ख़ालसा पंथ

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ख़ालसा का अर्थ है शुद्ध, ख़ालसा शब्द फ़ारसी शब्द ख़ालिस से उत्पन्न है। ख़ालसा सिक्ख धर्म का प्रधान पंथ है, यौवनारंभ आयु में पहुँचने पर अधिकांश सिक्ख लड़कों और लडकियों को ख़ालसा पंथ में दीक्षित किया जाता है। पाहुलू नामक यह समारोह ख़ालसा के पाँच सदस्यों द्वारा किया जाता है, जो भजनों के उच्चारण के साथ-साथ कृपाण की मदद से पानी में शक्कर मिलाते हैं। दीक्षा प्राप्त करने वाले एक ही प्याले से इस पेय को पीते हैं, जो जाति भेद की समाप्ति को दर्शाता है। लड़कों को सिंह और लड़कियों को कौर उपनाम प्रदान किया जाता है।

दीक्षा

पुरुष दीक्षितों को पाँच ककार धारण करने की शपथ लेनी पड़ती है। जो 'ख़ालसा पंथ' के प्रतीक हैं-

  1. केश
  2. कंघा
  3. कच्छा
  4. कड़ा
  5. कृपाण
  • साथ ही वे तंबाकू या शराब का सेवन न करने की भी शपथ लेते हैं।

इतिहास

सन 1699 ई. में बैसाखी के दिन श्री केशवगढ़ आनंदपुर साहिब (पंजाब) की धरती पर श्री गुरु गोविंद सिंह जी महाराज ने श्री गुरु नानक देव जी महाराज के निर्मल पंथ की संपूर्णता करते हुए ख़ालसा पंथ की स्थापना की। जिन्हें पहले सिख कहा जाता था, अब अमृतपान करने के बाद उसको ख़ालसा कहा जाने लगा। सच तो यह है कि ख़ालसा पंथ के निर्माण के पीछे गुरु नानक देव जी का, सतनाम का गुरुमंत्र, सत्यता और एकता की भावना, ईश्वर भक्ति का संदेश, मानव को सत्य पथ पर चलने का आदेश, गुरु आनंद देव जी सेवा, शालीनता और संतोष का उदाहरण गुरु अमरदास की गुरु महिमा से उसके सत्य रूप का प्रतीक, गुरु नामदास की संगत-पंगत की व्यवस्था गुरु अर्जुनदेव जी के सत्य के प्रति बलिदान और नम्रता, गुरु हरिगोबिंद जी की ललकार, गुरु हर राय जी का गुरु घर में आए को आशीर्वाद, गुरु हरिकृष्ण जी द्वारा गरुगद्दी की प्रतिष्ठा में अचल लीला, गुरु तेगबहादुर जी द्वारा जी देश और सनातन धर्म की रक्षा में दिल्ली के चाँदनी चौक में अपना सिर देकर नई परंपरा का प्रकाश है।

आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के शब्दों में 'ख़ालसा में गुरुजी ने अलौकिक शक्ति संचार किया और उपदेश दिया कि ख़ालसा में ऊँच-नीच कोई नहीं, सब एक स्वरूप हैं। ख़ालसा का पहला धर्म है कि देश मानव जाति की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब कुछ न्यौछावर कर दे। निर्धनों, अनाथों तथा असहायों की रक्षा के लिए आगे रहे। सतगुरु ने ख़ालसा सजाकर अमृत प्रचार की एक अनोखी प्रथा चलाई। अमृत प्रचार द्वारा राष्ट्रीय संगठन पैदा किया तथा एक परमात्मा की उपासना का उपदेश दिया। गुरु देव का यह लोकतांत्रिक नाम संसार के इतिहास में असाधारण तथा अलौकिक है।'

श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने ख़ालसा पंथ की रचना करके लोगों में यह विश्वास उत्पन्न किया कि वे लोग एक ईश्वरीय कार्य को संपन्न करने के लिए उत्पन्न हुए हैं। उन्होंने एक नया जयघोष दिया।

वाहिगुरु जी का ख़ालसा वाहिगुरु जी की फतेह

(ख़ालसा ईश्वर का है और ईश्वर की विजय सुनिश्चित है।)

स्थापना

30 मार्च, सन् 1699 को गुरु गोविंद सिंह ने खालसा पंथ की स्थापना आनंदपुर, पंजाब में की थी। इस पंथ के अनुयायी अकाली ही थे। तत्कालीन समय में मुग़ल शासनकाल में सिक्खों पर अत्याचार हो रहे थे। कुछ ही दिनों में लगभग 80000 लोगों को नए पंथ में शामिल कर लिया गया, जल्दी ही इस पंथ ने सिक्ख धर्म के भीतर नेतृत्व की कमान संभाल ली, जो सिक्ख इस पंथ में शामिल नहीं हुए और हजामत बनवाते रहे, उन्हें सहजधारी[1] कहा जाने लगा; ख़ालसा और सहजधारियों के बीच विभेद आज भी बरकरार हैं।

औरंगज़ेब के अत्याचारों का मुकाबला करने के लिए अकाली खालसा सेना के रूप में सामने आए। गुरु ने उन्हें नीले वस्त्र पहनने का आदेश दिया और पाँच ककार (कच्छ, कड़ा, कृपाण, केश तथा कंघा) धारण करना भी उनके लिए अनिवार्य हुआ। अकाली सेना की एक शाखा सरदार मानसिंह के नेतृत्व में निहंग सिंही के नाम से प्रसिद्ध हुई। फ़ारसी भाषा में निहंग का अर्थ मगरमच्छ है, जिसका तात्पर्य उस निर्भय व्यक्ति से है, जो किसी अत्याचार के समक्ष नहीं झुकता। इसका संस्कृत अर्थ निसर्ग है अर्थात्‌ पूर्ण रूप से अपरिग्रही, पुत्र, कलत्र और संसार से विरक्त पूरा-पूरा अनिकेतन।

निहंग लोग विवाह नहीं करते थे और साधुओं की वृत्ति धारण करते थे। इनके जत्थे होते थे और उनका एक अगुआ जत्थेदार होता था। पीड़ितों, आर्तों और निर्बलों की रक्षा के साथ-साथ सिक्ख धर्म का प्रचार करना इनका पुनीत कर्तव्य था। जहाँ भी ये ठहरते थे, जनता इनका आदर करती थी। जिस घर में ये प्रवेश पाते थे, वह अपने को परम सौभाग्यशाली समझता था। ये केवल अपने खाने भर को ही लिया करते थे और आदि न मिला तो उपवास करते थे। ये एक स्थान पर नहीं ठहरते थे। कुछ लोग इनकी पक्षीवृत्ति देखकर इन्हें विहंगम भी कहते थे। सचमुच ही इनका जीवन त्याग और तपस्या का जीवन था। वीर ये इतने थे कि प्रत्येक अकाली अपने को सवा लाख के बराबर समझता था। किसी की मृत्यु की सूचना भी यह कहकर दिया करते थे कि वह चढ़ाई कर गया, जैसे मृत्यु लोक में भी मृत प्राणी कहीं युद्ध के लिए गया हो। सूखे चने को ये लोग बदाम कहते थे और रुपए और सोने को ठीकरा कहकर अपनी असंग भावना का परिचय देते थे। पश्चिम से होने वाले अफ़ग़ानों के आक्रमणों का मुकाबला करना और हिन्दू कन्याओं और तरुणियों को पापी आततायियों के हाथों से उबारना इनका दैनिक कार्य था।[2]


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ग्रहण करने में धीमे
  2. हिन्दी विश्वकोश,खण्ड 1 |प्रकाशक: नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी |संकलन: भारत डिस्कवरी पुस्तकालय |पृष्ठ संख्या: 66 |

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