श्रीकांत उपन्यास भाग-7

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रास्ते में जिन लोगों के सुख-दु:ख में हिस्सा बँटाता हुआ मैं इस परदेश में आकर उपस्थित हुआ था, घटना-चक्र से वे तो रह गये शहर के एक छोर पर और मुझे आश्रय मिला शहर के दूसरे छोर पर। इसलिए, इन पन्द्रह-सोलह दिनों के बीच उस ओर जा न सका। इसके सिवाय, सारे दिन नौकरी की उम्मीदवारी में घूमते इतना थक जाता था कि शाम के कुछ पहले वास-स्थान पर लौटने पर इतनी शक्ति ही नहीं बचती थी कि मैं कहीं भी बाहर जाऊँ। क्रम-से-क्रम जैसे-जैसे दिन बीतने लगे मेरे मन में यह धारणा होने लगी कि इस सुदूर परदेश में आने पर भी नौकरी प्राप्त करना मेरे लिए ठीक उतना ही कठिन है जितना कि देश में था।

अभया की बात याद आई। जिस आदमी पर भरोसा करके वह घर छोड़कर अपना पति खोजने आई है, पता न लगने पर उस आदमी का क्या हाल होगा। घर छोड़कर बाहर आने का मार्ग काफ़ी खुला होने पर भी लौटने का मार्ग ठीक उतना ही प्रशस्त बना रहेगा, इतनी बड़ी आशा की कल्पना करने का साहस बंगाल देश की आबो-हवा में पले होने के कारण मुझमें नहीं है। उन्होंने अधिक दिनों तक अपना निर्वाह कर सकने लायक़ धन-बल संग्रह करके पैर नहीं बढ़ाया है, इसका अनुमान करना भी मेरे लिए कठिन नहीं है। बाकी बचा केवल एक रास्ता जो कि पन्द्रह आने बंगालियों का एकमात्र सहारा है-अर्थात् महीने-पन्द्रह दिन के बाद पराई नौकरी करके मरण-पर्यन्त किसी तरह शरीर में हाड़-मांस बनाए रहकर जीते रहना। यह कहने की ज़रूरत नहीं कि रोहिणी बाबू के लिए भी इसके सिवाय और कोई रास्ता नहीं था, किन्तु, रंगून के इस बाज़ार में केवल अपना ही पेट भरने लायक़ नौकरी जुटाने में जब मेरा यह हाल है तब एक स्त्री को अपने कन्धों पर लादे हुए अभया के उस बेचारे बिना ढंग-ढौल के गुमसुम 'भइया' का क्या हाल होगा इसकी कल्पना करके मैं भयभीत हो उठा। मैंने स्थिर किया कि जैसे बने, कल एक दफे जाकर उनकी खबर ज़रूर लूँगा।

दूसरे दिन शाम के समय क़रीब दो कोस ज़मीन खोदकर उनके वास-स्थान पर पहुँचा और देखा कि बाहर के बरामदे में एक छोटे-से मोढ़े पर रोहिणी भइया बैठे हुए हैं। उनका मुख-मण्डल बादल छाए हुए 'आषाढस्य प्रथम दिवसे' की तरह गुरु-गम्भीर हो रहा है। बोले, "ओह श्रीकान्त बाबू! आप अच्छे तो हैं?"

मैं बोला, "जी, अच्छा ही हूँ।"

"जाइए, भीतर जाकर बैठिए।"

मैंने डरते हुए पूछा, "आप लोग तो सब अच्छे हैं?"

"हूँ- भीतर जाइए न, वे घर में ही हैं।"

"अच्छा जाता हूँ- आप भी आइए न?"

"नहीं, मैं यहीं पर कुछ देर आराम करूँगा। परिश्रम करते-करते एक तरह से मेरी हत्या ही हुई जाती है- दो घड़ी पैर फैलाकर कुछ बैठ ही लूँ।" वे परिश्रम की अधिकता से मरे हुए से हो गये हैं उनके चेहरे पर से यह प्रकाशित न होते हुए भी मैं मन ही मन कुछ उद्विग्न हो उठा। रोहिणी भइया के भीतर भी इतनी गम्भीरता इतने दिन से प्रच्छन्न रूप में वास कर रही है, अपनी ऑंखों देखे बिना यह विश्वास करना कठिन था। किन्तु मामला क्या है? मैं खुद भी तो रास्ते-रास्ते की धूल छानकर ऊब उठा हूँ। मेरे यह रोहिणी भइया भी क्या-

किवाड़ों की आड़ में से अभया ने अपना हँसता हुआ चेहरा बाहर निकालकर गुपचुप इशारा करके मुझे भीतर बुलाया। दुविधा में पड़कर मैंने कहा, "चलिए न रोहिणी भइया, भीतर चलकर गप-शप करें।"

रोहिणी भइया ने जवाब दिया, "गप-शप! इस समय मर जाऊँ तो जान बचे, यह जानते हो श्रीकान्त बाबू?"

"नहीं जानता", यह मुझे स्वीकार करना पड़ा। उन्होंने जवाब में केवल एक प्रचण्ड उसास छोड़ी और कहा, "दो दिन बाद ही मालूम हो जायेगा।"

अभया के दुबारा गुप-चुप बुलाने पर बाहर अधिक देर बहस न करके मैंने अन्दर प्रवेश किया। भीतर रसोई-घर के सिवाय दो और कमरे सोने के हैं। सामने का कमरा ही बड़ा है और उसी में रोहिणी बाबू सोते हैं। एक ओर रस्सी की खाट पर उनके बिस्तर हैं। अन्दर घुसते ही देखा फर्श के ऊपर आसन बिछा है, एक ओर रकाबी में पूरी-तरकारी, थोड़ा-सा हलुआ और एक गिलास जल रखा हुआ है। इसमें सन्देह नहीं कि ज्योतिष से पता लगाकर यह आयोजन दोपहर से ही कुछ मेरे लिए तैयार नहीं किया गया है, इसलिए क्षणभर में ही मैं समझ गया कि कुछ लड़ाई-झगड़ा चल रहा था। इसीलिए रोहिणी भइया का मुँह बादलों से ढँका हुआ है, इसीलिए वे मर जाऊँ तो जान बचने की बात कर रहे हैं। मैं चुपचाप खाट पर जाकर बैठ गया। अभया ने थोड़ी-सी दूर खड़े होकर पूछा, "आप अच्छे तो हैं? इतने दिनों बाद शायद ग़रीबों का खयाल आया है?"

भोजन के थाल को दिखाकर मैंने कहा, "मेरी बात पीछे होगी। किन्तु यह क्या है?"

अभया हँसी और कुछ देर चुप रहकर बोली, "यह कुछ नहीं है, आप कैसे हैं सो कहिए।"

"कैसा हूँ सो मैं खुद नहीं जानता, दूसरे को किस तरह बताऊँ?" फिर कुछ सोचकर बोला, "जब तक कोई नौकरी न मिल जाय तब तक इस प्रश्न का जवाब देना कठिन है। रोहिणी बाबू कहते थे-" मेरे मुँह की बात मुँह में ही रह गयी। रोहिणी भइया अपनी फटी चिट्ठियों से अस्वाभाविक फटर-फटर शब्द करते हुए भीतर घुस आए और किसी की ओर भी दृष्टिपात किये बगैर उन्होंने पानी का गिलास उठा लिया। एक ही साँस में उन्होंने उसे आधा ख़ाली कर दिया। बाकी दो-तीन घूँट में जबर्दस्ती पीकर शून्य गिलास काठ की मेज पर रख दिया, और वे यह कहते-कहते बाहर चल दिए, "जाने दो ख़ाली पानी पीकर ही पेट भर लूँ। मेरा यहाँ पर और कौन बैठा है जो भूख लगने पर खाने को देगा!"

मैंने अवाक् होकर अभया की ओर ताका। पल-भर के लिए उसका मुँह सुर्ख हो गया; किन्तु, उसी क्षण उसने अपने आपको सँभाल लिया और पहले दीखता है!"

रोहिणी ने यह बात कानों पर ही नहीं दी, और वे बाहर चल दिए, किन्तु, आधा मिनट खत्म होने के पहले ही वापिस लौट आए और किवाड़ें के सामने खड़े होकर मुझे सम्बोधन कर बोले, "सारे दिन ऑफिस में मेहनत करने के बाद भूख के मारे सिर चक्कर खा रहा था श्रीकान्त बाबू, इसीलिए उस समय आपसे बात न कर सका, कुछ खयाल न करिएगा।"

मैंने कहा, "नहीं।"

"उन्होंने फिर कहा, "आप जहाँ ठहरे हैं वहाँ मेरे लिए भी जरा-सा बन्दोबस्त कर सकते हैं?"

उनके मुँह की भाव-भंगी को देखकर मैं हँस पड़ा! बोला, किन्तु वहाँ पर पूडियों और मोहन-भोग का डौल नहीं है।"

रोहिणी भइया बोले, "ज़रूरत ही क्या है! भूख के समय कोई यदि जरा-सा गुड़ और जल देवे तो वह अमृत है। यहाँ तो वह भी कौन देता है?"

मैंने जानने की इच्छा से अभया की ओर दृष्टि डाली। तुरन्त ही वह धीरे से बोली, "सिर दर्द करता था। इसलिए बेवक्त सो गयी थी, और इसी कारण भोजन बनाने में आज जरा-सी देर हो गयी श्रीकान्त बाबू।"

मैंने आश्चर्य के साथ कहा, "बस, यही अपराध है?"

अभया ने उसी तरह शान्त-भाव से कहा, "यह क्या कोई तुच्छ अपराध है श्रीकान्त बाबू?"

"तुच्छ नहीं तो और क्या है?"

अभया बोली, "आपके समीप तुच्छ हो सकता है, किन्तु जो महाशय अपनी इस फिजूल की गले-पडूको खाने देते हैं वे कैसे माफ करेंगे? मेरा सिर दर्द करे तो उनका काम कैसे चल सकता है?"

रोहिणी बाबू एकदम तड़क कर गर्ज उठे और बोले, "तुम गले-पड़ू हो, मैंने यह कब कहा?"

अभया बोली, "कहोगे क्यों, हज़ार तरह से दिखा तो रहे हो?"

रोहिणी भइया बोले, "दिखा रहा हूँ! ओह, तुम्हारे मन में जलेबी जैसा पेंच है! यह तुमने मुझसे कब कहा था कि सिर दर्द कर रहा है?"

अभया ने कहा, "कहने से लाभ ही क्या था? क्या तुम विश्वास करते?"

रोहिणी भइया मेरी ओर पलटकर ऊँचे कण्ठ से बोल उठे, "सुनिये श्रीकान्त बाबू, ये सब बातें सुन रखिए। इन्हीं के लिए मैंने देश का त्याग किया- घर लौटने का रास्ता बन्द हो गया- अब इनके मुँह की बात सुनिये। ओह-"

अभया ने भी इस दफे गुस्स् से जवाब दिया, "मेरा जो होना होगा हो जाएगा, तुम्हारी जब इच्छा हो देश लौट आओ! मेरे लिए तुम क्यों इतना कष्ट सहोगे? तुम्हारी कौन होती हूँ मैं? इस तरह ताना कसने की अपेक्षा..."

उसकी बात पूरी भी न होने पाई थी कि रोहिणी भइया क़रीब-क़रीब चीत्कार कर उठे, "सुनिए श्रीकान्त बाबू, दो रोटी पका देने के लिए- ये बातें आप जरा सुन रखिए। अच्छा, आज से कभी तुमने यदि मेरे लिए रसोईघर में पैर रखा तो तुम्हें बहुत ही बड़ी- बल्कि मैं होटल में-" कहते-कहते उनका गला रुलाई से भर आया, वे धोती का छोर मुँह पर लगाकर तेज़ीसे क़दम रखते हुए मकान के बाहर हो गये। अभया ने अपना उतरा हुआ चेहरा नीचे झुका लिया- न जाने ऑंखों के ऑंसू छिपाने के लिए या यों ही; किन्तु मैं तो एकदम काठ हो गया। कुछ दिनों से दोनों के बीच अनबन हो रही है, यह तो ऑंखों से ही देख लिया; किन्तु, इसका गहरा हेतु दृष्टि से बिल्कु'ल परे होने पर भी वह क्षुधा और भोजन बनाने की त्रुटि से बहुत-बहुत दूर है, यह समझने में मुझे जरा-सा भी विलम्ब नहीं लगा। तो फिर, क्या पति खोजने की बात भी-

मैं उठकर खड़ा हो गया। इस नीरवता को भंग करने में मुझे खुद भी जैसे संकोच होने लगा। कुछ इधर-उधर करके अन्त में मैंने कहा, "मुझे बहुत दूर जाना है- इस समय तो अब चलता हूँ।"

अभया ने मुँह ऊपर उठाकर कहा, "अब कब आइएगा?"

"बहुत दूर!"

"तो फिर जरा ठहर जाइए" कहकर अभया बाहर चली गयी। पाँच-छह मिनट बाद लौटकर आई और मेरे हाथ में एक टुकड़ा काग़ज़ देकर बोली, "जिस काम के लिए मैं आई हूँ वह सब इसमें लिख दिया है। पढ़कर जो नीक जँचे सो कीजिएगा। मैं आपसे कुछ अधिक कहना नहीं चाहती।" इतना कहकर गले में ऑंचल डालकर आज उसने मुझे प्रणाम किया और फिर उठकर पूछा, "आपका ठिकाना क्या है?"

सवाल का जवाब देकर मैं उस छोटे से काग़ज़ को मुट्ठी में छिपाकर धीरे-धीरे निकल आया। बरामदे के बाहर का वह मोढ़ा इस समय शून्य था। रोहिणी भइया को भी मैं आसपास कहीं न देख सका। डेरे पर पहुँचने तक मैं अपना कुतूहल दमन न कर सका! पास में ही रास्ते के बगल में एक छोटी-सी चाय की दुकान देखकर उसमें घुस गया और लैम्प के उजाले में मैंने उस पत्र को अपनी ऑंखों के सम्मुख खोलकर रख लिया। पेंन्सिल की लिखावट थी किन्तु ठीक पुरुष के से हस्ताक्षर थे। सबसे पहले उसने अपने पति का नाम और उसका पुराना ठिकाना देकर नीचे लिखा था, "आज आप जो अपने मन में धारणा लिये जा रहे हैं सो मैं जानती हूँ; और विपत्ति के समय मुझे आपका कितना भरोसा है सो भी आप जानते हैं। इसीलिए मैंने आपका ठिकाना पूछ लिया है।"

अभया के इस लेख को मैंने बार-बार पढ़ा परन्तु उसमें इन कुछ थोड़ी-सी बातों के सिवाय और किसी भी अतिरिक्त बात का अन्दाजा नहीं लग सका। आज इन लोगों का परस्पर व्यवहार अपनी नजर से देखकर कोई बाहरी आदमी जो भी सोच सकता है उसका अनुमान करना अभया सरीखी बुद्धिमती रमणी के लिए बिल्कुाल ही कठिन नहीं है। किन्तु फिर भी वह अंदाज़सही है या ग़लत, इस सम्बन्ध में बिन्दु-मात्र भी उसने इशारा नहीं किया। उसके पति का नाम और ठिकाना तो मैंने पहले ही सुना है, पर विपत्ति के समय वह उसकी खोज करना चाहती है या नहीं, अथवा और कौन-सी विपत्ति अवश्यम्भावी समझकर उसने मेरा पता ले लिया है- आदि किसी बात का आभास तक भी मैं उस लेख में खोजकर बाहर न निकाल सका। बातचीत से अनुमान होता है कि रोहिणी किसी दफ़्तर में नौकरी पा गया है। किस तरह पा गया है सो भी मुझे मालूम नहीं हुआ। पर हाँ खाने-पीने की दुश्चिन्ता कम से कम मेरी तरह उन्हें नहीं है- पूड़ियाँ भी खाने को मिल जाती हैं। फिर भी, अभया ने किस किस्म की विपत्ति की सम्भावना के लिए मुझे तैयार कर रक्खा है और ऐसा करने से उसने क्या लाभ सोच रक्खा है, सो अभया ही जाने।

बाहर निकलकर रास्ते-भर मैं केवल इन्हीं लोगों के विषय में सोचता सोचता डेरे पर पहुँचा। कुछ भी स्थिर नहीं कर सका। लेकिन यही निश्चय किया कि अभया का पति कोई भी क्यों न हो और चाहे जहाँ, चाहे जिस तरह क्यों न हो, स्त्री की विशेष अनुमति बगैर उसे खोज निकालने का कुतूहल मुझे रोक ही रखना होगा।

दूसरे दिन से मैं फिर अपनी नौकरी की उम्मीदवारी में लग गया; किन्तु हजारों चिन्ताओं में भी अभया की चिन्ता को मन के भीतर से झाड़कर नहीं फेंक सका।

किन्तु, चिन्ता चाहे जितनी ही क्यों न करूँ, दिन के बाद दिन समान-भाव से लुढ़कने लगे। इधर भाग्यवादी दादा ठाकुर का प्रफुल्ल चेहरा धीरे-धीरे मेघाच्छन्न होने लगा। भोजन में तरकारियाँ भी पहले परिमाण में और फिर संख्या में धीरे-धीरे विरल होने लगीं। किन्तु, नौकरी ने मेरे सम्बन्ध में जरा भी अपना मत-परिवर्तन नहीं किया। जैसी नजर से उसने पहिले दिन देखा था महीने भर से अधिक बीतने के बाद भी ठीक उसी नजर से वह देखती रही। तब न जाने किसके ऊपर मैं क्रमश: उत्कण्ठित और विरक्त होने लगा। किन्तु, उस समय तक मैं यह नहीं जानता था कि जब तक नौकरी करने की पूरी ज़रूरत न हो तब तक वह दर्शन नहीं देती। यह ज्ञान एक दिन एकाएक रास्ते में रोहिणी बाबू को देखकर प्राप्त हुआ। वे बाज़ार में रास्ते के किनारे शाक-सब्जी ख़रीद रहे थे। मैं चुपचाप उनके निकट खड़ा होकर देखता रहा। यद्यपि उनके शरीर पर के कपड़े, जूते आदि जीर्णता की प्राय: चरम सीमा को पहुँच चुके हैं- भयंकर कड़ी धूप में सिर पर एक छतरी तक नहीं है, किन्तु, खाद्य पदार्थ वे बड़े आदमियों की तरह ख़रीद रहे हैं। इस कार्य में ढूँढ़-खोज और जाँच-परख की भी कोई हद नहीं है। झंझट और जहमत चाहे जितनी क्यों न उठानी पड़े अच्छी चीज़ ख़रीदने की ओर उनके प्राण लगे हुए हैं। पलक मारते सारा व्यापार मेरी नजर के सामने तैर आया। इस ख़रीद-बिक्री के भीतर से उनका व्यग्र व्याकुल प्रेम कहाँ जाकर पहुँच रहा है, यह मानो मैं सूर्य के प्रकाश के समान सुस्पष्ट देख सका। क्यों यह सब लेकर उन्हें अपने मकान पर पहुँचना ही चाहिए और क्यों उन्हें इन सब चीजों का मूल्य देने के लिए नौकरी खोजनी ही पड़ी, इस समस्या की मीमांसा करने में जरा-सी देर न लगी। आज मैं साफ-साफ समझ गया कि क्यों इन मनुष्यों के जंगल में उन्होंने अपना रास्ता पा लिया है और क्यों में अभी तक असफल रहा हूँ।

यह दुबला-पतला आदमी रंगून के राजमार्ग पर एक बड़ी-सी गठरी हाथ में लिये हुए सैकड़ों जगह फटे हुए मैले कपड़े पहने घर की ओर जा रहा है, आड़ में से मैंने उसके परितृप्त मुख की ओर नजर की। अपनी ओर नजर करने का मानो उसे अवकाश ही नहीं है। जिस वस्तु से उसका हृदय परिपूर्ण हो रहा है उससे उसके निकट कपड़े-लत्तों का दैन्य मानो एक बारगी अकिंचित्कर हो गया है। और मैं अपने कपड़ों के साधारण से मैलेपन के ही कारण मानो प्रत्येक क़दम पर शर्म के मारे सिकुड़कर जड़ हुआ जाता हूँ। रास्ते पर से चलने वाले बिल्कुखल अपरिचित व्यक्ति की भी अपने ऊपर नजर पड़ते देख शर्म के मारे मरा जाता हूँ!

रोहिणी भइया चले गये। मैंने उन्हें नहीं पुकारा और दूसरे क्षण ही वे लोगों के बीच अदृश्य हो गये। क्यों, सो मुझे मालूम नहीं, पर इस बार ऑंसुओं के मारे मेरी दोनों ऑंखें धुँधली हो गयीं। चादर के छोर से उन्हें पोंछते हुए रास्ते के किनारे धीरे-धीरे मैं अपने डेरे पर लौट आया और बार-बार मन ही मन कहने लगा, इस प्रेम से बढ़कर शक्ति, इस प्रेम से बढ़कर शिक्षक संसार में शायद और कोई नहीं। ऐसी कोई बड़ी बात नहीं जिसे यह न कर सके।

फिर भी, बहुत युगों का संचित अन्ध संस्कार मेरे कानों में चुपचाप कहने लगा- यह शुभ नहीं है, यह पवित्र नहीं है- अन्त तक इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।

डेरे पर पहुँचते ही एक बड़ा लिफाफा मिला। खोलकर देखा, नौकरी की दरख्वास्त मंजूर हो गयी है। सागौन की लकड़ी का एक बड़ा भारी व्यापारी अनेक लोगों के आवेदन-पत्र होते हुए भी मुझ ग़रीब पर ही प्रसन्न हुआ है। भगवान उसका भला करें।

नौकरी नामक वस्तु से पुराना परिचय न था इसलिए, उसे पाकर भी मन में सन्देह बना रहा कि बहुत दिनों तक बनी रहेगी या नहीं। मेरे जो साहब हुए थे वे सच्चे साहब (अंगरेज) होकर भी, देखा कि बंगला भाषा खूब जानते हैं, क्योंकि, कलकत्ते के ऑफिस से बदलकर बर्मा आए थे।

दो हफ्ते की नौकरी के उपरान्त ही उन्होंने बुलाकर कहा, "श्रीकान्त बाबू, तुम इस टेबल पर आकर काम करो, तनख्वाह भी इससे क़रीब ढाई गुनी पाओगे।"

मैंने प्रकट रूप से तथा मन ही मन भी साहब को लाखों आशीर्वाद देते हुए उस हड्डी-पसली निकली हुई टेबल को छोड़कर एकदम हरी बनात मढ़ी हुई टेबल पर दख़ल जमा लिया। मनुष्य का जब भला होना होता है तब इसी तरह होता है- हम लोगों के होटल के दादा ठाकुर ने बिल्कुयल ही मिथ्या नहीं कहा है।

किराये की गाड़ी पर चढ़कर यह खुशखबरी अभया को देने गया। रोहिणी भइया ऑफिस से लौटकर जलपान करने बैठे थे; किन्तु, आज उन्हें केवल पानी पीकर अपनी भूख मिटाते हुए नहीं देखा। बल्कि, आज जिस तरह वे अपनी भूख पूरी कर रहे थे, उस तरह पूरी करते संसार में और चाहे जिसे आपत्ति हो, मुझे तो नहीं थी। अतएव यह कहना फिजूल है कि अभया के भोजन के प्रस्ताव पर मैंने अपनी असम्मति नहीं प्रकट की। खाना-पीना शेष होते ही रोहिणी भइया कोट पहिरने लगे। अभया ने खिन्न कण्ठ से कहा, "तुमसे मैं बराबर कहती आती हूँ रोहिणी भइया, कि यह शरीर लेकर इतना परिश्रम मत किया करो, क्या तुम किसी तरह भी न सुनोगे? अच्छा हम लोग क्या करेंगे अधिक रुपयों का? दिन तो हमारे अच्छी तरह कट ही रहे हैं।"

रोहिणी भइया के चक्षुओं से मानो स्नेह झरने लगा। वे हँसकर बोले, "अच्छा, अच्छा, सो ठीक। एक रसोइया तक तो रख नहीं सकता, चूल्हे के नजदीक दोनों वेला पचते-पचते तुम्हारी तो देह सूख गयी है।" वे इतना कहकर पान खाकर, जल्दी-जल्दी क़दम रखते हुए बाहर चल दिए।

अभया एक छोटी साँस दबाकर, जबरन जरा हँसकर बोली, "देखिए तो श्रीकान्त बाबू, इनका अन्याय! सारे दिन जी-तोड़ मेहनत करने के बाद घर आकर कुछ आराम करें, सो तो नहीं, अब रात को भी नौ बजे तक लड़कों को पढ़ाने बाहर चले गये हैं। मैं इतना कहती हूँ, पर किसी तरह सुनते ही नहीं। दो आदमियों की रसोई के लिए रसोइया रखने की, कहो तो, ज़रूरत ही क्या है? है न यह सब इनकी ज्यादती?" इतना कहकर उसने एक ओर को ऑंखें फेर लीं।

मैं धीरे से कुछ हँस दिया। 'ना' या 'हाँ' जवाब देना मेरे लिए सम्भव नहीं था- मेरे विधाता के लिए भी सम्भव था या नहीं, इसमें भी सन्देह है।

अभया उठकर गयी और एक पत्र लाकर उसने मेरे हाथ पर रख दिया। कुछ दिन हुए वह बर्मा रेलवे कम्पनी के ऑफिस से आया था। बड़े साहब ने दु:ख प्रकाशित करते हुए लिखा था कि अभया का पति क़रीब दो वर्ष पहले किसी बहुत बड़े अपराध के कारण कम्पनी की नौकरी से बर्खास्त कर दिया गया है, तब से वह कहाँ चला गया सो वे नहीं जानते।

हम दोनों ही बहुत देर तक सन्न होकर बैठे रहे। अन्त में अभया ने ही मौन तोड़ा, "अब आप क्या सलाह देते हैं?"

मैंने धीरे से कहा, "मैं क्या सलाह दूँ?"

अभया सिर हिलाकर बोली, "नहीं, सो नहीं हो सकता। ऐसी परिस्थिति में आपको ही कर्तव्य स्थिर कर देना होगा। इस पत्र के मिलने के बाद से ही मैं बड़ी आशा से आपकी राह देख रही हूँ।"

मैंने मन ही मन कहा, बहुत खूब! मेरी राय लेकर ही घर से बाहर निकली थीं न, जो मेरी सलाह के लिए राह जोह रही हो!

बहुत देर तक चुप रहकर पूछा, "घर लौट जाने के सम्बन्ध में आपका क्या मत है?"

अभया बोली, "कुछ भी नहीं। आप कहें तो जा सकती हूँ, किन्तु मेरे तो वहाँ कोई है नहीं।"

"रोहिणी बाबू क्या कहते हैं?"

"वे कहते हैं कि नहीं लौटेंगे। कम से कम दस बरस तक तो वे उस ओर मुँह भी नहीं फिराएँगे।"

बहुत देर तक चुप रहकर मैंने कहा, "वे क्या आपका बोझा बराबर सँभाले रह सकेंगे?"

अभया बोली, "पराये मन की बात, कहिए किस तरह जानूँ? इसके सिवाय वे खुद भी किस तरह जान सकते हैं?" इतना कहकर क्षण-भर वह चुप रही, फिर बोली, "एक बात और है। मेरे लिए वे जरा भी ज़िम्मेदार नहीं हैं। दोष कहो, भूल कहो, जो कुछ है सो मेरी है।"

गाड़ीवान ने बाहर से पुकारा, "बाबू, और कितनी देर लगेगी?"

जैसे मेरी जान बच गयी। इस अवस्था-संकट के भीतर से सहसा परित्राण पाने का कोई उपाय मुझे खोजे नहीं मिल रहा था। यह सच है कि विश्वास करने को मेरा दिल नहीं चाहता था कि अभया वास्तव में ही अपार सागर में गिरकर गोते खा रही है, किन्तु मैंने स्त्रियों की इतने तरह की उलटी-सुलटी अवस्थाएँ देखी हैं कि बाहर से इन ऑंखों पर विश्वास कर लेना कितना बड़ा अन्याय है, सो मैं नि:संशय रूप से समझता था।

गाड़ीवान का एक दफे और बुलाना था कि मैं क्षण-भर भी विलम्ब किये बगैर उठ खड़ा हुआ और बोला, "मैं शीघ्र ही और एक दिन आऊँगा।" इतना कहकर मैं तेज़ीसे बाहर हो गया। अभया और कुछ न बोली। निश्चल मूर्ति की तरह ज़मीन की ओर देखती रह गयी।


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गाड़ी में बैठते ही गाड़ी चल दी; दस हाथ भी नहीं गया था कि याद आया, छड़ी तो कहीं भूल आया हूँ। तुरन्त गाड़ी खड़ी की और मकान में प्रवेश करते ही देखा कि ठीक दरवाज़े के सामने अभया उलटी पड़ी है और बाण से विधे हुए पशु की तरह अव्यक्त वेदना से पछाड़ खाकर मानो प्राण विसर्जन कर रही है।

क्या कहकर उसे सांत्वना दूँ, सो मेरी बुद्धि के परे की वस्तु थी। वज्राहत की तरह कुछ देर सन्न रहकर उसी तरह चुपचाप लौट आया! अभया जिस तरह रो रही थी उसी तरह रोती रही। उसे यह मालूम ही न हो सका कि उसकी इस निगूढ़ असीम वेदना का एक मौन साक्षी भी इस जगत में विद्यमान है।

राजलक्ष्मी का अनुरोध मैं भूला नहीं था। पटने को पत्र लिखने की बात, जब आया था तभी से, मेरे मन में थी। किन्तु, पहली बात तो यह कि संसार में जितने भी कठिन काम हैं, उनमें चिट्ठी लिखने को मैं किसी से भी कम नहीं समझता। इसके सिवाय, फिर लिखूँ भी क्या? किन्तु, अभया का रोना मेरे दिल में इस तरह भारी हो उठा कि उसमें का कुछ अंश बाहर निकाल दिये बगैर मेरी गति ही नहीं है, ऐसा मालूम होने लगा। इसीलिए, डेरे पर पहुँचते ही कागज-कलम जुटाकर बाईजी को पत्र लिखने बैठ गया। और उसको छोड़कर मेरे दु:ख का अंश बँटाने वाला था ही कौन? दो-तीन घण्टे बाद इस 'साहित्य-चर्चा' को समाप्त करके जब मैंने कलम रखी तब रात के बारह बज गये थे। किन्तु, कहीं सुबह दिन के उजालें में उस चिट्ठी को भेजने में लज्जा न आने लगे, इसलिए, मिज़ाज गर्म रहते-रहते ही मैं उसे उसी समय डाक-बॉक्स में छोड़ आया।

मुझे सन्देह था कि एक भले घर की स्त्री की निदारुण वेदना का गुप्त इतिहास और किसी दूसरी स्त्री पर प्रकट करना चाहिए या नहीं; किन्तु अभया के इस परम और चरम संकट के समय वह राजलक्ष्मी, जिसने कि एक दिन प्यारी बाई की मर्मान्तिक तृष्णा दमन की थी, उसके लिए क्या नेक सलाह देती है, यह जानने की आकांक्षा ने मुझे एकदम बेकाबू कर दिया। किन्तु अचरज की बात यह है कि इस सवाल को उलट-पलटकर मैंने एक बार भी नहीं सोचा। अभया के पति का पता न लगने की समस्या भी बार-बार मन में आ रही थी, किन्तु पता लगने पर यह समस्या और भी अधिक जटिल हो सकती है, यह चिन्ता एक दफे भी उदित नहीं हुई। और इस गोरखधन्धे को सुलझाने का भार भी विधाता ने मेरे ही ऊपर निर्दिष्ट कर रक्खा है सो भी किसने सोचा था?

तीन-चार दिन के बाद मेरा एक बर्मी क्लर्क टेबल पर एक फाइल रख गया। उस पर नीली पेन्सिल से लिखा हुआ बड़े साहब का मन्तव्य था। उन्होंने मुझे 'केस' का फैसला करने का हुक्म दिया था। मामले को शुरू से आखीर तक पढ़कर कुछ मिनट के लिए मैं सन्न होकर रह गया। घटना संक्षेप में यह थी कि हमारे प्रोम ऑफिस के एक क्लर्क को वहाँ के अंगरेज मनेजर ने लकड़ी चुराने के सन्देह में सस्पेण्ड करके रिपोर्ट की है। क्लर्क का नाम देखकर ही मुझे मालूम हो गया कि यही हमारी अभया का पति है। इसकी भी चार-पाँच पेज की कैफियत थी। बर्मा रेलवे में भी किसी गम्भीर अपराध के कारण यह नौकरी से बरखास्ते हुआ होगा, यह अनुमान करने में भी मुझे देर नहीं लगी।

थोड़ी ही देर बाद उस क्लर्क ने आकर कहा कि एक भले आदमी आपसे मिलना चाहते हैं। इसके लिए मैं तैयार ही था और मैं निश्चय से जानता था कि प्रोम से वह स्वयं केस की पैरवी करने आवेगा। इसलिए, जब कुछ ही मिनट बाद उसने सशरीर आकर दर्शन दिए तब अनायास ही मैंने पहिचान लिया कि यही अभया का पति है। उसकी ओर देखते ही सारा शरीर मानो घृणा से कण्टकित हो गया। पहिने था वह हैट-कोट, किन्तु जितने ही पुराने उतने ही गन्दे। काला मुँह सारा बड़ी-बड़ी मूँछों और दाढ़ी से ढँका हुआ था। नीचे का होठ शायद डेढ़ इंच मोटा था। और पान उसने इतने अधिक खाए थे कि उनका रस दोनों ओर जम गया था- उसके बात करते समय डर लगता था कि कहीं छिटककर अंग पर न आ पड़े।

यह मैं जानता हूँ कि पति ही स्त्री का देवता है-वही उसका इहलोक और परलोक है, किन्तु, इस मूर्तिमान नीचता के निकट अभया की कल्पना करते हुए मेरा शरीर और मन संकुचित हो उठा। अभया और चाहे जो हो फिर भी सुन्दर देह वाली सुरुचि सम्पन्न कुलीन महिला है, किन्तु, यह भैंसा बर्मा के किस घने जंगल में से एकाएक बाहर निकल आया है सो जिन ब्रह्मदेव ने इसे बनाया है वे ही बता सकते हैं।

बैठने का इशारा करके मैंने पूछा कि तुम्हारे विरुद्ध जो इलजाम लगाया गया है वह क्या सत्य है? इसके जवाब में वह दस मिनट तक अनर्गल बकता रहा। भावार्थ यह था कि मैं बिल्कुदल ही निर्दोष हूँ; और मेरे रहते प्रोम ऑफिस का साहब दोनों हाथों लूट नहीं कर सकता था, यही उसके क्रोध का कारण है। जिस तरह भी हो, मुझे अलग करके एक अपने ही आदमी को भरती कर लेने के लिए उसकी यह चाल है। मुझे उसकी बात पर जरा भी विश्वास नहीं हुआ। मैंने कहा, "यह नौकरी चली जाय तो भी आपके समान होशियार व्यक्ति के लिए बर्मा में चिन्ता ही किस बात की है? रेलवे की नौकरी छूट जाने पर कितने-से दिन आपको ख़ाली बैठना पड़ा था?"

वह मनुष्य पहले तो अकचकाया, फिर बोला, "आप कहते हैं सो बिल्कुतल झूठ नहीं है। किन्तु आप जानते हैं महाशय, फैमिली-मैन हूँ, बहुत-से बच्चे कच्चे..."

"आपने क्या किसी बर्मी स्त्री से विवाह कर लिया है?"

वह एकाएक बोल उठा, "साहब-साले ने रिपोर्ट में लिख दिया दिखता है। इसी से आपको उसकी नाराजगी मालूम हो सकती है!" यह कहकर वह मेरे मुँह की ओर ताककर और कुछ नरम होकर बोला, "आप क्या इस पर विश्वास करते हैं?"

मैंने गर्दन हिलाकर कहा, "इसमें बुराई ही क्या है?"

वह उत्साहित होकर बोला, "ठीक कहते हैं महाशय, मैं तो यह सबसे कहता हूँ कि जो करूँगा सो 'बोल्डली' स्वीकार करूँगा। मैं ऐसा नहीं हूँ कि अन्दर कुछ और बाहर कुछ। और फिर मैं ठहरा मर्द- आप जानते ही हैं। जो कहूँगा सो साफ-साफ कहूँगा महाशय, लुकाने-छुपाने की बात नहीं। और फिर देश में तो मेरा कहीं कोई है नहीं- और जब यहाँ ही रहकर चिरकाल तक नौकरी करके पेट भरना है तब- आप समझते ही हैं महाशय।' मैंने सिर हिलाकर बताया कि मैं सब समझता हूँ। फिर पूछा, "आपका देश में क्या कोई भी नहीं है?"

वह मनुष्य चेहरे पर जरा भी मैल लाए बगैर बोला, "जी नहीं, कहीं कोई नहीं है- काकस्य परिवेदना।' यदि कोई होता तो फिर मैं इस सूर्य मामा के देश में आ पाता! महाशय, आप विश्वास न करेंगे, मैं ऐसे-वैसे घर का लड़का नहीं हूँ, कभी हम लोग भी ज़मींदार थे! आज भी यदि आप देश के हमारे मकान को देखें तो आपकी ऑंखें चकरा जाँय। किन्तु, छोटी उम्र में ही सब मर-खप गये। मैंने कहा, जाने भी दो; घर-सम्पत्ति, ज़मीन-जायदाद यह सब है किसके लिए? सब कुछ जात-बिरादरी वालों को बाँटकर मैं बर्मा चला आया।"

जरा स्थिर होकर पूछा, "आप अभया को जानते हैं?"

वह चौंक उठा। कुछ देर मौन रहकर बोला, "आपने उसे कैसे जाना?"

मैंने कहा, "ऐसा भी तो हो सकता है कि आपका पता लगाकर उसने अपने भरण-पोषण के लिए इस ऑफिस में दरख्वास्त दी हो?" वह कुछ अधिक प्रसन्न स्वर से बोला, "ओ:, यही कहिए न! सो मैं स्वीकार करताहूँ, एक समय वह मेरी स्त्री थी..."

"और अब?"

"कोई नहीं। मैं उसे त्यागकर चला आया हूँ।"

"उसका अपराध?"

वह मनुष्य चेहरे पर बनावटी दु:ख लाकर बोला, "आप जानते हैं महाशय, फैमिली सिक्रेट' कहना उचित नहीं। किन्तु, इस समय आप मेरे आत्मीयों की तरह हैं, इसलिए कहने में कुछ लज्जा नहीं है कि वह एक दुश्चरित्र औरत है। इसी मानसिक घृणा के कारण ही तो मुझे देश छोड़ना पड़ा। नहीं तो क्या कोई शौक़ से इस देश में क़दम रख सकता है? आप ही कहिए न, कि यह क्या कोई ऐसी-वैसी घृणा की बात है।"

जवाब क्या दूँ? लाज के मारे मेरा मुँह नीचा हो गया। शुरू से ही मैंने इस घोर मिथ्यावादी की एक बात पर भी विश्वास नहीं किया था; किन्तु अब मुझे नि:सन्दिग्ध रूप से मालूम हो गया कि यह जितना नीच है उतना ही क्रूर भी है।

अभया के सम्बन्ध में मैं कुछ अधिक नहीं जानता हूँ, किन्तु फिर भी शपथ खाकर कह सकता हूँ कि जो अपवाद पति होकर इस पाखण्डी ने उसके सिर बिना किसी संकोच के लगा दिया, गैर होकर भी मैं उसे मुँह से नहीं निकाल सकता। कुछ देर बाद मुँह उठाकर मैंने कहा, "उसके इस अपराध की बात आपने आते समय तो उससे कही नहीं थी। और जब यहाँ आकर भी कुछ दिनों तक आप चिट्ठी पत्री और रुपया-पैसा भेजते रहे, तब भी पत्र के द्वारा उस पर यह बात प्रकट नहीं की।"

वह महापापी स्वच्छन्दता से अपने विराट स्थूल होठों को फाड़कर हँसता हुआ बोला, "यही तो बात है। आप जानते ही हैं महाशय, कि हम शरीफ़ आदमी हैं। हम लोग चुपचाप सब कुछ सहन कर लेते हैं, परन्तु हलके लोगों की तरह अपनी स्त्री के कलंक का नगाड़ा नहीं पीट सकते। खैर, ये सब दु:ख की बातें छोड़ दीजिए महाशय, ऐसी स्त्रियों का नाम मुँह पर लाने से भी पाप होता है। तो फिर, 'केस' तो आप ही 'डिस्पोज' (निर्णय) करेंगे न? मेरी जान बची, खैरियत हुई; किन्तु फिर भी कहे देता हूँ कि साहब बच्चू को यों ही न छोड़ दिया जाय। अच्छी तरह ऐसा सबक दिया जाय कि जिससे फिर कभी मेरे पीछे न लगें। वे भी समझ जाय कि मेरे भी मुरब्बी का कुछ ज़ोर है। समझे न आप? अच्छा, मैं कहता हूँ क्या हरामजादे को हेड ऑफिस में नहीं खींचा जा सकता?"

मैंने कहा, "नहीं।"

उसने हँसी की छटा से फाइल को कुछ आगे सरकाते हुए कहा, "लीजिए, मजाक छोड़िए। क्या यह खबर लिये बगैर ही मैं आपके पास आया हूँ कि बड़े साहब बिल्कुेल आपकी मुट्ठी में है? खैर मरने दीजिए इसे, और भी एक दफे वह मेरे पीछे लगकर देख ले। अच्छा, क्या बड़े साहब का 'ऑर्डर' निकालकर आज ही मेरे हाथ नहीं दिया जा सकता? रात के नौ बजे ही मैं चला जाता, रात को कष्ट न उठाना पड़ता। क्या कहते हैं आप?"

मैं एकाएक जवाब न दे सका। क्योंकि, खुशामद चीज़ ही ऐसी है कि सारी दुरभिसन्धि जान-बूझकर भी क्षुण्ण करते श्लेश का अनुभव होता है। विरुद्ध बात मुँह पर लाते संकोच-सा होने लगा; किन्तु इस बाधा को मैंने नहीं माना। अपने आपको कठोर करके कह ही दिया, "बड़े साहब का हुक्म हाथ में कर लेने से आपको लाभ नहीं होगा। आप और कहीं नौकरी की तलाश कीजिए।"

एक मुहूर्त में ही वह जैसे काठ हो गया और कुछ देर बाद बोला, "इसके मानी?"

"इसके मानी यह कि आपको 'डिसमिस' करने का 'नोट', ही मैं दूँगा। मेरे द्वारा आपको किसी तरह सुविधा न होगी।"

वह उठकर खड़ा हो गया था- एकदम बैठ गया। उसकी दोनों ऑंखें छलछला आईं। हाथ जोड़कर बोला, "बंगाली होकर बंगाली को मत मारिए बाबू, मैं बच्चों कच्चों वाला आदमी मर जाऊँगा।"

"यह देखने का भार मेरे ऊपर नहीं है। इसके सिवाय, मैं आपको जानता नहीं, आपके साहब के विरुद्ध भी मैं नहीं जा सकता।"

उसने एक नजर मेरे मुँह पर डालकर शायद समझ लिया कि मैं दिल्लगी नहीं कर रहा हूँ। और कुछ देर वह चुपचाप बैठा रहा। इसके बाद ही अकस्मात् वह ज़ोर से रो पड़ा। क्लर्क, दरबान, पियून जो जहाँ थे सब इस अचिन्तनीय घटना से दंग हो गये। मैं भी मानो लज्जित-सा हो गया। उसे रोकने के इरादे से मैंने कहा, "अभया आपके लिए बर्मा आई है, अवश्य ही दुश्चरित्रा स्त्री को ग्रहण करने के लिए मैं नहीं कहता। किन्तु, आपकी सब बातें सुनकर भी यदि वह माफ कर सके-आप उसके पास से चिट्ठी ला सकें तो आपकी नौकरी बजा रखने की मैं कोशिश कर देखूँगा। नहीं तो दुबारा मिलकर मुझे लज्जित न करना- मैं मिथ्या बात नहीं कहता।"

मैं जानता था कि ये नीच प्रकृति के लोग अत्यन्त डरपोक होते हैं, उसने ऑंखें पोंछकर कहा, "वह कहाँ पर है?"

"कल इसी समय आओगे तो उसका ठिकाना बता दूँगा।"

वह और कुछ न कहकर लम्बी सलाम करके चला गया।

संध्याि के समय अभया मेरे मुँह से चुपचाप नीचा मुँह किये सारा हाल सुनती रही। उसने ऑंचल से केवल अपनी ऑंखें पोंछ डाली- कुछ कहा नहीं। मेरे क्रोध का भी उसने कुछ जवाब नहीं दिया। बहुत देर बाद मैंने ही पूछा, "आप उसे माफ कर सकेंगी?"

अभया ने केवल गर्दन हिलाकर अपनी सम्मति ज़ाहिर की।

"तुम्हें वह अपने साथ ले जाना चाहे, तो जाओगी?"

उसने उसी तरह सिर हिलाकर जवाब दिया।

"बर्मा की स्त्रियों का स्वभाव कैसा होता है, सो तो तुमने पहले ही दिन खूब जान लिया है, फिर भी वहाँ जाने का तुम्हारा साहस होगा?"

इस दफे अभया ने अपना मुँह ऊपर उठाया, मैंने देखा कि उसकी दोनों ऑंखों से ऑंसुओं की धारा बह रही है। उसने कुछ कहने की कोशिश की परन्तु कह न सकी। इसके बाद बार-बार ऑंचल से अपनी ऑंखों को पोंछती हुई रुद्ध कण्ठ से बोली, "नहीं जाऊँ तो मेरे लिए और उपाय ही क्या है, बताइए?"

उसकी बात सुनकर मैं यह न सोच सका कि मैं खुश होऊँ या ऑंखों से नीर बहाऊँ; किन्तु मुझसे कुछ उत्तर देते नहीं बन पड़ा।

उस दिन और कोई बात नहीं हुई। डेरे को लौटते हुए रास्ते-भर यही एक बात मैं बार-बार अपने आपसे पूछता रहा, किन्तु, इस प्रश्न का किसी ओर से कोई भी उत्तर नहीं मिल सका। केवल हृदय के भीतर का 'वह' न जाने किस पर एक ओर जिस तरह निष्फल क्रोध से जल-जल उठने लगा, उसी तरह दूसरी ओर एक निराश्रया रमणी के उससे भी अधिक निरुपाय प्रश्न से व्यथित और भाराकान्त हो उठा। दूसरे दिन, अभया का ठिकाना पूछने के लिए जब वह मनुष्य सामने आकर खड़ा हो गया तब, मारे घृणा के, मैं उसकी ओर देख भी नहीं सका। मेरे मन का भाव समझकर आज वह अधिक बात किये बगैर ही केवल ठिकाना लेकर नम्रता के साथ चला गया, किन्तु, उसके बाद के दिन जब वह मिलने आया तब उसकी ऑं:खों और मुँह का भाव पूरी तरह बदल गया था। प्रणाम करके उसने अभया के हाथ की एक सतर लिखी हुई मेरी टेबल पर रख दी और कहा, आपने मेरा जो उपकार किया है उसे मुँह से क्या कहूँ- जितने दिन जीऊँगा आपका ग़ुलाम होकर रहूँगा।"

अभया की लिखी पंक्ति पर दृष्टि जमाए हुए ही मैंने कहा, "जाइए, आप अपना काम कीजिए, बड़े साहब ने इस बार माफ कर दिया है।"

उसने हँसकर कहा, "बड़े साहब की चिन्ता मैं नहीं करता, केवल आप क्षमा कर दें तो मैं जी जाऊँ। आपके श्रीचरणों में मैंने बहुत से अपराध किये हैं।" इतना कहकर उसने फिर बकना शुरू कर दिया, उसी किस्म की वैसी ही कोरी मिथ्या खुशामद की बातें। और बीच-बीच में वह रूमाल से ऑंखें भी पोंछने लगा। इतनी बातें सुनने का धीरज और किसी को नहीं हो सकता, इसलिए यह दण्ड मैं आपको नहीं दूँगा। मैं केवल उसका विस्तृत वक्तव्य संक्षेप में कहे देता हूँ। वह यह है कि उसने अपनी स्त्री के ऊपर जो अपवाद लगाया था सो बिल्कुरल ही झूठ है। उसने लज्जा के फेर में पड़कर ही वैसा किया था, नहीं तो ऐसी सती लक्ष्मी क्या कहीं और है! और मन ही मन चिरकाल से वह अभया को प्राणों से भी अधिक चाहता रहा है। तब, यहाँ जो एक और उपसर्ग आ जुटा है उसे जुटाने की उसकी जरा भी इच्छा नहीं थी, केवल बर्मियों के हाथ से अपने प्राण बचाने के लिए ही उसने यह किया है। (कुछ सत्य हो भी सकता है।) किन्तु, आज रात को जब वह अपने घर की लक्ष्मी को ले जा रहा है तब उस बर्मी- बच्ची को दूर करते कितनी देर लगती है? रहे लड़के-बच्चे-ओहो! सालों की जैसी सूरत है वैसा ही स्वभाव है- हैं वे किस काम के? बुढ़ापे में न तो उनसे खाने-पहिनने को ही मिलेगा और न मरने पर एक चुल्लू पानी की ही उनसे आशा है! जाते ही सबको एक साथ झाड़ू मारकर बिदा कर देगा तब उसका नाम- इत्यादि-इत्यादि।

मैंने पूछा, "अभया को क्या आज ही रात को ले जाँयगे आप?" वह विस्मय से अवाक् होकर बोला, "खूब! जितने दिन ऑंखों नहीं देखा था उतने दिन खैर किसी तरह रहा आया; किन्तु, ऑंखों देखकर फिर क्या उसे ऑंखों की ओट कर सकता हूँ? अकेली, इतनी दूर, इतना कष्ट उठाकर, केवल मेरे लिए ही तो आई है! एक दफे सोच तो देखिए जरा इस बात को!"

मैंने पूछा, "क्या उसे एक साथ ही घर में रक्खेंगे?"

"जी नहीं, इस समय तो प्रोम के पोस्ट मास्टर महाशय के यहाँ ही रखूँगा। उनकी स्त्री के साथ मजे में रहेगी। किन्तु, दो-एक दिन में ही- अधिक नहीं- उसके लिए मकान का प्रबन्ध करूँगा और फिर घर की लक्ष्मी को घर ले आऊँगा।"

अभया के स्वामी ने प्रस्थान किया। मैंने भी दैनिक कार्य में मन लगाने के लिए सामने की फाइल को खींच लिया।

उसके नीचे अभया की उस लिखावट पर फिर मेरी नजर जा पड़ी। इसके बाद कितनी दफे उन दो सतरों को मैंने पढ़ा और न जाने कितनी दफे और पढ़ता सो कह नहीं सकता। इतने में ही 'पियून' ने कहा, "बाबूजी, आपके घर क्या कुछ कागज-पत्र पहुँचाने होंगे?" चौंककर मैंने सिर उठाया तो देखा, उस समय सामने की घड़ी में साढ़े चार बज गये हैं, और क्लर्क लोग दैनिक कार्य समाप्त करके अपने घर चले गये हैं।


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अब मुझे अभया के पति का एक पत्र मिला। पहले के ही समान कृतज्ञता सारी चिट्ठी में बिखेर देकर इस बात का बड़े ही अदब और विस्तार के साथ निवेदन करके कि इस समय वह कैसे संकट में पड़ा है, उसने मुझसे उपदेश चाहा है। बात संक्षेप में यह थी कि उसने अपनी शक्ति से अधिक खर्च करके भी एक बड़ा मकान किराये पर ले लिया है; और उसमें एक ओर अपने बर्मी स्त्री-पुत्रादि को रखकर दूसरी ओर अभया को लाकर रखने का प्रयत्न कर रहा है, किन्तु किसी तरह भी उसे सम्मत नहीं कर पाता है। सहधर्मिणी की इस तरह की हठ से वह अतिशय मर्म-पीड़ा अनुभव कर रहा है। यह केवल 'कलि-काल' का फल है, 'सतजुग' में ऐसा नहीं हो सकता था- बड़े-बड़े ऋषि-मुनि तक भी। अनेक दृष्टान्तों समेत उनका बार-बार उल्लेख करके उसने लिखा है कि हाय! कहाँ है वे आर्यललनाएँ? वे सीता-सावित्री कहाँ गईं? जो आर्य-नारियाँ पति की चरण-युगलों को हृदय में धारण करके हँसती-हँसती चिता में प्राण विसर्जन कर देती थीं और पति सहित अक्षय स्वर्ग-लाभ करती थीं वे अब कहाँ है? जो हिन्दू महिला हँसते हुए चेहरे से अपने कुष्ठग्रसित पति-देवता को कन्धों पर लादकर वेश्या के घर तक पहुँचा आई थीं, कहाँ है उस जैसी पतिव्रता रमणी? कहाँ है वह पति-भक्ति? हाय भारतवर्ष! क्या एकदम ही तेरा अध:पतन हो गया। वह सब क्या अब हम लोग एक दफे भी अपनी ऑंखों न देखेंगे। और क्या हम लोग-इत्यादि इत्यादि, क़रीब दो पन्ने विलाप से भर दिए हैं। किन्तु अभया पति-देवता को यहाँ तक ही मानसिक कष्ट देकर शान्त नहीं हुई। और भी सुनिए। उसने लिखा है कि इतना ही नहीं कि उसकी अध्र्दांगिनी अब भी दूसरे के घर में रह रही है, बल्कि उसे आज अपने परम मित्र पोस्ट मास्टर से मालूम हुआ कि रोहिणी नामक किसी व्यक्ति ने उसकी स्त्री को पत्र लिखा है और कुछ पैसे भेजे हैं। इससे इस हतभागे की इज्जत को कितना धक्का लगा है सो लिखकर बताया नहीं जा सकता।

चिट्ठी पढ़ते-पढ़ते मैं अपनी हँसी न रोक सका। फिर भी रोहिणी के व्यवहार पर भी कुछ कम क्रोध नहीं आया। अब उसे चिट्ठी लिखने और रुपये भेजने की ज़रूरत ही क्या थी? जिसने पति के घर को प्राप्त करने के लिए इतना कष्ट सहन करना स्वीकार किया, उसके चित्त को, जान-बूझकर या बिना जाने-बूझे, उचाट करने की ज़रूरत ही क्या थी? और अभया ने भी इस तरह का व्यवहार किसलिए शुरू किया? वह क्या चाहती है? उसके पति ने जिसे स्त्री की तरह ग्रहण किया है, लड़के-बच्चे पैदा किये हैं- उन सबको त्याग कर क्या केवल उसी को लेकर वह गृहस्थी चलावे? क्यों, बर्मी स्त्रियाँ क्या स्त्रियाँ नहीं हैं? उन्हें क्या सुख-दु:ख, मान-अपमान का बोध नहीं है? न्याय-अन्याय का क़ानून क्या उनके लिए ताक पर रख देना चाहिए? और यदि ऐसा ही है तो वहाँ उसे जाने की ज़रूरत ही क्या थी? सब झंझट यहाँ से ही स्पष्ट करके निबटा देने से ही तो हो जाता।

तब तक मैं रोहिणी से मिलने नहीं गया था। वह झूठमूठ ही क्लेश पा रहा है, यह मन ही मन समझकर ही शायद मेरी उस तरफ पैर बढ़ाने की प्रवृत्ति नहीं हुई थी। आज छुट्टी होने के पहले ही गाड़ी बुलाने के लिए आदमी भेजकर मैं उठने की तैयारी कर रहा था कि उसी समय अभया का पत्र आ पड़ा। खोलकर देखा कि सारा पत्र आदि से अन्त तक रोहिणी के ही सम्बन्ध की बातों से भरा हुआ है। मैं सदा ही उसके ऊपर नजर रक्खूँ- वह कितना दुर्बल, कितना अपटु, कितना असहाय है- यही एक बात पंक्ति-पंक्ति अक्षर-अक्षर में से ऐसी मर्मान्तिक व्यथा के साथ फूटी पड़ती थी कि कोई अत्यन्त सरल-चित्त मनुष्य भी इस आवेदन के तात्पर्य को समझने में भूल करेगा, ऐसा नहीं जान पड़ा। अपने सुख-दुख की बात उसमें प्राय: कुछ भी नहीं थी! फिर पत्र के अन्त में उसने बताया था कि अनेक कारणों से अब भी वह उसी जगह रह रही है जहाँ कि पहले पहल आकर ठहरी थी।

पति सती स्त्री का एकमात्र देवता हो सकता है कि नहीं, इस विषय में अपना मतामत छापे के अक्षरों में प्रकट करने का दु:साहस मुझमें नहीं है और न मुझे इसकी कोई ज़रूरत ही दिखती है। किन्तु सर्वांगीण सती-धर्म की एक अपूर्वता-दु:सह-दु:ख और सर्वथा अन्याय के बीच में भी उसकी आकाशभेदी विराट महिमा जो मेरी अन्नदा जीजी की स्मृति के साथ चिरकाल के लिए मन की गहराई में खुदकर अंकित हो गयी है, जिसका असह्य सौन्दर्य ऑंखों से देखे बिना अवधारण भी नहीं किया जा सकता, और जिसने एक ही साथ नारी को अति क्षुद्र और अति बृहत् बना दिया है- मेरी वह अव्यक्त उपलब्धि, आज अभया की इस चिट्ठी से आन्दोलित हो उठी।

जानता हूँ कि सब अन्नदा जीजी नहीं है- उस कल्पनातीत निष्ठुरता को छाती फैलाकर धीरज से ग्रहण करने जैसी बड़ी छाती भी सब स्त्रियों की नहीं होती; और जो नहीं है उसके लिए रोज शोक करना ग्रन्थकार मात्र का एकान्त कर्तव्य है या नहीं, सो मैंने विचार कर स्थिर नहीं कर रक्खा है, किन्तु फिर भी सारा चित्त वेदना से भर गया। गुस्से में भरा हुआ मैं गाड़ी पर जा बैठा और उस निकम्मे पर स्त्री-आसक्त रोहिणी को जो कड़ी-कड़ी बातें अच्छी तरह सुनाने जा रहा था उन्हें मन ही मन दुहराता हुआ उसके घर की ओर रवाना हो गया। गाड़ी से उतरकर, किवाड़ खोलकर जब मैंने उसके मकान में प्रवेश किया तब दिया-बत्ती की बेला हो गयी थी, अर्थात् दिन का प्रकाश खत्म होकर रात का अंधेरा अभी-अभी उतर रहा था।

वह भर भादों भी नहीं था और न उस समय भरे बादल ही थे; किन्तु, शून्य घर-बार की भी यदि कोई सूरत-शक्ल होती है तो उस दिन उस प्रकाश और अन्धकार के बीच जो मेरी नजर में पड़ी, उसे छोड़कर और क्या हो सकती है, सो तो मैं आज भी नहीं जानता। घर के सभी दरवाज़े भाँय-भाँय कर रहे थे, केवल रसोईघर की एक खिड़की में से धुऑं निकल रहा था। दाहिनी तरफ कुछ आगे बढ़कर झाँककर देखा कि चूल्हा जलकर प्राय: बुझ रहा है और पास में ही ज़मीन पर रोहिणी बाबू हँसिये से एक बैंगन के दो टुकड़े करके गुमसुम बैठे हुए हैं। मेरे पैरों की आहट उनके कानों तक नहीं गयी, क्योंकि कर्णेन्द्रिय का जो मालिक था वह उस समय और चाहे जहाँ हो किन्तु बैंगन के ऊपर एकाग्र नहीं था, यह मैं निस्सन्देह कह सकता हूँ। किन्तु चुपचाप लौटकर जब उन दो कमरों के बीच आ खड़ा हुआ तब मुझे साफ-साफ दिखाई दिया कि एक उत्कट वेदना से भरा हुआ रोदन सारे घर को भरकर दँतौरी बाँधे हुए अडिग रूप से वहाँ स्थिर हो रहा है और वह सम्पूर्ण समाज धर्माधर्म और समस्त पाप-पुण्य से भी परे की, अतीत की, वस्तु है।

बाहर आकर मैं बरामदे में एक मोढ़े पर बैठ गया। कितनी ही देर बाद, शायद, दीपक जलाने के लिए रोहिणी बाबू बाहर आए और भयभीत हो उन्होंने पूछा, "कौन है?"

मैंने आवाज़ देकर कहा, "मैं हूँ श्रीकान्त।"

"श्रीकान्त बाबू? ओह..." इतना कहकर वह तेज चाल से नजदीक आए, भीतर जाकर उन्होंने दीया-बत्ती की और फिर मुझे भीतर ले जाकर बिठाया। इसके बाद किसी के भी मुँह से कोई बात न निकली- दोनों ही चुपचाप बैठे रहे। सबसे पहले मैंने ही मुँह खोला। कहा, "रोहिणी भइया, यहाँ अब क्यों रहते हो? चलो मेरे साथ।"

रोहिणी ने पूछा, "क्यों?"

मैंने कहा, "यहाँ आपको कष्ट होता है इसलिए।"

रोहिणी कुछ देर ठहरकर बोला, "कष्ट अब मुझे क्या है!"

ठीक है! किन्तु, ऐसी अवस्था में तो आलोचना की नहीं जा सकती मैं उसका किस प्रकार तिरस्कार करूँगा, क्या सत्परामर्श दूँगा आदि सब सोचता-सोचता घर से चला था, किन्तु, यहाँ वे सब विचार बह गये। नीतिशास्त्र की पोथी इतनी अधिक नहीं पढ़ी थी कि इतने बड़े प्रेम का अपमान कर सकूँ। कहाँ गया मेरा क्रोध, कहाँ गया मेरा विद्वेष! समस्त साधु-संकल्प अपना सिर नीचा करके कहाँ छिप रहे, पता भी न चला।

रोहिणी बोला कि उसने वह प्राइवेट टयूशन छोड़ दी है क्योंकि उससे तन्दुरुस्ती बिगड़ती है। उसका दफ़्तर भी अच्छा नहीं है, बड़ी कड़ी मेहनत पड़ती है। नहीं तो अब कष्ट क्या है।

मैं चुप हो रहा। क्योंकि इसी रोहिणी के मुँह से कुछ दिन पहिले इससे ठीक उलटी बात सुनी थी। वह कुछ देर चुप रहकर फिर कहने लगा, "ऑफिस से थके-माँदे लौटने पर यह राँधना-रूँधना तो बड़ी झुँझलाहट पैदा करता है, क्यों न श्रीकान्त बाबू?"

मैं और क्या कहता? आग बुझ जाने पर केवल जल से ही तो इंजन चलता नहीं, यह तो जानी हुई बात है।

फिर भी, वह यह स्थान छोड़कर दूसरी जगह जाने को राजी नहीं हुआ। कल्पना की तो कोई सीमा निर्दिष्ट कर नहीं सकता, इसलिए उस बात को नहीं छोड़ता, किन्तु, किसी असम्भव आशा ने उसके मन के भीतर भी किसी तरह आश्रय नहीं पाया था सो मैं उसकी कुछ बातों से ही जान गया था। फिर भी क्यों वह इस दु:ख के आगार को छोड़ना नहीं चाहता, यह अवश्य ही मैं नहीं सोच सका। किन्तु, उसके अन्तर्यामी के अगोचर नहीं था कि जिस हतभागी के घर का रास्ता रुद्ध हो गया है, उसे इस शून्य घर की पूँजीभूत वेदना यदि खड़ा न रख सके तो उसे मिट्टी में मिलने से रोकना इस दुनिया में किसी के लिए भी सम्भव नहीं है।

अपने डेरे पर पहुँचते-पहुँचते कुछ रात हो गयी। घर में घुसकर देखा कि एक कोने में बिस्तर लगाकर एक आदमी सिर से पैर तक कपड़ा ओढ़े सो रहा है। नौकरानी से पूछने पर उसने कहा, "शरीफ आदमी हैं।"

"इसलिए मेरे कमरे में!"

भोजनादि के उपरान्त उन महाशय से बातचीत हुई। उनका मकान चटगाँव ज़िले में है। क़रीब चार वर्ष के बाद उनके लापता छोटे भाई का पता मिला है और उसे वापिस घर ले जाने के लिए वे आए हैं। वे बोले, "महाशय, कहानियों में सुना था कि पुराने समय में कामरूप की स्त्रियाँ विदेशी पुरुषों को- भेड़ बनाकर बाँध रखती थीं। न जाने उस समय वे क्या करती होंगी; किन्तु इस जमाने में बर्मा की स्त्रियों की क्षमता उनसे तिल-भर भी कम नहीं है, सो मैं नस नस से अनुभव कर रहा हूँ।"

और भी बहुत-सी बातें करने के बाद उन्होंने अपने छोटे भाई के उद्धार करने के लिए मेरी सहायता की भिक्षा माँगी। मैंने बचन दिया कि उनके इस साधु उद्देश्य को सफल करने में मैं कमर बाँधकर लग जाऊँगा। क्यों, सो कहने की ज़रूरत नहीं है। दूसरे दिन सुबह ढूँढ़-खोज करके उनके छोटे भाई की बर्मी ससुराल में जा पहुँचा। बड़े भाई आड़ में रास्ते के ऊपर चहल कदमी करने लगे।

छोटे भाई उपस्थित नहीं थे, साइकिल लेकर सुबह घूमने के लिए बाहर गये थे। मकान में सास-ससुर नहीं थे, केवल स्त्री अपनी एक छोटी बहिन को लेकर एक-दो दासियों सहित वहाँ रहती है। इन लोगों की जीविका बर्मा-चुरुट बनाना था। उस समय सब इसी काम में लगे हुए थे। मुझे बंगाली देखकर और सम्भवत: अपने पति का मित्र समझकर, उन्होंने मेरा आदर के साथ स्वागत किया। बर्मी स्त्रियाँ अत्यन्त परिश्रमी होती हैं, परन्तु पुरुष बहुत ही आलसी होते हैं। वहाँ घर के छोटे-मोटे काम-काज से लेकर व्यवसाय वाणिज्य तक सब कुछ प्राय: स्त्रियों के हाथ में है। इसलिए, लिखना-पढ़ना सीखे बिना उनका काम नहीं चलता, परन्तु पुरुषों की बात अलहदा है। पढ़ना-लिखना सीखा हो तो भला, न सीखा हो तो लज्जा के मारे मरना नहीं होता। निष्कर्मा पुरुष स्त्री का उपार्जित अन्न नष्ट करके बाहर उसी पैसे से बाबूगीरी करता फिरता है और उससे लोगों को कोई अचरज नहीं होता। स्त्रियों भी छि:-छि:, मिनमिन, पिनपिन करके उसकी नाकोंदम कर देना आवश्यक नहीं समझतीं। बल्कि, यही किसी परिणाम में उनके समाज को स्वाभाविक आचार में शामिल हो गया है।

दस-पन्द्रह मिनट के बीच ही बाबू साहब 'द्वि-वक्र-यान' में लौट आए। सारी देह पर अंगरेजी पोशाक, हाथ में दो-तीन अंगूठियाँ, घड़ी, चैन आदि। काम-काज कुछ भी नहीं करना पड़ता, फिर भी देखा, हालत खूब अच्छी है। उनकी बर्मी पत्नी अपने हाथ का काम छोड़कर उठ खड़ी हुई और उनके हाथ से टोपी तथा छड़ी लेकर उसने रख दी। छोटी बहिन ने चुरुट दियासलाई आदि ला दिये, एक दासी ने चाय का सरंजाम और दूसरी ने पान का डब्बा ला दिया। वाह, इस मनुष्य को तो सबने मिलकर एकदम राजा की तरह रख छोड़ा है! नाम मैं भूल गया हूँ। शायद चारु-वारु ऐसा ही कुछ होगा। जाने दो, हम लोग न होगा तो केवल 'बाबू' कहकर पुकार लेंगे।

बाबू ने प्रश्न किया कि आप कौन हैं? मैंने कहा, मैं आपके भाई का मित्र हूँ। उन्होंने विश्वास नहीं किया। बोले, "आप तो कलकतिया हैं; मेरे भाई तो कभी वहाँ गये भी नहीं, मित्रता किस तरह हुई?"

किस तरह मित्रता हुई, कहाँ हुई, इस समय वे कहाँ हैं, इत्यादि संक्षेप से वर्णन करके उनके आने का उद्देश्य भी मैंने बता दिया और यह भी निवेदन कर दिया कि वे अपने भ्रातृ-रत्न के दर्शनों की अभिलाषा से उत्कण्ठित हैं।

दूसरे दिन सुबह ही हमारी होटल में बाबू की चरण-धूलि आ पड़ी और दोनों भाइयों की बड़ी देर की बातचीत के बाद उन्होंने बिदा ग्रहण की। तब से दोनों भाइयों का कुछ ऐसा हेल-मेल हों गया, कि-सुबह नहीं, संध्याट, नहीं-बाबू साहब 'भइया, भइया' कहकर पुकारते हुए लगे जब तब आ उपस्थित होने और फुसफुस खुसखुस सलाह-संलाप करने और खाने-पीने की तो कोई सीमा ही नहीं रही। एक दिन संध्यास को वे अपने भइया को और मुझे भी चाय-बिस्कुट का निमन्त्रण दे गये।

उसी दिन उनकी बर्मी स्त्री से मेरी अच्छी तरह बातचीत हुई। वह अतिशय सरल, विनयी और भली है। प्यार करके स्वेच्छा से ही उसने विवाह किया है और तब से शायद एक दिन के लिए भी इन्हें कोई दु:ख नहीं दिया। कोई चार-पाँच दिन बाद बड़े भइया ने मुसकराते हुए कान में कहा, कि परसों सवेरे के जहाज़ से हम लोग घर जा रहे हैं। सुनकर मुझे कुछ डर-सा लगा; पूछा, "आपके भाई यहाँ फिर लौटकर तो आयँगे?

बड़े भइया बोले, "अब? राम-राम करके किसी तरह एक दफे जहाज़ पर चढ़ तो पावें!"

मैंने पूछा, "यह स्त्री को जता दिया है?"

बड़े भइया बोले, "बाप रे! तब क्या हम बच सकेंगे? साली जो जहाँ होंगी रक्त-बीज की तरह आकर घेर लेंगी।" यह कहकर और फिर दोनों ऑंखें मिचकाकर हँसते हुए बोले, "फ्रेंच लीव्ह महाशय, फ्रेच लीव्ह- आप समझे या नहीं?"

मुझे अत्यन्त क्लेश मालूम हुआ, बोला "ऐसा हुआ तब तो स्त्री को अत्यन्त कष्ट होगा।"

मेरी बात सुनकर बड़े भइया तो हँसी से लोट-पोट हो गये। किसी तरह हँसना बन्द करके बोले, "वाह, आपने भी खूब कहा! इन बर्मी औरतों को कष्ट? इन सालियों की जात के लोग खाकर कुल्ला तक नहीं करते, न इनके यहाँ जूठे-मीठे का विचार है, और न जात-पाँत का। साली सब नेप्पी (एक तरह की सड़ाई हुई मछलियाँ) खाती हैं महाशय, जिसकी दुर्गन्ध के मारे भूतनी-पिशाचियाँ तक भाग जावें। इन सालियों को और कष्ट! एक चला जायेगा तो दूसरे को पकड़ लेंगी-छोटी जात की हैं सालीं-

"ठहरिए महाशय, ठहरिए। आपके भाई को उसने जो इन चार वर्षों तक राजा की तरह खिलाया-पिलाया है, और कुछ न हो, इसके लिए भी तो उसका कुछ कृतज्ञ होना चाहिए।"

बड़े भाई का मुँह गम्भीर हो गया। वे कुछ देर चुप रहकर बोले, "आपने तो मुझे अवाक् कर दिया महाशय। मर्द-बच्चे हैं, विदेश की धारती पर आकर यदि उम्र के दोष से कुछ शौक़ कर ही डाला तो क्या हुआ? और फिर कौन है जो ऐसा नहीं करता, कहिए न? मुझसे तो कुछ छुपा है नहीं- इसका कुछ खुल पड़ा है- सब लोग जान गये हैं, बस-सो इसीलिए क्या चिरकाल तक इसे इसी तरह फिरते रहना होगा? भला बनकर, गृहस्थ-धर्म चलाकर, फिर से पाँच पंचों में अपना स्थान ग्रहण न करना होगा? महाशय, यह तो कुछ बात ही नहीं है, कच्ची उम्र में तो कितने ही लोग होटल में जाकर मुर्गी तक खा आते हैं। किन्तु उम्र पकने पर क्या ऐसा करते हैं? आप ही विचार कीजिए न, मैं कहता हूँ सो सच है कि झूठ?"

वास्तव में यह विचार करने जैसी बुद्धि भगवान ने मुझे नहीं दी, इसलिए मैं चुप रह गया और ऑफिस का समय हो रहा था इसलिए, नहा-खाकर चल दिया।

किन्तु, ऑफिस से लौटते ही वे फिर एकाएक बोल उठे, "मैंने सोच देखा, आपकी सलाह ही ठीक है महाशय! इस जात का कुछ भरोसा नहीं, क्या जाने जाते-जाते अन्त में क्या फसाद खड़ा कर दे। कहकर जाना ही ठीक है। साली जो न करें सो थोड़ा। न लाज है न शरम, और न कुछ धर्म का ज्ञान। इन्हें यदि जानवर कहा जाय तो भी कुछ बेजा नहीं है।"

मैंने कहा, "हाँ, यही ठीक है।"

किन्तु, उसकी बात पर मैं विश्वास न ला सका। मन ही मन मुझे ऐसा लगा कि इसके भीतर कोई षडयन्त्र है। किन्तु, वह इतना नीच, इतना निष्ठुर होगा-ऑंखों से देखे बगैर कोई उसकी कल्पना भी कर सकेगा, यह मैं नहीं सोच सका।

चटगाँव का जहाज़ रविवार को जाता है। ऑफिस बन्द था। सुबह के समय और करता ही क्या; उन्हें 'सी ऑफ' (=बिदा) करने के लिए जहाज-घाट पर जा पहुँचा। जहाज़ उस समय जेटी से लगा हुआ था। जाने वाले दोनों श्रेणियों के लोगों की दौड़-धूप, चीख-पुकार में कोई किसी की बात नहीं सुन सकता था।

यहाँ वहाँ देखते ही उस बर्मी स्त्री पर नजर पड़ गयी। एक किनारे वह अपनी छोटी बहिन का हाथ पकड़े खड़ी है। सारी रात रोते रहने के कारण उसकी दोनों ऑंखें ठीक जबा के फूलों की तरह हो रही हैं। छोटे बाबू बहुत ही व्यस्त हैं। वे अपनी दो चक्रों की गाड़ी (साइकिल), ट्रंक, बिस्तर तथा और भी न जाने क्या-क्या लिये कुलियों के साथ दौड़-धूप कर रहे हैं-उन्हें क्षण-भर का भी अवसर नहीं है।

धीरे-धीरे सारी चीज़ें जहाज़ पर चढ़ गयीं, यात्री लोग भी सब ठेल-ठालकर ऊपर चढ़ गये। जो यात्री नहीं थे वे नीचे उतर आए, सामने की ओर से लंगर उठने लगा। इसी समय छोटे बाबू अपने सामान को हिफाजत से रखकर और जगह ठीक करके अपनी बर्मी-स्त्री से बिदा लेने के छल से संसार के निष्ठुरतम अंक का अभिनय करने के लिए जहाज़ पर से नीचे उतरे। द्वितीय दर्जे के यात्री थे, इसलिए उन्हें यह अधिकार प्राप्त था।

मैंने अनेक दफे सोचा है कि इसकी भला क्या ज़रूरत थी? मनुष्य जबर्दस्ती अपनी मानव-आत्मा को इस तरह क्यों अपमानित करता है? मन्त्रदीक्षित पत्नी न हुई तो क्या हुआ, किन्तु वह स्त्री तो है! वह कन्या भगिनी जननी की जाति की तो है। उसी के आश्रय से वह इतने सुदीर्घ समय तक पति के समस्त अधिकारों का उपयोग करता हुआ वहीं रहा है। उसने तो अपने विश्वस्त हृदय की सारी मधुरता, सारा अमृत, सम्पूर्ण शरीर और मन उस पर समर्पित कर दिया है। फिर किस लोभ से वह इन अगणित लोगों की ऑंखों में उसे इतने बड़ें निर्दय परिहास और तमाशे की चीज़ बनाकर चलता बना। वह एक हाथ से रूमाल के द्वारा अपनी दोनों ऑंखें ढंके हुए है और दूसरा हाथ अपनी बर्मी स्त्री के गले में डाले हुए रोने के स्वर में बहुत कुछ कह रहा है। स्त्री ऑंचल में मुँह छिपाये रो रही है।

¹ यह बंगला मुहाविरा है, अर्थ-अंगूठा दिखाकर।


आसपास बहुत से बंगाली खड़े हैं। उनमें से कुछ मुँह फिराकर हँस रहे हैं, और कुछ मुँह में कपड़ा देकर हँसी रोकने की कोशिश कर रहे हैं। मैं कुछ दूरी पर था, इसलिए पहले कुछ समझ न सका, किन्तु नजदीक आते ही सब बातें साफ-साफ सुन पड़ने लगीं। वह रोने के स्वर में बर्मी और देहाती बंगाली मिलाकर विलाप कर रहा है। यदि बंगाली में कुछ मार्जित करके लिखा जाय तो उस विलाप का यह रूप हो- "एक महीने बाद रंगपुर से तमाखू ख़रीद कर कैसे आ जाऊँगा, यह मैं ही जानता हूँ! जो री मेरी रत्नमणि! तुझे केला दिखाकर चला रे, ¹ केला दिखाकर चला!"

वह यह सब केवल हमारे समान कुछ अपरिचित बंगाली दर्शकों के हँसाने के लिए ही कह रहा था। पर, उसकी स्त्री बंगला नहीं समझती है, केवल रोने की आवाज़ से ही उस बेचारी की छाती फट रही है और किसी तरह वह हाथ उठाकर उसकी ऑंखें पोंछकर सांत्वना देने की चेष्टा कर रही है।

वह आदमी जोर-जोर से बिसूर-बिसूर कर रोता हुआ कहने लगा, "बड़ी मुश्किल से तूने पाँच सौ रुपये तमाखू ख़रीदने को दिए हैं- अब कुछ तेरे पास नहीं है-पेट तो भरा ही नहीं- इसी तरह यदि तेरा मकान भी बेच-बाचकर भले घर के लड़के की तरह घर जा सकता, तो समझता कि हाँ एक दाँव मारा! हाय, यह सब कुछ नहीं हुआ रे। कुछ नहीं हुआ!

आसपास के लोग हँसी को रोक रखने के कारण फूल-फूल उठने लगे; किन्तु जिसको लेकर इतनी हँसाई हो रही थी उसकी ऑंखें और कान दु:ख के ऑंसुओं से एकदम आच्छादित हो रहे थे। ऐसा जान पड़ने लगा कि कहीं वेदना के मारे मर न जाय!

खलासियों ने ऊपर से पुकार कर कहा, "बाबू, सीढ़ी उठाई जा रही है।"

वह आदमी गला छोड़कर सीढ़ी तक गया और फिर लौट आया। स्त्री के हाथ में एक पुराने समय के अच्छे नगवाली अंगूठी थी। इसी पर हाथ रखकर रोता हुआ बोला, "अरी, दे दे री, यह अंगूठी ही ले जाऊँ। इसके कम से कम दो-ढाई सौ रुपये दाम तो होंगे ही- इन्हीं को क्यों छोड़ूँ?"

स्त्री ने उसे चटपट खोलकर अपने प्रियतम की अंगुली में पहिना दिया। "जो मिला वही लाभ है।" कहकर वह आदमी रोता-रोता ही सीढ़ी पर चढ़ गया। जहाज़ जेटी छेड़कर धीरे-धीरे दूर सरकता जाने लगा और स्त्री मुख पर ऑंचल डालकर घुटने टेककर वहीं बैठ गयी। बहुत से लोग दाँत काढ़कर हँसते-हँसते चले गये। किसी ने कहा, "बाह रे लड़के!" किसी ने कहा, "बाह रे बहादुर छोकरे!' बहुत-से लोग यह कहते-कहते चले गये, 'कैसा तमाशा किया! हँसते-हँसते पेट दुखने लगा!' ऐसे-ऐसे न जाने कितने मन्तव्य प्रकट किये गये। केवल मैं ही अकेला सबके हँसी-तमाशे की चीज़ उस भोली स्त्री के अपरिसीम दु:ख का साक्षी बनकर गुमसुम खड़ा रह गया।

छोटी बहिन ऑंखें पोंछती हुई पास में खड़ी अपनी बहिन का हाथ खींच रही थी। मेरे पास में जाकर खड़े होते ही वह धीरे से बोली, "बाबूजी आए हैं बहिन, उठो।"

मुँह उठाकर उसने मेरी ओर देखा और साथ ही साथ उसका रुदन मानो बाँध तोड़कर फट पड़ा। मेरे पास सान्त्वना देने के लिए और था ही क्या! फिर भी, उस दिन मैं उसका साथ नहीं छोड़ सका। उसके पीछे-पीछे उसकी गाड़ी में जा बैठा। रास्ते-भर वह रो-रो करके यही बात कहती रही कि, "बाबूजी, आज मेरा मकान सूना हो गया। किस तरह मैं उसके भीतर पैर रक्खूँगी; एक माह के लिए तमाखू ख़रीदने गये हैं- यह एक मास मैं कैसे काटूँगी! विदेश में उन्हें न जाने कितनी तकलीफ उठानी होगी! मैंने उन्हें वहाँ क्यों जाने दिया! रंगून के बाज़ार की तमाखू से हमारा काम तो मजे से चल रहा था; तब फिर क्यों अधिक लाभ की आशा से मैंने उन्हें इतनी दूर भेजा! दु:ख के मारे छाती फटी जाती है। बाबूजी, अगली मेल से ही मैं उनके पास चली जाऊँगी।" इस तरह वह न जाने कितना और क्या-क्या कहती रही।

मैं एक बात का भी जवाब न दे सका, केवल अपना मुँह फिराकर खिड़की के बाहर देखता हुआ अपनी ऑंखों के ऑंसुओं को छुपाता रहा।

वह कहने लगी, "बाबूजी, तुम्हारी जात के लोग जितना प्यार-प्रेम कर सकते हैं, उतना हमारी जात के लोग नहीं कर सकते; तुम लोगों में जितनी दया माया है उतनी और किसी देश के लोगों में नहीं है।"

कुछ देर ठहरकर और दो-तीन दफे ऑंखें पोंछकर वह कहने लगी, "बाबू के प्यार में पड़कर जब मैं उनके साथ रहने लगी तब कितने ही लोगों ने मुझे भय दिखाकर रोका था; किन्तु, मैंने किसी की भी बात न सुनी। इस समय न जाने कितनी स्त्रियाँ मेरे सौभाग्य पर मन ही मन जलती हैं।"

चौरस्ते के नजदीक मैंने चाहा कि उतरकर अपने डेरे पर चला जाऊँ, किन्तु, वह व्याकुल होकर दोनों हाथों से गाड़ी का दरवाज़ा रोककर बोली, "ना बाबूजी, सो नहीं होगा। तुम्हें हमारे साथ चलकर एक प्याला चाय पीकर आना होगा; चलिए।"

मैं इनकार न कर सका। गाड़ी चलने लगी। उसने एकाएक पूछा, "अच्छा बाबूजी, रंगपुर कितनी दूर है? आप कभी वहां गये हैं? कैसी जगह है? बीमार होने पर वहाँ डॉक्टर तो मिल सकते हैं न?

बाहर की ओर देखते हुए मैंने उत्तर दिया, "हाँ, मिलते क्यों नहीं।"

एक उसास छोड़कर वह बोली, "फया (=ईश्वर) उन्हें भला रक्खें। उनके भाई भी साथ में है। वे बड़े सज्जन आदमी हैं, छोटे भाई को तो वे प्राणों से ज़्यादा रक्खेंगे। तुम लोगों का शरीर तो जैसे प्रेमहीन बना है। मुझे कुछ सोच नहीं करना है, क्यों न बाबूजी?"

मैं चुपचाप बाहर की ओर देखता हुआ केवल यही सोचने लगा कि इस महापाप में मेरा खुद का हिस्सा कितना है? चाहे आलस्यवश हो- चाहे ऑंखों की शरम के मारे हो, और चाहे अक्ल मारी जाने के कारण हो, यह जो मैंने अपना मुँह बन्द किये रहकर इतना बड़ा अन्याय अनुष्ठित होते देखा और कुछ कहा नहीं, इसके अपराध से क्या मैं छुटकारा पाऊँगा? और यदि ऐसा ही है, तो फिर सिर ऊँचा करके मैं सीधा क्यों नहीं बैठ सकता? उसकी ऑंखों की ओर देखने का साहस क्यों नहीं कर सकता?

चाय-बिस्कुट लेकर और उनके विवाहित जीवन की लाखों घटनाओं का विस्तृत इतिहास सुनकर जब मैं मकान से बाहर हुआ तब दिन अधिक बाकी नहीं था घर लौट जाने की इच्छा नहीं हुई। दिन के अन्त में सब लोग अपना-अपना काम-काज खत्म करके डेरे में लौट आते हैं- दादा ठाकुर का होटल उस समय तरह-तरह के सुन्दर हास-परिहास से मुखरित हो रही है। पर, सब हो-हल्ला मुझे ज़हर जैसा लगने लगा।

अकेला रास्ते-रास्ते घूमते हुए मैं यही सोचने लगा कि इस समस्या की मीमांसा होगी किस तरह? बर्मी लोगों में विवाह के सम्बन्ध में कोई बँधा हुआ नियम नहीं है। विवाह की कुलीन विधि भी है और पति-पत्नी की तरह जो स्त्री-पुरुष तीन दिन एक साथ रहकर एक बर्तन में भोजन कर लेते हैं, उनका भी विवाह हो गया समझा जाता है। न तो समाज ही इसे नामंजूर करती है और न वह स्त्री ही इस कारण किसी तरह हलकी नजर से देखी जाती है। परन्तु, 'बाबू' के लिए हिन्दू क़ानून में यह सब कुछ भी नहीं है। इस स्त्री को यह अपने देश में ले जाकर नहीं रख सकता। हिन्दू समाज उन्हें न हो तो न अपनावे, किन्तु, यह भी जीवन-भर सहन करते रहना कठिन है कि नीच से नीच आदमी भी उन्हें नीची निगाह से देखे! या तो चिरकाल के लिए निर्वासित की तरह प्रवास में रहा करे; या फिर, बड़े भइया ने अपने छोटे भाई की जो व्यवस्था की, वही ठीक है। इतना होते हुए भी 'धर्म' नामक शब्द का यदि कोई अर्थ हो सकता है- चाहे वह धर्म हिन्दू जाति का हो या और किसी जाति का, तो इतना बड़ा नृशंस व्यापार किस तरह ठीक हो सकता है सो समझना मेरी बुद्धि से परे की बात है। यह सब बातें तो समयानुसार और कभी सोचकर देखूँगा; किन्तु, इस गुस्से के मारे तो मैं जलकर खाक होने लगा, कि यह कापुरुष आज बिना किसी अपराध के इस अनन्य-निर्भर नारी के परम स्नेह के ऊपर वेदना का बोझा लादकर और चकमा देकर भाग गया।

रास्ते के किनारे-किनारे जो चलना शुरू किया तो चलता ही गया। बहुत दिन पहले, एक दिन अभया का पत्र पढ़ने जिस चाह की दुकान में गया था उसी दुकान के मालिक ने शायद पहिचान कर मुझे हाँक दी, "बाबू साहब, आइए।"

एकाएक जैसे नींद टूटते ही मैंने देखा, यह वही दुकान है और वह रोहिणी भइया का घर है। बिना कुछ कहे उसके बुलाने का मान रखकर मैं अन्दर चला गया और एक प्याला चाय पीकर बाहर निकला। रोहिणी के दरवाज़े पर धक्का देकर देखा कि भीतर से बन्द है। बाहर की साँकल को पकड़कर दो-चार दफे हिलाते ही किवाड़ खुल गये। ऑंखें उठाकर देखा कि सामने अभया है।

"अरे तुम?"

अभया की ऑंखें और चेहरा लाल हो उठा; कोई भी जवाब दिए बगैर वह पलक मारते न मारते अपने कमरे में चली गयी और उसने अन्दर से कुण्डी बन्द कर ली। किन्तु, लज्जा की जो मूर्ति शाम के उस धुँधले प्रकाश में उसके चेहरे पर फूट उठते देखी, उससे जानने-पूछने के लिए और कुछ बाकी ही नहीं रहा। अभिभूत की तरह कुछ देर खड़ा रहकर चुपचाप लौटकर जा रहा था कि अकस्मात् मेरे दोनों कानों में मानो दो तरह के विभिन्न रोने के स्वर एक ही साथ गूँज उठे; एक था उस महापापी का और दूसरा उस बर्मी युवती का। मैं जाना ही चाहता था, किन्तु, फिर लौटकर ऑंगन में खड़ा हो गया। मन ही मन कहा, नहीं, मुझे इस तरह नहीं जाना चाहिए। नहीं-नहीं- ऐसा नहीं करना चाहिए, ऐसा नहीं करना चाहिए, यह उचित नहीं है, यह अच्छा नहीं है- यह सब अनेक दफे सुनने की आदत रही है, अनेक दफे दूसरों को सुनाया भी है-किन्तु बस, अब और नहीं। क्या अच्छा है, क्या बुरा है, क्यों अच्छा है, कहाँ किस तरह बुरा है- ये सब प्रश्न यदि हो सकेगा तो स्वयं उसी के मुँह से सुनूँगा और यदि ऐसा न कर सकूँ, तो केवल पोथी के अक्षरों पर दृष्टि रखकर मीमांसा करने का अधिकार न मुझे है, न तुम्हें है और न शायद विधाता को ही है।

श्रीकांत उपन्यास
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