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क़ुरान या क़ुरआन (अरबी : القرآن, अल-क़ुर्'आन) इस्लाम धर्म की पवित्रतम पुस्तक है और इस्लाम की नींव है। मुसलमान मानते हैं कि इसे परमेश्वर (अल्लाह) ने देवदूत (फ़रिश्ते) जिब्राएल द्वारा हज़रत मुहम्मद को सुनाया था। मुसलमानों का मानना हैं कि क़ुरान ही अल्लाह की भेजी अन्तिम और सर्वोच्च पुस्तक है। क़ुरान शब्द का प्रथम उल्लेख स्वयं कुरान में ही मिलता है, जहाँ इसका अर्थ है - उसने पढ़ा, या उसने उच्चारा । यह शब्द इसके सीरियाई समानांतर कुरियना का अर्थ लेता है जिसका अर्थ होता है ग्रंथों को पढ़ना । हालाँकि पाश्चात्य जानकार इसको सीरियाई शब्द से जोड़ते हैं, अधिकांश मुसलमानों का मानना है कि इसका मूल क़ुरा शब्द ही है। पर चाहे जो हो मुहम्मद साहब के जन्मदिन के समय ही यह एक अरबी शब्द बन गया था।

अध्याय

  • इस्लाम धर्म की पवित्र पुस्तक का नाम क़ुरान है जिसका हिन्दी में अर्थ 'सस्वर पाठ' है। क़ुरान शरीफ़ 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। क़ुरान शरीफ़ में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरान शरीफ़ की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हजार छः सौ छियासठ) है।[1]
  • क़ुरान में कुल 114 अध्याय हैं जिन्हें सूरा कहते हैं। बहुचन में इन्हें सूरत कहते हैं। यानि 15वें अध्याय को सूरत 15 कहेंगे। हर अध्याय में कुछ श्लोक हैं जिन्हें आयत कहते हैं। ‎क़ुरआन की 6,666 आयतों में से (कुछ के अनुसार 6,238) अभी तक 1,000 आयतें वैज्ञानिक तथ्यों पर बहस करती हैं।
  • क़ुरआन में कुल 6,233 आयतें (वाक्य) हैं। अरबी वर्णमाला के कुल 30 अक्षर 3,81,278 बार आए हैं। ज़ेर (इ की मात्राएँ) 39,582 बार, ज़बर (अ की मात्राएँ) 53,242 बार, पेश (उ की मात्राएँ) 8,804 बार, मद (दोहरे, तिहरे ‘अ’ की मात्राएँ) 1771 बार, तशदीद (दोहरे अक्षर के प्रतीक) 1252 बार और नुक़ते (बिन्दु) 1,05,684 हैं। इसके 114 में से 113 अध्यायों का आरंभ ‘‘बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम’’ से हुआ है, अर्थात् ‘‘शुरू अति कृपाशील, अति दयावान अल्लाह के नाम से।’’ पठन-पाठन और कंठस्थ में आसानी के लिए पूरे ग्रंथ को 30 भागों में बांट कर हर भाग का नामांकरण कर दिया गया है। हर भाग ‘पारा’ (Part) कहलाता है।

लौह महफूज में क़ुरान


क़ुरआन हकीम 22 साल 5 माह और 14 दिन के अर्से में ज़रूरत के मुताबिक़ किस्तों में नाज़िल हुआ। कुरआन मजीद में 30 पारे, 114 सूरतें और 540 रुकूअ हैं। क़ुरआन मजीद की कुल आयत की तादाद 6666 (छः हजार छः सौ छियासठ) है। |} क़ुरान के विषय में उसके अनुयायियों का विश्वास है और स्वयं क़ुरान में भी लिखा है- सचमुच पूज्य क़ुरान अदृष्ट पुस्तक में (वर्तमान) है। जब तक शुद्ध न हो, उसे मत छुओ। वह लोक-परलोक के स्वामी के पास उतरा है[2] अदृष्ट पुस्तक से यहाँ अभिप्राय उस स्वर्गीय लेख-पटिट्का से है जिसे इस्लामी परिभाषा में ‘लौह-महफूज’ कहते हैं। सृष्टिकर्त्ता ने आदि से उसमें त्रिकालवृत्ति लिख रक्खा है, जैसा कि स्थानान्तर में कहा है- हमने अरबी क़ुरान रचा कि तुमको ज्ञान हो। निस्सन्देह वह उत्तम ज्ञान-भण्डार हमारे पास पुस्तकों की माता (लौह महफूज) में लिखा है[3]

जगदीश्वर ने क़ुरान में वर्णित ज्ञान को जगत के हित के लिए अपने प्रेरित मुहम्मद के हृदय में प्रकाशित किया, यही इस सबका भावार्थ है। अपने धर्म की शिक्षा देने वाले ग्रन्थ पर असाधारण श्रद्धा होना मनुष्य का स्वभाव है। यही कारण है कि क़ुरान के माहात्म्य के विषय में अनेक कथाएँ जनसमुदाय में प्रचलित हैं, यद्यपि उन सबका आधार श्रद्धा छोड़ कर क़ुरान में ढूँढ़ना युक्त नहीं है, किन्तु ऐसे वाक्यों का उसमें सर्वथा अभाव है, यह भी नहीं कहा जा सकता। एक स्थल पर कहा है- यदि हम इस क़ुरान को किसी पर्वत (वा पर्वत-सदृश कठोर हृदय) पर उतारते, तो अवश्य तू उसे परमेश्वर के भय से दबा और फटा देखता। इन दृष्टान्तों को मनुष्यों के लिए हम वर्णित करते है जिससे कि वह सोचें।[4]

लेखन

हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) स्वयं पढ़े-लिखे न थे। क़ुरआन का जो भी अंश अवतरित होता वह विशेष ईश्वरीय प्रावधान से मुहम्मद को कंठस्थ (याद) हो जाता[5] मुहम्मद तुरंत या शीघ्रताशीघ्र अपने साथियों को बोल कर उसे लिखवा देते। इतिहास में प्रमाणित तौर पर ऐसे लिखने वालों (वह्य-लिपिकों) की संख्या 41 उल्लिखित है। उन सब के नाम, पिता के नाम, क़बीले (वंश, कुल) के नाम भी इतिहास के रिकार्ड पर हैं।

संरक्षण

क़ुरआन को चूँकि रहती दुनिया तक के लिए, समस्त संसार में मानव-जाति का मार्गदर्शन करना था और इस बात को भी निश्चित बनाना था कि ईश-वाणी पूरी की पूरी सुरक्षित हो जाए, एक शब्द भी न कम हो न ज़्यादा, इसमें किसी मानव-वाणी की मिलावट, कोई बाह्य हस्तक्षेप, संशोधन-परिवर्तन होना संभव न रह जाए इसलिए ईश्वरीय स्तर पर तथा मानवीय स्तर पर इसके कई विशेष प्रयोजन किए गए:-

  1. चूँकि इससे पहले के ईशग्रंथों में मानवीय हस्तक्षेप से बहुत कुछ कमी-बेशी हो चुकी थी इसलिए क़ुरआन के संरक्षण की ज़िम्मेदारी स्वयं ईश्वर ने अपने ऊपर ले ली। ख़ुद क़ुरआन में उल्लिखित है- हमने इसे अवतरित किया और हम ही इसकी हिफ़ाज़त करेंग[6] ईश्वर ने इसके लिए निम्नलिखित प्रावधान किए—
  2. प्राथमिक स्तर पर ईश्वर ने पैग़म्बर को पूरा ग्रंथ कंठस्थ करा दिया, क़ुरआन में इसकी पुष्टि भी कर दी[7]
  3. पैग़म्बर (सल्ल॰) के कई साथियों ने क़ुरआन को पूर्ण शुद्धता के साथ कंठस्थ (हिफ़्ज़) कर लिया।
  4. पैग़म्बर (सल्ल॰) के जीवन-काल में ही क़ुरआन का संकलन-कार्य पूरा कर लिया गया।
  5. पैग़म्बर (सल्ल॰) के देहावसान (632 ई॰) के बाद आपके दो उत्तराधिकारियों (ख़लीफ़ाओं हज़रत अबूबक्र (रज़ि॰) और हज़रत उमर (रज़ि॰) के शासन-काल (632-644 ई॰) में उनकी व्यक्तिगत निगरानी में सारे लिपिकों की लिखित सामग्री को एक-दूसरे से जाँच कर तथा ग्रंथ के कंठस्थकारों से पुनः-पुनः जाँच कर, पैग़म्बर (सल्ल॰) के निर्देशित क्रम में पुस्तक-रूप में ले आया गया। फिर तीसरे ख़लीफ़ा हज़रत उस्मान (रज़ि॰) के शासनकाल (644-656 ई॰) में इस ग्रंथ की सात प्रतियाँ तैयार की गईं। एक-एक प्रति इस्लामी राज्य के विभिन्न भागों (यमन, सीरिया, फ़िलिस्तीन, आरमेनिया, मिस्र, इराक़ और ईरान) में सरकारी प्रति के तौर भी भेज दी गई। उनमें से कुछ मूल-प्रतियाँ आज भी ताशकन्द, इस्तंबूल आदि के संग्रहालयों में मौजूद हैं।
  6. ईश्वर ने ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल॰) को आदेश देकर चैबीस घंटों में प्रतिदिन पाँच बार की अनिवार्य नमाज़ों में क़ुरआन के कुछ अंश पढ़ना अनिवार्य कर दिया। इसके अलावा स्वैच्छिक नमाज़ों में भी इसे अनिवार्य किया गया। रमज़ान के महीने में रात की नमाज़ (तरावीह) में पूरा क़ुरआन पढ़े जाने और सुने जाने को ‘महापुण्य’ कहकर पूरे विश्व में प्रचलित किया गया। पूरे क़ुरआन को (या कुछ अध्यायों को) कंठस्थ करना ‘महान पुण्य कार्य’ कहा गया, और लाखों-करोड़ों लोगों ने पूर्ण ग्रंथ को, तथा संसार के सभी मुसलमानों ने ग्रंथ के कुछ अध्यायों को कंठस्थ कर लिया। (यह क्रम 1400 वर्ष से जारी है) भविष्य में भी जारी रहेगा)। इस प्रकार क़ुरआन अपने मूलरूप में (पूरी शुद्धता, पूर्णता व विश्वसनीयता के साथ) सुरक्षित हो गया।

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. कुरआन नूर की हिदायत (हिन्दी) (एच टी एम) वेब दुनिया। अभिगमन तिथि: 23 सितंबर, 2010
  2. (56 : 3 : 3-5)
  3. (53 : 1 : 3-5)
  4. (59 : 3 : 4)
  5. सूरः क़ियामः (75) आयत 17-19
  6. (सूरः हिज्र 15, आयत 9)
  7. (सूर: 75, आयत 17-19)

[1] [2] [3]