आश्रम

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आश्रम एक बहुविकल्पी शब्द है अन्य अर्थों के लिए देखें:- आश्रम (बहुविकल्पी)

जिन संस्थाओं के ऊपर हिन्दू समाज का संगठन हुआ है, वे हैं - वर्ण और आश्रम। वर्ण का आधार मनुष्य की प्रकृति अथवा उसकी मूल प्रवृत्तियाँ हैं, जिसके अनुसार वह जीवन में अपने प्रयत्नों और कर्तव्यों का चुनाव करता है। आश्रम का आधार संस्कृति अथवा व्यक्तिजत जीवन का संस्कार करना है। मनुष्य जन्मना अनगढ़ और असंस्कृत होता है; क्रमश: संस्कार से वह प्रबुद्ध और सुसंस्कृत बन जाता है।

आश्रम (मानव अवस्थाएँ)

सम्पूर्ण मानवजीवन मोटे तौर पर चार विकासक्रमों में बाँटा जा सकता है-

  1. बाल्य और किशोरावस्था
  2. यौवन
  3. प्रौढ़ावस्था और
  4. वृद्धावस्था

चार आश्रम

मानव के चार विकासक्रमों के अनुरूप ही चार आश्रमों की कल्पना की गई थी, जो निम्न प्रकार हैं-

  1. ब्रह्मचर्य- इसका पालनकर्ता ब्रह्मचारी अपने गुरु, शिक्षक के प्रति समर्पित और आज्ञाकारी होता है।
  2. गार्हस्थ्य- इसका पालनकर्ता गृहस्थ अपने परिवार का पालन करता है और ईश्वर तथा पितरों के प्रति कर्तव्यों का पालन करते हुए पुरोहितों को अवलंब प्रदान करता है।
  3. वानप्रस्थ- इसका पालनकर्ता भौतिक वस्तुओं का मोह त्यागकर तप और योगमय वानप्रस्थ जीवन जीता है।
  4. सन्न्यास- इसका पालनकर्ता संन्यासी सभी वस्तुओं का त्याग करके देशाटन और भिक्षा ग्रहण करता है तथा केवल शाश्वत का मनन करता है।

शास्त्रीय पद्धति में मोक्ष (सांसारिक लगावों से स्व की मुक्ति) की गहन खोज जीवन के अन्तिम दो चरणों से गुज़र रहे व्यक्तियों के लिए सुरक्षित है। लेकिन वस्तुत: कई संन्यासी कभी विवाह नहीं करते तथा बहुत कम गृहस्थ ही अन्तिम दो आश्रमों में प्रवेश करते हैं।

नाम और क्रम में अन्तर

आश्रमों के नाम और क्रम में कहीं-कहीं अन्तर पाया जाता है। आपस्तम्ब धर्मसूत्र[1] के अनुसार गार्हस्थ्य, आचार्यकुल (ब्रह्मचर्य), मौन और वानप्रस्थ चार आश्रम थे। गौतम धर्मसूत्र[2] में ब्रह्मचारी, गृहस्थ, भिक्षु और वैखानस चार आश्रमों के नाम हैं। वसिष्ठधर्मसूत्र [3] ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और परिव्राजक का उल्लेख करता है।

आश्रम सम्बन्ध

आश्रमों का सम्बन्ध विकास कर्म के साथ-साथ जीवन के मौलिक उद्देश्य धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भी था-ब्रह्मचर्य का सम्बन्ध मुख्यत: धर्म अर्थात् संयम-नियम से, गार्हस्थ्य का सम्बन्ध अर्थ-काम से, वानप्रस्थ का सम्बन्ध उपराम और मोक्ष की तैयारी से और सन्न्यास का सम्बन्ध मोक्ष से था। इस प्रकार उद्देश्यों अथवा पुरुषार्थों के साथ आश्रम का अभिन्न सम्बन्ध है।

आश्रम शब्द का चुनाव

जीवन की इस प्रक्रिया के लिए आश्रम शब्द का चुनाव बहुत ही उपयुक्त था। यह शब्द श्रम् धातु से बना है, जिसका अर्थ है श्रम करना अथवा पौरुष दिखलाना (अमरकोष, भानुजी दीक्षित)। सामान्यत: इसके तीन अर्थ प्रचलित हैं-

  1. वह स्थिति अथवा स्थान जिसमें श्रम किया जाता है
  2. स्वयं श्रम अथवा तपस्या और
  3. विश्रामस्थान

आश्रम (संस्था)

वास्तव में आश्रम जीवन की वे अवस्थाएँ हैं, जिनमें मनुष्य श्रम, साधना और तपस्या करता है और एक अवस्था की उपलब्धियों को प्राप्त कर लेता है तथा इनसे विश्राम लेकर जीवन के आगामी पड़ाव की ओर प्रस्थान करता है।

आश्रम का अर्थ

आश्रम व्यवस्था ने ईसा के बाद पहली शताब्दी में एक धर्मशास्त्रीय ढाँचे की रचना की। यह ऊँची जाति के पुरुषों के लिए आदर्श थी, जिसे वस्तुत: व्यक्तिगत या सामाजिक रूप से कभी-कभी ही प्राप्त किया जा सकता था। दूसरे अर्थ में आश्रम शब्द का तात्पर्य शरणस्थल है, विशेषकर शहरी जीवन से दूर, जहाँ आध्यात्मिक व योग साधना की जाती है। अक्सर ये आश्रम एक केन्द्रीय शिक्षक या गुरु की उपस्थिति से सम्बद्ध होते हैं, जो आश्रम के अन्य निवासियों की आराधना या श्रद्धा का केन्द्र होता है। गुरु औपचारिक रूप से संगठित क्रम या आध्यात्मिक समुदाय से सम्बन्धित हो भी सकता है और नहीं भी।

विभिन्न मत

मनु के अनुसार मनुष्य का जीवन सौ वर्ष का होना चाहिए (शतायुर्वे पुरुष:) अतएव चार आश्रमों का विभाजन 25-25 वर्ष का होना चाहिए। प्रत्येक मनुष्य के जीवन में चार अवस्थाएँ स्वाभाविक रूप से होती हैं और मनुष्य को चारों आश्रमों के कर्तव्यों का यथावत् पालन करना चाहिए। परन्तु कुछ ऐसे सम्प्रदाय प्राचीन काल में थे और आज भी हैं, जो नियमत: इनका पालन करना आवश्यक नहीं समझते। इनके मत को बाध कहा गया है। कुछ सम्प्रदाय आश्रमों के पालन में विकल्प मानते हैं अर्थात् उनके अनुसार आश्रम के क्रम अथवा संख्या में हेरफेर हो सकता है। परन्तु संतुलित विचारधारा आश्रमों के समुच्चय में करती आई हैं। इसके अनुसार चारों आश्रमों का पालन क्रम से होना चाहिए। जीवन के प्रथम चतुर्थांश में ब्रह्मचर्य, द्वितीय चतुर्थांश में गार्हस्थ्य, तृतीय चतुर्थांश में वानप्रस्थ और अन्तिम चतुर्थांश में सन्न्यास का पालन करना चाहिए। इसके अभाव में सामाजिक जीवन का संतुलन भंग होकर मिथ्याचार अथवा भ्रष्टाचार की वृद्धि होती है।

आश्रम कर्तव्य

विभिन्न आश्रमों के कर्तव्यों का विस्तृत वर्णन आश्रमधर्म के रूप से स्मृतियों में पाया जाता है। संक्षेप में मनुस्मृति से आश्रमों के कर्तव्य नीचे दिए जा रहे हैं-

  1. ब्रह्मचर्य आश्रम में गुरुकुल में निवास करते हुए विद्यार्जन और व्रत का पालन करना चाहिए [4]
  2. दूसरे आश्रम गार्हस्थ्य में विवाह करके घर बसाना चाहिए; सन्तान उत्पत्ति द्वारा पितृऋण, यज्ञ द्वारा देवऋण और नित्य स्वाध्याय द्वारा ऋषिऋण चुकाना चाहिए [5]
  3. वानप्रस्थ आश्रम में सांसारिक कार्यों से उदासीन होकर तप, स्वाध्याय, यज्ञ, दान आदि के द्वारा वन में जीवन बिताना चाहिए [6]
  4. वानप्रस्थ समाप्त करके सन्न्यास आश्रम में प्रवेश करना होता है। इसमें सांसारिक सम्बन्धों का पूर्णत: त्याग और परिव्रजन (अनागारिक होकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर घूमते रहना) विहित है [7]

पाणिनिकालीन आश्रम व्यवस्था

आश्रम - चारों आश्रम के लिये कात्यायन ने 'चातुराश्रम्य' पद दिया है। सूत्र में उनके ये नाम हैं- ब्रह्मचारी[8], गृहपति[9], भिक्षु[10] और परिब्राजक[11]। पाणिनि के समय में आश्रम प्रणाली उन्नत दशा में थी, विशेषत: ब्रह्मचर्य-शिक्षा-प्रणाली जिसका कुछ विस्तार से वर्णन हुआ है।

ब्रह्मचारी

ब्रह्मचारी के लिये 'वर्णी' यह नई संज्ञा प्रयोग में आने लगी थी[12] जो सहिंता और ब्राह्मण साहित्य में अविदित थी। काशिका के अनुसार तीन उच्च वर्णों के ब्रह्मचारी वर्णी कहलाते थे[13]

छात्र दो प्रकार के थे, माणव और अंतेवासी[14]। माणवों को पाणिनि ने 'दंड-माणव' भी कहा है[15]। छोटी अवस्था के सीखतर ब्रह्मचारी माणव होते थे। मातंग जातक में दण्डमाणवों को बाल कहा गया है[16]। ब्रह्मचारी पलाश का दण्ड या आषाढ़[17] और अजिन रखते थे।

ब्रह्मचर्य की अवधि

तदस्य ब्रह्मचर्यम्[18] सूत्र में ब्रह्मचारियों के नामकरण की विधि बताई गई है। जितने दिन के लिये छात्र ब्रह्मचर्य व्रत की दीक्षा लेते थे, उस अवधि के अनुसार उनका नाम पड़ता था। सूत्र के उदाहरणों से ज्ञात होता है कि पंद्रह दिन (आर्धमासिक: ब्रह्मचारी), एक महीना (मासिक:) या एक वर्ष (सांवत्सरिक:) ब्रह्मचर्य का समय हो सकता था। वस्तुत: परिमित अवधि के लिये चरणों में प्रविष्ट होकर अध्ययन करने वाले ब्रह्मचारियों की ये संज्ञाएं थीं। आधुनिक विश्वविद्यालयों के अल्पकालिक व्याख्यान प्रबंध या लघु पाठ्यक्रम के ढंग पर वैदिक चरणों में भी अध्ययन की सुविधाएँ मिलने लगी थीं: तभी मासिक और अर्धमासिक ब्रह्मचारी जैसे प्रयोग अस्तित्व में आए होंगे।

सब प्रकार के छोटे-बड़े अध्ययन और ग्रंथ-पारायणों में भाग लेने की विद्यार्थियों को छूट थी। किसी यज्ञ विशेष की विधि जानने की इच्छा से या विशेष साम-गान कण्ठ करने कि लिये या कुछ ऋचाओं का पारायण सिखने के लिए एक पखवाड़े या एक महीने जैसे थोड़े समय के लिए भी छात्र अध्ययन का नियम लेकर आर्धमासिक या मासिक ब्रह्मचारी बन सकते थे। अड़तालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत लेने वाले छात्र 'अष्टाचत्वारिंशक' या 'अष्टाचत्वारिंशी' कहलाते थे।[19] गृह्य सूत्रों से ज्ञात होता है कि गुरुकुलवास की यह अधिकतम अवधि थी। अड़तालीस वर्ष का ब्रह्मचर्य व्रत 'आदित्य व्रत' कहलाता था, जिसके धारण करने वाले ब्रह्मचारियों की संज्ञा आदित्यव्रतिक थी। गोभिलगृह्यसूत्र के अनुसार 'आदित्य साम' पर्यंत अध्ययन का व्रत 'आदित्य व्रत' था।[20][21]

स्नातक

अध्ययन समाप्त करने पर ब्रह्मचारी आचार्य की अनुमति से स्नातक बनता था। स्नात वेद समाप्तौ गणसूत्र[22] के अनुसार वेदाध्ययन की समाप्ति पर स्नातक बनने का उचित काल समझा जाता था। विद्या विशेष में अतिशय प्रवीण स्नातक 'निष्णात' कहे जाते थे। पीछे चल कर यह शब्द कौशल के लिए प्रयुक्त होने लगा[23]। 'स्रग्वी' पद भी[24] सम्भवत: स्नातक के लिये प्रयुक्त होता था[25]। स्रक्‌ ब्रह्मचर्य-व्रत-समाप्ति का विशेष चिह्न थी। अकाल में व्रत छोड़ कर गृहस्थ बन जाने वाले छात्रों को व्यङ्ग्य से 'खट्वारूढ' कहा जाता था।[26] ब्रह्मचारी के लिये खाट का प्रयोग निषिद्ध होने के कारण 'खट्वारूढ' पद निंदार्थक माना गया था।

गृहपति

विवाह करके गृहस्थ आश्रम में प्रविष्ट होने वाले व्यक्ति के लिये प्राचीन संज्ञा 'गृहपति' थी। विवाह के समय प्रज्ज्वलित हुई अग्नि 'गार्हपत्य' कहलाती थी, क्योंकि गृहपति उससे संयुक्त रहता था[27]। अग्नि साक्षिक विवाह से आरम्भ होने वाले गृहस्थ जीवन में गृहपति लोग जिस अग्नि को गृहयज्ञों के द्वारा निरंतर प्रज्वलित रखते थे, उस अग्नि के लिये ही 'गृहपतिना संयुक्त:' यह विशेषण चरितार्थ होता है। विवाह के समय का अग्निहोम एक यज्ञ था। उस यज्ञ में पति के साथ विधिपूर्वक संयुक्त होने के कारण विवाहिता स्त्री की संज्ञा 'पत्नी' होती थी[28]। पति-पत्नि दोनों मिलकर वैवाहिक अग्नि की परिचर्या करते थे[29]। गृह्म अग्नि में आहुत होने वाले अनेक स्थालीपाक उस समय किये जाते थे। पाणिनि ने वास्तोष्पति के अतिरिक्त 'गृहमेध' देवता का भी उल्लेख किया है[30]। पुत्र-पौत्रों से सुखी सम्पन्न पति-पत्नी सुप्रज[31] और पुत्रपौत्रीण[32] कहलाते थे।

बोध प्रदाता

वर्ण और आश्रम मनुष्य के सम्पूर्ण कर्तव्यों का समाहार करते हैं। परन्तु जहाँ वर्ण मनुष्य के सामाजिक कर्तव्यों का विधान करता है, वहाँ आश्रम व्यक्तिगत कर्तव्यों का। आश्रम व्यक्तिगत जीवन की विभिन्न विकास सरणियों का निदेशन करता है और मनुष्य को इस बात का बोध कराता है कि उसके जीवन का उद्देश्य क्या है। उसको प्राप्त करने के लिए उसको जीवन का किस प्रकार संघठन करना चाहिए। वास्तव में जीवन की यह अनुपम और उच्चतम कल्पना और योजना है। अन्य देशों के इतिहास में इस प्रकार की जीवन-योजना नहीं पाई जाती है। प्रसिद्ध विद्वान् डॉयसन ने इसके सम्बन्ध में लिखा है-

हम यह नहीं कह सकते कि मनुस्मृति तथा अन्य स्मृतियों में वर्णित जीवन की यह योजना कहाँ तक व्यावहारिक जीवन में कार्यान्वित हुई थी। परन्तु हम यह स्वीकार करने में स्वतंत्र हैं कि हमारे मत में मानव जाति के सम्पूर्ण इतिहास में ऐसी कोई विचारधारा नहीं है, जो इस विचार की महत्ता की समता कर सके।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  • पुस्तक ‘हिन्दू धर्मकोश’ पृष्ठ संख्या-92
  • पुस्तक ‘भारत ज्ञानकोश’ पृष्ठ संख्या-143
  1. आपस्तम्ब धर्मसूत्र 2.9.21,1
  2. गौतम धर्मसूत्र 3.2
  3. वसिष्ठधर्मसूत्र 7.1-2
  4. मनुस्मृति, 4.1
  5. मनुस्मृति, 5.169
  6. मनुस्मृति 6. 1-2
  7. मनुस्मृति 6. 33
  8. 5।2।134
  9. 4।4।90
  10. 3।2।168
  11. 6।1।154
  12. वर्णाद् ब्रह्मचारिणि, 5।2।134
  13. ब्राह्मणादयस्त्रयो वर्णा वर्णिन उच्यंते
  14. गोत्रांतेवासिमाणवब्राह्मणेषु क्षेपे 6।2।69
  15. 4।3।1130
  16. 4।372,387
  17. 5।1।110
  18. 5।1।94
  19. कात्यायन
  20. 3।128-30
  21. पाणिनीकालीन भारत |लेखक: वासुदेवशरण अग्रवाल |प्रकाशक: चौखम्बा विद्याभवन, वाराणसी-1 |संकलन: भारतकोश पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 95 |
  22. 5।4।29
  23. निनदीभ्यां स्नाते: कौशले, 8।3।89
  24. 5।2।121
  25. मनु 3।3
  26. खट्वा क्षेपे 2।1।26
  27. गृहपतिना संयुक्ते त्र्य:, 4।4।90
  28. पत्युर्नो यज्ञसंयोगे, 4।1।33
  29. मनु 3।67
  30. 4।2।32
  31. 5।4।123
  32. पुत्र पौत्र मनुभवति, 5।2।10

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