गयासुद्दीन बलबन

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बलबन

नसीरूद्दीन महमूद की मौत होने पर बलबन ने सिंहासन पर कब्‍ज़ा किया और दिल्ली पर राज किया। वर्ष 1246-86 तक बलबन ने अपने कार्यकाल में साम्राज्‍य का प्रशासनिक ढांचा सुगठित किया तथा इल्तुतमिश द्वारा शुरू किए गए कार्यों को पूरा किया।

सिंहासन पर

एक तुर्क सरदार 'उलघु ख़ाँ' ने, जिसे उसके बाद के नाम, 'बलबन' से जाना जाता है, धीरे-धीरे सारी शक्ति अपने हाथों में केन्द्रित कर ली और वह 1265 में सिंहासन पर बैठा। उसके सिंहासन पर बैठने के बाद तुर्क सरदार और शासन के बीच संघर्ष रुका।

नसीरुद्दीन महमूद का नायब

आरम्भ में बलबन अल्तमश के छोटे पुत्र नसीरुद्दीन महमूद का नायब था, जिसे उसने 1246 में गद्दी पर बैठने में मदद की थी। बलबन ने अपनी एक पुत्री का विवाह युवा सुल्तान से करवा कर अपनी स्थिति और मज़बूत कर ली। बलबन की बढ़ती शक्ति उन तुर्क सरदारों की आंखों में चुभ रही थी जो नसीरुद्दीन महमूद के युवा और अनुभवहीन होने के कारण शासन में अपना प्रभाव क़ायम रखना चाहते थे।

बलबन के विरुद्ध षड़यंत्र

उन्होंने मिल कर 1250 में बलबन के विरुद्ध एक षड़यंत्र रचा और बलबन को पदच्युत करवा दिया। बलबन के स्थान पर एक भारतीय मुसलमान 'इमादुद्दीन रिहान' की नियुक्ति हुई। यद्यपि तुर्क सरदार सारे अधिकारों और सारी शक्ति को अपने ही हाथों में रखना चाहते थे तथापि वे रिहान की नियुक्ति के लिए इसलिए राज़ी हो गए क्योंकि वे इस बात पर एकमत नहीं हो सके कि उनमें से बलबन के स्थान पर किसकी नियुक्ति हो। बलबन ने अपना पद छोड़ना स्वीकार तो कर लिया, पर वह चुपके-चुपके अपने समर्थकों को इकट्ठा भी करता रहा।

शक्ति परीक्षा

पदच्युत होने के दो वर्षों के अन्दर ही बलबन अपने कुछ विरोधियों को जीतने में सफल हो गया। अब वह शक्ति परीक्षा के लिए तैयार था। ऐसा लगता है कि बलबन ने पंजाब के एक बड़े क्षेत्र पर क़ब्ज़ा करने वाले मंगोलों से भी सम्पर्क स्थापित किया। सुल्तान महमूद को बलबन की शक्ति के आगे घुटने टेकने पड़े और उसने रिहान को बर्ख़ास्त कर दिया। कुछ समय बाद रिहान पराजित हुआ और उसे मार दिया गया। बलबन ने उचित-अनुचित तरीक़ों से अपने अन्य विरोधियों को भी समाप्त कर दिया। अब उसने राजसी प्रतीक 'छत्र' को भी ग्रहण कर लिया, पर इतना होने पर भी सम्भवतः तुर्क सरदारों की भावनाओं को ध्यान में रख वह सिंहासन पर नहीं बैठा। सुल्तान महमूद की 1265 में मृत्यु हो गई। कुछ इतिहासकारों का मत है कि बलबन ने सुल्तान को ज़हर देकर मार दिया और सिंहासन के अपने रास्ते को साफ करने के लिए उसके पुत्रों की भी हत्या कर दी। बलबन द्वारा अपनाए गए उपाय बहुत बार अनुचित और अवांछनीय होते थे, पर इसमें कोई संदेह नहीं कि उसके सिंहासन पर बैठने के साथ ही एक शक्तिशाली केन्द्रीय सरकार के युग का आरम्भ हुआ।

अफ़रासियान का वंशज

बलबन का विश्वास था कि आंतरिक और बाहरी ख़तरों का सामना करने का एकमात्र उपाय सम्राट के सम्मान और उसकी शक्ति को बढ़ाना है और इस कारण वह बराबर इस बात का प्रयत्न करता रहा। उस काल में मान्यता थी कि अधिकार और शक्ति केवल राजसी और प्राचीन वंशों का विशेषाधिकार है। उसी के अनुरूप बलबन ने भी सिंहासन के अपने दावे को मज़बूत करने के लिए घोषणा की कि वह कहानियों में प्रसिद्ध तुर्क योद्धा 'अफ़रासियान' का वंशज है। राजसी वंशज से अपने सम्बन्धों के दावों को मज़बूत करने के लिए बलबन ने स्वयं को तुर्क सरदारों के अग्रणी के रूप में प्रदर्शित किया। उसने शासन के उच्च पदों के लिए केवल उच्च वंश के सदस्यों को स्वीकार करना आरम्भ किया। इसका अर्थ यह था कि भारतीय मुसलमान इन पदों से वंचित रह जाते थे। बलबन कभी-कभी तो इस बात की हद कर देता था। उदाहरणार्थ उसने एक ऐसे बड़े व्यापारी से मिलना अस्वीकार कर दिया जो ऊँचे ख़ानदान का नहीं था। इतिहासकार 'ईरानी' ने, जो स्वयं ख़ानदानी तुर्कों का समर्थक था, अपनी रचना में बलबन से यह कहलवाया है- 'जब भी मैं किसी नीच वंश के आदमी को देखता हूँ तो क्रोध से मेरी आँखें जलने लगती हैं और मेरे हाथ मेरी तलवार तक (उसे मारने के लिए) पहुँच जाते हैं।' बलबन ने वास्तव में ऐसे शब्द कहे थे या नहीं, लेकिन इनसे सम्भवतः गैर-तुर्कों के प्रति उसके दृष्टिकोण के बारे में पता चलता है।

शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन

ख़ानदानी तुर्क सरदारों का स्वयं को अग्रणी बताते हुए भी बलबन अपनी शक्ति में किसी को, यहाँ तक की अपने परिवार के सदस्यों को भी, हिस्सेदार बनाने के लिए तैयार नहीं था। उसकी तानाशाही इस हद तक थी कि और तो और वह अपने किसी समर्थ की भी आलोचना सहन नहीं कर सकता था। उसका एक प्रधान कार्य 'चहलगानी' की शक्ति को समाप्त कर सम्राट की शक्ति को मज़बूत करना था। इस लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए वह अपने सम्बन्धी 'शेर ख़ाँ' को ज़हर देकर मारने में भी नहीं हिचका। लेकिन साथ-साथ जनता के समर्थन और विश्वास को प्राप्त करने के लिए वह न्याय के मामले में थोड़ा भी पक्षपात नहीं करता था। अपने अधिकार की अवहेलना करने पर वह बड़े से बड़े व्यक्ति को भी नहीं छोड़ता था। इस प्रकार ग़ुलामों के प्रति दुर्व्यवहार करने पर बदायूँ तथा अवध के शासकों के पिताओं को कड़ी सजा दी गई। राज्य की सभी प्रकार की सूचना प्राप्त करने के लिए बलबन ने हर विभाग में अपने जासूस तैनात कर दिए। आंतरिक विद्रोहों तथा पंजाब में जमे हुए मंगोलों से मुक़ाबला करने के लिए एक शक्तिशाली केन्द्रीय सेना का संगठन किया। इन मंगोलों से दिल्ली सल्तनत को गम्भीर ख़तरा बना हुआ था। इसके लिए उसने सैनिक विभाग 'दीवान-ई-अर्ज़' को पुनर्गठित किया और ऐसे सैनिकों को पेंशन देकर सेवा मुक्त किया जो अब सेवा के लायक नहीं रह गए थे, क्योंकि इनमें से अधिकतर सैनिक तुर्क थे और अल्तमश के हिन्दुस्तान आए थे। उन्होंने बलबन के इस क़दम के विरोध में अपनी आवाज़ उठाई, पर बलबन ने उनकी एक न सुनी।

राजपूतों की स्वतंत्रता

दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों तथा दोआब में अल्तमश की मृत्यु के बाद क़ानून और व्यवस्था की हालत बिगड़ गयी थी। गंगा-यमुना दोआब तथा अवध में सड़कों की स्थिति ख़राब थी और चारों ओर डाकुओं के भय के कारण वे इतनी असुरक्षित थीं कि पूर्वी क्षेत्रों से सम्पर्क रखना कठिन हो गया। कुछ राजपूत ज़मीदारों ने इस क्षेत्र में क़िले बना लिए थे और अपनी स्वतंत्रता घोषित कर दी थी। मेवातियों में दिल्ली के आसपास के क्षेत्रों में लूटपाट करने का साहस आ गया था। बलबन ने इन तत्वों का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया। डाकुओं का पीछा कर उन्हें बर्बरता से मौत के घाट उतार दिया गया। बदायूँ के आसपास के क्षेत्रों में राजपूतों के क़िलों को तोड़ दिया गया तथा जंगलों को साफ़ कर वहाँ अफ़ग़ान सैनिकों बस्तियाँ बना दी गईं, ताकि वे सड़कों की सुरक्षा कर सकें और राजपूत ज़मीदारों के शासन के विरुद्ध विद्रोहों को तुरन्त कुचल सकें।

इस्लाम के नेता का रूप

इन कठोर तरीक़ों से बलबन ने स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। लोगों को अपनी शक्ति से प्रभावित करने के लिए उसने अपने दरबार की शान-शौक़त को बढ़ाया। वह जब भी बाहर निकलता था, उसके चारों तरफ़ अंगरक्षक नंगी तलवारें लिए चलते थे। उसने दरबार में हँसी-मज़ाक समाप्त कर दिया और यह सिद्ध करने के लिए कि उसके सरदार उसकी बराबरी नहीं कर सकते, उनके साथ शराब पीना बंद कर दिया। उसने 'सिज्दा' और 'पैबोस' (सम्राट के सामने झुक कर उसके पैरों को चूमना) के रिवाजों को आवश्यक बना दिया। ये और उसके द्वारा अपनाए गए कई अन्य रिवाज मूलतः ईरानी थे और उन्हें ग़ैर-इस्लामी समझा जाता था। लेकिन इसके बावजूद उनका विरोध करने की किसी में भी हिम्मत नहीं थी। क्योंकि ऐसे समय में जब मध्य और पश्चिम एशिया में मंगोलों के आक्रमण से अधिकतर इस्लामी साम्राज्य ख़त्म हो चुके थे, बलबन और दिल्ली सल्तनत को ही इस्लाम के नेता के रूप में देखा जाने लगा था।

मृत्यु

बलबन की 1286 में मृत्यु हो गई। वह निस्संदेह दिल्ली सल्तनत और विशेषकर उसके प्रशासन के प्रमुख प्रतिष्ठाताओं में से एक था। सम्राट के अधिकारों को प्रमुखता देकर बलबन ने दिल्ली सल्तनत की शक्ति को भी मज़बूत किया, लेकिन वह मंगोलों के आक्रमण से भारत की उत्तरी सीमा को पूरी तरह नहीं बचा सका। इसके अलावा ग़ैर-तुर्कों को उच्च पदों पर नियुक्त न करने और प्रशासन के आधार को संकीर्ण बनाने की नीति से लोगों में असंतोष फैला, जिसके कारण उसकी मृत्यु के बाद नये विद्रोह आरम्भ हो गए।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ