होंने हाली की प्रतिभा को पहचाना व प्रोत्साहित करते हुए कहा कि ‘यद्यपि मैं किसी को शायरी करने की अनुमति नहीं देता, किन्तु तुम्हारे बारे में मेरा विचार है कि यदि तुम शेर नहीं कहोगे तो अपने हृदय पर भारी अत्याचार करोगे’। हाली पर ग़ालिब का प्रभाव है लेकिन उनकी कविता का तेवर बिल्कुल अलग किस्म का है। हाली का अपने समाज के लोगों से गहरा लगाव था, इस लगाव-जुड़ाव को उन्होंने अपने साहित्य में भी बरकरार रखा। इसीलिए ग़ालिब समेत तत्कालीन साहित्यकारों के मुकाबले हाली की रचनाएं विषय व भाषा की दृष्टि से जनता के अधिक करीब हैं।

योगदान

अल्ताफ़ हुसैन हाली ने शायरी को हुस्न-इश्क व चाटुकारिता के दलदल से निकालकर समाज की सच्चाई से जोड़ा। चाटुकार-साहित्य में समाज की वास्तविकता के लिए कोई विशेष जगह नहीं थी। रचनाकार अपनी कल्पना से ही एक ऐसे मिथ्या जगत का निर्माण करते थे, जिसका वास्तविक समाज से कोई वास्ता नहीं था। इसके विपरीत हाली ने अपनी रचनाओं के विषय वास्तविक दुनिया से लिए और उनके प्रस्तुतिकरण को कभी सच्चाई से दूर नहीं होने दिया। हाली की रचनाओं के चरित्र हाड़-मांस के जिन्दा जागते चरित्र हैं, जो जीवन-स्थितियों को बेहतर बनाने के संघर्ष में कहीं जूझ रहे हैं तो कहीं पस्त हैं। यहां शासकों के मक्कार दलाल भी हैं, जो धर्म का चोला पहनकर जनता को पिछड़ेपन की ओर धकेल रहे हैं, जनता में फूट के बीज बोकर उसका भाईचारा तोड़ रहे हैं। हाली ने साहित्य में नए विषय व उनकी प्रस्तुति का नया रास्ता खोजा। इसके लिए उनको तीखे आक्षेपों का भी सामना करना पड़ा।

मानवीय दृष्टिकोण

अल्ताफ़ हुसैन हाली के लिए मानवता की सेवा ही ईश्वर की भक्ति व धर्म था। वे कर्मकाण्डों की अपेक्षा धर्म की शिक्षाओं पर जोर देते थे। वे मानते थे कि धर्म मनुष्य के लिए है न कि मनुष्य धर्म के लिए। जितने भी महापुरुष हुए हैं, वे यहां किसी धर्म की स्थापना के लिए नहीं बल्कि मानवता की सेवा के लिए आए थे। इसलिए उन महापुरुषों के प्रति सच्ची श्रद्धा मानवता की सेवा में है न कि उनकी पूजा में। यदि धर्म से मानवता के प्रति संवेदना गायब हो जाए तो उसके नाम पर किए जाने वाले कर्मकाण्ड ढोंग के अलावा कुछ नहीं हैं, कर्मकाण्डों में धर्म नहीं रहता। हाली धर्म के ठेकेदारों को इस बात के लिए लताड़ लगाते हैं कि धर्म उनके उपदेशों के वाग्जाल में नहीं, बल्कि व्यवहार में सच्चाई और ईमानदार की परीक्षा मांगता है। हाली ने धार्मिक उपदेश देने वाले लागों में आ रही गिरावट पर अपनी बेबाक राय दी।

मृत्यु

अल्ताफ़ हुसैन हाली का निधन 30 सितम्बर, 1914 को पानीपत में हुआ। हाली के सामने वे सब दिक्कतें पेश आई थीं, जो एक आम इंसान को झेलनी पड़ती हैं। वे समस्याओं को देखकर कभी घबराए नहीं। इन समस्याओं के प्रति जीवट का रुख ही अल्ताफ़ हुसैन हाली को वह ‘हाली’ बना सका, जिसे लोग आज भी याद करते हैं। हाली ने अपनी समस्याओं को सही परिप्रेक्ष्य में समझा और उसको बृहतर सामाजिक सत्य के साथ मिलाकर देखा तो समाज की समस्या को दूर करने में ही उन्हें अपनी समस्या का निदान नजर आया।


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