कबीर
कबीरदास / Kabirdas / Kabir
महात्मा कबीरदास के जन्म के समय में भारत की राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं धार्मिक दशा शोचनीय थी। एक तरफ मुसलमान शासकों की धर्मांन्धता से जनता परेशान थी और दूसरी तरफ हिंदू धर्म के कर्मकांड, विधान और पाखंड से धर्म का ह्रास हो रहा था। जनता में भक्ति- भावनाओं का सर्वथा अभाव था। पंडितों के पाखंडपूर्ण वचन समाज में फैले थे। ऐसे संघर्ष के समय में, कबीरदास का प्रार्दुभाव हुआ।
जीवन परिचय
कबीरदास के जन्म के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी। उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया। उनकी माता का नाम "नीमा'था। उसी ने उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया। एक जगह कबीरदास ने कहा है :-
जाति जुलाहा नाम कबीरा
बनि बनि फिरो उदासी।
कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर का जन्म काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुआ। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानंद के प्रभाव से उन्हें हिंदू धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पंचगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगा स्नान करने के लिये सीढ़ियाँ उतर रहे थे कि तभी उनका पैर कबीर के शरीर पर पड़ गया। उनके मुख से तत्काल `राम-राम' शब्द निकल पड़ा। उसी राम को कबीर ने दीक्षा-मन्त्र मान लिया और रामानन्द जी को अपना गुरु स्वीकार कर लिया। कबीर के ही शब्दों में-
हम कासी में प्रकट भये हैं,
रामानन्द चेताये।
महात्मा कबीर के जन्म के विषय में भिन्न- भिन्न मत हैं। कबीरदास ने स्वयं को काशी का जुलाहा कहा है। कबीरपंथ के अनुसार उनका निवासस्थान काशी था। बाद में कबीरदास काशी छोड़कर मगहर चले गए थे। ऐसा उन्होंने स्वयं कहा हैं :-
सकल जनम शिवपुरी गंवाया।
मरती बार मगहर उठि आया।।
ऐसा कहा जाता है कि कबीरदास का सम्पूर्ण जीवन काशी में ही बीता, किन्तु वह अन्त समय मगहर चले गए थे।
अब कहु राम कवन गति मोरी।
तजीले बनारस मति भई मोरी।।
कबीर का विवाह कन्या "लोई' के साथ हुआ था। जनश्रुति के अनुसार उन्हें एक पुत्र कमाल तथा पुत्री कमाली थी। कबीर पढ़े-लिखे नहीं थे-
मसि कागद छूवो नहीं, क़लम गही नहिं हाथ।
कबीर का पुत्र कमाल उनके मत का विरोधी था।
बूड़ा बंस कबीर का, उपजा पूत कमाल।
हरि का सिमरन छोडि के, घर ले आया माल।
रचनायें
यह ऐसा संसार है, जैसा सेंबल फूल । दिन दस के व्यौहार को, झूठे रंग न भूलि ॥ - कबीर (कबीर ग्रथावली, पृ. 21) काजल केरी कोठरी, काजल ही का कोट । बलिहारी ता दास की, जे रहै राम की ओट ॥ - कबीर (कबीर ग्रथावली, पृ. 50) हम देखत जग जात हैं, जब देखत हम जांह । ऐसा कोई ना मिलै, पकड़ि छुड़ावै बांह ॥ - कबीर (कबीर ग्रथावली, पृ. 67) |
कबीरदास ने हिंदू-मुसलमान का भेद मिटा कर हिंदू-भक्तों तथा मुसलमान फकीरों का सत्संग किया और दोनों की अच्छी बातों को हृदयांगम कर लिया। संत कबीर ने स्वयं ग्रंथ नहीं लिखे, मुँह से बोले और उनके शिष्यों ने उसे लिख लिया। कबीरदास अनपढ़ थे। कबीरदास के समस्त विचारों में राम-नाम की महिमा प्रतिध्वनित होती है। वे एक ही ईश्वर को मानते थे और कर्मकाण्ड के घोर विरोधी थे। अवतार, मूर्त्ति, रोज़ा, ईद, मस्ज़िद, मंदिर आदि को वे नहीं मानते थे। कबीर के नाम से मिले ग्रंथों की संख्या भिन्न-भिन्न लेखों के अनुसार भिन्न-भिन्न है। कबीर की वाणी का संग्रह `बीजक' के नाम से प्रसिद्ध है। इसके तीन भाग हैं-
- रमैनी
- सबद
- साखी
भाषा
बीजक पंजाबी, राजस्थानी, खड़ी बोली, अवधी, पूरबी, ब्रजभाषा आदि कई भाषाओं की खिचड़ी है। कबीरदास ने बोलचाल की भाषा का ही प्रयोग किया है।
जीवन दर्शन
कबीर परमात्मा को मित्र, माता, पिता और पति के रूप में देखते हैं। वे कहते हैं- हरिमोर पिउ, मैं राम की बहुरिया । तो कभी कहते हैं- हरि जननी मैं बालक तोरा। उस समय हिंदु जनता पर मुस्लिम आतंक का कहर छाया हुआ था। कबीर ने अपने पंथ को इस ढंग से सुनियोजित किया जिससे मुस्लिम मत की ओर झुकी हुई जनता सहज ही इनकी अनुयायी हो गयी। उन्होंने अपनी भाषा सरल और सुबोध रखी ताकि वह आम आदमी तक पहुँच सके। इससे दोनों सम्प्रदायों के परस्पर मिलन में सुविधा हुई। इनके पंथ मुसलमान-संस्कृति और गोभक्षण के विरोधी थे। कबीर को शांतिमय जीवन प्रिय था और वे अहिंसा, सत्य, सदाचार आदि गुणों के प्रशंसक थे। अपनी सरलता, साधु स्वभाव तथा संत प्रवृत्ति के कारण आज विदेशों में भी उनका आदर होता है।
वृद्धावस्था में यश और कीर्त्ति ने उन्हें बहुत कष्ट दिया। उसी हालत में उन्होंने बनारस छोड़ा और आत्मनिरीक्षण तथा आत्मपरीक्षण करने के लिये देश के विभिन्न भागों की यात्राएँ कीं। इसी क्रम में वे कालिंजर ज़िले के पिथौराबाद शहर में पहुँचे। वहाँ रामकृष्ण का छोटा सा मन्दिर था। वहाँ के संत भगवान गोस्वामी जिज्ञासु साधक थे किंतु उनके तर्कों का अभी तक पूरी तरह समाधान नहीं हुआ था। संत कबीर से उनका विचार-विनिमय हुआ। कबीर की एक साखी ने उन के मन पर गहरा असर किया-
बन ते भागा बिहरे पड़ा, करहा अपनी बान।
करहा बेदन कासों कहे, को करहा को जान।।
मूर्त्ति पूजा को लक्ष्य करते हुए कबीरदास ने कहा है-
पाहन पूजे हरि मिलैं, तो मैं पूजौं पहार।
या ते तो चाकी भली, जासे पीसी खाय संसार।।
११९ वर्ष की अवस्था में उन्होंने मगहर में देह त्याग किया।