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जमदग्नि भृगु के पौत्र तथा ब्रह्मर्षि ऋचीक और सत्यवती के पुत्र थे। पौराणिक गाथाओं के अनुसार जमदग्नि परशुराम के पिता थे। ऋग्वेद में उल्लिखित धार्मिक ऋषियों में जमदग्नि का नाम आता है। जमदग्नि का नाम कुछ मंत्रों, मंत्रों के रचयिता के रूप में तथा एक मंत्र में विश्वामित्र के सहयोगी के रूप में उल्लिखित है।[1]

विवाह

जमदग्नि का विवाह प्रसेनजित (रेणु) की कन्या रेणुका से हुआ था। महाभारत के अनुसार जमदग्नि ने वेदों का सांगोपांग अध्ययन कर उनका ज्ञान दुह लिया और तब उन्होंने सूर्यवंश के राजा प्रसेनजित (रेणु) के पास जाकर उनकी कन्या रेणुका को ब्याहा और आश्रम बना कर उसमें निवास करने लगे। उनकी पत्नी राजकन्या का वैभव छोड़कर तापसी का जीवन बिताने लगी। रेणुका से जमदग्नि के पाँच पुत्र हुए- रूमण्वान, सुषेण, वसु, विश्वावसु और परशुराम।

अन्य कथाओं के अनुसार

  • अथर्ववेद, यजुर्वेद एवं ब्राह्मणों में प्राय: जमदग्नि का उल्लेख है। इनकी उन्नति तथा इनके परिवार की सफलता का कारण चतुरात्र यज्ञ बताया गया है। अथर्ववेद में इनका सम्बन्ध अत्रि, कण्व, असित एवं वीतहव्य से बताया गया है। शुन: शेष के प्रस्तावित यज्ञ के ये अध्वर्यु पुरोहित थे। जमदग्नि को हैहयों ने अपमानित कर इनकी कामधेनु गाय छीन ली थी। इसका प्रतिशोध परशुराम ने लिया और उत्तर भारत के क्षत्रिय राजाओं को मिलाकर हैहयों को परास्त और ध्वस्त किया।
  • डॉ. भगवतशरण उपाध्याय के शब्दों में "विष्णुपुराण का कथन है कि जब सत्यवती गर्भवती हुई तब उसके पति ने उसे एक प्रकार की मंत्रपूत खीर खिलायी जिससे उसका पुत्र ब्राह्मण के गुणों से संयुक्त उत्पन्न हो। ऐसी ही खीर ऋचीक ने सत्यवती की माता को भी खिलायी जिससे उसका पुत्र योद्धा हो पर संयोग से खीर के पात्र बदल गये और परिणामत: ऋचीक के पुत्र जमदग्नि क्षत्रियकर्मा और गाधि के तनय विश्वामित्र ब्राह्मणकर्मा हुए, तथा आचार में पूर्ववत उनकी प्रतिष्ठा हो जाये और पिता के शाप से प्राण-विरहित हो गये चारों भाइयों ज्ञान पुन: जीवन दान और ज्ञान मिल जाय। जमदग्नि ने उन्हें यथेप्सित वर दे दिया।

एक दिन जब रेणुका स्नान के लिए गयी तब उसने प्रेमासक्त मानव- मिथुन को जल में क्रीड़ा करते देखा और स्नान कर जब आश्रम में लौटी तो जलसिक्त तो नि:संदेह थी पर स्नान से पुनीत नहीं ऐसा ऋषि ने सोचा। जमदग्नि उसकी स्थिति से अत्यंत क्षुब्ध हो उठे और आयुक्रम से जैसे-जैसे उनके पुत्र बाहर से आते गए वैसे-वैसे वे उनसे माता का वध करने के लिए कहते गए। पर उनके चार पुत्रों ने माता-वध का जघन्य पाप करने से इंकार कर दिया। परशुराम को जब यही आदेश मिला तब उन्होंने माता रेणुका का सिर अपने परशु से काट दिया जिससे प्रसन्न होकर पिता ने उनसे वर मांगने को कहा। परशुराम ने माँगा कि माता पुनर्जीवित हो उठे तथा आचार में पूर्ववत उनकी प्रतिष्ठा हो जाये और पिता के शाप से प्राण-विरहित हो गये चारों भाइयों पुन: जीवन दान और ज्ञान मिल जाय। जमदग्नि ने उन्हें यथेप्सित वर दे दिया।[2]

  • इस सम्बन्ध में एक कथा और भी कही जाती है। हैहयों का राजा कार्तवीर्य जमदग्नि ऋषि तथा उनके पुत्रों की अनुपस्थिति में, उनके आश्रम में पहुँचा, जिसका ऋषिपत्नी ने प्रभूत अतिथि-सत्कार किया। पर अपनी शक्ति के दर्प में चूर कार्तवीर्य ने आश्रम के वृक्ष उखाड़ फेंके और जमदग्नि के तप से अर्जित आश्रम की गाय अपहृत कर ली। इससे जमदग्नि की पत्नी भी दुखी हुई। तो स्थिति जान कार्तवीर्य का पीछा किया ओर उसके सहस्त्र हाथ काट डाले। बाद में कार्तवीर्य के पुत्रों ने परशुराम की अनुपस्थिति में जमदग्नि को मार दिया। परशुराम जब लौटे और पिता की यह गति देखी तब उनके शव को चिता पर रखते हुए उन्होंने प्रण किया कि मैं क्षत्रियों का इक्कीस बार नाश करूँगा और उन्हें कभी शस्त्रज्ञान नहीं दूँगा। कार्तवीर्य के पुत्रों को खोजकर उन्होंने एक-एक कर वध किया और इक्कीस बार क्षत्रियों का संहार किया।[2]

टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. पाण्डेय, डॉ. राजबली हिन्दू धर्मकोश, 1988 (हिन्दी), भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान, 275।
  2. 2.0 2.1 मिश्र, प्रो. देवेंद्र “2”, भारतीय संस्कृति कोश (हिन्दी)। भारत डिस्कवरी पुस्तकालय: यूनिवर्सिटी पब्लिकेशन, 328-329।