श्यामसुन्दर दास
डॉ. श्यामसुन्दर दास (जन्म- 1875 ई., काशी; मृत्यु- 1945 ई.) ने जिस निष्ठा से हिन्दी के अभावों की पूर्ति के लिये लेखन कार्य किया और उसे कोश, इतिहास, काव्यशास्त्र भाषाविज्ञान, अनुसंधान पाठ्यपुस्तक और सम्पादित ग्रन्थों से सजाकर इस योग्य बना दिया कि वह इतिहास के खंडहरों से बाहर निकलकर विश्वविद्यालयों के भव्य-भवनों तक पहुँची।
जीवन परिचय
श्यामसुन्दर दास का जन्म सन 1875 ई. काशी (वाराणसी) में हुआ था। इनके पूर्वज लाहौर के निवासी थे और पिता लाला देवी दास खन्ना काशी में कपड़े का व्यापार करते थे। इन्होंने 1897 ई. में बी.ए. पास किया था। यह 1899 ई. में हिन्दू स्कूल में कुछ दिनों तक अध्यापक रहे। उसके बाद लखनऊ के कालीचरन स्कूल में बहुत दिनों तक हैडमास्टर रहे। सन 1921 ई. में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के हिन्दी विभाग के अध्यक्ष पद पर नियुक्त हुए।
अनन्य निष्ठा
श्यामसुन्दर दास जी की प्रारम्भ से ही हिन्दी के प्रति अनन्य निष्ठा थी। नागरी प्रचारिणी सभा की स्थापना 16 जुलाई, सन 1893 ई. को इन्होंने विद्यार्थी काल में ही अपने दो सहयोगियों रामनारायण मिश्र और ठाकुर शिव कुमार सिंह की सहायता से की थी। काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में आने के पूर्व इन्होंने हिन्दी साहित्य की सर्वतोमुखी समृद्धि के लिए न्यायालयों में हिन्दी प्रवेश का आन्दोलन (1900 ई.), हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज (1899 ई.), आर्य भाषा पुस्तकालय की स्थापना (1903 ई.), प्राचीन महत्वपूर्ण ग्रन्थों का सम्पादन सभा-भवन का निर्माण (1902 ई.), 'सरस्वती पत्रिका' का सम्पादन (1900 ई.) तथा शिक्षास्तर के अनुयप पाठ्य पुस्तकों का निर्माण कार्य आरम्भ कर दिया था। निश्चित योजना और अदम्य साहस के अभाव में अनेक दिशाओं में एक साथ सफलतापूर्वक कार्य आरम्भ करना सम्भव नहीं था। यह आजीवन एक गति से साहित्य सेवा में लगे रहे।
कृतियाँ
श्यामसुन्दर दास जी ने परिचयात्मक और आलोचनात्मक ग्रंथ लिखने के साथ ही कई दर्जन पुस्तकों का संपादन किया। पाठ्यपुस्तकों के रूप में इन्होंने कई दर्जन सुसंपादित संग्रह ग्रंथ प्रकाशित कराए। श्यामसुन्दर दास की साहित्य-कृतियाँ निम्नलिखित हैं।
सन | कृतियाँ |
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1896 | नागरी वर्णमाला |
1900- 1905 | हिन्दी हस्तलिखित ग्रन्थों का वार्षिक खोज विवरण |
1906- 1908 | हिन्दी हस्तलिखित ग्रन्थों की खोज |
1909 | 'हिन्दी कोविद रत्नमाला' भाग 1, 2 |
1923 | साहित्यलोचन |
1924 | भाषा विज्ञान |
1924 | हिन्दी भाषा का विकास |
1923 | हस्तलिखित हिन्दी ग्रन्थों का संक्षिप्त विवरण |
1925 | गद्य कुसुमावली |
1927 | भारतेन्दु हरिश्चन्द्र |
1930 | हिन्दी भाषा और साहित्य |
1931 | गोस्वामी तुलसीदास |
1931 | रूपक रहस्य |
1935 | भाषा रहस्य' भाग 1 |
1940 | हिन्दी गद्य के निर्माता' भाग 1,2 |
1942 | मेरी आत्म कहानी |
सन | कृतियाँ |
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1901 | 'चन्द्रावली' अथवा 'नासिकेतोपाख्यान' |
1903 | छत्र प्रकाश |
1904 | रामचरितमानस |
1904 | पृथ्वीराज रासो |
1906 | हिन्दी वैज्ञानिक कोश |
1906 | वनिता विनोद |
1906 | इन्द्रावती भाग 1 |
1908 | हम्मीर रासो |
1908 | शकुन्तला नाटक |
1911 | प्रथम हिन्दी साहित्य सम्मेलन की लेखावली |
1908 | बाल विनोद |
1916 | हिन्दी शब्द सागर' खण्ड 1-4 |
1920 | मेघदूत |
1921 | दीनदयाल गिरि ग्रन्थावली |
1921 | परमाल रासो |
1923 | अशोक की धर्मालिपियाँ |
1925 | रानी केतकी की कहानी |
1927 | भारतेन्दु नाटकावली |
1928 | कबीर ग्रन्थावली |
1930 | राधाकृष्ण ग्रन्थावली |
1933 | सतसई सप्तक |
1933 | द्विवेदी अभिनन्दन ग्रन्थ |
1933 | रत्नाकर |
1935 | बाल शब्द सागर |
1945 | त्रिधारा |
नागरी प्रचारिणी पत्रिका' (1-18 भाग) | |
'मनोरंजन पुस्तक माला' (1-50 संख्या) | |
1900 | सरस्वती |
पाठ्य पुस्तकें (संग्रह)-
'भाषा सार संग्रह' भा. 1 (1902 ई.), 'भाषा पत्र बोध' (1902 ई.), 'प्राचीन लेख मणिमाला' (1903 ई.), 'आलोक चित्रण' (1902 ई.), 'हिन्दी पत्र लेखन' (1904 ई.), 'हिन्दी प्राइमर' (1905 ई.), 'हिन्दी की पहली पुस्तक' (1905 ई.), 'हिन्दी ग्रामर' (1906 ई.), 'गवर्नमेण्ट आफ़ इण्डिया' (1908 ई.), 'हिन्दी संग्रह' (1908 ई.), 'बालक विनोद' (1908 ई.), 'सरल संग्रह' (1919 ई.), 'नूतन संग्रह' (1919 ई.), 'अनुलेख माला' (1919 ई.), 'नयी हिन्दी रीडर' भाग 6, 7 (1923), 'हिन्दी संग्रह' भाग 1, 2 (1925 ई.), 'हिन्दी कुसुम संग्रह' भाग 1,2 (1925 ई.), 'हिन्दी कुसुमावली' (1927 ई.), 'हिन्दी प्रोज सेलेक्शन' (1927 ई.), 'साहित्य सुमन' भाग 1-4 (1928 ई.), 'गद्य रत्नावली' (1931 ई.), 'साहित्य प्रदीप' (1932 ई.), 'हिन्दी गद्य कुसुमावली' भाग 1, 2 (1936 ई.), 'हिन्दी प्रवेशिका पद्यावली' (1939 ई.), 'हिन्दी गद्य संग्रह' (1945 ई.), 'साहित्यिक लेख' (1945 ई.)।
उपर्युक्त कृतियों के अतिरिक्त आपके विभिन्न विषयों पर लिखे गये स्फुट निबन्धों और विभिन्न सम्मेलनों के अवसर पर दी गयी वक्तृताओं की सम्मिलित संख्या 41 है। इस विस्तृत सामग्री का अनुशीलन करने से स्पष्ट है कि आपकी सतर्क दृष्टि हिन्दी के समस्त अभावों को लक्ष्य कर रही थी और आप पूरी निष्ठा से उन्हें दूर करने में प्रयत्नशील थे। वस्तुत: आप बहुत अच्छे प्रबन्धक थे। आपने विविध क्षेत्रों में हिन्दी के अभावों की पूर्ति के लिए आवश्यक सामग्री प्रस्तुत कर देने की चेष्टा की है। इसीलिए आप पूरी शक्ति का प्रयोग किसी एक क्षेत्र में नहीं कर सके हैं। इसीलिए लेखक के रूप में, आलोचक के रूप में, सम्पादक के रूप में, काव्यकृतियों और सिद्धान्तों के व्याख्याता के रूप में या भाषा-तत्त्ववेत्ता के रूप में, चाहे जिस रूप में देखा जाए, सर्वत्र यही स्थिति है, किन्तु इससे आपका महत्व या मूल्य कम नहीं होता है। कृति का मूल्य बहुत कुछ उसमें निहित रचनाविवेक और दृष्टिकोण पर आधृत होता है। “हिन्दी आलोचना का सैद्धान्तिक आधार संस्कृत और अंग्रेज़ी दोनों की काव्य शास्त्रीय मान्यताओं के समन्वय में प्रस्तुत होना चाहिए। हिन्दी साहित्य के इतिहास निर्माण में कवियों के इतिवृत्त के साथ युगानुकूल ऐतिहासिक परिस्थितियों का विवेचन तथा काव्य और कला में तात्विक एकता होने के कारण, काव्य विकास के साथ कला विकास का अध्ययन भी प्रस्तुत किया जाना चाहिए। सम्पादन में कृतियों की प्राचीनतम प्रति को अन्य भाषाओं का सामान्य परिचय और हिन्दी के ऐतिहासिक विकास का ज्ञान होना चाहिए”-रचना और अध्ययन का यह विवेक श्यामसुन्दरदास की बहुत बड़ी देन है। अभावों की शीघ्रातिशीघ्र पूर्ति को लक्ष्य में रखकर नियोजित ढंग से होने वाले निर्माण कार्य में व्यापकता, वैविध्य और स्थूल उपयोगिता का दृष्टिकोण ही प्रधान होता है। आपके सामने भी यही दृष्टिकोण था, इसीलिए आपमें मौलिकता और गहराई का अपेक्षाकृत अभाव है। व्यक्ति का मूल्य युग की सापेक्षता में ही आँका जाना चाहिए। आपकी बुद्धि विमल, दृष्टि साफ, हृदय उदार और दृष्टिकोण समन्वयवादी था। क्या साहित्य और क्या भाषा, सभी के संघटन में आपने औचित्य और सामंजस्य का ध्यान रखा है। हिन्दी भाषा के संघटन के सम्बन्ध में विचार करते हुए आपने हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत और अरबी-फ़ारसी के शब्दों को भी ग्रहण करने की बात कही है। किन्तु वरीयता के क्रम से पहला स्थान शुद्ध हिन्दी शब्दों को, दूसरा संस्कृत के सुगम शब्दों को और तीसरा फ़ारसी आदि विदेशी भाषाओं के साधारण और प्रचलित शब्दों को दिया है। भाषासम्बन्धी यह दृष्टिकोण सभी विवेकशील व्यक्तियों को मान्य हैं। व्यावहारिक आलोचना के क्षेत्र में भी आप सामजस्य को लेकर चले हैं। इसीलिए आपकी आलोचना पद्धति में ऐतिहासिक व्याख्या, विवेचना, तुलना, निष्कर्ष, निर्णय आदि अनेक तत्व सन्निहित हैं। विदेशी साहित्य के प्रभाव से आक्रान्त हिन्दी जनता को आप जैसे उदार, विवेकशील, सतर्क, कर्मठ, स्वाभिमानी और समन्वयवादी नेता के कुशल नेतृत्व की ही आवश्यकता थी।
अपने जीवन के पचास वर्षों में अनवरत रूप से हिन्दी की सेवा करते हुए आपने इसे कोश, इतिहास, काव्यशास्त्र, भाषा विज्ञान, शोधकार्य, उपयोगी साहित्य, पाठ्य पुस्तक और सम्पादित ग्रन्थ आदि से समृद्ध किया, उसके महत्व की प्रतिष्ठा की, उसकी आवाज को जन-जन तक पहुँचाया। उसे खण्डहरों से उठाकर विश्वविद्यालयों के भव्य-भवनों में प्रतिष्ठित किया। वह अन्य भाषाओं के समकक्ष बैठने की अधिकारिणी हुई। हिन्दी साहित्य सम्मेलन ने आपको 'साहित्य वाचस्पति' और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय ने 'डी.लिट्.' की उपाधि देकर आपकी सेवाओं का महत्व स्वीकार किया।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ