सगर

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सगर / Sagar

  • राजा दशरथ के पूर्वजों में राजा सगर हुए थे। सगर के पिता का नाम असित था। वे अत्यंत पराक्रमी थे। हैहय, तालजंघ, शूर और शशिबिंदु नामक राजा उनके शत्रु थे। उनसे युद्ध करते-करते राज्य त्यागकर उन्हें अपनी दो पत्नियों के साथ हिमालय भाग जाना पड़ा। वहां कुछ काल बाद उनकी मृत्यु हो गयी। उनकी दोनों पत्नियां गर्भवती थीं। उनमें से एक का नाम कालिंदी था। कालिंदी की संतान नष्ट करने के लिए उसकी सौत ने उसको विष दे दिया। कालिंदी अपनी संतान की रक्षा के निमित्त भृगुवंशी महर्षि च्यवन के पास गयी। महर्षि ने उसे आश्वासन दिया कि उसकी कोख से एक प्रतापी बालक विष के साथ (स+गर) जन्म लेगा। अत: उसके पुत्र का नाम सगर पड़ा।<balloon title="बाल्मीकि रामायण, बालकांड, 70।27-37" style=color:blue>*</balloon>
  • सगर अयोध्या नगरी के राजा हुए। वे संतान प्राप्त करने के इच्छुक थे। उनकी सबसे बड़ी रानी विदर्भ नरेश की पुत्री केशिनी थी। दूसरी रानी का नाम सुमति था। दोनों रानियों के साथ राजा सगर ने हिमवान के प्रस्त्रवण गिरि पर तप किया। प्रसन्न होकर भृगु मुनि ने उन्हें वरदान दिया कि एक रानी को वंश चलाने वाले एक पुत्र की प्राप्ति होगी और दूसरी के साठ हजार वीर उत्साही पुत्र होंगे। बड़ी रानी के एक पुत्र और छोटी ने साठ हजार पुत्रों की कामना की। केशिनी का असमंजस नामक एक पुत्र हुआ और सुमति के गर्भ से एक तूंबा निकला जिसके फटने पर साठ हजार पुत्रों का जन्म हुआ। असमंजस बहुत दुष्ट प्रकृति का था। अयोध्या के बच्चों को सताकर प्रसन्न होता था। सगर ने उसे अपने देश से निकाल दिया। कालांतर में उसका पुत्र हुआ, जिसका नाम अंशुमान था। वह वीर, मधुरभाषी और पराक्रमी था।<balloon title="बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, 38।1-24" style=color:blue>*</balloon>
  • राजा सगर ने विंध्य और हिमालय के मध्य यज्ञ किया। सगर के पौत्र अंशुमान यज्ञ के घोड़े की रक्षा कर रहे थे। जब अश्ववध का समय आया तो इन्द्र राक्षस का रूप धारण कर घोड़ा चुरा ले गये। सगर ने अपने साठ हजार पुत्रों को आज्ञा दी कि वे पृथ्वी खोद-खोदकर घोड़े को ढूंढ़ लायें। जब तक वे नहीं लौटेंगे, सगर और अंशुमान दीक्षा लिये यज्ञशाला में ही रहेंगे। सगर-पुत्रों ने पृथ्वी को बुरी तरह खोद डाला तथा जंतुओं का भी नाश किया। देवतागण ब्रह्मा के पास पहुंचे और बताया कि पृथ्वी और जीव-जंतु कैसे चिल्ला रहे हैं। ब्रह्मा ने कहा कि पृथ्वी विष्णु भगवान की स्त्री हैं वे ही कपिल मुनि का रूप धारण कर पृथ्वी की रक्षा करेंगे। सगर-पुत्र निराश होकर पिता के पास पहुंचे। पिता ने रुष्ट होकर उन्हें फिर से अश्व खोजने के लिए भेजा। हजार योजन खोदकर उन्होंने पृथ्वी धारण करने वाले विरूपाक्ष नामक दिग्गज को देखा। उसका सम्मान कर फिर वे आगे बढ़े। दक्षिण में महापद्म, उत्तर में श्वेतवर्ण भद्र दिग्गज तथा पश्चिम में सोमनस नामक दिग्गज को देखा। तदुपरांत उन्होंने कपिल मुनि को देखा तथा थोड़ी दूरी पर अश्व को चरते हुए पाया। उन्होंने कपिल मुनि का निरादर किया, फलस्वरूप मुनि के शाप से वे सब भस्म हो गये। बहुत दिनों तक पुत्रों को लौटता न देख राजा सगर ने अंशुमान को अश्व ढूंढ़ने के लिए भेजा। वे ढूंढ़ने-ढूंढ़ते अश्व के पास पहुंचे जहां सब चाचाओं की भस्म का स्तूप पड़ा था। जलदान के लिए आसपास कोई जलाशय भी नहीं मिला। तभी पक्षीराज गरुड़ उड़ते हुए वहां पहुंचे और कहा कि 'ये सब कपिल मुनि के शाप से हुआ है, अत: साधारण जलदान से कुछ न होगा। गंगा का तर्पण करना होगा। इस समय तुम अश्व लेकर जाओ और पिता का यज्ञ पूर्ण करो।' उन्होंने ऐसा ही किया।<balloon title="बाल्मीकि रामायण, बाल कांड, 39।1-26,40।1-30, 41।1-27" style=color:blue>*</balloon>

महाभारत के अनुसार

इक्ष्वाकुवंश में सगर नामक प्रसिद्ध राजा का जन्म हुआ था। उनकी दो रानियां थीं- वैदर्भी तथा शैव्या। वे दोनों अपने रूप तथा यौवन के कारण बहुत अभिमानिनी थीं। दीर्घकाल तक पुत्र-जन्म न होने पर राजा अपनी दोनों रानियों के साथ कैलास पर्वत पर जाकर पुत्रकामना से तपस्या करने लगे। शिव ने उन्हें दर्शन देकर वर दिया कि एक रानी के साठ हजार अभिमानी शूरवीर पुत्र प्राप्त होंगे तथा दूसरी से एक वंशधर पराक्रमी पुत्र होगा। कालांतर में वैदर्भी ने एक तूंबी को जन्म दिया। राजा उसे फेंक देना चाहते थे किंतु तभी आकाशवाणी हुई कि इस तूंबी में साठ हजार बीज हैं। घी से भरे एक-एक मटके में एक-एक बीज सुरक्षित रखने पर कालांतर में साठ हजार पुत्र प्राप्त होंगे। इसे महादेव का विधान मानकर सगर ने उन्हें वैसे ही सुरिक्षत रखा तथा उन्हें साठ हजार उद्धत पुत्रों की प्राप्ति हुई। वे क्रूरकर्मी बालक आकाश में भी विचर सकते थे। तथा सब को बहुत तंग करते थे। शैव्या ने असमंजस नामक पुत्र को जन्म दिया। वह पुरवासियों के दुर्बल बच्चों को गर्दन से पकड़कर मार डालता था। अत: राजा ने उसका परित्याग कर दिया। असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान था। राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ की दीक्षा ली। उसके साठ हजार पुत्र घोड़े की सुरक्षा में लगे हुए थे तथापि वह घोड़ा सहसा अदृश्य हो गया। उसको ढूंढ़ते हुए वैदर्भी पुत्रों ने पृथ्वी में एक दरार देखी। उन्होंने वहां खोदना प्रारंभ कर दिया। निकटवर्ती समुद्र को इससे बहुत पीड़ा का अनुभव हो रहा था। हजारों नाग, असुर आदि उस खुदाई में मारे गये। फिर उन्होंने समुद्र के पूर्ववर्ती प्रदेश को फोड़कर पाताल में प्रवेश किया जहां पर अश्व विचर रहा था और उसके पास ही कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे। हर्ष के आवेग में उनसे मुनि का निरादर हो गया, अत: मुनि ने अपनी दृष्टि के तेज से उन्हें भस्म कर दिया। नारद ने यह कुसंवाद राजा सगर तक पहुंचाया। पुत्र-विछोह से दुखी राजा ने अशुंमान को बुलाकर अश्व को लाने के लिए कहा। अंशुमान ने कपिल मुनि को प्रणाम कर अपने शील के कारण उनसे दो वर प्राप्त किये। पहले वर के अनुसार उसे अश्व की प्राप्ति हो गयी तथा दूसरे वर से पितरों की पवित्रता मांगी। कपिल मुनि ने कहा-'तुम्हारे प्रताप से मेरे द्वारा भस्म किये गये तुम्हारे पितर स्वर्ग प्राप्त करेंगे। तुम्हारा पौत्र शिव को प्रसन्न कर सगर-पुत्रों की पवित्रता के लिए स्वर्ग से गंगा को पृथ्वी पर ले आयेगा।' अंशुमान के लौटने पर सगर ने अश्वमेध यज्ञ पूर्ण किया।<balloon title="महाभारत, वनपर्व, अध्याय 106, 107" style=color:blue>*</balloon>

श्रीमद् भागवत के अनुसार

रोहित के कुल में बाहुक का जन्म हुआ। शत्रुओं ने उसका राज्य छीन लिया। वह अपनी पत्नी सहित वन चला गया। वन में बुढ़ापे के कारण उसकी मृत्यु हो गयी। उसके गुरु ओर्व ने उसकी पत्नी को सती नहीं होने दिया क्योंकि वह जानता था कि वह गर्भवती है। उसकी सौतों को ज्ञात हुआ तो उन्होंने उसे विष दे दिया। विष का गर्भ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। बालक विष (गर) के साथ ही उत्पन्न हुआ, इसलिए 'सगर' कहलाया। बड़ा होने पर उसका विवाह दो रानियों से हुआ- सुमति तथा केशिनी। सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। इन्द्र ने उसके यज्ञ का घोड़ा चुरा लिया तथा तपस्वी कपिल के पास ले जाकर खड़ा किया। उधर सगर ने सुमति के पुत्रों को घोड़ा ढूंढ़ने के लिए भेजा। साठ हजार राजकुमारों को कहीं घोड़ा नहीं मिला तो उन्होंने सब ओर से पृथ्वी खोद डाली। पूर्व-उत्तर दिशा में कपिल मुनि के पास घोड़ा देखकर उन्होंने शस्त्र उठाये और मुनि को बुरा-भला कहते हुए उधर बढ़े। फलस्वरूप उनके अपने ही शरीरों से आग निकली जिसने उन्हें भस्म कर दिया। केशिनी के पुत्र का नाम असमंजस तथा असमंजस के पुत्र का नाम अंशुमान था। असमंजस पूर्वजन्म में योगभ्रष्ट हो गया था, उसकी स्मृति खोयी नहीं थी, अत: वह सबसे विरक्त रह विचित्र कार्य करता रहा था। एक बार उसने बच्चों को सरयू में डाल दिया। पिता ने रुष्ट होकर उसे त्याग दिया। उसने अपने योगबल से बच्चों को जीवित कर दिया तथा स्वयं वन चला गया। यह देखकर सबको बहुत पश्चात्ताप हुआ। राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को घोड़ा खोजने भेजा। वह ढूंढ़ता-ढूंढ़ता कपिल मुनि के पास पहुंचा। उनके चरणों में प्रणाम कर उसने विनयपूर्वक स्तुति की। कपिल से प्रसन्न होकर उसे घोड़ा दे दिया तथा कहा कि भस्म हुए चाचाओं का उद्धार गंगाजल से होगा। अंशुमान ने जीवनपर्यंत तपस्या की किंतु वह गंगा को पृथ्वी पर नहीं ला पाया। तदनंतर उसके पुत्र दिलीप ने भी असफल तपस्या की। दिलीप के पुत्र भगीरथ के तप से प्रसन्न होकर गंगा ने पृथ्वी पर आना स्वीकार किया। गंगा के वेग को शिव ने अपनी जटाओं में संभाला। भगीरथ के पीछे-पीछे चलकर गंगा समुद्र तक पहुंची। समुद्र-संगम पर पहुंचकर उसने सगर के पुत्रों का उद्धार किया। सब लोग गंगा से अपने पाप धोते हैं। उन पापों के बोझ से भी गंगा मुक्त रहती है। विरक्त मनुष्यों में भगवान निवास करता है, अत: उनके स्नान करने से गंगाजल में घुले सब पाप नष्ट हो जाते हैं।<balloon title="श्रीमद् भागवत, नवम स्कंध, अध्याय 8,9।1-15/ शिव पुराण, 4।3।" style=color:blue>*</balloon>

ब्रह्म पुराण के अनुसार

राजा बाहु दुर्व्यसनी था। हैहय तथा तालजंघ ने शक, पारद, यवन, कांबोज और पल्लव की सहायता से उसके राज्य का अपहरण कर लिया। बाहु ने वन में जाकर प्राण त्याग किये। उसकी गर्भवती पत्नी सती होना चाहती थी। गर्भवती पत्नी को उसकी सौत ने विष दे दिया था, किंतु उसकी मृत्यु नहीं हुई थी) भृगुवंशी और्व ने दयावश उसे बचा लिया। मुनि के आश्रम में ही उसने विष के साथ ही पुत्र को जन्म दिया जिसका नाम सगर पड़ा। और्व ने उसे शस्त्रास्त्र विद्या सिखायी तथा आग्नेयास्त्र भी दिया। सगर ने हैहय के सहायकों को पराजित करके नाश करना आंरभ कर दिया। वे वसिष्ठ की शरण में गये। वसिष्ठ ने सगर से उन्हें क्षमा करने के लिए कहा। सगर ने अपनी प्रतिज्ञा याद करके उनमें से किन्हीं का पूरा, किन्हीं का आधा सिर, किन्हीं की दाढ़ी आदि मुंडवाकर छोड़ दिया। सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। घोड़ा समुद्र के निकट अपह्र्य हो गया। सगर ने पुत्रों को समुद्र के निकट खोदने के लिए कहा। वे लोग खोदते हुए उस स्थान पर पहुंचे जहां विष्णु, कपिल आदि सो रहे थे। निद्रा भंग होने के कारण विष्णु की दृष्टि से सगर के चार छोड़कर सब पुत्र नष्ट हो गये। बर्हिकेतु, सुकेतु, धर्मरथ तथा पंचनद- इन चार पुत्रों के पिता सगर को नारायण ने वर दिया कि उसका वंश अक्षय रहेगा तथा समुद्र सगर का पुत्रत्व प्राप्त करेगा। समुद्र भी राजा सगर की वंदना करने लगा। पुत्र-भाव होने से ही वह सागर कहलाया।<balloon title="ब्रह्म पुराण 8।33-61" style=color:blue>*</balloon>

शिव पुराण के अनुसार

राजा बाहु रात-दिन स्त्रियों के भोग-विलास में रहता था। एक बार हैहय, तालजंघ तथा शक राजाओं ने उस विलासी को परास्त कर राज्य छीन लिया। बाहु अर्ज मुनि के शरण में पहुंचा। उसकी बड़ी रानी गर्भवती हो गयी। सौतों ने उसे विष दे दिया। भगवान की कृपा से रानी तथा उसका गर्भस्थ शिशु तो बच गये किंतु अचानक राजा की मृत्यु हो गयी। गर्भवती रानी को मुनि ने सती नहीं होने दिया। उसने जिस बालक को जन्म दिया, वह सगर कहलाया क्योंकि वह विष से युक्त था। मां और मुनि को प्रेरणा से वह शिव भक्त बन गया। उसने अश्वमेध यज्ञ भी किया। उसका घोड़ा इन्द्र ने छिपा लिया। उसके साठ सहस्त्र पुत्र घोड़ा ढूंढ़ते हुए कपिल मुनि के पास पहुंचे। वे तप कर रहे थे तथा घोड़ा वहां बंधा हुआ था। उन्होंने मुनि को चोर समझकर उन पर प्रहार करना चाहा। मुनि ने नेत्र खोले तो सब वहीं भस्म हो गये। दूसरी रानी से उत्पन्न पंचजन्य, जिसका दूसरा नाम 'असमंजस' था, शेष रह गया था। उसके पुत्र का नाम अंशुमान हुआ जिसने घोड़ा लाकर दिया और यज्ञ पूर्ण करवाया।<balloon title="शिव पुराण, 11।21" style=color:blue>*</balloon>

पउम चरित के अनुसार

त्रिदंशजय के दूसरे पोते का नाम सगर था। चक्रवाल नगर के अधिपति पूर्णधन के पुत्र का नाम मेघवाहन था। वह उसका विवाह सुलोचन की पुत्री से करना चाहता था। किंतु सुलोचन अपनी कन्या का विवाह सगर से कराना चाहता था। कन्या को निमित्त बनाकर पूर्णधन और सुलोचन का युद्ध हुआ। सुलोचन मारा गया किंतु उसके पुत्र सहस्त्रनयन अपनी बहन को साथ लेकर भाग गया। कालांतर में उसने राजा सगर को अपनी बहन अर्पित कर दी। पूर्णधन की मृत्यु के उपरांत मेघवाहन को लंका जाने के लिए प्रेरित किया। भीम ने मेघवाहन को लंका के अधिपति-पद पर प्रतिष्ठित किया। एक बार राजा सगर के साठ हजार पुत्र, अष्टापद पर्वत पर वंदन हेतु गये। वहां देवार्चन इत्यादि के उपरांत भरत निर्मित चैत्यभ्वन की रक्षा के हेतु उन्हांने दंडरत्न से गंगा को मध्य में प्रहार करके पर्वत के चारों ओर 'परिखा' तैयार की। नागेंद्र ने क्रोध-रूपी अग्नि से सगर-पुत्रों को भस्म कर दिया। उनमें से भीम और भगीरथ, दो पुत्र अपने धर्म की दृढ़ता के कारण से भस्म नहीं हो पाये। उन लोगों के लौटने पर सब समाचार जानकर चक्रवर्ती राजा सगर ने भगीरथ को राज्य सौंप दिया तथा स्वयं जिनवर से दीक्षा ग्रहण करके मोक्ष-पद प्राप्त किया।<balloon title="पउम चरित, 5।62-202।" style=color:blue>*</balloon>