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आमतौर पर यह समझा जाता है कि इस्लाम 1400 वर्ष पुराना धर्म है, और इसके ‘प्रवर्तक’ पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) हैं। लेकिन वास्तव में इस्लाम 1400 वर्षों से काफ़ी पुराना धर्म है; उतना ही पुराना जितना धरती पर स्वयं मानवजाति का इतिहास और हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) इसके प्रवर्तक नहीं, बल्कि इसके आह्वाहक हैं।[1]

अर्थ

इस्लाम शब्द का अर्थ है–अल्लाह को समर्पण। इस प्रकार मुसलमान वह है, जिसने अपने आपको अल्लाह को समर्पित कर दिया, अर्थात् इस्लाम धर्म के नियमों पर चलने लगा। इस्लाम धर्म का आधारभूत सिद्धांत अल्लाह को सर्वशक्तिमान, एकमात्र ईश्वर और जगत का पालक तथा हज़रत मुहम्मद को उनका संदेशवाहक या पैगम्बर मानना है। यही बात उनके 'कलमे' में दोहराई जाती है—ला इलाहा इल्लल्लाह मुहम्मदुर्रसूलुल्लाह अर्थात् अल्लाह एक है, उसके अलावा कोई दूसरा (दूसरी सत्ता) नहीं और मुहम्मद उसके रसूल या पैगम्बर। कोई भी शुभ कार्य करने से पूर्व मुसलमान यह क़लमा पढ़ते हैं। इस्लाम में अल्लाह को कुछ हद तक साकार माना गया है, जो इस दुनिया से काफ़ी दूर सातवें आसमान पर रहता है। वह अभाव (शून्य) में सिर्फ़ 'कुन' कहकर ही सृष्टि रचता है। उसकी रचनाओं में आग से बने फ़रिश्ते और मिट्टी से बने मनुष्य सर्वश्रेष्ठ हैं। गुमराह फ़रिश्तों को 'शैतान' कहा जाता है। इस्लाम के अनुसार मनुष्य सिर्फ़ एक बार दुनिया में जन्म लेता है। मृत्यु के पश्चात् पुनः वह ईश्वरीय निर्णय (क़यामत) के दिन जी उठता है और मनुष्य के रूप में किये गये अपने कर्मों के अनुसार ही 'जन्नत' (स्वर्ग) या 'नरक' पाता है। पैगम्बर मुहम्मद की कही हुई बातें और उनकी स्मृतियों का 'हदीस' नामक ग्रन्थ में संग्रह है।

अरब

अत्यंत प्राचीन काल में ‘जदीस’, ‘आद’, ‘समूद’ आदि जातियाँ, जिनका अब नाममात्र शेष है, अरब में निवास करती थीं, किन्तु भारत-सम्राट हर्षवर्द्धन के सम-सामयिक हज़रत मुहम्मद के समय ‘क़हतान’, ‘इस्माईल’ और ‘यहूदी’ वंश के लोग ही अरब में निवास करते थे। प्राचीन काल में अरब-निवासी सुसभ्य और शिल्प-कला में प्रवीण थे। परन्तु ‘नीचैर्गच्छत्युपरि च तथा चक्रनेमिक्रमेण’ के अनुसार कालान्तर में उनके वंशज घोर अविद्यान्धकार में निमग्न हो गये और सारी शिल्पकलाओं को भूल कर ऊँट-बकरी चराना मात्र उनकी जीविका का उपाय रह गया। वह इसके लिए एक स्रोत से दूसरे स्रोत, एक स्थान से दूसरे स्थान में हरे चरागाहों को खोजते हुए खेमों में निवास करके कालक्षेप करने लगे। कनखजूरा, गोह, गिरगिट आदि सारे जीव उनके भक्ष्य थे। प्रज्ज्वलित अग्नि में जीवित मनुष्य को डाल देना उनके समीप कोई असाधु कर्म नहीं समझा जाता था। हिन्दू-पुत्र अम्रु ने अपने भाई के मारे जाने पर एक के बदले सौ के मारने की प्रतिज्ञा की।

हज़रत मुहम्मद साहब

इस्लाम धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद साहब थे, जिनका जन्म 29 अगस्त, 570 को सउदी अरब के मक्का नामक स्थान में कुरैश क़बीले के अब्दुल्ला नामक व्यापारी के घर हुआ था। जन्म के पूर्व ही पिता की और पाँच वर्ष की आयु में माता की मृत्यु को जाने के फलस्वरूप उनका पालन-पोषण उनके दादा मुतल्लिब और चाचा अबू तालिब ने किया था। 25 वर्ष की आयु में उन्होंने खदीजा नामक एक विधवा से विवाह किया। मोहम्मद साहब के जन्म के समय अरबवासी अत्यन्त पिछड़ा, क़बीलाई और चरवाहों की ज़िन्दगी बिता रहे थे। अतः मुहम्मद साहब ने उन क़बीलों को संगठित करके एक स्वतंत्र राष्ट्र बनाने का प्रयास किया। 15 वर्ष तक व्यापार में लगे रहने के पश्चात् वे कारोबार छोड़कर चिन्तन-मनन में लीन हो गये। मक्का के समीप हिरा की चोटी पर कई दिन तक चिन्तनशील रहने के उपरान्त उन्हें देवदूत जिबरील का संदेश प्राप्त हुआ कि वे जाकर क़ुरान शरीफ़ के रूप में प्राप्त ईश्वरीय संदेश का प्रचार करें। तत्पश्चात् उन्होंने इस्लाम धर्म का प्रचार शुरू किया। उन्होंने मूर्ति पूजा का विरोध किया, जिससे मक्का का पुरोहित वर्ग भड़क उठा और अन्ततः मुहम्मद साहब ने 16 जुलाई 622 को मक्का छोड़कर वहाँ से 300 किमी. उत्तर की ओर यसरिब (मदीना) की ओर कूच कर दिया। उनकी यह यात्रा इस्लाम में 'हिजरत' कहलाती है। इसी दिन से हिजरी संवत् का प्रारम्भ माना जाता है। कालान्त में 630 ई0 में अपने लगभग 10 हज़ार अनुयायियों के साथ मुहम्मद साहब ने मक्का पर चढ़ाई करके उसे जीत लिया और वहाँ इस्लाम को लोकप्रिय बनाया। दो वर्ष पश्चात् 8 जून, 632 को उनका निधन हो गया। इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम क़ुरआन है जिसका हिन्दी में अर्थ सस्वर पाठ है।

तत्कालीन मूर्तियाँ

‘हुब्ल’, ‘लात्’, ‘मनात्’ ‘उज्ज’ आदि भिन्न-भिन्न अनेक देव-प्रतिमाएँ उस समय अरब के प्रत्येक कबील में लोगों की इष्ट थीं। बहुत पुराने समय में वहाँ मूर्तिपूजा न थी। ‘अमरू’ नामक काबा के एक प्रधान पुजारी ने ‘शाम’ देश में सुना कि इसकी आराधना से दुष्काल से रक्षा और शत्रु पर विजय प्राप्त होती है। उसी ने पहले-पहल ‘शाम’ से लाकर कुछ मूर्तियाँ काबा के मन्दिर में स्थापित कीं। देखादेखी इसका प्रचार इतना बढ़ा कि सारा देश मूर्तिपूजा में निमग्न हो गया। अकेले ‘काबा’ मन्दिर में 360 देवमूर्तियाँ थीं, जिनमें हुब्ल-जो छत पर स्थापित था-कुरेश-वंशियों का इष्ट था। ‘जय[2] हुब्ल’ उनका जातीय घोष था। लोग मानते थे कि ये मूर्तियाँ ईश्वर को प्राप्त कराती हैं, इसीलिए वे उन्हें पूजते थे। अरबी में ‘इलाह’ शब्द देवता और उनकी मूर्तियों के लिए प्रयुक्त होते है; किन्तु ‘अलाह’ शब्द ‘इस्लाम’ काल से पहले उस समय भी एक ही ईश्वर के लिए प्रयुक्त होता था।

श्रीमती ‘खदीजा’ और उनके भाई ‘नौफ़ल’ मूर्तिपूजा-विरोधी यहूदी धर्म के अनुयायी थे। उनके और अपनी यात्राओं में अनेक शिष्ट महात्माओं के सत्संग एवं लोगों के पाखण्ड ने उन्हें मूर्तिपूजा से विगतश्रद्ध बना दिया। वह ईसाई भिक्षुओं की भाँति बहुधा ‘हिरा’ की गुफा में एकान्त-सेवन और ईश्वर-प्रणिधान के लिए जाया करते थे। ‘इका बि-इस्मि रब्बिक’ (पढ़ अपने प्रभू के नाम के साथ) यह प्रथम क़ुरान वाक्य पहले वहीं पर देवदूत ‘जिब्राइल’ द्वारा महात्मा मुहम्मद के हृदय में उतारा गया। उस समय देवदूत के भयंकर शरीर को देखकर क्षण भर के लिए वह मूर्च्छि हो गये थे। जब उन्होंने इस वृत्तान्त को श्रीमती ‘खदीजा’ और ‘नौफ़ल’ को सुनाया तो उन्होंने कहा- “अवश्य वह देवदूत था जो इस भगवद्वाक्य को लेकर तुम्हारे पास आया था।“ इस समय महात्मा मुहम्मद की आयु 40 वर्ष की थी। यहीं से उनकी पैगम्बरी (भगवद्दूतता) का समय प्रास्म्भ होता है।

इस्लाम का प्रचार और कष्ट

ईश्वर के दिव्य आदेश को प्राप्त कर उन्होंने मक्का के दाम्भिक और समागत यात्रियों को क़ुरान का उपदेश सुनाना आरम्भ किया। मेला के खास दिनों (‘इह्राम’ के महीनों) में दूर से आयें हुए तीर्थ-यात्रियों के समूह को छल-पाखण्डयुक्त लोकाचार और अनेक देवताओं की अपासना का खण्डन करके, वह एक ईश्वर (अल्लाह) की उपासना और शुद्ध तथा सरल धर्म के अनुष्ठान का उपदेश करते थे। ‘क़ुरैशी’ लोग अपने इष्ट, आचार और आमदनी की इस प्रकार निन्दा और उस पर इस प्रकार का कुठाराघात देखकर भी ‘हाशिम’- परिवार की चिरशत्रुता के भय से उन्हें मारने की हिम्मन न कर सकते थे। किन्तु इस नवीन धर्म-अनुयायी, दास-दासियों को तप्त बालू पर लिटाते, कोड़े मारते तथा बहुत कष्ट देते थे; तो भी धर्म के मतवाले प्राणपण से अपने धर्म को न छोड़ने के लिए तैयार थे। इस अमानुषिक असह्य अत्याचार को दिन पर दिन बढ़ते देख कर अन्त में महात्मा ने अनुयानियों को ‘अफ्रीका’ खण्ड के ‘हब्स’ नामक राज्य में- जहाँ का राजा बड़ा न्यायपरायण था- चले जाने की अनुमति दे दी। जैसे-जैसे मुसलमानों की संख्या बढ़ती जाती थी, ‘क़ुरैशी’ का द्वेष भी वैसे-वैसे बढ़ता जाता था; किन्तु ‘अबूतालिब’ के जीवन-पर्यन्त खुलकर उपद्रव करने की उनकी हिम्मत न होती थी। जब ‘अबूतालिब’ का देहान्त हो गया तो उन्होंने खुले तौर पर विरोध करने पर कमर बाँधी।

मदीना-प्रवास

अब महात्मा मुहम्मद की अवस्था 53 वर्ष की थी। उनकी स्त्री श्रीमती ‘खदीजा’ का देहान्त हो चुका था। एक दिन ‘क़ुरैशियों’ ने हत्या के अभिप्राय से उनके घर को चारों ओर से घेर लिया, किन्तु महात्मा को इसका पता पहले से ही मिल चुका था। उन्होंने पूर्व ही वहाँ से ‘यस्रिब्’ (मदीना) नगर को प्रस्थान कर दिया था। वहाँ के शिष्य-वर्ग ने अति श्रद्धा से गुरु सुश्रुषा करने की प्रार्थना की थी। पहुँचने पर उन्होंने महात्मा के भोजन, वासगृह आदि का प्रबन्ध कर दिया। जब से उनका निवास ‘यास्रिब’ में हुआ, तब से नगर का नाम ‘मदीतुन्नबी’ या नबी का नगर प्रख्यात हुआ। उसी को छोटा करके आजकल केवल ‘मदीना’ कहते है। ‘क़ुरान’ में तीस खण्ड हैं और वह 114 ‘सूरतों’ (अध्यायों) में भी विभक्त है।[3] निवास-क्रम से प्रत्येक सूरत ‘मक्की’ या ‘मद्नी’ नाम से पुकारी जाती है, अर्थात् मक्का में उतरी ‘सूरतें’ ‘मक्की’ और मदीना में उतरी ‘मद्नी’ कही जाती है।

भेद

इस्लाम धर्म के पाँच भेद किये जाते हैं-

  • नित्य,
  • नैमित्तिक,
  • काम्य,
  • असम्मत तथा
  • निषिद्ध।

नित्य वे आधारभूत हैं, जिन्हें हर रोज़ करना चाहिए। इस्लाम में निम्न पाँच कर्तव्यों को हर मुसलमान के लिए अनिवार्य बताया गया है-

  1. प्रतिदिन पाँच वक्त (फ़जर, जुहर, असर, मगरिब, इशा) नमाज़ पढ़ना
  2. ज़रूरतमंदों को ज़कात (दान) देना
  3. रमज़ान के महीने में सूर्योदय के पहले से लेकर सूर्यास्त तक रोज़ा रखना
  4. जीवन में कम से कम एक बार हज अर्थात् मक्का स्थित काबा की यात्रा करना तथा
  5. इस्लाम की रक्षा के लिए ज़िहाद (धर्मयुद्ध) करना।

नैमित्तिक कर्म वे कर्म हैं, जिन्हें करने पर पुण्य होता है, परन्तु न करने से पाप नहीं होता।

काम्य वे कर्म हैं जो किसी कामना की पूर्ति के लिए किए जाते हैं।

असम्मत वे कर्म हैं जिनकों करने की धर्म सम्मति तो नहीं देता, किन्तु करने पर कर्ता को दण्डनीय भी नहीं ठहराता।

निषिद्ध (हराम) कर्म वे हैं, जिन्हें करने की धर्म मनाही करता है और इसके कर्ता को दण्डनीय ठहराता है।

इस्लाम के सम्प्रदाय

इस्लाम में दो मुख्य सम्प्रदाय- शिया और सुन्नी मिलते हैं। मुहम्मद साहब की पुत्री फ़ातिमा और दामाद अली के बेटों हसन और हुसैन को पैगम्बर का उत्तराधिकारी मानने वाले मुसलमान 'शिया' कहलाते हैं। दूसरी ओर सुन्नी सम्प्रदाय ऐसा मानने से इन्कार करता है।

हिजरी संवत्

शुक्रवार, 16 जुलाई, 622 को हिजरी संवत् का प्रारम्भ हुआ, क्योंकि उसी दिन हज़रत मुहम्मद साहब मक्का के पुरोहितों एवं सत्ताधारी वर्ग के दबावों के कारण मक्का छोड़कर मदीना की ओर कूच कर गये थे। ख़लीफ़ा उमर की आज्ञा से प्रारम्भ हिजरी संवत् में 12 चन्द्रमास होते हैं। जिसमें 30 और 29 दिन के मास एक-दूसरे के बाद पड़ते हैं। वर्ष में 354 दिन होते हैं, फलतः यह सौर संवत् के वर्ष से 11 दिन छोटा हो जाता है। इस अन्तर को पूरा करने के लिए 30 वर्ष बाद ज़िलाहिज़ा महीन में कुछ दिन जोड़ दिये जाते हैं। हिजरी संवत् के महीनों के नाम इस प्रकार हैं—

  1. मोहर्रम-उल-हराम
  2. सफ़र
  3. रबी-उल-अव्वल
  4. उबी-उल-सानी
  5. जमादी-उल-अव्वल
  6. जमादी-उस-सानी
  7. रज़ब
  8. शाबान
  9. रमज़ान-उल-मुबारिक
  10. शवाल
  11. ज़ीकादा तथा
  12. जिज हिजा।

शरीयत

इस्लाम में शरीयत का तात्पर्य धार्मिक विधिशास्त्र से है। वे क़ानून, जो क़ुरान शरीफ़ तथा हदीस के विवरणों पर आधारित होते हैं तथा इस्लाम के आचार-व्यवहार का पालन करते है, शरीयत के अन्तर्गत आते हैं। शरीयत के चार प्रमुख स्रोत हैं—

  • क़ुरान मज़ीद,
  • हदीस या सुन्नत,
  • इज्माअ तथा
  • किआस।

इन चारों को इस्लाम की आधार शिला भी माना जाता है।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. इस्लाम का इतिहास (हिन्दी) इस्लाम धर्म। अभिगमन तिथि: 23 सितंबर, 2010
  2. ‘अलल्-हुब्ल’
  3. प्रत्येक अध्याय में अनेक ‘रकूअ’ और प्रत्येक ‘रकूअ’ में अनेक ‘आयते’ होती हैं।