ग़ालिब
ग़ालिब
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पूरा नाम | मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब' |
जन्म | 27 दिसम्बर 1797 |
जन्म भूमि | आगरा, उत्तर प्रदेश |
मृत्यु | 15 फ़रवरी, 1869, दिल्ली |
पति/पत्नी | उमराव बेगम |
कर्म भूमि | दिल्ली |
कर्म-क्षेत्र | शायर |
मुख्य रचनाएँ | 'दीवाने-ग़ालिब', 'उर्दू-ए-हिन्दी', 'उर्दू-ए-मुअल्ला', 'नाम-ए-ग़ालिब', 'लतायफे गैबी', 'दुवपशे कावेयानी' आदि। |
विषय | उर्दू शायरी |
भाषा | उर्दू और फ़ारसी भाषा |
इन्हें भी देखें | कवि सूची, साहित्यकार सूची |
मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान, जिन्हें सारी दुनिया 'मिर्ज़ा ग़ालिब' के नाम से जानती है, उर्दू-फ़ारसी के प्रख्यात कवि रहे हैं। इनका जन्म आगरा में 27 दिसम्बर, 1797 ई. में हुआ और मृत्यु 15 फ़रवरी, 1869 ई. को दिल्ली में हुई। उनके दादा 'मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ' समरकन्द से भारत आए थे। बाद में वे लाहौर में 'मुइनउल मुल्क' के यहाँ नौकर के रूप में कार्य करने लगे। मिर्ज़ा क़ौक़न बेग ख़ाँ के बड़े बेटे 'अब्दुल्ला बेग ख़ाँ से मिर्ज़ा ग़ालिब हुए। अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, नवाब आसफ़उद्दौला की फ़ौज में शामिल हुए और फिर हैदराबाद से होते हुए अलवर के राजा 'बख़्तावर सिंह' के यहाँ लग गए। लेकिन जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज 5 वर्ष के थे, तब एक लड़ाई में उनके पिता शहीद हो गए। मिर्ज़ा ग़ालिब को तब उनके चचा जान 'नसरुउल्ला बेग ख़ान' ने संभाला। पर ग़ालिब के बचपन में अभी और दुःख व तकलीफें शामिल होनी बाकी थीं। जब वे 9 साल के थे, तब चचा जान भी चल बसे। मिर्ज़ा ग़ालिब का सम्पूर्ण जीवन ही दु:खों से भरा हुआ था। आर्थिक तंगी ने कभी भी इनका पीछा नहीं छोड़ा था। क़र्ज़ में हमेशा घिरे रहे, लेकिन अपनी शानो-शौक़त में कभी कमी नहीं आने देते थे। इनके सात बच्चों में से एक भी जीवित नहीं रहा। जिस पेंशन के सहारे इन्हें व इनके घर को एक सहारा प्राप्त था, वह भी बन्द कर दी गई थी।
वंश परम्परा
ईरान के इतिहास में जमशेद का नाम प्रसिद्ध है। यह थिमोरस के बाद सिंहासनासीन हुआ था। 'जश्ने-नौरोज़' (नव वर्ष का उत्सव) का आरम्भ इसी ने किया था, जिसे आज भी हमारे देश में पारसी धर्म के लोग मनाते हैं। कहते हैं, इसी ने 'द्राक्षासव' या 'अंगूरी'[1] को जन्म दिया था। फ़ारसी एवं उर्दू काव्य में ‘जामे-जम’ (जो ‘जामे जमशेद’ का संक्षिप्त रूप है)[2] अमर हो गया। इससे इतना तो मालूम पड़ता ही है कि यह मदिरा का उपासक था और डटकर पीता और पिलाता था। जमशेद के अन्तिम दिनों में बहुत से लोग उसके शासन एवं प्रबन्ध से असन्तुष्ट हो गए थे। इन बाग़ियों का नेता ज़हाक था, जिसने जमशेद को आरे से चिरवा दिया था, पर वह स्वयं भी इतना प्रजा पीड़क निकला कि उसे सिंहासन से उतार दिया गया। इसके बाद जमशेद का पोता 'फरीदूँ' गद्दी पर बैठा, जिसने पहली बार 'अग्नि-मन्दिर' का निर्माण कराया। यही फरीदूँ 'ग़ालिब वंश' का आदि पुरुष था।
फरीदूँ का राज्य उसके तीन बेटों-एरज, तूर और सलम में बँट गया। एरज को ईरान का मध्य भाग, तूर को पूर्वी तथा सलम को पश्चिमी क्षेत्र मिले। चूँकि एरज को प्रमुख भाग मिला था, इसीलिए अन्य दोनों भाई उससे असन्तुष्ट थे। उन्होंने मिलकर षडयंत्र किया और एरज को मरवा डाला। पर बाद में एरज के पुत्र मनोचहर ने उनसे ऐसा बदला लिया कि वे तुर्किस्तान भाग गए और वहाँ तूरान नाम का एक नया राज्य क़ायम किया। तूर वंश और ईरानियों में बहुत दिनों तक युद्ध होते रहे। तूरानियों के उत्थान-पतन का क्रम चलता रहा। अन्त में ऐबक ने खुरासान, इराक़ इत्यादि में सैलजूक राज्य की नींव डाली। इस राजवंश में तोग़रल बेग (1037-1063 ई.), अलप अर्सलान (1063-1072 ई.) तथा मलिकशाह (1072-1092 ई.) इत्यादि हुए, जिनके समय में तूसी एवं उमर ख़य्याम के कारण फ़ारसी काव्य का उत्कर्ष हुआ। मलिकशाह के दो बेटे थे। छोटे का नाम बर्कियारूक़ (1094-1104 ई.) था। इसी की वंश परम्परा में ग़ालिब हुए। जब इन लोगों का पतन हुआ, ख़ानदान तितर-बितर हो गया। लोग क़िस्मत आज़माने इधर-उधर चले गए। कुछ ने सैनिक सेवा की ओर ध्यान दिया। इस वर्ग में एक थे, 'तर्समख़ाँ' जो समरकन्द रहने लगे थे। यही ग़ालिब के परदादा थे।
दादा और पिता
तर्समख़ाँ के पुत्र क़ौक़न बेग ख़ाँ, शाहआलम के ज़माने में अपने पिता से झगड़कर हिन्दुस्तान चले आए थे। उनकी मातृभाषा तुर्की थी। हिन्दुस्तानी भाषा में बड़ी कठिनाई से कुछ टूटे-फूटे शब्द बोल लेते थे। यह क़ौक़न बेग, 'ग़ालिब' के दादा थे। वह कुछ दिन तक लाहौर में रहे, और फिर दिल्ली चले आए। बाद में शाहआलम की नौकरी में लग गए। 50 घोड़े, भेरी और पताका इन्हें मिली और पहासू का परगना रिसाले और ख़र्च के लिए इन्हें मिल गया। क़ौक़न बेग ख़ाँ के चार बेटे और तीन बेटियाँ थीं। बेटों में अब्दुल्ला बेग ख़ाँ और नसरुउल्ला बेग ख़ाँ का वर्णन मिलता है। यही अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, 'ग़ालिब' के पिता थे।
अब्दुल्ला बेग का भी जन्म दिल्ली में ही हुआ था। जब तक पिता जीवित रहे, मज़े से कटी, पर उनके मरते ही पहासू की जागीर हाथ से निकल गई।[3] अब्दुल्ला बेग ख़ाँ की शादी आगरा (अकबराबाद) के एक प्रतिष्ठ कुल में 'ख़्वाजा ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ कमीदान' की बेटी, 'इज़्ज़तउन्निसा' के साथ हुई थी। ग़ुलाम हुसैन ख़ाँ की आगरा में काफ़ी जायदाद थी। वह एक फ़ौजी अफ़सर थे। इस विवाह से अब्दुल्ला बेग को तीन सन्तानें हुईं-'मिर्ज़ा असदउल्ला बेग ख़ाँ' (ग़ालिब), मिर्ज़ा यूसुफ़ और सबसे बड़ी ख़ानम।
ग़ालिब का जन्म
मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ का जन्म ननिहाल, आगरा में 27 सितम्बर, 1797 ई. को रात के समय हुआ था। चूँकि पिता फ़ौजी नौकरी में इधर-उधर घूमते रहे, इसीलिए ज़्यादातर इनका लालन-पालन ननिहाल में ही हुआ। जब ये पाँच साल के थे, तभी पिता का देहान्त हो गया था। पिता के बाद चचा नसरुल्ला बेग ख़ाँ ने स्वयं इन्हें बड़े प्यार से पाला। नसरुल्ला बेग ख़ाँ मराठों की ओर से आगरा के सूबेदार थे, पर जब लॉर्ड लेक ने मराठों को हराकर आगरा पर अधिकार कर लिया, तब यह पद भी छूट गया और उसकी जगह एक अंग्रेज़ कमीश्नर की नियुक्ति हुई। किन्तु नसरुल्ला बेग ख़ाँ के साले लोहारू के नवाब फ़खउद्दौला अहमदबख़्श ख़ाँ की लॉर्ड लेक से मित्रता थी। उनकी सहायता से नसरुल्ला बेग अंग्रेज़ी सेना में 400 सवारों के रिसालदार नियुक्त हो गए। रिसाले तथा इनके भरण-पोषण के लिए 1700 रुपये तनख़्वाह तय हुई। इसके बाद मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग ने स्वयं लड़कर भरतपुर के निकट सोंक और सोंसा के दो परगने होल्कर के सिपाहियों से छीन लिए, जो बाद में लॉर्ड लेक द्वारा इन्हें दे दिए गए। उस समय सिर्फ़ इन परगनों से ही लाख-डेढ़ लाख सालाना आमदानी थी।
चचा की मृत्यु और पेंशन
एक ही साल बाद चचा की मृत्यु हो गई[4]। लॉर्ड लेक द्वारा नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ को फ़ीरोज़पुर झुर्का का इलाक़ा 25,000 सालाना कर पर मिला हुआ था। नसरुल्ला बेग ख़ाँ की मृत्यु के बाद उन्होंने यह फ़ैसला करा लिया कि, 25,000 का कर माफ़ कर दिया जाए। इसकी जगह 50 सवारों का एक 'रिसाला' (सैनिकों की एक टुकड़ी) रखूँ, जिस पर 15,000 सालाना ख़र्च होगा, और जो आवश्यकता पड़ने पर अंग्रेज़ सरकार की सेवा के लिए भेजा जाएगा। शेष 10,000 नसरुल्ला बेग ख़ाँ के उत्तराधिकारियों को वृत्ति रूप में दिया जाए। यह शर्त मान ली गई[5]।
बचपन एवं प्रारम्भिक शिक्षा
यह ठीक है कि पिता की मृत्यु के बाद चचा ने ही इनका पालन किया था, पर शीघ्र ही इनकी भी मृत्यु हो गई थी और ये अपनी ननिहाल में आ गए। पिता स्वयं घर-जमाई की तरह सदा ससुराल में रहे। वहीं उनकी सन्तानों का भी पालन-पोषण हुआ। ननिहाल खुशहाल था। इसलिए ग़ालिब का बचपन अधिकतर वहीं पर बीता और बड़े आराम से बीता। उन लोगों के पास काफ़ी जायदाद थी। ग़ालिब ख़ुद अपने एक पत्र में ‘मफ़ीदुल ख़यायक़’ प्रेस के मालिक मुंशी शिवनारायण को, जिनके दादा के साथ ग़ालिब के नाना की गहरी दोस्ती थी, लिखते हैं-
“हमारी बड़ी हवेली वह है, जो अब लक्खीचन्द सेठ ने मोल ली है। इसी के दरवाज़े की संगीन बारहदरी पर मेरी नशस्त थी[6]। और उसी के पास एक ‘खटियावाली हवेली’ और सलीमशाह के तकिया के पास दूसरी हवेली और काले महल से लगी हुई एक और हवेली और इससे आगे बढ़कर एक कटरा जो की ‘गड़रियों वाला’ मशहूर था और एक दूसरा कटरा जो कि ‘कश्मीरन वाला’ कहलाता था। इस कटरे के एक कोठे पर मैं पतंग उड़ाता था और राजा बलवान सिंह से पतंग लड़ा करते थे।”
इस प्रकार से ननिहाल में मज़े से गुज़रती थी। आराम ही आराम था। एक ओर खुशहाल, परन्तु पतलशील उच्च मध्यमवर्ग की जीवन विधि के अनुसार इन्हें पतंग, शतरंज और जुए की आदत लगी, दूसरी ओर उच्च कोटि के बुज़ुर्गों की सोहबत का लाभ मिला। इनकी माँ स्वयं शिक्षित थीं, पर ग़ालिब को नियमित शिक्षा कुछ ज़्यादा नहीं मिल सकी। हाँ, ज्योतिष, तर्क, दर्शन, संगीत एवं रहस्यवाद इत्यादि से इनका कुछ न कुछ परिचय होता गया। फ़ारसी की प्रारम्भिक शिक्षा इन्होंने आगरा के पास उस समय के प्रतिष्ठित विद्वान 'मौलवी मोहम्मद मोवज्जम' से प्राप्त की। इनकी ग्रहण शक्ति इतनी तीव्र थी कि बहुत जल्द ही वह जहूरी जैसे फ़ारसी कवियों का अध्ययन अपने आप करने लगे। बल्कि फ़ारसी में ग़ज़लें भी लिखने लगे।
अब्दुस्समद से मुलाक़ात
इसी ज़माने (1810-1811 ई.) में मुल्ला अब्दुस्समद ईरान से घूमते-फिरते आगरा आये, इन्हीं के यहाँ दो साल तक वे रहे। यह ईरान के एक प्रतिष्ठित और वैभव सम्पन्न व्यक्ति थे, और यज़्द के रहने वाले थे। पहले ज़रतुस्त्र के अनुयायी थे, पर बाद में इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया। इनका पुराना नाम 'हरमुज़्द' था। फ़ारसी तो इनकी घुट्टी में थी। अरबी भाषा का भी इन्हें बहुत अच्छा ज्ञान था। इस समय मिर्ज़ा 14 वर्ष के थे और फ़ारसी में उन्होंने अपनी योग्यता प्राप्त कर ली थी। अब मुल्ला अब्दुस्समद जो आये तो उनसे दो वर्ष तक मिर्ज़ा ने फ़ारसी भाषा एवं काव्य की बारीकियों का ज्ञान प्राप्त किया, और उसमें ऐसे पारंगत हो गए कि जैसे खुद भी ईरानी हों। अब्दुस्समद इनकी प्रतिभा से चकित थे, और उन्होंने अपनी सारी विद्या इनमें उड़ेल दी। वह इनको बहुत चाहते थे। जब वह स्वदेश लौट गए तब भी दोनों का पत्र व्यवहार जारी रहा।
क़ाज़ी अब्दुल वदूद तथा एक-दो और विद्वानों ने अब्दुस्समद को एक कल्पित व्यक्ति बताया है। कहा जाता है कि मिर्ज़ा से स्वयं भी एकाध बार भी सुना गया कि ‘अब्दुस्समद’ एक फ़र्ज़ी नाम है। चूँकि मुझे लोग 'बे-उस्ताद' (बिन गुरु का) कहते थे। उनका मुँह बन्द करने के लिए मैंने एक फ़र्ज़ी उस्ताद गढ़ लिया है।[7] पर इस तरह की बातें केवल अनुमान और कल्पना पर आधारित हैं।
सामाजिक वातावरण का प्रभाव
ग़ालिब में उच्च प्रेरणाएँ जागृत करने का काम शिक्षण से भी ज़्यादा उस वातावरण ने किया, जो इनके इर्द-गिर्द था। जिस मुहल्ले में वह रहते थे, वह (गुलाबख़ाना) उस ज़माने में फ़ारसी भाषा के शिक्षण का उच्च केन्द्र था। रूम के भाष्यकार मुल्ला वली मुहम्मद, उनके बेटे शम्सुल जुहा, मोहम्मद बदरुद्दिजा, आज़म अली तथा मौहम्मद कामिल वग़ैरा फ़ारसी के एक-से-एक विद्वान वहाँ रहते थे। वातावरण में फ़ारसीयत भरी थी। इसीलिए यह उससे प्रभावित न होते, यह कैसे सम्भव था। पर जहाँ एक ओर यह तालीम-तर्वियत थी, वहीं ऐशो-इशरत की महफ़िलें भी इनके इर्द-गिर्द बिखरी हुई थीं। दुलारे थे, पैसे-रुपये की कमी नहीं थी। पिता एवं चचा के मर जाने से कोई दबाव रखने वाला न था। किशोरावस्था, तबीयत में उमंगें, यार-दोस्तों के मजमें (जमघट), खाने-पीने शतरंज, कबूतरबाज़ी, यौवनोन्माद सबका जमघट। आदतें बिगड़ गईं। हुस्न के अफ़सानों में मन उलझा, चन्द्रमुखियों ने दिल को खींचा। ऐशो-इशरत का बाज़ार गर्म हुआ। 24-25 वर्ष की आयु तक ख़ूब रंगरेलियाँ कीं, पर बाद में उच्च प्रेरणाओं ने इन्हें ऊपर उठने को बाध्य किया। ज़्यादातर बुरी आदतें दूर हो गईं, पर मदिरा पान की लत लगी सो मरते दम तक न छूटी।
शेरो-शायरी की शुरूआत
इनकी काव्यगत प्रेरणाएँ स्वाभाविक थीं। बचपन से ही इन्हें शेरो-शायरी की लत लगी। इश्क़ ने उसे उभारा, 'गो' (यद्यपि) वह इश्क़ बहुत छिछला और बाज़ारू था। जब यह मोहम्मद मोअज्ज़म के 'मकतबे' (पाठशाला, मदरसा) में पढ़ते थे और 10-11 वर्ष के थे, तभी से इन्होंने शेर कहना आरम्भ कर दिया था। शुरू में बेदिल एवं शौक़त के रंग में कहते थे। बेदिल की छाप बचपन से ही पड़ी। 25 वर्ष की आयु में दो हज़ार शेरों का एक 'दीवान' तैयार हो गया। इसमें वही चूमा-चाटी, वही स्त्रैण भावनाएँ, वही पिटे-पिटाए मज़मून (लेख, विषय) थे। एक बार उनके किसी हितैषी ने इनके कुछ शेर मीर तक़ी ‘मीर’ को सुनाए। सुनकर ‘मीर’ ने कहा, ‘अगर इस लड़के को कोई काबिल उस्ताद मिल गया और उसने इसको सीधे रास्ते पर डाल दिया तो लाजवाब शायर बन जायेगा। बर्ना 'महमिल' (निरर्थक) बकने लगेगा।’ मीर की भविष्यवाणी पूरी हुई। सचमुच यह महमिल बकने लगे थे, पर अन्त: प्रेरणा एवं बुज़ुर्गों की कृपा से उस स्तर से ऊपर उठ गये। ‘मीर’ की मृत्यु के समय ग़ालिब केवल 13 वर्ष के थे और दो ही तीन साल पहले उन्होंने शेर कहने शुरू किए थे। प्रारम्भ में ही इस छोकरे की (ग़ालिब) कवि की ग़ज़ल इतनी दूर लखनऊ में ‘खुदाए-सखुन’ ‘मीर’ के सामने पढ़ी गई और ‘मीर’ ने, जो बड़ों-बड़ों को ख़ातिरों में न लाते थे, इनकी सुप्त प्रतिभा को देखकर इनकी रचनाओं पर सम्मति दी। इससे ही जान पड़ता है कि प्रारम्भ से ही इनमें उच्च कवि के बीज थे।
विवाह एवं सामाजिक स्थिति
जब असदउल्ला ख़ाँ 'ग़ालिब' सिर्फ़ 13 वर्ष के थे, इनका विवाह लोहारू के नवाब 'अहमदबख़्श ख़ाँ' (जिनकी बहन से इनके चचा का ब्याह हुआ था) के छोटे भाई 'मिर्ज़ा इलाहीबख़्श ख़ाँ ‘मारूफ़’ की बेटी 'उमराव बेगम' के साथ 9 अगस्त, 1810 ई. को सम्पन्न हुआ था। उपराव बेगम 11 वर्ष की थीं। इस तरह लोहारू राजवंश से इनका सम्बन्ध और दृढ़ हो गया। पहले भी वह बीच-बीच में दिल्ली जाते रहते थे, पर शादी के 2-3 वर्ष बाद तो दिल्ली के ही हो गए। वह स्वयं ‘उर्दू-ए-मोअल्ला’ (इनका एक ख़त) में इस घटना का ज़िक्र करते हुए लिखते हैं कि-
"7 रज्जब 1225 हिजरी को मेरे वास्ते हुक्म दवा में हब्स[8] सादिर[9] हुआ। एक बेड़ी (यानी बीवी) मेरे पाँव में डाल दी और दिल्ली शहर को ज़िन्दान[10] मुक़र्रर किया और मुझे इस ज़िन्दाँ में डाल दिया।"
मुल्ला अब्दुस्समद 1810-1811 ई. में अकबराबाद आए थे और दो वर्ष के शिक्षण के बाद असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) उन्हीं के साथ आगरा से दिल्ली गए। दिल्ली में यद्यपि वह अलग घर लेकर रहे, पर इतना तो निश्चित है कि ससुराल की तुलना में इनकी अपनी सामाजिक स्थिति बहुत हलकी थी। इनके ससुर इलाहीबख़्श ख़ाँ को राजकुमारों का ऐश्वर्य प्राप्त था। यौवन काल में इलाहीबख़्श की जीवन विधि को देखकर लोग उन्हें ‘शहज़ाद-ए-गुलफ़ाम’ कहा करते थे। इससे अन्दाज़ा लगाया जा सकता है कि, उनकी बेटी का पालन-पोषण किस लाड़-प्यार के साथ हुआ होगा। असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) शक्ल और सूरत से बड़ा आकर्षक व्यक्तित्व रखते थे। उनके पिता-दादा फ़ौज में उच्चाधिकारी रह चुके थे। इसीलिए ससुर को आशा रही होगी कि, असदउल्ला ख़ाँ भी आला रुतबे तक पहुँचेंगे एवं बेटी ससुराल में सुखी रहेगी, पर ऐसा हो न सका। आख़िर तक यह शेरो-शायरी में ही पड़े रहे और उमराव बेगम, पिता के घर बाहुल्य के बीच पली लड़की को ससुराल में सब सुख सपने जैसे हो गए।
दिल्ली का स्थायी निवास
मिर्ज़ा (ग़ालिब) के ससुर इलाहीबख़्श ख़ाँ न केवल वैभवशाली थे, वरन चरित्रवान, धर्मनिष्ठ तथा अच्छे कवि भी थे। वह ‘जौक़’ के शिष्यों में से एक थे। विवाह के दो-तीन वर्ष बाद ही मिर्ज़ा (ग़ालिब) स्थायी रूप से दिल्ली आ गए और उनके जीवन का अधिकांश भाग दिल्ली में ही गुज़रा। ग़ालिब के पिता की अपेक्षा उनके चचा की हालत कहीं अच्छी थी और उनका सम्मान भी अधिक था। पिता का तो अपना घर भी नहीं था। वह जन्म भर इधर-उधर मारे-मारे फिरते रहे, जब तक रहे, घर-जमाई बनकर ही रहे। घर-जमाई का ससुराल में प्रधान स्थान नहीं होता, क्योंकि उसकी सारी स्थिति अपनी पत्नि से पायी हुई स्थिति होती है। मिर्ज़ा का बचपन ननिहाल में आराम से भले ही बीता हो, लेकिन पिता के मरने के बाद उनसे जैसे भावुक बच्चे पर अपनी यतीमी का भी असर पड़ा होगा। उन्होंने कभी यह भी ख़्याल नहीं किया होगा कि मेरा इसमें क्या है। चचा की मृत्यु के बाद ये विचार और प्रबल एवं कष्टजनक हुए होंगे। यतीमी के कारण इनका ठीक राह से भटक जाना और लंफगाई करना स्वाभाविक-सा रहा होगा। दिल्ली आने का भी कारण सम्भत: यही था कि यहाँ कुछ अपना बना सकूँगा। दिल्ली आने पर कुछ समय तक तो माँ कभी-कभी उनकी सहायता करती रहीं, लेकिन मिर्ज़ा के असंख्य पत्रों में कहीं भी मामा वग़ैरा से किसी प्रकार की मदद मिलने का उल्लेख नहीं है। इसीलिए जान पड़ता है कि, धीरे-धीरे इनका सम्बन्ध ननिहाल से बिल्कुल समाप्त हो गया था।
प्रारम्भिक काव्य
दिल्ली में ससुर तथा उनके प्रतिष्ठित साथियों एवं मित्रों के काव्य प्रेम का इन पर अच्छा असर हुआ। इलाहीबख़्श ख़ाँ पवित्र एवं रहस्यवादी प्रेम से पूर्ण काव्य-रचना करते थे। वह पवित्र विचारों के आदमी थे। उनके यहाँ सूफ़ियों तथा शायरों का जमघट रहता था। निश्चय ही ग़ालिब पर इन गोष्ठियों का अच्छा असर पड़ा होगा। यहाँ उन्हें तसव्वुफ़ (धर्मवाद, आध्यात्मवाद) का परिचय मिला होगा, और धीरे-धीरे यह जन्मभूमि आगरा में बीते बचपन तथा बाद में किशोरावस्था में दिल्ली में बीते दिनों के बुरे प्रभावों से मुक्त हुए होंगे। दिल्ली आने पर भी शुरू-शुरू में तो मिर्ज़ा का वही तर्ज़ रहा, पर बाद में वह सम्भल गए। कहा जाता है कि मनुष्य की कृतियाँ उसके अन्तर का प्रतीक होती हैं। मनुष्य जैसा अन्दर से होता है, उसी के अनुकूल वह अपनी अभिव्यक्ति कर पाता है। चाहे कैसा ही भ्रामक परदा हो, अन्दर की झलक कुछ न कुछ परदे से छनकर आ ही जाती है। इनके प्रारम्भिक काव्य के कुछ नमूने इस प्रकार हैं-
देखता हूँ उसे थी जिसकी तमन्ना मुझको।
आज बेदारी[13] में है ख़्वाबे-ज़ुलेखा मुझको।
इक गर्म आह की तो हज़ारों के घर जले।
रखते हैं इश्क़ में ये असर हम जिगर जले।
परवाने का न ग़म हो तो फिर किसलिए ‘असद’
हर रात शमअ शाम से ले तास हर जले।
ऊपर जो शेर दिए गए हैं, उनमें एक संवेदना, रसशीलता तो है पर उनकी अपेक्षा उनमें एक छटपटाहट, बेचैनी, जवानी के उड़ते हुए सपनों की छाया और कृत्रिम और कल्पनाओं की उछल-कूद अधिक है। कोई मौलिक भावना नहीं; कोई उथल-पुथल कर देने वाली प्रेरणा नहीं। हाँ, इतना है कि बचपन से ही इनमें कवि-प्रतिभा के बीज दिखाई पड़ते हैं। 7-8 वर्ष की आयु में यह उर्दू (रेखती) तथा 11-12 वर्ष में फ़ारसी में कविता करने लगे थे।
आर्थिक कठिनाइयाँ एवं मुसीबतें
विवाह के बाद ‘ग़ालिब’ की आर्थिक कठिनाइयाँ बढ़ती ही गईं। आगरा, ननिहाल में इनके दिन आराम व रईसीयत से बीतते थे। दिल्ली में भी कुछ दिनों तक रंग रहा। साढ़े सात सौ सालाना पेंशन नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ के यहाँ से मिलती थी। वह यों भी कुछ न कुछ देते रहते थे। माँ के यहाँ से भी कभी-कभी कुछ आ जाता था। अलवर से भी कुछ मिल जाता था। इस तरह मज़े में गुज़रती थी। पर शीघ्र ही पासा पलट गया। 1822 ई. में ब्रिटिश सरकार एवं अलवर दरबार की स्वीकृति से नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने अपनी जायदाद का बँटवारा यों किया, कि उनके बाद फ़ीरोज़पुर झुर्का की गद्दी पर उनके बड़े लड़के शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ बैठे तथा लोहारू की जागीरें उनके दोनों छोटे बेटों अमीनुद्दीन अहमद ख़ाँ और ज़ियाउद्दीन अहमद ख़ाँ को मिले। शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ की माँ बहूख़ानम थीं, और अन्य दोनों की बेगमजान। स्वभावत: दोनों औरतों में प्रतिद्वन्द्विता थी और भाइयों के भी दो गिरोह बन गए। आपस में इनकी पटती नहीं थी। बाद में झगड़ा न हो इस भय से नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने अपने जीवन काल में ही इस बँटवारे को कार्यान्वित कर दिया और स्वयं एकान्तवास करने लगे। इस प्रकार शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ फ़िरोज़पुर झुर्का के नवाब हो गए और दूसरे दोनों भाइयों को लोहारू का इलाक़ा मिल गया।
इस बँटवारे से ‘ग़ालिब’ भी प्रभावित हुए। भविष्य के लिए पेंशन नवाब शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ से सम्बद्ध हो गई, जबकि इनका सम्बन्ध अन्य दो भाइयों से अधिक मित्रतापूर्ण था। इसीलिए अब इनकी पेंशन में तरह-तरह के रोड़े अटकाए गए, और अप्रैल 1831 में पेंशन बिल्कुल बन्द कर दी गई। यद्यपि 1835 में चार वर्ष का बकाया पूरे का पूरा मिला। पर बीच में सारी व्यवस्था भंग हो जाने से बड़ा कष्ट हुआ। क़र्ज़ बढ़ा। फिर नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ बीच-बीच में कुछ देते रहते थे, वह भी बन्द हो गया, क्योंकि वे बिल्कुल एकान्तवासी हो गए थे और किसी भी मामले में दख़ल नहीं देते थे। ‘ग़ालिब’ की यह हालत देखकर ऋणदाताओं ने भी अपने रुपये माँगना शुरू किया। तक़ाज़ों से इनकी नाक में दम हो गया। इधर यह हाल था, उधर ‘ग़ालिब’ के छोटे भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ भरी जवानी (28 वर्ष की आयु में) पाग़ल हो गए। चारों ओर से कठिनाइयाँ एवं मुसीबतें एक साथ उठ खड़ी हुईं और ज़िन्दगी दूभर हो गई।
अमीरी शान और पेंशन का झगड़ा
इधर यह अर्थकष्ट एवं अन्य विपत्तियाँ, उधर ग़रीबी में भी अमीरी शान। ससुराल के कारण मिर्ज़ा (ग़ालिब) का परिचय दिल्ली के अधिक प्रतिष्ठित समाज में हो गया था। बड़ों-बड़ों से उनका मिलना-जुलना और मित्रता थी। उधर साढ़े बासठ रुपये की मासिक आय, इधर ससुराल का वैभवपूर्ण जीवन। मिर्ज़ा शान वाले आदमी थे, वह अपनी पत्नी के मायके में किसी के आगे सिर नीचा न होने देते थे। शेरो-शायरी के कारण भी इनकी प्रतिष्ठा थी। इसीलिए थोड़ी आमदनी में ऊपरी शानो-शौक़त क़ायम रखना और भी मुश्किल हो रहा था। ससुराल की रियासत में से पेंशन का जो इन्तज़ाम था, उसमें से ख़्वाजा हाजी नामक एक और व्यक्ति का हिस्सा था। [16] ख़्वाजा हाजी मिर्ज़ा नसरुल्लाबेग ख़ाँ के अधीन उनके 400 सवारों के रिसाले में एक अफ़सर थे। बाद में जब रिसाला टूटा तो उसमें से पचास सवार नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ को दिए गए थे। ख़्वाजा हाजी इसी पचास सवारों के रिसाले के अफ़सर बना दिए गए थे। मतलब यह कि जब मिर्ज़ा नसरुल्लाबेग ख़ाँ के परिवार एवं आश्रितों के लिए पाँच हज़ार वार्षिक पेंशन तय हुई, तो उसमें दो हज़ार ख़्वाजा हाजी को देने की व्यवस्था नवाब अहमदबख़्श ने कर दी। 1826 ई. में ख़्वाजा हाजी की मृत्यु हो गई। ‘ग़ालिब’ ख़्वाजा हाजी के पेंशन देने के विरोधी थे, पर यह सोचकर चुप हो गए कि पेंशन हाजी की ज़िन्दगी भर के लिए ही है, और उसकी मृत्यु पर हमारे पास ही लौट आवेगी, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हाजी का हिस्सा उनके दोनों बेटों शम्सुद्दीन ख़ाँ (उर्फ़ खाजा जान) और बदरुद्दीन ख़ाँ (उर्फ़ खाजा अमान) के नाम कर दिया गया। इससे वह और भी चिढ़ गए। उन्होंने विरोध भी किया पर उसका कोई परिणाम नहीं हुआ। तब उन्होंने कलकत्ता (वर्तमान कोलकाता) जाकर इस निर्णय के विरुद्ध गवर्नर-जनरल की कौंसिल से अपील करने का निश्चय किया।
झगड़े का मूल कारण
इस झगड़े का मूल रूप यह था कि नवाब अहमदबख़्श के तीन पुत्र थे-नवाब अमीनुद्दीन तथा नवाब जियाउद्दीन और इन दोनों के सौतेले भाई और उर्दू के प्रसिद्ध कवि ‘दाग़’ के जनक नवाब शम्सुद्दीन। अहमदबख़्श शम्सुद्दीन को ज़्यादा मानते थे और उन्होंने महाराज अलवर तथा ब्रिटिश सरकार की स्वीकृति से उन्हीं को अपना उत्तराधिकारी माना था। किन्तु इस निर्णय से दूसरे दो भाई स्वभावत: नाराज़ थे। झगड़ा खड़ा होने के डर से अहमदबख़्श ने इस बात पर शम्सुद्दीन ख़ाँ को राज़ी किया कि परगना लोहारू, कुछ शर्तों के साथ, दूसरे दोनों भाइयों को दे दे। शेष जागीर का प्रबन्ध शम्सुद्दीन ने स्वयं अपने हाथों में ले लिया। 1826 में यही हुआ था।
पर एक और कठिनाई थी। ‘ग़ालिब’ के चचा नसरुल्लाबेग ख़ाँ की जागीर भी नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ की जागीर मे शामिल हो गयी थी। इस अन्याय से मिर्ज़ा दुखी थे। नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने नसरुल्लाबेग ख़ाँ के उत्तराधिकारियों के भरण-पोषण के लिए वृत्ति देने का वादा किया था। नसरुल्लाबेग ख़ाँ के कोई सन्तान न थी। इसीलिए स्वाभाविक उत्तराधिकार ‘ग़ालिब’ तथा उनके छोटे भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ तथा उनकी माँ-बहनों को मिलना चाहिए था। नसरुल्लाबेग ख़ाँ के उत्तराधिकारियों के लिए शुरू में दस हज़ार सालाना पेंशन नियत हुई थी। किन्तु नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ सिर्फ़ 3 हज़ार ही देते थे, जिसमें से मिर्ज़ा के हिस्से में केवल साढ़े सात सौ आता था। आरम्भ में तो अहमदबख़्श से इनके सम्बन्ध बहुत अच्छे थे और वह समय-समय पर इन्हें और भी आर्थिक सहायता देते रहते थे। इसीलिए मामले ने तूल नहीं पकड़ा। परन्तु 1826 ई. में ‘ग़ालिब’ के ससुर एवं नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ के छोटे भाई इलाहीबख़्श ख़ाँ की मृत्यु हो गई। स्वभावत: पुराने सम्बन्धों में कड़वाहट आ गई। इस समय ‘ग़ालिब’ 29 वर्ष के थे। उनकी ज़िन्दगी ऐशो-आराम में बीती थी। लोग नवाब के साथ इनके सम्बन्धों के कारण क़र्ज़ भी आसानी से दे देते थे। पर अब जबकि वृत्तियाँ कम कर दी गईं और नवाब से वह सुखद सम्बन्ध भी नहीं रहे तो, ऋणदाताओं ने रुपये माँगना शुरू कर दिया। ‘ग़ालिब’ को अंदरूनी बातें मालूम न थीं और वह यही समझ बैठे थे कि सरकार ने जो परगने दिए थे, वे दस हज़ार सालाना के थे और सिर्फ़ उनके चचा को दिए गए थे। इसीलिए जब हाजी के लड़कों को वारिस बनाया गया तो उन्होंने उसका विरोध किया। नवाब अहमदबख़्श को समझाने के लिए वह ख़ुद फ़ीरोज़पुर झुर्का गए। वहाँ जाने पर मालूम हुआ कि नवाब साहब अलवर गए हुए हैं। उन्हें वहाँ कुछ दिन टिकना पड़ा। जब नवाब लौटे तब उन्होंने सारी बात कही, लेकिन नवाब ने व्यवस्था में कोई परिवर्तन करने से इन्कार कर दिया। तब वह निराश होकर लौटे और तभी उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से अपील करने का निश्चय कर लिया था।
अहमदबख़्श ख़ाँ द्वारा गुप्त परिवर्तन
असलियत यह थी कि नसरुल्लाबेग की मृत्यु के बाद उनकी जागीर (सोंख और सोंसा) अंग्रेज़ों ने ली थी। बाद में 25 हज़ार सालाना पर अहमदबख़्श को दे दी गई। 4 मई, 1806 को लॉर्ड लेक ने अहमदबख़्श ख़ाँ से मिलने वाली 25 हज़ार वार्षिक मालगुज़ारी इस शर्त पर माफ़ कर दी कि वह दस हज़ार सालाना नसरुल्लाबेग ख़ाँ के आश्रितों को दे। पर इसके चन्द दिनों बाद ही 7 जून, 1806 को नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने लॉर्ड लेक से मिल-मिलाकर इसमें गुपचुप परिवर्तन करा लिया था कि, सिर्फ़ 5 हज़ार सालाना ही नसरुल्लाबेग ख़ाँ के आश्रितों को दिए जायें और इसमें ख़्वाजा हाजी भी शामिल रहेगा। इस गुप्त परिवर्तन एवं संशोधन का ज्ञान ‘ग़ालिब’ को नहीं था। इसलिए फ़ीरोज़पुर झुर्का के शासक पर दावा दायर कर दिया कि उन्होंने एक तो आदेश के विरुद्ध पेंशन आधी कर दी, फिर उस आधी में भी ख़्वाजा जी को शामिल कर लिया।
ग़ालिब का दावा
ग़ालिब ने जो मुक़दमा दायर किया था, उसमें पाँच प्रार्थनाएँ थीं-
- 4 मई, 1806 के आदेशानुसार मुझे और मेरे ख़ानदान के दूसरे व्यक्तियों को दस हज़ार रुपये सालाना मिलना चाहिए था। नवाब लोहारू पाँच हज़ार देते हैं और उसमें से भी दो हज़ार एक पराये व्यक्ति ख़्वाजा हाजी या उसके वारिसों को दिया जाता है। जिसका हमारे ख़ानदान से कोई सम्बन्घ नहीं है। भविष्य में दस हज़ार मिलने की आज्ञा दी जाए।
- मई 1806 से लेकर अब तक हमें दस हज़ार सालाना से जितना कम मिला है, वह सारा बक़ाया दिलाया जाए। (ग़ालिब के हिसाब से यह रक़म उस समय डेढ़ लाख रुपये के लगभग होती थी।)
- .हमारी पेंशन में किसी पराये व्यक्ति का हिस्सा नहीं होना चाहिए। (मतलब ख़्वाजा हाजी के बेटों को जो पेंशन मिल रही है, वह बन्द कर दी जाए।)
- आगे से मेरी पेंशन नवाब शम्सुद्दीन ख़ाँ की जगह अंग्रेज़ ख़ज़ाने से सीधी दी जाया करे।
- सम्मान स्वरूप मुझे ख़िताब, ख़िलअत[17] और दरबार का मनसब[18] दिया जाए।
ग़ालिब का विश्वास
मिर्ज़ा को विश्वास था कि उनके कलकत्ता जाने और गवर्नर-जनरल तथा अन्य उच्चाधिकारियों से मिलने का मुक़दमे पर अच्छा प्रभाव पड़ेगा। उस ज़माने में जब यात्रा के इतने साधन सुलभ नहीं थे, मिर्ज़ा ने बहुत विवश होने पर ही इस लम्बी यात्रा का निश्चय किया होगा। अगस्त 1826 ई. के लगभग वह दिल्ली से कलकत्ता जाने के लिए रवाना हुए। लखनऊ के काव्य प्रेमी एवं विद्वज्जन बहुत समय से ही इन्हें बुला रहे थे। पर मौक़ा न मिलता था। अब वह कलकत्ता के लिए निकले तो कानपुर से लखनऊ होते हुए वहाँ जाना तय किया। लखनऊ वालों ने उनका हार्दिक स्वागत किया; उन्हें सिर आँखों पर बिठाया। निम्नलिखित क़ते में उन्होंने लखनऊ का ज़िक्र इस प्रकार से किया है-
वाँ पहुँचकर जो ग़श आता पैहम है हमको।
सद रहे आहंगे-ज़मीं बोसे क़दम है हमको।
लखनऊ आने का बाइस[19] नहीं खुलता यानी,
हविसे-सैरो-तमाशा सो वह कम है हमको।
ताक़त रंजे सफ़र ही नहीं पाते इतना,
हिज्रे याराने वतन[20] का भी आलम[21] है हमको।
आग़ामीर से मुलाक़ात की शर्त
जब मिर्ज़ा ‘ग़ालिब’ लखनऊ पहुँचे तो उन दिनों ग़ाज़ीउद्दीन हैदर अवध के बादशाह थे। वह ऐशो-इशरत में डूबे हुए इन्सान थे। यद्यपि उन्हें भी शेरो-शायरी से कुछ-न-कुछ दिलचस्पी थी। शासन का काम मुख्यत: नायब सल्तनत मोतमुद्दौला सय्यद मुहम्मद ख़ाँ देखते थे, जो लखनऊ के इतिहास में ‘आग़ा मीर’ के नाम से मशहूर हैं। अब तक आग़ा मीर की ड्योढ़ी मुहल्ला लखनऊ में ज्यों का त्यों क़ायम है। उस समय आग़ा मीर में ही शासन की सब शक्ति केन्द्रित थी। वह सफ़ेद स्याहा, जो चाहते थे करते थे। यह आदमी शुरू में एक 'ख़ानसामाँ' (रसोइया) के रूप में नौकर हुआ था, किन्तु शीघ्र ही नवाब और रेज़ीडेंट को ऐसा ख़ुश कर लिया कि वे इसके लिए सब कुछ करने को तैयार रहते थे। उन्हीं की मदद से वह इस पद पर पहुँच पाया था। बिना उसकी सहायता के बादशाह तक पहुँच न हो सकती थी।
ग़ालिब के कुछ हितेषियों ने आग़ामीर तक ख़बर पहुँचाई कि ग़ालिब लखनऊ में मौजूद हैं। आग़ामीर ने कहलाया कि उन्हें मिर्ज़ा की मुलाक़ात से ख़ुशी होगी। मिलने की बात तय हुई, परन्तु मिर्ज़ा ने यह इच्छा प्रकट की कि मेरे पहुँचने पर आग़ामीर खड़े होकर मेरा स्वागत करें और मुझे नक़द-नज़र पेश करने से बरी रखा जाए। आग़ामीर ने इन शर्तों को स्वीकार नहीं किया और मुलाक़ात नहीं हो सकी। ग़ालिब लखनऊ में लगभग पाँच महीने रहे और वहाँ से 27 जून, 1827 शुक्रवार को कलकत्ता के लिए रवाना हुए। अभी सफ़र में ही थे कि ग़ाज़ीउद्दीन हैदर का देहान्त हो गया और उनकी जगह नसीरउद्दीन हैदर गद्दी पर बैठे। बहरहाल आग़ामीर से भेंट न होने के कारण जो फ़ारसी 'क़सीदा' (पद्यात्मक प्रशंसा) ग़ालिब ने दिल्ली से लखनऊ आने तथा अपनी मुसीबतों का ज़िक्र करते हुए लिखा था, वह अवध के बादशाह के सामने पेश न हो सका और नसीरउद्दीन हैदर के गद्दी पर बैठने के सात-आठ वर्ष बाद यह क़सीदा नायब सल्तनत रोशनउद्दौला एवं मुंशी मुहम्मद हसन के माध्यम से दरबार तक पहुँचा और वहाँ पर पढ़ा गया। वहाँ से शायर को पाँच हज़ार रुपये इनाम देने का हुक्म हुआ, पर इसमें से एक फूटी कोड़ी भी ग़ालिब को न मिली। ‘नासिख़’ के कथनानुसार तीन हज़ार रोशनउद्दौला ने और दो हज़ार मुहम्मद हसन ने उड़ा लिए।
अन्य स्थानों की यात्रा
लखनऊ से कलकत्ता (कोलकाता) जाते हुए यह कानपुर, बाँदा, बनारस, पटना और मुर्शिदाबाद में भी ठहरे। लखनऊ से 3 दिन चलकर कानपुर पहुँचे। वहाँ से बाँदा गए। बाँदा में मौलवी मुहम्मदअली सदर अमीन ने इनके साथ बहुत अच्छा व्यवहार किया। इन्हें हर तरह का आराम दिया और कलकत्ता के प्रतिष्ठित एवं प्रभावशाली आदमियों के नाम पत्र भी दिए। बाँदा में ही इन्होंने वह ग़ज़ल लिखी थी, जिसका निम्नलिखित शेर मशहूर है-
यात्रा में कठिनाई भी आई होगी, निराशा भी हुई होगी। यात्राकाल की ग़ज़लों में इसकी भी ध्वनि है-
बाँदा से मोड़ा गए, मोड़ा से चिल्लातारा। फिर वहाँ से नाव द्वारा इलाहाबाद पहुँचे। जान पड़ता है कि इलाहाबाद में कोई अप्रीतिकर साहित्यिक संघर्ष हुआ। पर उसका कहीं कोई विवरण नहीं मिलता। उनके एक फ़ारसी क़सीदे से सिर्फ़ इतना मालूम होता है कि वहाँ कुछ न कुछ हुआ ज़रूर था-
नफ़स बलर्ज़: ज़िवादे नहीबे कलकत्ता,
निगाहे ख़ैर: ज़हंगामए इलाहाबाद।
इलाहाबाद में कुछ ज़्यादा ठहरना चाहते थे पर अवसर न मिला और यह बनारस के लिए रवाना हुए। बनारस पहुँचते-पहुँचते अस्वस्थ हो गए। पर बनारस के जादू ने जैसे ‘हज़ी’ को मुग्ध कर लिया था, वैसे ही उसके चित्ताकर्षक दृश्यों ने इन्हें भी अनुगत बना लिया। बनारस इन्हें इतना भाया कि शाहजहाँनाबाद (दिल्ली) पर भी उसे तर्जीह दी-
जहाँ आबाद गर नबूद अलम नेस्त।
जहानाबाद बादाजाए कमनेस्त।
आख़िर में कहते हैं कि हे प्रभु! बनारस को बुरी नज़र से बचाना। यह नन्दित स्वर्ग है, यह भरा-पूरा स्वर्ग है-
तआलिल्ला बनारस चश्मे बद्दूर।
बहिश्ते खुर्रमो फ़िरदौस मामूर।
बनारस इनको इतना अच्छा लगा कि ज़िन्दगी भर उसे नहीं भूल पाये। 40 साल बाद भी एक पत्र में लिखते हैं कि, ‘अगर मैं जवानी में वहाँ जाता तो, वहीं पर बस जाता।’ बनारस की गंगा नदी एवं प्रभात ने इन्हें मोह लिया था। इनका बड़ा ही ह्रदयग्राही वर्णन उन्होंने किया है। वहाँ की उपासना, पूजा, घंटाध्वनि, मूर्तियों (मानवी और दैवी दोनों) सबके प्रति उनमें आकर्षण उत्पन्न हो गया था। काशी के बारे में कहते हैं कि-
इबादतख़ानए नाक़ूसियाँ अस्त।
हमाना काबए हिन्दोस्ताँ अस्त।
(यह शंखवादकों का उपासना स्थल है। निश्चय ही यह हिन्दुस्तान का काबा है।)
फ़ैसले का पक्ष में न आना
बनारस से नौका द्वारा ही कलकत्ता जाने की उनकी इच्छा थी, पर उसमें व्यय बहुत अधिक था। इसीलिए घोड़े पर रवाना हुए और पटना एवं मुर्शिदाबाद होते हुए 20 फ़रवरी, 1828 को कलकत्ता पहुँचे। यहाँ उन्होंने शिमला बाज़ार में मिर्ज़ा अली सौदागर की हवेली में एक बड़ा मकान दस रुपये मासिक किराये पर लिया। पर इनके कलकत्ता पहुँचने से पूर्व ही नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ की मृत्यु हो गई। इसीलिए अब झगड़ा उनके वारिस शम्सुद्दीन ख़ाँ से शुरू हुआ।
जब मिर्ज़ा अनेक कठिनाइयाँ झेलने के बाद कलकत्ता पहुँचे तो उन्हें गवर्नर-जनरल की कौंसिल का जवाब मिला कि पहले ये मुक़दमा दिल्ली के अंग्रेज़ रेज़ीडेंट के सामने पेश होना चाहिए। वहाँ से रिपोर्ट आने पर ही निर्णय किया जाएगा। उस ज़माने में जब यात्रा बड़ी कष्टसाध्य थी, कलकत्ता से फिर दिल्ली मुक़दमें के लिए लौटना मुश्किल था। इसीलिए वह स्वयं तो कलकत्ता में ही रहे और दिल्ली रेज़ीडेंट से मुक़दमें के लिए हीरालाल नामक व्यक्ति को नियुक्त किया। इन दिनों सर एडवर्ड कोलब्रूक दिल्ली में रेज़ीडेंट थे। मिर्ज़ा ने कलकत्ता के उनके एक मित्र कर्नल हेनरी इम्लाक से भेंट करके उनसे सियासी पत्र लिया। इसी प्रकार कोलब्रुक के मीर मुंशी अल्तफ़ात हुसैन ख़ाँ के नाम भी एक पत्र नवाब अकबर अली ख़ाँ तबातबाई मोतवल्ली इमामबाड़ा हुगली से प्राप्त किया और दोनों खत अपने वकील को दिल्ली भेज दिए। उन लोगों ने मदद करने का वादा किया। ग़ालिब सरकार के सेक्रेटरी एण्डरू एस्टरलिंग से भी मिले। उन्होंने भी मिर्ज़ा को आश्वासन दिया कि न्याय होगा। सर एडवर्ड कोलब्रुक ने भी अपनी रिपोर्ट भी इनके अनुकूल भेद दी। पर कोलब्रुक अव्वल दर्जे का रिश्वतख़ोर था और इसी रिश्वतख़ोरी के जुर्म में वह कुछ दिनों के बाद निकाल दिया गया। उसकी जगह फ़्राँसिस हाकिंस रेज़ीडेट नियुक्त हुआ। हाकिंस की नवाब शम्सुद्दीन से मित्रता थी। स्वभावत: उसने सरकार के पास दूसरी रिपोर्ट भेजी और लिखा की असदउल्ला ख़ाँ 'ग़ालिब' को जो साढ़े सात सौ मिलते रहे हैं, उससे अधिक पाने का वह अधिकारी नहीं है।
बहरहाल जिस उद्देश्य से मिर्ज़ा कलकत्ता गए थे, उसमें उन्हें सफलता नहीं मिली। अफ़सरों ने इज़्ज़त की, मदद का वादा किया, पर कोई ठोस नतीजा नहीं निकला। मिर्ज़ा 'ग़ालिब' को बड़ी आशा थी कि न्याय होगा और फ़ैसला उनके पक्ष में होगा। इसी आशा पर वह डेढ़ वर्ष से ज़्यादा अर्से तक कलकत्ता में पड़े रहे। फ़ैसले में बड़ी देर हो रही थी और हाकिंस के विरोध का भी समाचार भी दिल्ली से आ रहा था। इसीलिए इन्होंने वकील नियुक्त कर दिल्ली लौटने का निर्णय लिया। 29 नवम्बर, 1829 को दिल्ली लौट आए। जिस एस्टरलिंग पर इनको इतना भरोसा था, वह 30 मई, 1830 को मर गया और 27 जनवरी, 1831 ई. को गवर्नर-जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिक ने इनके विरुज़ मुक़दमें का निर्णय दे दिया।
कलकत्ता यात्रा का परिणाम
मुक़दमा हार जाने से जो असर हुआ होगा, उसकी कल्पना की जा सकती है। उनकी समस्त आशाएँ इसी मुक़दमे पर लगी हुई थीं, वे टूट गईं। यात्रा में बहुत अधिक व्यय हुआ, तकलीफ़ें भी उठानी पड़ीं, क़र्ज़ हो गया। कईयों की डिग्रियाँ हुईं। इनके पास क्या था? ऐसी हालत में इन्हें जेल जाना ही था, पर चूँकि इनकी जान-पहचान बड़ों-बड़ों से थी, इसीलिए ये जब तक घर के बाहर न निकलते, इनकी गिरफ़्तारी न होती। महीनों तक यह घर में छिपे बैठे रहे। यही ज़माना था जिसमें इनके कृपालु मित्र फ़्रेज़र की हत्या हुई थी और नवाब शम्सुद्दीन उस समय में पकड़े गए थे और बाद में उन्हें फाँसी हुई थी। चूँकि इनकी शम्सुद्दीन से बनती नहीं थी, इसीलिए बहुत-से लोगों की यह धारणा हुई कि इन्हीं ने जासूसी करके नवाब को पकड़वाया है। दिल्ली वाले शम्सुद्दीन को बहुत मानते थे। इसीलिए लोग इनकी जान के ग्राहक हो गए। एक ओर अर्थकष्ट, दूसरी ओर प्राण का भय। यह समय इनके लिए बड़ा ही बुरा था।
इसीलिए व्यावहारिक दृष्टि से कलकत्ता यात्रा इनके लिए निराशाजनक एवं निरर्थक रही। पर इनकी बौद्धिक सम्पदा और अनुभव-ज्ञान में उससे ख़ूब वृद्धि हुई। नये अनुभव हुए, गुर्वत में नये-नये आदमियों से परिचय हुआ। फिर उस ज़माने में कलकत्ता भारत के क्षितिज पर नया-नया ही उग रहा था। वहाँ एक नई सभ्यता उठ रही थी। औद्योगिक सभ्यता की भूमिका लिखी जा रही थी, उससे उनका साक्षात्कार हुआ। इन्हें वैज्ञानिक आविष्कारों के करिश्मे देखने को मिले। जगमगाती बत्तियाँ, सेवा के लिए नलों में दौड़ता जेल, पंखे झलते वायुदेवता से इनका परिचय हुआ। इससे इनके मानसिक निर्माण पर काफ़ी असर पड़ा। फिर लखनऊ में नासिख़ के नेतृत्व में ज़बान तराश-ख़राश और सफ़ाई की कोशिशें हो रही थीं। उन्हें देखने तथा मार्ग में अनेक विद्वानों से मिलने के बाद इनका दृष्टिकोण स्पष्ट और विशद होता गया। यात्रा के पहिले और बाद की रचना में स्पष्ट अन्तर दिखाई पड़ता है।
ग़ालिब की निरंतर कोशिशें
फ़ैसला अपने पक्ष में न आने पर भी ग़ालिब मुक़दमें में दायर की गईं अपनी माँगों पर डटे रहे और इसके लिए निरन्तर कोशिशें करते रहे। इधर उनकी ये माँगें थी, उधर लोहारू की जायदाद के बारे में खुद भाइयों में झगड़ा था। नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ की वसीयत के अनुसार फ़ीरोज़पुर झुर्का का इलाक़ा शम्सुद्दीन अहमद ख़ाँ एवं परगना लोहारू उनके दोनों छोटे भाइयों-अमीनुद्दीन अहमद ख़ाँ एवं ज़ियाउद्दीन अहमद ख़ाँ के हिस्से में आया था। पिता की मृत्यु होते ही शम्सुद्दीन ने इस बँटवारे के विरुद्ध आवाज़ उठाई और कहा कि ज्येष्ठ पुत्र होने के नाते सारी जायदाद का अधिकार मुझे मिलना चाहिए। दूसरी सन्तति को ज़्यादा से ज़्यादा वृत्ति दिलाई जा सकती है। उन्हें एक और बहाना भी मिल गया। बात यह भी थी कि बड़े होने के कारण् लोहारू का इन्तज़ाम नवाब अमीनुद्दीन ख़ाँ के हाथ था। प्रबन्ध उन्हें सौंपते समय यह शर्त रखी गई थी कि जायदाद की आमदनी से 5210 रुपया सालाना सरकारी ख़ज़ाने में छोटे भाई नवाब ज़ियाउद्दीन के व्यय के लिए जमा कर दिया जाया करे। इसकी ओर ध्यान न दिया गया, इसीलिए शम्सुद्दीन का पक्ष प्रबल हो गया। दिल्ली के रेजीडेण्ट मिस्टर मार्टिन ने शम्सुद्दीन ख़ाँ का समर्थन किया और अन्त में सितम्बर, 1833 में लोहारू का प्रबन्ध भी शम्सुद्दीन ख़ाँ को इस शर्त पर दे दिया गया कि वह अपने दोनों भाइयों को गुज़ारे के लिए 26 हजार रुपये सालाना देते रहेंगे।
मार्टिन के बाद विलियम फ़्रेज़र नये रेज़ीडेण्ट होकर आए। आरम्भ में तो इनकी भी नवाब शम्सुद्दीन से अच्छी मित्रता थी, पर बाद में किसी बात पर दोनों में विरोध हो गया। फ़्रेज़र लोहारू परगना शम्सुद्दीन ख़ाँ को दिए जाने के पक्ष में नहीं थे। उन्हें यह माँग अन्यायपूर्ण लगी। इसीलिए उन्होंने पूरी चेष्टा की कि अंग्रेज़ सरकार इन प्रार्थना को ठुकरा दे, किन्तु फ़ैसला शम्सुद्दीन ख़ाँ के पक्ष में हुआ। इससे दोनों के बीच गाँठ पड़ गई। फ़ैसले के बाद भी फ़्रेज़र ने उसके विरुद्ध सरकार को लिखा और नवाब अमीनउद्दीन ख़ाँ को सलाह दी कि वह कलकत्ता जाकर प्रयत्न करे। उसकी सलाह मानकर अमीनुद्दीन ख़ाँ सितम्बर 1834 में कलकत्ता गए। ग़ालिब ने भी उन्हें अपने कलकत्ता के मित्रों के नाम परिचय पत्र दिए। इन प्रयत्नों के फलस्वरूप पहला हुक्म मंसूख़[28] हो गया और लोहारू दोनों भाइयों को पुन: मिल गया। इससे शम्सुद्दीन और फ़्रेज़र की अनबन शत्रुता में बदल गई।
सीधी पेंशन और नया प्रार्थना पत्र-
22 मार्च, 1835 को फ़्रेज़र ने शाम का खाना राजा किशनगढ़ के जहाँ दरियागंज में खाया। वहाँ से उसे वापिस होने में देर हो गई। फ़्रेज़र बाड़ा हिन्दूराय में एक कोठी में रहते थे। जब रात ग्यारह बजे के लगभग वह अपने मकान को लौट रहे थे, तो मकान से थोड़ी दूर पर किसी ने उन्हें गोली मार दी। उस समय तो हत्यारा बच निकला, लेकिन फ़ौरन तमाम नाके बन्दी कर दी गई। जाँच होने लगी। पुलिस ने शम्सुद्दीन ख़ाँ के दरोगा शिकार करीम ख़ाँ को गिरफ़्तार किया। बाद में नवाब का एक और नौकर वसायल ख़ाँ पकड़ा गया और वह सरकारी गवाह बन गया। उसके बयान पर नवाब दिल्ली बुलाए गए और पुलिस के पहरे में रखे गए। बाद में मुक़दमा चला और 18 अक्टूबर, 1835 को गुरुवार के दिन प्रात:काल कश्मीरी दरवाज़े के बाहर उन्हें 25 वर्ष में फाँसी दे दी गई। नवाब शम्सुद्दीन ख़ाँ की फाँसी के बाद फ़ीरोज़पुर झुर्का की रियासत ज़ब्त कर ली गई और मिर्ज़ा की पेंशन जो वहाँ से मिलती थी, अब सीधे दिल्ली कलेक्टरी से मिलने लगी। सुअवसर देखकर मिर्ज़ा ने फिर एक विस्तृत प्रार्थनापत्र अंग्रेज़ सरकार की सेवा में नवाब की ज़ब्त जायदाद से पूरा हक़ पाने के लिए पेश किया। 18 जून, 1836 को पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ्टिनेण्ट गवर्नर ने फ़ैसला किया कि जो साढ़े बासठ मिलते हैं, वही ठीक हैं। इस पर इन्होंने गवर्नर-जनरल के पास अपील दायर की। पर वहाँ से भी यही फ़ैसला क़ायम रहा। सब ओर से निराश हो जाने पर मिर्ज़ा ने 14 नवम्बर, 1836 को फिर से दर्ख़ास्त दी कि मेरा मुक़दमा सदर दीवानी अदालत कलकत्ता के पास विलायत भेजा जाए। और यदि ये सम्भव न हो तो निर्णय के लिए डाइरेक्टरों के पास विलायत भेजा जाए। 5 दिसम्बर, 1836 को उन्हें फिर से उत्तर मिला कि मुक़दमें के सब काग़ज़ात विलायत भेज दिए जायेंगे और 10 मई, 1837 को ‘लावेली एलायंस’ नामक जहाज़ की डाक से विलायत भेज दिए गए।
ग़ालिब की आशावादिता
काग़ज़ात विलायत भेज दिए जाने से ग़ालिब को बड़ी खुशी हुई और उन्होंने एक फ़ारसी क़ता भी लिखा और आशान्वित होकर पुन: दर्ख़ास्त दी कि मई 1806 से आज तक हमें जितना कम मिला है और जो दो लाख तीन हज़ार होता है, वह उस दो लाख, साठ हज़ार की रक़म में से दिया जाए जो नवाब शम्सुद्दीन ने अपनी फ़ाँसी के पूर्व अंग्रेज़ ख़ज़ाने में जमा कराई थी। दूसरे हमें 3 हज़ार सालाना पेंशन का एप्रिल 1835 तक बक़ाया उस जायदाद से दिलवाया जाए जो नवाब फ़ीरोज़पुर छोड़कर मरे हैं और जब तक डाइरेक्टरों का फ़ैसला विलायते नहीं आ जाता हमें तीन हज़ार सालाना नियमित रूप से मिलता रहे। पर ग़ालिब को मानव प्रकृति का अच्छा ज्ञान नहीं था। वह समझते थे कि अंग्रेज़ ख़ुशामद से क़ाबू में किए जा सकते हैं। बहरहाल ये सब आवेदन निरर्थक सिद्ध हुए और 1842 के आरम्भ में विलायत से अन्तिम फ़ैसला भी आ गया कि जो निर्णय हिन्दुस्तान में हो चुका है, वही ठीक है। पर वाह री मिर्ज़ा की आशावादिता- इतने पर भी उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और 29 जुलाई, 1842 को इस फ़ैसले के विरुद्ध एक अपील, मेमोरियल के ढंग पर, महारानी विक्टोरिया क पास गवर्नर-जनरल के ज़रिये भेजी। पर इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला और 1844 में वह बिल्कुल निराश और पस्त हो गए।
यहाँ यह ख़्याल रखना चाहिए कि मुक़दमा उन्होंने 1828 में दायर किया था और यह अन्तिम फ़ैसला 1844 में, 16 साल के बाद बन्द हुआ। उस ज़माने में जब कि यातायात के साधन दुर्लभ थे, उनका कितना ख़र्च इस पर पड़ा होगा, इसका अंदाज़ा लगया जा सकता है। जो कुछ भी उनके पास था, वह भी इस मुक़दमें में ही समाप्त हो गया। महाजनों के हज़ारों रुपये के क़र्ज़दार हो गए, जो इन्होंने विश्वास पर लिए थे कि मुक़दमें के फ़ैसले से हमें एक बड़ी रक़म मिल जायेगी। 1835 में ही इन पर 40-50 हज़ार का क़र्ज़ हो गया था। निर्णय इनके विरुद्ध होने से क़र्ज़ के बोझ से ऐसे दबे कि ज़िन्दगी भर उभर एवं उबर नहीं सके। ज़िन्दगी क़र्ज़ चुकाते-चुकाते बीती, फिर भी न चुका सके। कठिनाइयों के कारण गृहस्थ जीवन पहले से ही दु:खद था, अब तो उसमें बड़ी जड़ता और निराशा आ गई और उन्होंने भाग्य के आगे कन्धा डाल दिया।
प्रोफ़ेसरी से इन्कार
इन निराशा की घड़ियों में भी मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के सपने पूरे तौर पर टूटे न थे। रस्सी जल गई पर उसमें ऐंठन बाक़ी थी। 1842 ई. में सरकार ने दिल्ली कॉलेज का नूतन संगठन प्रबन्धन किया। उस समय मिस्टर टामसन भारत सरकार के सेक्रेटरी थे। यही बाद में पश्चिमोत्तर प्रदेश के लेफ़्टिनेण्ट गवर्नर हो गए थे और मिर्ज़ा ग़ालिब के हितैषियों में थे। वह कॉलेज के प्रोफ़ेसरों के चुनाव के लिए दिल्ली आए। उस समय तक वहाँ अरबी भाषा की शिक्षा का अच्छा प्रबन्ध था और मिस्टर ममलूकअली अरबी के प्रधान शिक्षक थे, जो अपने विषय के अद्वितीय विद्वान माने जाते थे। पर फ़ारसी भाषा की शिक्षा का कोई संतोषजनक प्रबन्ध न था। टामसन ने इच्छा प्रकट की कि जैसे अरबी की शिक्षा के लिए योग्य अध्यापक हैं, वैसे ही फ़ारसी की शिक्षा देने के लिए भी एक विद्वान अध्यापक रखा जाए। इस मुआइने के समय सदरुस्सदूर मुफ़्ती सदरुद्दीन ख़ाँ ‘आज़ुर्दा’ भी मौजूद थे। उन्होंने कहा, ‘दिल्ली में तीन साहब फ़ारसी के उस्ताद माने जाते हैं। मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ ‘ग़ालिब’, ‘हकीम मोमिन ख़ाँ ‘मोमिन’, और ‘शेख़ इमामबख़्श ‘सहबाई’। टामसन साहब ने प्रोफ़ेसरी के लिए सबसे पहले मिर्ज़ा ग़ालिब को बुलवाया। अगले दिन यह पालकी पर सवार होकर उनके डेरे पर पहुँचे और पालकी से उतरकर दरवाज़े के पास इस प्रतीक्षा में रुक गए कि अभी कोई साहब स्वागत एवं अभ्यर्थना के लिए आते हैं। जब देर हो गई, साहब ने जमादार से देर से आने का कारण पूछा। जमादार ने आकर मिर्ज़ा से दरियाफ़्त किया। मिर्ज़ा ने कह दिया कि चूँकि साहब परम्परानुसार मेरा स्वागत करने बाहर नहीं आए इसीलिए मैं अन्दर नहीं आया। इस पर टामसन साहब स्वयं बाहर निकल आये और बोले, ‘जब आप दरबार में बहैसियत एक रईस या कवि के तशरीफ़ लायेंगे तब आपका स्वागत सत्कार किया जायेगा, लेकिन इस समय आप नौकरी के लिए आये हैं, इसीलिए आपका स्वागत करने कोई नहीं आया।’ मिर्ज़ा ने कहा, ‘मैं तो सरकारी नौकरी इसीलिए करना चाहता था कि ख़ानदानी प्रतिष्ठा में वृद्धि हो, न कि पहले से जो है, उसमें भी कमी आ जाए और बुज़ुर्गों की प्रतिष्ठा भी खो बैठूँ।’ टामसन साहब ने नियमों के कारण विवशता प्रकट की। तब ग़ालिब ने कहा, ‘ऐसी मुलाज़िमत को मेरा दूर से ही सलाम है, और उन्होंने कहारों से कहा कि वापस चलो।’
मिर्ज़ा के इस रवैये से उनके स्वभाव के एक पहलू पर प्रकाश पड़ता है। इस समय वे बड़े अर्थकष्ट में थे, फिर भी उन्होंने निरर्थक बात पर नौकरी छोड़ दी। आश्चर्य तो यह है कि जन्मभर सरकारी ओहदेदारों एवं अंग्रेज़ अफ़सरों की चापलूसी एवं अत्युक्तिभरी स्तुति में ही बीता (जैसा कि उनके लिखे क़सीदों से स्पष्ट है) पर ज़रा-सी और सारहीन बात पर अड़ गए। इससे यह भी ज्ञात होता है कि इस समय उनमें हीनता का भाव बहुत बड़ा हुआ था और वह तुनकमिज़ाज और क्षणिक भावनाओं की आँधी में उड़ जाने वाले हो गए थे।
जुए की लत
इधर चिन्ताएँ बढ़ती गईं, जीवन की दश्वारियाँ बढ़ती गईं, उधर बेकारी, शेरोसख़ुन के सिवा कोई दूसरा काम नहीं। स्वभावत: निठल्लेपन की घड़ियाँ दूभर होने लगीं। चिन्ताओं से पलायन में इनकी सहायक एक तो थी शराब, अब जुए की लत भी लग गई। उन्हें शुरू से शतरंज और चौसर खेलने की आदत थी। अक्सर मित्र-मण्डली जमा होती और खेल-तमाशों में वक़्त कटता था। कभी-कभी बाजी बदकर खेलते थे। ग़दर के पहले उन्हें बड़ा अर्थकष्ट था। सिर्फ़ सरकारी वृत्ति और क़िले के पचास रुपये थे। पर आदतें रईसों जैसी थीं। यही कारण था कि ये सदा ऋणभार से दबे रहते थे। इस ज़माने की दिल्ली के रईसज़ादों और चाँदनी चौक के जौहरियों के बच्चों ने मनोरंजन के जो साधन ग्रहण कर रखे थे, उनमें से जुआ भी एक था। गंजीफ़ा आमतौर पर खेला जाता था। उनके साथ उठते-बैठते हुए मिर्ज़ा को भी यह लत लग गई। धीरे-धीरे नियमित जुआबाज़ी शुरू हो गई। जुए के अड्डेवाले को सदा कुछ न कुछ मिलता है फिर चाहे कोई जीते या हारे। इससे दिल बहलता था, वक़्त कटता था और कुछ न कुछ आमदनी भी हो जाती थी। आज़ाद लिखते हैं, ‘यह ख़ुद भी खेलते थे और चूँकि अच्छे खिलाड़ी थे, इसीलिए इसमें भी कुछ न कुछ मार ही लेते थे।’ अंग्रेज़ी क़ानून के अनुसार जुआ ज़ुर्म था, पर रईसों के दीवानख़ानों पर पुलिस उतना ध्यान नहीं देती थी, जैसे क्लबों में होने वाले ब्रिज पर आज भी ध्यान नहीं दिया जाता है। कोतवाल एवं बड़े अफ़सर रईसों से मिलते-जुलते रहते थे और परिचय के कारण भी सख़्ती नहीं करते थे। ग़ालिब की जान पहचान भी कोतवाल तथा दूसरे अधिकारियों से थी। इसीलिए इनके ख़िलाफ़ न तो किसी तरह का शुबहा किया जाता था और न क़ानूनी कार्रवाहियों का अंदेशा था।
गिरफ़्तारी
सन 1845 के लगभग आगरा से बदलकर एक नया कोतवाल फ़ैजुलहसन आया। इसको काव्य से कोई अनुराग नहीं था। इसीलिए ग़ालिब पर मेहरबानी करने की कोई बात उसके लिए नहीं हो सकती थी। फिर वह एक सख़्त आदमी भी था। आते ही उसने सख़्ती से जाँच करनी शुरू की। कई दोस्तों ने मिर्ज़ा को चेतावनी भी दी कि जुआ बन्द कर दो, पर वह लोभ एवं अंहकार से अन्धे हो रहे थे। उन्होंने इसकी कोई परवाह नहीं की। वह समझते थे कि मेरे विरुद्ध कोई कार्रवाही नहीं हो सकती। एक दिन कोतवाल ने छापा मारा, और लोग तो पिछवाड़े से निकल भागे पर मिर्ज़ा पकड़ लिए गए। मिर्ज़ा की गिरफ़्तारी से पूर्व जौहरी पकड़े गए थे। पर वह रुपया ख़र्च करके बच गए थे। मुक़दमें तक नौबत नहीं आई थी। मिर्ज़ा के पास में रुपया कहाँ था। हाँ, मित्र थे। उन्होंने बादशाह तक से सिफ़ारिश कराई, किन्तु कुछ नतीजा नहीं निकला। जब लोगों को मिर्ज़ा की रिहाई की तरफ़ से निराशा हो गई, तब न केवल दोस्तों ने और साथ उठने-बैठन वालों ने बल्कि अंग्रेज़ों ने भी एक दम आँखें फेर लीं। वे इस बात पर लज्जा का अनुभव करने लगे कि मिर्ज़ा के मित्र या सम्बन्धी कहे जायें।
सज़ा एवं रिहाई
मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के मित्रों में केवल नवाब मुस्तफ़ा ख़ाँ ‘शोफ़्ता’ ने हर क़दम पर इनका साथ दिया। ख़बर मिलते ही वह एक-एक हाकिम से जाकर मिले और मिर्ज़ा की रिहाई की कोशिश की। फिर जब मुक़दमा चला और बाद में उसकी अपील की गई तब भी उसका तमाम ख़र्च ख़ुद ही उठाया। जब तक मिर्ज़ा क़ैद रहे हर दूसरे दिन जाकर उनसे मिलते रहे। इस मामले में मिर्ज़ा का दोष कुछ भी नहीं था। मित्रों की चेतावनी के बावजूद वह नहीं सम्भले। इसके पूर्व भी एक बार इस जुर्म में मिर्ज़ा को 100 रुपये जुर्माना और जुर्माना न देने पर चार मास की क़ैद हुई थी और यह चन्द दिनों के बाद जुर्माना अदा करने पर छूट गए थे। पर इस पर भी वह सावधान नहीं हुए। दोबारा 1847 में जुए के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। गिरफ़्तारी की घटना भी दिलचस्प है। कोतवाल ने बड़ी होशियारी से छापा मारा। मकान घेर लेने के बाद इत्तिला करवाई कि जनानी सवारियाँ आई हैं। इस कारण किसी ने आपत्ति नहीं की। अन्दर जाने पर भेद खुला। लोगों ने विरोध किया। इस पर पुलिस ने भी सख़्ती की। मिर्ज़ा जुआख़ाना चलाने के जुर्म में गिरफ़्तार हुए। मुक़दमा कुँवर वज़ीर अलीख़ाँ मजिस्ट्रेट की अदालत में पेश हुआ। वहाँ सज़ा हुई और अपील में भी बनी रही। 6 माह कठोर कारावास और दो सौ जुर्माने का दण्ड मिला। जुर्माना न देने पर 6 मास और। जुर्माने के अलावा 50 अधिक देने पर श्रम से मुक्ति।[29] जेल में खाना-कपड़ा घर से आता था। जो चाहे जब मिल सकता था। फिर भी इस सज़ा और क़ैद से मिर्ज़ा के अहम को गहरी चोट पहुँची। ‘यादगारे ग़ालिब’ में मौलाना हाली ने इनका एक ख़त उदधृत किया है, जिससे इनकी मनोदशा का पता लगता है। इसमें वह लिखते हैं-
"मैं हर काम को ख़ुदा की तरफ़ से समझता हूँ और ख़ुदा से लड़ा नहीं जा सकता। जो कुछ गुज़रा उसके नंग[30] से आज़ाद और जो कुछ गुज़रने वाला है, उस पर राज़ी हूँ। मगर आरज़ू[31] करना आईने अबूदियत[32] के ख़िलाफ़ नहीं है। मेरी यह आरज़ू है कि अब दुनिया में न रहूँ और रहूँ तो हिन्दुस्तान में न रहूँ। रूम है, मिस्र है, ईरान है, बग़दाद है। यह भी जाने दो; ख़ुद काबा आज़ादों की जाएपनाह[33] आस्तनए रहमतुल आलमीन[34] दिलदारों की तकियागाह[35] देखिए यह वक़्त कब आयेगा कि दरमाँदगी[36] की क़ैद से, जो इस गुज़री हुई क़ैद से ज़्यादा जानफर्सा[37] है, नजात[38] पाऊँ और बग़ैर उसके कोई मंज़िले मक़सद क़रार दूँ, सरब सेहरा निकल जाऊँ। यह है जो मुझ पर गुज़रा और यह है जिसका मैं आरज़ूमन्द हूँ।"
तीन मास बाद ही दिल्ली के सिविल सर्जन डॉक्टर रास की सिफ़ारिश पर मिर्ज़ा छोड़ दिए गए।
क़िले की नौकरी
संयोगवश क़ैद से छूटने के थोड़े ही दिनों बाद कुछ मित्रों की मध्यस्थता से मिर्ज़ा 'ग़ालिब' का दिल्ली दरबार से सम्बन्ध हो गया। इन दिनों मौलाना नसीरउद्दीन उर्फ़ काले साहब बहादुर ज़फ़र के पीर[39] थे। वह ग़ालिब के मित्रों और शुभ-चिन्तकों में से थे। शाही हकीम एहसानउल्ला ख़ाँ भी मिर्ज़ा के प्रशंसकों में से थे। इन लोगों ने सिफ़ारिश की। बहादुरशाह ने मंज़ूर कर लिया कि मिर्ज़ा तैमूरी वंश का इतिहास फ़ारसी भाषा में लिखें। 4 जुलाई, 1850 को यह बादशाह के सामने पेश किए गए। बादशाह ज़फ़र ने नजमुद्दौला दबीरुल्मुल्क निज़ाम जंग की उपाधि प्रदान की और 6 पारचे तथा तीन रत्न का ख़िलअत दिया। पचाय रुपये मासिक वृत्ति नियत हुई और मिर्ज़ा क़िले के मुलाज़िम हो गए।[40]ज़ौंक़
ज़ौंक़ से छेड़छाड़
‘ग़ालिब’ दरबार में कभी-कभी जाया करते थे और उनकी आव-भगत भी होती थी, पर उन्हें वह दर्जा प्राप्त नहीं था, जो कि ज़ौंक़ को प्राप्त था। ज़ौंक़ ज़फ़र के उस्ताद थे। स्वभावत: उनकी इज़्ज़त ज़्यादा थी। उनके साथ ग़ालिब की नोंक-झोंक चलती ही रहती थी।
बहरहाल ज़ौंक़ जब तक रहे, दरबार में ग़ालिब उभर नहीं पाये। 16 अक्टूबर, 1854 को ज़ौंक़ की मृत्यु हो गई। ज़ौंक़ के बाद बादशाह ज़फ़र ने मिर्ज़ा ग़ालिब से इस्लाह लेनी शुरू कर दी। ज़फ़र के सबसे छोटे बेटे शहज़ादे मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान ने भी इनकी शागिर्दी इख़्तियार की। सम्भवत: इसी साल नवाब वाजिद अलीशाह अवध नरेश की ओर से भी पाँच सौ सालाना मिलने लगा। इससे इनकी स्थिति काफ़ी हद तक सुध गई। पर यह अल्पकालिक ही रही, क्योंकि दो ही साल बाद 10 जुलाई, 1856 को मिर्ज़ा फख़्रू की मृत्यु हो गई। उधर 11 फ़रवरी, 1856 को अंग्रेज़ों ने वाजिद अलीशाह को गद्दी से उतारकर कलकत्ता भेज दिया, जहाँ वह मटियाबूर्ज़ में नज़रबन्द कर दिए गए। मई 1857 में ग़दर हो गया और मीरज़ा ख़िज्र सुल्तान हुमायूँ के मक़बरे में गिरफ़्तार कर लिए गए और दिल्ली के बाहर मेजर हडसन की गोली के शिकार हुए। ज़फ़र पर बाग़ियों की मदद करने के जुर्म में मुक़दमा चला और वह अक्टूबर 1858 में रंगून भेज दिए गए, जहाँ 7 नवम्बर, 1862 को उनकी मृत्यु हो गई।
हिन्दू मित्रों की सहायता
1857 के ग़दर के अनेक चित्र मिर्ज़ा 'ग़ालिब' के पत्रों में तथा इनकी पुस्तक ‘दस्तंबू’ में मिलते हैं। इस समय इनकी मनोवृत्ति अस्थिर थी। यह निर्णय नहीं कर पाते थे कि किस पक्ष में रहें। सोचते थे कि पता नहीं ऊँट किस करवट बैठे? इसीलिए क़िले से भी थोड़ा सम्बन्ध बनाये रखते थे। ‘दस्तंबू’ में उन घटनाओं का ज़िक्र है जो ग़दर के समय इनके आगे गुज़री थीं। उधर फ़साद शुरू होते ही मिर्ज़ा की बीवी ने उनसे बिना पूछे अपने सारे ज़ेवर और क़ीमती कपड़े मियाँ काले साहब के मकान पर भेज दिए ताकि वहाँ सुरक्षित रहेंगे। पर बात उलटी हुई। काले साहब का मकान भी लुटा और उसके साथ ही ग़ालिब का सामान भी लुट गया। चूँकि इस समय राज मुसलमानों का था, इसीलिए अंग्रेज़ों ने दिल्ली विजय के बाद उन पर विशेष ध्यान दिया और उनको ख़ूब सताया। बहुत से लोग प्राण-भय से भाग गए। इनमें मिर्ज़ा के भी अनेक मित्र थे। इसीलिए ग़दर के दिनों में उनकी हालत बहुत ख़राब हो गई। घर से बाहर बहुत कम निकलते थे। खाने-पीने की भी मुश्किल थी। ऐसे वक़्त उनके कई हिन्दू मित्रों ने उनकी मदद की। मुंशी हरगोपाल ‘तुफ़्ता’ मेरठ से बराबर रुपये भेजते रहे, लाला महेशदास इनकी मदिरा का प्रबन्ध करते रहे। मुंशी हीरा सिंह दर्द, पं. शिवराम एवं उनके पुत्र बालमुकुन्द ने भी इनकी मदद की। मिर्ज़ा ने अपने पत्रों में इनके प्रति कृतज्ञता प्रकट की है।
मुसलमान हूँ पर आधा
यद्यपि पटियाला के सिपाही आस-पास के मकानों की रक्षा में तैनात थे, और एक दीवार बना दी गई थी। लेकिन 5 अक्टूबर को (18 सितम्बर को दिल्ली पर अंग्रेज़ों का दुबारा से अधिकार हो गया था) कुछ गोरे, सिपाहियों के मना करने पर भी, दीवार फाँदकर मिर्ज़ा के मुहल्ले में आ गए और मिर्ज़ा के घर में घुसे। उन्होंने माल-असबाब को हाथ नहीं लगाया, पर मिर्ज़ा, आरिफ़ के दो बच्चों और चन्द लोगों को पकड़कर ले गए और कुतुबउद्दीन सौदागर की हवेली में कर्नल ब्राउन के सामने पेश किया। उनकी हास्यप्रियता और एक मित्र की सिफ़ारिश ने रक्षा की। बात यह हुई जब गोरे मिर्ज़ा को गिरफ़्तार करके ले गए, तो अंग्रेज़ सार्जेण्ट ने इनकी अनोखी सज-धज देखकर पूछा-‘क्या तुम मुसलमान हो?’ मिर्ज़ा ने हँसकर जवाब दिया कि, ‘मुसलमान तो हूँ पर आधा।’ वह इनके जवाब से चकित हुआ। पूछा-‘आधा मुसलमान हो, कैसे?’ मिर्ज़ा बोले, ‘साहब, शरीब पीता हूँ; हेम (सूअर) नहीं खाता।’
जब कर्नल के सामने पेश किए गए, तो इन्होंने महारानी विक्टोरिया से अपने पत्र-व्यवहार की बात बताई और अपनी वफ़ादारी का विश्वास दिलाया। कर्नल ने पूछा, ‘तुम दिल्ली की लड़ाई के समय पहाड़ी (रिज) पर क्यों नहीं आये, जहाँ अंग्रेज़ी फ़ौज़ें और उनके मददगार जमा हो रहे थे?’ मिर्ज़ा ने कहा, ‘तिलंगे दरवाज़े से बाहर आदमी को निकलने नहीं देते थे। मैं क्यों कर आता? अगर कोई फ़रेब करके, कोई बात करके निकल जाता, जब पहाड़ी के क़रीब गोली की रेंज में पहुँचता तो पहरे वाला गोली मार देता। यह भी माना की तिलंगे बाहर जाने देते, गोरा पहरेदार भी गोली न मारता पर मेरी सूरत देखिए और मेरा हाल मालूम कीजिए। बूढ़ा हूँ, पाँव से अपाहिज, कानों से बहरा, न लड़ाई के लायक़, न मश्विरत के क़ाबिल। हाँ, दुआ करता हूँ सो वहाँ भी दुआ करता रहा।’ कर्नल साहब हँसे और मिर्ज़ा को उनके नौकरों और घरवालों के साथ घर जाने की इजाज़त दे दी।
मिर्ज़ा यूसुफ़ का अन्त
मिर्ज़ा तो बच गए पर इनके भाई मिर्ज़ा यूसुफ़ इतने भाग्यशाली न थे। पहिले ही ज़िक्र किया जा चुका है कि वह 30 साल की आयु में ही विक्षिप्त (पागल) हो गए थे और ग़ालिब के मकान से दूर, फर्राशख़ाने[41] के क़रीब, एक दूसरे मकान में अलग रहते थे। जितनी पेंशन ग़ालिब को सरकारी ख़ज़ाने से मिलती थी, उतनी ही मिर्ज़ा यूसुफ़ के लिए भी नियत थी। उनकी बीवी, बच्चे भी साथ-साथ रहते थे, पर दिल्ली पर अंग्रेज़ों का फिर से अधिकार हुआ तो गोरों ने चुन-चुनकर बदला लेना शुरू किया। इस बेइज़्ज़ती और अत्याचार से बचने के लिए यूसुफ़ की बीवी बच्चों सहित इन्हें अकेले छोड़कर जयपुर चली गई थीं। घर पर इनके पास एक बूढ़ी नौकरानी और एक बूढ़ा दरवान रह गए। मिर्ज़ा को भी सूचना मिली, किन्तु बेबसी के कारण वह कुछ न कर सके। 30 सितम्बर को जब ग़ालिब को अपना दरवाज़ा बन्द किए हुए पन्द्रह-सोलह दिन हो रहे थे, उन्हें सूचना मिली की सैनिक मिर्ज़ा यूसुफ़ के घर आये और सब कुछ ले गए, लेकिन उन्हें और बूढ़े नौकरों को ज़िन्दा छोड़ गए।[42]
इस समय शहर की हालत भयानक थी। 2-4 आदमियों को मिलकर, किसी लाश को दफ़न करने के लिए क़ब्रिस्तान तक ले जाना सम्भव न था। कफ़न के लिए कपड़े भी न मिलते थे। ख़ैर साथियों ने मदद की। मिर्ज़ा का एक नौकर और पटियाला का एक सिपाही उनके साथ गए। कफ़न के लिए दो-तीन सफ़ेद चादरें मिर्ज़ा ने अपने पास से दीं। इन लोगों ने गली के सिरे पर तहव्वरख़ाँ की मस्जिद की[43] सेहन में गड्डा खोदा और शव को उसमें उतारकर मिट्टी डाल दी।
असीम कष्टों की घटाएँ
इस समय मिर्ज़ा ग़ालिब की हालत बहुत ही दयनीय थी। आमदनी के सब रास्ते बन्द थे, जान बचाने की फ़िक्र, भाई की मौत। एक आतंक सब पर छाया हुआ था। ज़िन्दगी भी क्या ज़िन्दगी थी। जो जीवित थे, मरे हुओं से बदतर थे। किसी की भी सुरक्षा नहीं थी। गोरे जिसकी इज़्ज़त-आबरू चाहते ले लेते थे, जिसे चाहते मार देते, उन पर प्रतिहिंसा का भूत सवार था। हकीम महमूद ख़ाँ पटियाला महाराज से सम्बन्ध होने के कारण ग़ालिब का मुहल्ला कुछ सुरक्षित था। बहुत-से लोगों ने भागकर हकीम साहब के यहाँ शरण ली थी। 2 फ़रवरी, 1858 को हाकिम शहर चंद सिपाहियों के साथ ग़ालिब के मुहल्ले में आया और हकीम महमूद ख़ाँ को साठ आदमियों सहित पकड़ ले गया। हकीम साहब एवं उनके कुछ साथी तीन दिन बाद कुछ लोग एक हफ़्ते के बाद रिहा कर दिए गए। हकीम साहब छूटकर घर में नहीं बैठे। हर एक के लिए दौड़े और बेगुनाही के सुबूत दिए। जिससे एप्रिल तक बाक़ी लोग भी रिहा कर दिए गए। मतलब यह कि ग़दर क्या आया, मिर्ज़ा का जीवनाकाश काली घटाओं से घिर गया। घर में जो कुछ भी था, वह ख़त्म हो गया। यार-दोस्त सब गिरफ़्तार और दूर हो गए। आमदनी के सब रास्ते बन्द थे। क़िले की तनख़्वाह भी पहले ही बन्द हो चुकी थी, क्योंकि वहाँ तो देशी फ़ौज का डेरा था। इतना ही बहुत था कि उन लोगों इनको सताया नहीं, अन्यथा अंग्रेज़ों का ‘वज़ीफ़ाख़ार’ कहकर मौत के घाट उतार देते तो उन्हें कौन रोकने वाला था? अंग्रेज़ों की तरफ़ से जो ख़ानदानी पेंशन मिलती थी, वह भी बन्द हो गई थी, क्योंकि दिल्ली पर देशी फ़ौज का क़ब्ज़ा था। अंग्रेज़ दफ़्तर ही कहाँ रह गया था। इस कष्ट के समय नवाब ज़ियाउद्दीन अहमद ने मिर्ज़ा की बीवी उमराव बेगम को पचास रुपये माहवार नियत कर दिया। यह प्रकारान्तर से मिर्ज़ा की ही मदद थी। बेगम को यह वज़ीफ़ा उनकी मृत्यु तक मिलता रहा।
रामपुर से सम्बन्ध
ग़दर से थोड़े ही अरसे पहले मिर्ज़ा का दरबार रामपुर से सम्बन्ध हो गया था। थोड़ा-बहुत सम्बन्ध तो पहले से ही था, क्योंकि जब बचपन में नवाब मुहम्मद यूसुफ़अली ख़ाँ शिक्षा के लिए दिल्ली आए तो उन्होंने ग़ालिब से फ़ारसी पढ़ी थी। पर बाद में यह सिलसिला टूट गया था। जब 1855 ई. में वह गद्दी पर बैठे तो मिर्ज़ा ने क़िता[44] लिखकर भेजा, लेकिन परिणाम कुछ न निकला।[45] नवाब ने ध्यान नहीं दिया। बाद में जब ग़ालिब के हितैषी और मित्र मोहम्मद फ़ज़लहक ख़ेराबादी रामपुर में थे, उन्होंने मिर्ज़ा को तैयार किया कि वह नवाब के पास क़सीदा[46] भेजें। मिर्ज़ा ने क़सीदा भेजा। मोहम्मद फ़ज़लहक ने भी सिफ़ारिश की। इसके उत्तर में नवाब ने 5 फ़रवरी, 1857 को एक ख़त में चंद शेर इस्लाह के लिए मिर्ज़ा के पास भेजे[47]। तब से मिर्ज़ा का दरबार रामपुर से नियमित सम्बन्ध हो गया। जान पड़ता है कि नवाब साहब ने इस प्रारम्भिक कलाम में युसूफ़ तख़ल्लुस किया था, पर मिर्ज़ा के सुझाव पर ‘नाज़िम’ पसन्द किया। पर इनकी कोई मासिक वृत्ति नहीं बँधी थी। वैसे नवाब बीच-बीच में रुपये भेजते रहते थे। पहिले ही पत्र के साथ ढाई सौ भेजे थे।
पेंशन की चिन्ता
यह सम्बन्ध हुए थोड़ ही दिन हुए थे कि ग़दर में सब व्यवस्था छिन्न-भिन्न हो गई। आँधी आई और चली गई तब इन्हें पेंशन की चिन्ता हुई। ग़ालिब का ख़्याल था कि शान्ति स्थापित होते ही मेरी पेंशन बहाल हो जायगी। जब न हुई तो वही चापलूसी वाला ढंग इख़्तियार किया। महारानी विक्टोरिया तथा उच्चाधिकारियों की प्रशंसा में क़सीदे लिखकर दिल्ली के अधिकारियों की मार्फ़त भेजे, किन्तु 17 मार्च, 1857 को कमिश्नर दिल्ली ने यह लिखकर उन्हें वापस भेज दिया कि इनमें कोरी प्रशंसा एवं स्तुति के सिवा कुछ नहीं है। जब इसके कुछ मास बाद अक्टूबर में दस्तंबू छपी तो मिर्ज़ा ने जिल्द लगवाकर 2 विलायत और 4 प्रतियाँ हिन्दुस्तान में उच्चाधिकारियों को भेंट कीं। संचालक शिक्षा विभाग पश्चिमोत्तर प्रदेश ने बड़ी प्रशंसा की और मिस्टर मैकलियाड फिनांशल कमिश्नर ने ख़ुद लिखकर कमिश्नर दिल्ली की मार्फ़त यह किताब मिर्ज़ा से मंगवाई। यह सब तो हुआ, पर अधिकारियों का दिल इनकी ओर से साफ़ न हुआ। जनवरी 1860 में मेरठ में बड़ा दरबार हुआ। अन्य दरबारी बुलाए गए पर मिर्ज़ा को नहीं बुलाया गया। फिर जब गवर्नर-जनरल का कैम्प मेरठ से दिल्ली आया और मिर्ज़ा ने चीफ़ सेक्रेटरी के ख़ीमे में मुलाक़ात के लिए अपना टिकट भिजवाया तो वहाँ से जवाब मिला कि ग़दर के दिनों में तुम बाग़ियों से रब्त-ज़ब्त रखते थे।[48] अब गवर्नमेण्ट से क्यों मिलना चाहते हो। लॉर्ड कैनिंग की तारीफ़ में जो क़सीदा लिखा था वह भी वापिस कर दिया गया कि अब ये चीज़ें हमारे पास न भेजा करो।[49]
निराशाजनक स्थिति
इस समय इनकी हालत बहुत ख़राब थी। यहाँ तक की घर के कपड़े-लत्ते बेचकर दिन कट रहे थे। इन निराशाजनक स्थिति में लाचार होकर इन्होंने दिल्ली से बाहर चले जाने का निर्णय किया। नवाब अमीनुद्दीन अहमदख़ाँ तथा ज़ियाउद्दीन अहमदख़ाँ एवं उनकी माँ बेगम जान साहबा ने इस शर्त पर इनके प्रस्ताव को स्वीकार किया कि उमराव बेगम और बच्चे लोहारू चले जाएँ। इस निर्णय की सूचना नवाब अलाउद्दीन अहमदख़ाँ को, जो उस समय लोहारू में थे, देते हुए लिखते हैं-
"अपना मक़सूद[50] तुम्हारे वालिद[51] माजिद[52] से कह चुका हूँ। खुलासा यह है कि मेरी बीवी और बच्चों को, कि तुम्हारी क़ौम के हैं, मुझसे ले लो कि मैं इस बोझ का मोतहमिल हो नहीं सकता। मेरा क़स्द[53] सियाहत[54] का है। पेंशन अगर खुल जाएगा तो वह अपने सर्फ़ में लाया करूँगा। जहाँ जी लगा वहाँ रह गया। जहाँ से दिल उजड़ा चल दिया।"
निराशा में बीवी बच्चे बोझ मालूम होते थे और सब मुसीबतें उन्हीं की वजह से आती मालूम पड़ती थीं और इच्छा भी होती थी कि अकेले-
‘रहिए अब ऐसी जगह चलकर जहाँ कोई न हो’[55]
खैर तय यह हुआ कि बीवी बच्चे लोहारू जाएँ और यह पटियाला जाकर रहें। इस बीच इन्होंने महाराज अलवर एवं पटियाला की तारीफ़ में क़सीदे लिखे और मदद चाही। पटियाला के प्रतिष्ठित नागरिक महमूदख़ाँ के यह पड़ोसी थे। दस वर्ष से एक जगह रह रहे थे। हकीम महमूदख़ाँ के दो भाई हकीम मुर्त्तज़ाख़ाँ और हकीम ग़ुलाम अल्लाख़ाँ पटियाला नरेश महाराज नरेन्द्रसिंह की सेवा में थे। उनकी इच्छा भी थी कि ग़ालिब कुछ दिन वहाँ जाकर रहें। पर जब क़सीदे के जवाब में कोई अनुकूल उत्तर न मिला तब इन्होंने वहाँ जाने का विचार त्याग दिया।
रामपुर से मासिक वृत्ति
इधर से निराश होकर ग़ालिब ने नवाब रामपुर से दर्ख़ास्त की कि मेरा कोई नियमित वज़ीफ़ा तय कर दिया जाए। नवाब ने 16 जुलाई, 1859 को उत्तर दिया कि आपको 100 रुपया मासिक वेतन पहुँचता रहेगा।[56] नवाब रामपुर (यूसुफ़ अलीख़ाँ) ने मिर्ज़ा को कई बार रामपुर निमंत्रित किया। दिल्ली पर अंग्रेज़ों का क़ब्ज़ा होते ही इन्होंने रामपुर आने का आश्वासन दिया था, पर इन्हें सरकारी पेंशन की उम्मीद अब भी लगी थी। इसीलिए दिल्ली छोड़ते न बनते थी। नवाब रामपुर ने दूसरी बार 25 नवम्बर, 1858 को बुलवाया, तो इन्होंने जवाब दिया, ‘मेरे हाज़िर होने को जी इरशाद होता है, मैं वहाँ न आऊँगा तो कहाँ जाऊँगा। पेंशन के वसूल का ज़माना क़रीब आया है। उसे मुल्तवी छोड़कर क्यों चला आऊँ? सुना जाता है और यक़ीन भी आता है कि आग़ाज साल 59 ईस्वी यह क़िस्सा अंज़ाम पाये। जिसको रुपया मिलना है उसको रुपया, जिसको जवाब मिलना है, उसको जवाब मिल जाये।’[57]
कैसी दृढ़ आशा एवं निष्ठा थी, इस आदमी को अंग्रेज़ों की न्यायप्रियता में। पर निराश तो होना ही था। 1860 के शुरू में जब गवर्नर-जनरल ने इनसे मुलाक़ात करने से इन्कार कर दिया, तब इनकी नींद टूटी और जब अन्तिम उत्तर मिल गया, तब इनकी आँखें खुलीं। इस बीच दिसम्बर 1859 में पुन: नवाब रामपुर इन्हें निमंत्रित कर चुके थे। इसीलिए अंग्रेज़ों से निराश होकर 19 जनवरी, 1860 को यह रामपुर के लिए रवाना हुए और 27 जनवरी को वहाँ पहुँच गए।[58]
स्वास्थ्य का निरन्तर गिरना
मिर्ज़ा 'ग़ालिब' का ज़िन्दगी भर कर्ज़दारों से पिण्ड नहीं छूट सका। इनके सात बच्चे भी हुए थे, लेकिन जितने भी हुए सब मर गए। 'आरिफ़' (गोद लिया हुआ बेटा) को बेटे की तरह की पाला, वह भी मर गया। पारिवारिक जीवन कभी सुखी एवं प्रेममय नहीं रहा। मानसिक संतुलन की कमी से ज़माने की शिकायत हमेशा रही। इसका दु:ख ही बना रहा कि समाज ने कभी हमारी योग्यता और प्रतिभा की सच्ची क़द्रदानी न की। फिर शराब जो किशोरावस्था में मुँह लगी थी, वह कभी नहीं छूटी। ग़दर के ज़माने में अर्थ-कष्ट, उसके बाद पेंशन की बन्दी। जब इनसे कुछ फुर्सत मिली तो ‘क़ातअ बुरहान’ के हंगामे ने इनके दिल में ऐसी उत्तेजना पैदा की कि बेचैन रखा। इन लगातार मुसीबतों से इनका स्वास्थ्य गिरता ही गया। खाना-पीना बहुत कम हो गया। बहरे हो गए। दृष्टि-शक्ति भी बहुत कम हो गई। क़ब्ज़ की शिकायत पहले से ही थी। मई 1848 में क़ोलज का आक्रमण पहली बार हुआ और बीच-बीच में बराबर आता रहा। 1861 में इतने दर्बल थे कि नवाब रामपुर मुहम्मद यूसुफ़ ख़ाँ ने अपने मझले पुत्र हैदरअली ख़ाँ का निकाह किया और उसमें इन्हें निमंत्रित किया। पर बीमारी एवं दुर्बलता के कारण वहाँ न जा सके।
चर्मरोग से कष्ट
दिन पर दिन स्वास्थ्य ख़राब होता जा रहा था। एक न एक रोग लगे रहते थे। जीवन के उत्तर काल में ख़ून भी ख़राब हो गया। इसके कारण प्राय: चर्मरोग होते रहते थे। इस चर्मरोग से उन्हें बड़ी तकलीफ़ उठानी पड़ी। एक फोड़ा बैठता या पकता कि दूसरा तैयार हो जाता। वर्षों तक यह सिलसिला चलता रहा। इनके पत्रों को पढ़ने से समय की इनकी तकलीफ़ों का कुछ अंदाज़ किया जा सकता है। 3 मई, 1863 को एक पत्र में लिखते हैं कि-
"छठा महीना है कि सीधे हाथ में एक फुंसी ने फोड़े की सूरत पैदा की। फोड़ा पककर फूटा और फूटकर एक ज़ख़्म और ज़ख़्म एक 'ग़ार' (गड्डा, गर्त) बन गया। हिन्दुस्तानी 'जर्राहों' (शल्य चिकित्सक) का इलाज रहा। बिगड़ता गया। दो महीने से काले डाक्टर का इलाज है। सलाइयाँ दौड़ रही हैं; उस्तरे से गोश्त कट रहा है। बीस दिन से इफ़ाक़ा (लाभ) की सूरत नज़र आती है।"
नवम्बर, 1863 में क़ाज़ी अब्दुलजमील को एक ख़त में लिखते हैं कि-
"जितना ख़ून बदन में था, बेमुवालग़ा आधा उसमें से पीप होकर निकल गया।"
लम्बी बीमारी
फोड़ों से मुक्ति मिली तो 1863 में फ़त्क़[59] की शिकायत हुई। इन शारीरिक व्याधियों में पारिवारिक सौख्य एवं दाम्पत्य स्नेह के अभाव ने ज़िन्दगी को स्वादहीन कर दिया था। जीने की इच्छा नहीं रह गई थी। मृत्यु की आकांक्षा करने लगे थे। जून, 1863 के एक पत्र में लिखते हैं कि-
"सन 1277 हिजरी में मेरा न मरना सिर्फ़ तकज़ीब के वास्ते था। हर रोज़ मर्गे नौ[60] का मज़ा चखता हूँ। रूह मेरी अब जिस्म में इस तरह घबराती है, जिस तरह तायर[61] क़फ़स[62] में। कोई शग़ल, कोई इख़्तिलात,[63] कोई जल्सा, कोई मजमा पसंद नहीं। किताब से नफ़रत, शेर से नफ़रत, जिस्म से नफ़रत, रूह से नफ़रत। जो कुछ लिखा है बेमुबालग़ा और बयाने वाक़अ है।"
मृत्यु की आकांक्षा और करुणाजनक पत्र
मानसिक उलझनों, शारीरिक कष्टों और आर्थिक चिन्ताओं के कारण जीवन के अन्तिम वर्षों में यह प्राय: मृत्यु की आकांक्षा किया करते थे। हर साल अपनी मृत्यु तिथि निकालते। पर विनोद वृत्ति अन्त तक बनी रही। एक बार जब मृत्यु तिथि का ज़िक्र अपने शिष्य से किया तो उसने कहा, ‘इंशा अल्ला, यह तिथि भी ग़लत साबित होगी।’ इस पर मिर्ज़ा बोले, ‘देखो साहब! तुम ऐसी काल फ़ाल मुँह से न निकालो। अगर यह तिथि ग़लत साबित हुई तो मैं सिर फोड़कर मर जाऊँगा।’
कभी-कभी यह सोचकर और दुखी हो जाते थे कि उनके बाद उनके आश्रितों का क्या होगा। ऐसे समय दिल को समझाते थे कि बीवी के सम्बन्धी उसे भूखों मरने न देंगे। नवाब अमीनउद्दीन ख़ाँ, लोहारू नरेश को एक पत्र में लिखा कि-
"मेरी ज़ौजा[64] तुम्हारी बहन, मेरे बच्चे तुम्हारे बच्चे हैं। ख़ुद जो मेरी हक़ीकी[65] भतीजी है, उसकी औलाद भी तुम्हारी औलाद है। न तुम्हारे वास्ते बल्कि इन बेकसों[66] के वास्ते तुम्हारा दुआगो[67] हूँ और तुम्हारी सलामती चाहता हूँ। तमन्ना यह है और इंशा अल्ला ऐसा ही होगा कि तुम जीते रहो और मैं तुम दोनों (अमीनउद्दीन व ज़ियाउद्दीन) के सामने मर जाऊँ, ताकि अगर इस क़ाफ़ले को रोटी न दोगे तो चने दोगे। अगर चने भी न दोगे और बात न पूछोगे तो मेरी बला से। मैं तो मुआफ़िक़[68] अपने तसव्वुर[69] के इन ग़मज़दों के ग़म में न उलझूँगा।"
अन्तकाल
मिर्ज़ा 'ग़ालिब' को मृत्यु के कई दिन पहले से बेहोशी के दोरे आने लगे थे। कई-कई घंटों बाद कुछ देर के लिए होश आता; फिर बेहोश हो जाते। देहावसान से एक रोज़ पहले की दो घटनाएँ स्मरणीय हैं। लम्बी बेहोशी के बाद कुछ होश आया था। ‘हाली’ गए तो पहचाना। नवाब अलाउद्दीन ख़ाँ ने लोहारू से हाल पुछवाया था। उनको जवाब लिखवाया, ‘मेरा हाल मुझसे क्या पूछते हो। एकाध रोज़ में हमसायों से पूछना।’ इसी रोज़ कुछ खाने को माँगा। खाना आया तो नौकर से कहा कि मीरज़ा जीवन-बेग (मिर्ज़ा बाक़रअली ख़ाँ की सबसे बड़ी लड़की) को बुलाओ। यह प्राय: उन्हीं के पास खेला करती थी, पर उस समय अन्दर चली गई थी। कल्लु मुलाज़िम[70] बुलाने अन्त:पुर में गया तो वह सो रही थी। उसकी माँ बुग्गा बेगम ने कहा, ‘सो रही है, यूँ ही जगती है, भेजती हूँ।’ कल्लू ने जाकर यही बात कह दी। इस पर बोले, ‘बहुत अच्छा।’ जब वह आयेगी, तब हम खाना खायेंगे। पर उसके बाद ही तकिये पर सिर रखकर बेहोश हो गए। हकीम महमूद ख़ाँ और हकीम अहसन उल्ला ख़ाँ को ख़बर दी गई। उन्होंने आकर जाँच की और बतलाया, ‘दिमाग़ पर फ़ालिज[71] गिरा है।’ बहुत यत्न किया पर सब बेकार हुआ। फिर उन्हें होश न आया और उसी हालत में अगले दिन, 15 फ़रवरी, 1869 ई., दोपहर ढले उनका दम टूट गया। एक ऐसी प्रतिभा का अन्त हो गया, जिसने इस देश में फ़ारसी काव्य को उच्चता प्रदान की और उर्दू गद्य-पद्य को परम्परा की श्रृंखलाओं से मुक्त कर एक नये साँचे में ढाला।
अन्तिम क्रिया
मृत्यु के बाद इनके मित्रों में इस बात को लेकर मतभेद हुआ कि शिया या सुन्नी, किस विधि से इनका मृतक संस्कार हो। ग़ालिब शिया थे, इसमें किसी को सन्देह की गुंजाइश न थी, पर नवाब ज़ियाउद्दीन और महमूद ख़ाँ ने सुन्नी विधि से ही सब क्रिया-कर्म कराया और जिस लोहारू ख़ानदान ने 1847 ई. में समाचार पत्रों में छपवाया था कि ग़ालिब से हमारा दूर का सम्बन्ध है, उसी ख़ानदान के नवाब ज़ियाउद्दीन ने सम्पूर्ण मृतक संस्कार करवाया और उनके शव को गौरव के साथ अपने वंश के क़ब्रिस्तान (जो चौसठ खम्भा के पास है) में अपने चचा के पास जगह दी।
इनकी मृत्यु पर बहुतों ने मर्सिये लिखे, जिनमें हाली, मजरूह और सालिक के मर्सिये मशहूर हैं। उनके समाधि स्तम्भ पर मजरूह का निम्नलिखित क़िता खुदा हुआ है-
या हय्यि या क़य्यूम
रश्के उर्फ़ी व फ़ख्रे तालिब मर्द
असदउल्ला ख़ाने ग़ालिब मर्द
कल में ग़मों अन्दोह में बाख़ातिरे महजूँ
था तुर्बते उस्ताद पै बैठा हुआ ग़मनाक
देखा तो मुझे फ़िक्र में तारीख़ की ‘मजरूह’
हातिफ़ ने कहा-‘गंजे मआनी है तहेख़ाक’।
मिर्ज़ा की मृत्यु का उनकी पत्नी तथा अन्य आश्रितों पर क्या प्रभाव पड़ा होगा, इसकी कल्पना मात्र की जा सकती है। मिर्ज़ा की ज़िन्दगी ज़्यादातर दु:खों में बीती। पारिवारिक सुख के लिए ये सदा ही तरसते रहे। सात बच्चे हुए-पुत्र और पुत्रियाँ। पर कोई भी पन्द्रह महीने से ज़्यादा नहीं जी पाया। पत्नी से भी वह हार्दिक सौख्य न मिला, जो जीवन की दम घोटने वाली घाटियों के बीच चलते हुए मनुष्यों को बल प्रदान करता है।
उमराव बेगम
मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब' की मृत्यु के बाद उनकी विधवा उमराव बेगम पर जो विपत्तियाँ आई होंगी, उनकी कल्पना की जा सकती है। अंग्रेज़ सरकार से मिलने वाली पेंशन, रामपुर का वज़ीफ़ा सब बन्द हो गया। ऋणदाताओं के तक़ाज़े से अन्त तक ग़ालिब परेशान रहे। अब वह बोझ भी इन पर आ पड़ा। मृत्यु के समय मिर्ज़ा पर 800 रुपये का क़र्ज़ था, जिसके लिए उन्होंने रामपुर दरबार से प्राथना की थी, पर अभी तक उसका कुछ न हुआ। 1 अगस्त, 1869 को उमराव बेगम ने नवाब रामपुर को निम्नलिखित पत्र भेजा-
"जनाब आली! जिस रोज़ से मिर्ज़ा असदउल्ला ख़ाँ ने वफ़ात[72] पाई है, तो यह आज़िज़ बेवा इस क़दर मसायब[73] में गिरफ़्तार है कि तहरीर के बाहर है। अव्वल तो यह मुसीबत है कि मिर्ज़ा साहब मरहूम आठ सौ रुपये क़र्ज़दार मरे, दूसरी मुसीबत यह है कि पेंशन अंग्रेज़ी मस्दूद[74] हुई, तीसरी यह कि तनख़्वाह सौ रुपये माहवार, जो आप अज़राहे क़द्रदानी के मिर्ज़ा मरहूम को इरसाल फ़र्माते[75] थे, वह भी एक लख़्त मौक़ूफ़[76] हुई। अब तक क़र्ज़ लेकर औक़ात बसर की। अब क़र्ज़ भी नहीं मिलता। नौबत फ़ाक़ाक़शी[77] की पहुँची। अब दुआगो की यह तमन्ना है कि ऐसी परवरिश मुझ ज़ईफ़ा[78] की हो जाए कि मिर्ज़ा मरहूम हक़े अबाद से बरी हो जायें कि यह सख़्त अज़ाब है। अगर हुज़ूर सूरते अदाए क़र्ज़ फ़रमावें तो कमाले सबाबे अज़ीम[79] होगा।" पेंशन मेरी दस रुपये अंग्रेज़ करता है[80]। बशर्तें की मैं कचहरी में हाज़िर होऊँ और मेरा कचहरी में जाना हर्मिज़ न होगा, गो फ़ाक़ों ही मर जाऊँ। क्या मैं अपने पिता और चचा और शौहर का नाम रोशन करूँ। और जो इज़्ज़त और रियासत मेरे चचा की और हुर्मत मेरे वालिद की और शौहर की आगे ख़ासोआम के थी, हुज़ूर पर सब रोशन है।"
इस करुणाजनक अर्ज़ी पर भी नवाब रामपुर का दिल नहीं पसीजा। 2 सितम्बर, 1869 को बेचारी विधवा ने दोबारा लिखा। इस पर 9 सितम्बर को नवाब मिर्ज़ा ‘दाग़’ को हुक्म हुआ कि जाँच करके रिपोर्ट करें। 30 अक्टूबर को नवाब ने हुक्म दिया कि उमराव बेगम को 600 रुपये की हुण्डी भेजी जाए।
पता नहीं चलता कि यह 600 रुपये की हुण्डी किस हिसाब से भेजी गई, न ही यह पता चलता है कि वह भेजी भी गई या नहीं और भेजी भी गई तो उमराव बेगम को मिली या नहीं। इन दु:ख की घड़ियों में उमराव बेगम के चचेरे भाई और मिर्ज़ा के शिष्य नवाब ज़ियाउद्दीन ख़ाँ ने मदद की और 25 या 50 रुपये मासिक वृत्ति भी नियत कर दी, जो उन्हें मृत्यु तक मिलती रही। नवाब ज़ियाउद्दीन आजीवन और जीवानान्तर भी ग़ालिब के सहायक रहे। जब ग़दर में पेंशन बन्द हो गई थी, तब भी 50 रुपये माहवार उमराव बेगम को देते रहे। पर उमराव बेगम वैधव्य का दु:ख झेलने के लिए ज़्यादा दिन ज़िन्दा न रहीं और शौहर की मृत्यु के ठीक एक वर्ष बाद 4 फ़रवरी, 1870 को, दिन के 10-11 बजे परलोक वासिनी हो गईं।
ग़ालिब का व्यक्तित्व
ग़ालिब का व्यक्तित्व बड़ा ही आकर्षक था। ईरानी चेहरा, गोरा-लम्बा क़द, सुडौल एकहरा बदन, ऊँची नाक, कपोल की हड्डी उभरी हुई, चौड़ा माथा, घनी उठी पलकों के बीच झाँकते दीर्घ नयन, संसार की कहानी सुनने को उत्सुक लम्बे कान, अपनी सुनाने को उत्सुक, मानों बोल ही पडेंगे। ऐसे ओठ अपनी चुप्पी में भी बोल पड़ने वाले, बुढ़ापे में भी फूटती देह की कान्ती जो इशारा करती है कि जवानी के सौंदर्य में न जाने क्या नशा रहा होगा। सुन्दर गौर वर्ण, समस्त ज़िन्दादिली के साथ जीवित, इसी दुनिया के आदमी, इंसान और इंसान के गुण-दोषों से लगाये-यह थे मिर्ज़ा वा मीरज़ा ग़ालिब।
वस्त्र विन्यास और भोजन
रईसज़ादा थे और जन्म भर अपने को वैसा ही समझते रहे। इसीलिए वस्त्र विन्यास का बड़ा ध्यान रखते थे। जब घर पर होते, प्राय: पाजामा और अंगरखा पहिनते थे। सिर पर कामदानी की हुई मलमल की गोल टोपी लगाते थे। जाड़ों में गर्म कपड़े का कलीदार पाजामा और मिर्ज़ई। बाहर जाते तो अक्सर चूड़ीदार या तंग मोहड़ी का पाजामा, कुर्ता, सदरी या चपकन और ऊपर क़ीमती लबादा होता था। पाँव में जूती और हाथ में मूठदार, लम्बी छड़ी। ज़्यादा ठण्ड होती तो एक छोटा शाल भी कंधे और पीठ पर डाल लेते थे। सिर पर लम्बी टोपी। कभी-कभी टोपी पर मुग़लई पगड़ी या पटका। रेशमी लुंगी के शौक़ीन थे। रंगों का बड़ा ध्यान रखते थे।
खाने-खिलाने के शौक़ीन, स्वादिष्ट भोजनों के प्रेमी थे। गर्मी-सर्दी हर मौसम में उठते ही सबसे पहले ठण्डाई पीते थे, जो बादाम को पीसकर मिश्री के शर्बत में घोली जाती थी। फिर पहर दिन चढ़े नाश्ता करते थे। बुढ़ापे में एक ही बार, दोपहर को खाना खाते; रात को कभी न खाते। खाने में गोश्त ज़रूर रहता था, शायद ही कभी नागा हुआ हो। गोश्त के ताज़ा, बेरेशा, पकने पर मुलायम और स्वादिष्ट रहने की शर्त; फिर मेवे भी उसमें ज़रूर पड़े हों और सोरबा आधा सेर के लगभग। बकरी एवं दुम्बे का गोश्त अधिक पसंद था, भेंड़ का अच्छा नहीं लगता था। पक्षियों में मुर्ग, कबूतर और बटेर पसंद था। गोश्त और तरकारी में अपना बस चलते चने की दाल ज़रूर डलवाते थे।
चने की दाल, बेसन की कढ़ी और फुलकियाँ बहुत खाते थे। बुढ़ापे एवं बीमारी में जब मेदा ख़राब हो गया, तो रोटी-चावल दोनों छोड़ दिए और सेर भर गोश्त की गाढ़ी यख़नी और कभी-कभी 3-4 तले शमामी कबाब लेते थे। फलों में अंगूर और आम बहुत पसंद थे। आमों को तो बहुत ही ज़्यादा चाहते थे। मित्रों से उनके लिए फ़रमाइश करते रहते थे, और इसके बारे में अनेक लतीफ़े इनकी ज़िन्दगी से सम्बद्ध हैं। हुक्का पीते थे, पेचवान को ज़्यादा पसंद करते थे। पान नहीं खाते थे। शराब जन्म भर पीते रहे। पर बुढ़ापे में तन्दुरुस्ती ख़राब होने पर नाम को चन्द तोले शाम को पीते। बिना पिये नींद न आती थी। सदा विलायती शराब पीते थे। ओल्ड टाम और कासटेलन ज़्यादा पसंद थी। शराब की तेज़ी कम करने को आधे से ज़्यादा गुलाबजल मिलाते थे। पात्र को कपड़े से लपेटते और गर्मी के दिनों में कपड़े को बर्फ़ से तर कर देते। ख़ुद ही कहा है-
आसूदा बाद ख़ातिरे ग़ालिब कि ख़ूए औस्त
आमेख़्तन ब बादए साक़ी गुलाब रा।
शराब की चुस्की लेते और साथ-साथ धीमे तले नमकीन बादाम खाते। जब दुर्बल हुए तो इन्हें ख़ुद शराब पीने पर अनुताप होता था। पर आदत छूटती न थी। फिर भी मात्रा कम करने के लिए एक समय, एकान्त में दो या एक ख़ास दोस्तों की उपस्थिति में पीते थे। कहीं ज़्यादा न पी लें, इसीलिए संदूक़ में बोतलें रखते थे उसकी चाबी इनके वफ़ादार सेवक कल्लू दारोग़ा के पास रहती थी और उसे ताक़ीद कर रखा था कि रात को कभी नशे या सुरूर में मैं ज़्यादा पीना चाहूँ और माँगूँ तो मेरा कहना न मानना और
तलब करने पर भी कुंजी (चाबी) न देना। लोगों के पूछने पर भी कि यों नाम करने से क्या फ़ायदा, छोड़ ही न दें, ‘जौंक़’ का शेर पढ़ते थे-
छूटती नहीं है मुँह से यह काफ़िर लगी हुई।
शिष्टता एवं उदार व्यक्तित्व
मिर्ज़ा के विषय में पहली बात तो यह है कि वह अत्यन्त शिष्ट एवं मित्रपराण थे। जो कोई उनसे मिलने आता, उससे खुले दिल से मिलते थे। इसीलिए जो आदमी एक बार इनसे मिलता था, उसे सदा इनसे मिलने की इच्छा बनी रहती थी। मित्रों के प्रति अत्यन्त वफ़ादार थे। उनकी खुशी में खुशी, उनके दु:ख में दु:ख। मित्रों को देखकर बाग़-बाग़ हो जाते थे। उनके मित्रों का बहुत बड़ा दायरा था। उसमें हर जाति, धर्म और प्रान्त के लोग थे। मित्र को कष्ट में देखते तो इनका ह्रदय रो पड़ता था। उसका दु:ख दूर करने के लिए जो कुछ भी सम्भव होता था करते थे। स्वयं न कर पाते तो दूसरों से सिफ़ारिश करते। इनके पत्रों में मित्रों के प्रति सहानुभूति एवं चिन्ता के झरने बहुत हुए दिखाई देते हैं। मित्रों को कष्ट में देख ही नहीं सकते थे। उनका दिल कचोटने लगता था। ह्रदय में रस था, इसीलिए प्रेम छलक पड़ता था। मित्रों क्या शागिर्दों से भी बहुत प्रेम करते थे। इनको इस्लाह ही नहीं देते थे; संसाधनों का कारण भी लिखते थे। बच्चों पर जान देते थे। आमदनी कम थी। ख़ुद कष्ट में रहते थे, फिर भी पीड़ितों के प्रति बड़े उदार थे। कोई भिखारी इनके दरवाज़े से ख़ाली हाथ नहीं लौटता था। उनके मकान के आगे अन्धे, लंगड़े-लूले अक्सर पड़े रहते थे। मिर्ज़ा उनकी मदद करते रहते थे। एक बार ख़िलअत मिली। चपरासी इनाम लेने आए। घर में पैसे नहीं थे। चुपके से गए, ख़िलअत बेच आए और चपरासियों को उचित इनाम दिया।
आत्म-स्वाभिमान
इस उदार दृष्टि के बावजूद आत्माभिमानी थे- ‘मीर’ जैसे तो नहीं, जिन्होंने दुनिया की हर नामत अपने सम्मान के लिए ठुकराई, फिर भी अपनी इज़्ज़त-आबरू का बड़ा ख़्याल रखते थे। शहर के अनेक सम्भ्रान्त लोगों से परिचय था। लेकिन जो इनके घर पर न आता था, उसके यहाँ कभी नहीं जाते थे। कैसी ग़रीबी हो बाज़ार में बिना पालकी या हवादार के नहीं निकलते थे। कलकत्ता जाते हुए जब लखनऊ ठहरे थे, तो आग़ामीर से इसीलिए नहीं मिले कि उसने उठकर इनका स्वागत करने की शर्त मंज़ूर नहीं की थी। ग़ालिब के आत्म-सम्मान की हालत यह थी कि जब उन्हें दिल्ली कॉलेज में फ़ारसी भाषा के मुख्य अध्यापक का पद पेश किया गया तो अपनी दुरावस्था सुधारने के विचार से वे टामसन साहब (सेक्रेटरी, गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया) के बुलावे पर उनके यहाँ पहुँचे, तो यह देखकर कि टामसन साहब उनके स्वागत के लिए बाहर नहीं आए, उन्होंने कहारों को पालकी वापस ले चलने को कह दिया[81]।
सर्व धर्मप्रिय व्यक्ति
वैसे वह शिया मुसलमान थे, पर मज़हब की भावनाओं में बहुत उदार और स्वतंत्र चेता थे। इनकी मृत्यु के बाद ही आगरा से प्रकाशित होने वाले पत्र ‘ज़ख़ीरा बालगोविन्द’ के मार्च, 1869 के अंक में इनकी मृत्यु पर जो सम्पादकीय लेख छपा था और जो शायद इनके सम्बन्ध में लिखा सबसे पुराना और पहला लेख है, उससे तो एक नई बात मालूम होती है कि यह बहुत पहले चुपचाप ‘फ़्रीमैसन’ हो गए थे और लोगों के बहुत पूछने पर भी उसकी गोपनीयता की अन्त तक रक्षा करते रहे। बहरहाल वह जो भी रहे हों, इतना तो तय है कि मज़हब की दासता उन्होंने कभी स्वीकार नहीं की। इनके मित्रों में हर जाति, धर्म और श्रेणी के लोग थे।
विनोदप्रिय व मदिरा प्रेमी
मिर्ज़ा ग़ालिब जीवन संघर्ष से भागते नहीं और न इनकी कविता में कहीं निराशा का नाम है। वह इस संघर्ष को जीवन का एक अंश तथा आवश्यक अंग समझते थे। मानव की उच्चता तथा मनुष्यत्व को सब कुछ मानकर उसके भावों तथा विचारों का वर्णन करने में वह अत्यन्त निपुण थे और यह वर्णनशैली ऐसे नए ढंग की है कि, इसे पढ़कर पाठक मुग्ध हो जाता है। ग़ालिब में जिस प्रकार शारीरिक सौंदर्य था, उसी प्रकार उनकी प्रकृति में विनोदप्रियता तथा वक्रता भी थी और ये सब विशेषताएँ उनकी कविता में यत्र-तत्र झलकती रहती हैं। वह मदिरा प्रेमी भी थे, इसलिये मदिरा के संबंध में इन्होंने जहाँ भाव प्रकट किए हैं, वे शेर ऐसे चुटीले तथा विनोदपूर्ण हैं कि, उनका जोड़ उर्दू कविता में अन्यत्र नहीं मिलता।
ख़ुद का घर न होना
ग़ालिब सदा किराये के मकानों में रहे, अपना मकान न बनवा सके। ऐसा मकान ज़्यादा पसंद करते थे, जिसमें बैठकख़ाना और अन्त:पुर अलग-अलग हों और उनके दरवाज़े भी अलग हों, जिससे यार-दोस्त बेझिझक आ-जा सकें। नौकर 4-4, 5-5 रखते थे। बुरे से बुरे दिनों में भी तीन से कम न रहे। यात्रा में भी 2-3 नौकर साथ रहते थे। इनके पुराने नौकरों में मदारी या मदार ख़ाँ, कल्लु और कल्यान बड़े वफ़ादार रहे। कल्लु तो अन्त तक साथ ही रहा। वह चौदह वर्ष की आयु में मिर्ज़ा के पास आया था और उनके परिवार का ही हो गया था। वह पाँव की आहट से पहिचान लेता था कि लड़कियाँ हैं, बहुएँ हैं या बुढ़िया हैं।
काव्यशैली में परिवर्तन
मिर्ज़ा ग़ालिब ने फ़ारसी भाषा में कविता करना प्रारंभ किया था और इसी फ़ारसी कविता पर ही इन्हें सदा अभिमान रहा। परंतु यह देव की कृपा है कि, इनकी प्रसिद्धि, सम्मान तथा सर्वप्रियता का आधार इनका छोटा-सा उर्दू की ‘दीवाने ग़ालिब’ ही है। इन्होंने जब उर्दू में कविता करना आरंभ किया, उसमें फ़ारसी शब्दावली तथा योजनाएँ इतनी भरी रहती थीं कि, वह अत्यंत क्लिष्ट हो जाती थी। इनके भावों के विशेष उलझे होने से इनके शेर पहेली बन जाते थे। अपने पूर्ववर्तियों से भिन्न एक नया मार्ग निकालने की धुन में यह नित्य नए प्रयोग कर रहे थे। किंतु इन्होंने शीघ्र ही समय की आवश्यकता को समझा और स्वयं ही अपनी काव्यशैली में परिवर्तन कर डाला तथा पहले की बहुत-सी कविताएँ नष्ट कर क्रमश: नई कविता में ऐसी सरलता ला दी कि, वह सबके समझने योग्य हो गई।
नए गद्य के प्रवर्तक
मिर्ज़ा ग़ालिब ने केवल कविता में ही नही, गद्यलेखन के लिये भी एक नया मार्ग निकाला था, जिस पर वर्तमान उर्दू गद्य की नींव रखी गई। सच तो यह है कि, ग़ालिब को नए गद्य का प्रवर्तक कहना चाहिए। इनके दो पत्र-संग्रह, ‘उर्दु-ए-हिन्दी’ तथा ‘उर्दु-ए-मुअल्ला’ ऐसे ग्रंथ हैं कि, इनका उपयोग किए बिना आज कोई उर्दू गद्य लिखने का साहस नहीं कर सकता। इन पत्रों के द्वारा इन्होंने सरल उर्दू लिखने का ढंग निकाला और उसे फ़ारसी अरबी की क्लिष्ट शब्दावली तथा शैली से स्वतंत्र किया। इन पत्रों में तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विवरणों का अच्छा चित्र हैं। ग़ालिब की विनोदप्रियता भी इनमें दिखलाई पड़ती है। इनकी भाषा इतनी सरल, सुंदर तथा आकर्षक है कि, वैसी भाषा कोई उर्दू लेखक अब तक नहीं लिख सका। ग़ालिब की शैली इसलिये भी विशेष प्रिय है कि, उसमें अच्छाइयाँ भी हैं और कच्चाइयाँ भी, तथा पूर्णता और त्रुटियाँ भी हैं। यह पूर्णरूप से मनुष्य हैं और इसकी छाप इनके गद्य पद्य दोनों पर है।
बेहतरीन शायर
मिर्ज़ा असदउल्ला बेग़ ख़ान 'ग़ालिब' का स्थान उर्दू के चोटी के शायर के रूप में सदैव अक्षुण्ण रहेगा। उन्होंने उर्दू साहित्य को एक सुदृढ़ आधार प्रदान किया है। उर्दू और फ़ारसी के बेहतरीन शायर के रूप में उनकी ख्याति दूर-दूर तक फैली तथा अरब एवं अन्य राष्ट्रों में भी वे अत्यन्त लोकप्रिय हुए। ग़ालिब की शायरी में एक तड़प, एक चाहत और एक आशिक़ाना अंदाज़ पाया जाता है। जो सहज ही पाठक के मन को छू लेता है।
ग़ालिब का दीवान
उनकी ख़ूबसूरत शायरी का संग्रह 'दीवान-ए-ग़ालिब' के रूप में 10 भागों में प्रकाशित हुआ है। जिसका अनेक स्वदेशी तथा विदेशी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है।
रचनाएँ
ग़ालिब ने अपनी रचनाओं में सरल शब्दों का प्रयोग किया है। उर्दू गद्य-लेखन की नींव रखने के कारण इन्हें वर्तमान उर्दू गद्य का जन्मदाता भी कहा जाता है। इनकी अन्य रचनाएँ 'लतायफे गैबी', 'दुरपशे कावेयानी', 'नामाए ग़ालिब', 'मेह्नीम' आदि गद्य में हैं। फ़ारसी के कुलियात में फ़ारसी कविताओं का संग्रह हैं। दस्तंब में इन्होंने 1857 ई. के बलवे का आँखों देखा विवरण फ़ारसी गद्य में लिखा हैं। ग़ालिब ने निम्न रचनाएँ भी की हैं-
- 'उर्दू-ए-हिन्दी'
- 'उर्दू-ए-मुअल्ला'
- 'नाम-ए-ग़ालिब'
- 'लतायफे गैबी'
- 'दुवपशे कावेयानी' आदि।
इनकी रचनाओं में देश की तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक स्थिति का वर्णन हुआ है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ अंगूर से सम्बन्ध रखने वाली या एक प्रकार की मदिरा
- ↑ 'जामे-जम' कहते हैं- जमशेद ने एक ऐसा जाम (प्याला) बनवाया था, जिससे संसार की समस्त वस्तुओं और घटनाओं का ज्ञान हो जाता था। जान पड़ता है, इस प्याले में कोई ऐसी चीज़ पिलाई जाती होगी, जिसे पीने पर तरह-तरह के काल्पनिक दृश्य दिखने लगते होंगे। जामेजम के लिए जामे जमशेद, जामे जहाँनुमा, जामे जहाँबीं इत्यादि शब्द भी प्रचलित हैं।
- ↑ ग़ालिब की रचनाएँ-कुल्लियाते नस्र और उर्दू-ए-मोअल्ला, देखने से मालूम होता है कि उनके पिता अब्दुल्ला बेग ख़ाँ, जिन्हें 'मिर्ज़ा दूल्हा' भी कहा जाता था, पहले लखनऊ जाकर नवाब आसफ़उद्दौला की सेवा में नियुक्त हुए। कुछ ही दिनों बाद वहाँ से हैदराबाद चले गए और नवाब निज़ाम अलीख़ाँ की सेवा की। वहाँ 300 सवारों के अफ़सर रहे। वहाँ भी ज़्यादा दिन नहीं टिके और अलवर पहुँच गए तथा वहाँ के राजा बख़्तावर सिंह की नौकरी में रहे। 1802 ई. में वहीं गढ़ी की लड़ाई में उनकी मृत्यु हो गई। पर पिता की मृत्यु के बाद भी वेतन असदउल्ला ख़ाँ (ग़ालिब) तथा उनके छोटे भाई यूसुफ़ को मिलता रहा। तालड़ा नाम का एक गाँव भी जागीर में मिला था।
- ↑ किसी लड़ाई में लड़ते हुए हाथी से गिरकर 1806 ई. में इनका देहान्त हुआ था।
- ↑ न जाने कैसे, इसके एक मास बाद ही 7 जून, 1806 ई. को, गुप्त रूप से, नवाब अहमदबख़्श ख़ाँ ने अंग्रेज़ सरकार से एक दूसरा आज्ञापत्र प्राप्त कर लिया, जिसमें लिखा था कि, ‘नसरुल्ला बेग ख़ाँ के सम्बन्धियों को 5,000 सालाना पेंशन इस रूप में दी जाए-(1.) ख़्वाजा हाजी (जो कि 50 सवारों के अफ़सर थे)- दो हज़ार सालाना। (2.) नसरुल्ला बेग ख़ाँ की माँ और तीन बहनें-डेढ़ हज़ार सालाना। (3.) मीरज़ा नौशा और मीरज़ा यूसुफ़ (नसरुल्ला बेग के भतीजों) को डेढ़ हज़ार सालाना। इस प्रकार 10 हज़ार से 5 हज़ार हुए और 5 हज़ार से भी सिर्फ़ 750-750 सालाना ग़ालिब और उनके छोटे भाई को मिले।
- ↑ यह बड़ी हवेली.......अब भी पीपलमण्डी आगरा में मौजूद है। इसी का नाम ‘काला’ (कलाँ?) महल है। यह निहायत आलीशान इमारत है। यह किसी ज़माने में राजा गजसिंह की हवेली कहलाती थी। राजा गजसिंह जोधपुर के राजा सूरजसिंह के बेटे थे और अहदे जहाँगीर में इसी मकान में रहते थे। मेरा ख़्याल है कि मिर्ज़ा ग़ालिब की पैदाइश इसी मकान में हुई होगी। आजकल (1838 ई.) यह इमारत एक हिन्दू सेठ की मिल्कियत है और इसमें लड़कियों का मदरसा है।-‘ज़िक्रे ग़ालिब’ (मालिकराम), नवीन संस्मरण, पृष्ठ 21
- ↑ ‘आदगारे ग़ालिब’ (हाली)-इलाहाबादी संस्करण पृष्ठ 13।
- ↑ स्थायी क़ैद
- ↑ जारी
- ↑ कारागार
- ↑ प्रेम का परिचय
- ↑ विद्युत पर न्यौछावर
- ↑ जागरण
- ↑ दुर्बल
- ↑ पीत रंग
- ↑ यह ख़्वाजा हाजी या उनके पिता ख़्वाजा क़ुतुबउद्दीन ग़ालिब के दादा क़ौक़नबेग ख़ाँ के साथ ही हिन्दुस्तान आए थे। कई लोगों ने उन्हें ‘ग़ालिब’ के वंश का ही बताया है। उनका कहना है कि वह ‘ग़ालिब’ के पूर्व पुरुष तरमस ख़ाँ के छोटे भाई रुस्तम ख़ाँ के वंशज थे। इस विषय में कुछ ठीक-ठीक नहीं कहा जा सकता है। ख़ुद ग़ालिब का तो कहना यह था कि, ‘ख़्वाजा हाजी के पिता मेरे दादा क़ौक़नबेग ख़ाँ का साईस था और उसकी औलाद तीन पुश्त से हमारी नमकख़ार हैं।’ पर सम्भव है कि ‘ग़ालिब’ ने जल-भुनकर ऐसा लिखा हो। इतना तो तय है कि दोनों सम्बन्धी थे, क्योंकि जिस मिर्ज़ा जीवनबेग के पुत्र मिर्ज़ा अकबरबेग से ‘ग़ालिब’ की बहन (मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग की भतीजी) छोटी ख़ानम ब्याही थी, उन्हीं जीवनबेग की बेटी अमीरुन्निसा बेगम से ख़्वाजा हाजी की शादी हुई थी।
- ↑ राज की ओर से दिए जाने वाले वस्त्र, जो तीन से कम नहीं होते।
- ↑ कोई पद या स्थान
- ↑ कारण
- ↑ वतन के मित्रों के वियोग
- ↑ दुख
- ↑ प्रशंसक
- ↑ संयम व्रत करने वाला
- ↑ स्वर्गोंपन
- ↑ विस्मृति का ताक़
- ↑ परदेश निवास
- ↑ भट्ठी
- ↑ (रद्द, निरस्त)
- ↑ ‘दिल्ली का आख़िरी साँस’ पृष्ठ 174 तथा अहरुनुल अख़बार बम्बई 2 जुलाई, 1847।
- ↑ बदनामी, लज्जा
- ↑ इच्छा, आशा, उम्मीद
- ↑ उपासना, सिद्धान्त
- ↑ आश्रयस्थान
- ↑ संसार पर दया करने वाले (ईश्वर) का स्थान
- ↑ रसिकों का आश्रय
- ↑ हीनता, बेकारी, विवशता
- ↑ प्राणलेवा
- ↑ मुक्ति
- ↑ ध्रर्मगुरु
- ↑ उस समय क़िले की परम्परा थी, कि साल में दो बार वेतन मिलता था। एक तो पचास रुपये मासिक, फिर 6-6 महीने में मिलता था। उसका परिणाम यह होता था कि महाजन के सूद में ही काफ़ी रक़म कट जाती थी। ग़ालिब ने पहली छमाही किसी तरह से काटी, पर जनवरी 1851 में दर्ख़ास्त पेश की कि रोज़ाना की ज़रूरतों का क्या करूँ उन्हें इतने दिनों के लिए स्थगित तो नहीं किया जा सकता। फलत: महाजनों से क़र्ज़ लेता हूँ और सूद में तनख़्वाह का काफ़ी हिस्सा निकल जाता है। पहली छमाही के वेतन का एक तिहाई इसी में चला जाता है-
आपका बन्दा और फिर नंगा।
आपका नौकर और खाऊँ उधार।
मेरी तनख़्वाह कीजिए माह बमाह।
ता न हो मुझको ज़िन्दगी दुश्वार।
तुम सलामत रहो हज़ार बरस।
हर बरस के हों दिन पचास हज़ार।इस प्रार्थना पत्र के बाद इन्हें वेतन हर मास में मिलने लगा।
- ↑ वह मकान जिसमें फ़र्श वग़ैरह रखे जाते हैं
- ↑ ग़ालिब के एक निकट सम्बन्धी मिर्ज़ा मुईनउद्दीन ने लिखा है कि यूसुफ़ गोली की आवाज़ सुनकर, यह देखने के लिए कि क्या हो रहा है, घर से बाहर आये और मारे गए।–ग़दर की सुबह-शाम, पृष्ठ 88
- ↑ मालिक राम साहब लिखते हैं-फर्राशख़ाने से बावली की तरफ़ जायें तो यह मस्जिद ‘नया बाँस’ के पास उल्टे हाथ को पड़ती है। इसके निर्माणकर्ता तहव्वरख़ाँ ताश्कन्दी मुहम्मदशाह के राज्य काल में शाहजहाँपुर के ज़मींदार थे। वर्तमान मस्जिद नई बनी है। अब इसकी कुर्सी ऊँची है और सेहन के नीचे बाज़ार में दुकानें हैं।
- ↑ फ़ारसी और उर्दू पद्य का एक प्रकार जिसमें ग़ज़ल के समान काफ़िया अनिवार्य होता है और जिसमें कोई एक ही बात कही जाती है।
- ↑ मकातीबे ग़ालिब पृष्ठ 3
- ↑ फ़ारसी आदि में कविता का एक प्रकार जिसमें किसी बड़े व्यक्ति की प्रशंसा की जाती है।
- ↑ मकातीबे ग़ालिब पृष्ठ 120
- ↑ ग़दर में इनका सम्बन्ध बहादुरशाह से छूटा न था। आगरा के अख़बार आफ़ताब आलिमताब में छपा था कि 12 जुलाई, 1857 को मिर्ज़ा नौशा (ग़ालिब) ने बहादुरशाह की तारीफ़ में क़सीदा पढ़ा था। श्रीमालिकराम ने इसे 18 जुलाई लिखा है।
- ↑ ग़ालिबनामा 145-46
- ↑ आशा, मंशा, इच्छा
- ↑ पिता, पितृ, जनक
- ↑ बुर्ज़ुग
- ↑ संकल्प, इरादा
- ↑ पर्यटन, यात्रा
- ↑ ज़िक्रे ग़ालिब, पृष्ठ 101
- ↑ मकातीबे ग़ालिब, 82, उर्दू-ए-मोअल्ला 120
- ↑ मकातीबे ग़ालिब, पृष्ठ 12
- ↑ उर्दूए-मोअल्ला, पृष्ठ 170
- ↑ अंत्रवृद्धि, आँत उतरने
- ↑ नवमरण
- ↑ पक्षी
- ↑ पिंजरे
- ↑ प्रेम व्यवहार
- ↑ स्त्री
- ↑ सच्चा, वास्तविक
- ↑ पीड़ितों
- ↑ दुआ देने वाला, शुभ चिंतक
- ↑ मित्र, दोस्त
- ↑ ध्यान, विचार
- ↑ दास, सेवक
- ↑ पक्षाघात, लकवा
- ↑ मृत्यु
- ↑ कष्ट
- ↑ बन्द
- ↑ भेजते थे
- ↑ स्थगित
- ↑ भूखों रहना
- ↑ वृद्धा
- ↑ परम पुण्य
- ↑ उमराव बेगम ने अंग्रेज़ों के यहाँ दर्ख़ास्त दी थी कि मिर्ज़ा साहब की पेंशन हुसेन अली ख़ाँ के नाम कर दी जाए। डिप्टी कमिश्नर ने इसकी सिफ़ारिश की पर कमिश्नर ने आदेश दिया कि ऐसा नहीं हो सकता; हाँ बेबा को दस रुपये महावार वज़ीफ़ा मिल सकता है, बशर्ते कि वह कचहरी में हाज़िर हों। बेगम ग़ालिब ने यह शर्त क़बूल न की
- ↑ ग़ालिब जहाँ पर भी जाते थे, चार कहारों की पालकी में बैठकर जाते थे
बाहरी कड़ियाँ
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