छत्रपति शिवाजी महाराज
छत्रपति शिवाजी / Chatrapati Shivaji
शाहजी भोंसले की पहली पत्नी जीजाबाई ने शिवाजी को 16 अप्रैल, 1630 को शिवनेरी के दुर्ग में जन्म दिया। शिवनेरी का दुर्ग पूना (पुणे) से उत्तर की तरफ़ जुन्नार नगर के पास था। शाहजी भोंसले ने शिवाजी के जन्म के उपरान्त ही अपनी पत्नी को प्रायः त्याग दिया था। उनका बचपन बहुत उपेक्षित रहा और वे सौतेली माँ के कारण बहुत दिनों तक पिता के संरक्षण से वंचित रहे। उनके पिता शूरवीर थे और अपनी दूसरी पत्नी तुकाबाई मोहिते पर आकर्षित थे। जीजाबाई उच्च कुल में उत्पन्न प्रतिभाशाली होते हुए भी तिरस्कृत जीवन जी रही थीं। जीजाबाई यादव वंश से थीं। उनके पिता एक शक्तिशाली और प्रभावशाली सामन्त थे। बालक शिवाजी का लालन-पालन उनके स्थानीय संरक्षक दादाजी कोणदेव तथा जीजाबाई के समर्थ गुरु रामदास की देखरेख में हुआ। माता जीजाबाई तथा गुरु रामदास ने कोरे पुस्तकीय ज्ञान के प्रशिक्षण पर अधिक बल न देकर शिवाजी के मष्तिष्क में यह भावना भर दी थी कि देश, समाज, गौ तथा ब्राह्मणों को मुसलमानों के उत्पीड़न से मुक्त करना उनका परम कर्तव्य है। शिवाजी स्थानीय मवाली लोगों के बीच रहकर शीघ्र ही उनमें अत्यधिक सर्वप्रिय हो गये। उनके साथ आस-पास के क्षेत्रों में भ्रमण करने से उनको स्थानीय दुर्गों और दर्रों की भली प्रकार व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त हो गयी। कुछ स्वामिभक्त मवाली लोगों का एक दल बनाकर उन्होंने उन्नीस वर्ष की आयु में पूना के निकट तीरण के दुर्ग पर अधिकार करके अपना जीवन-क्रम आरम्भ किया। उनके हृदय में स्वाधीनता की लौ जलती थी। उन्होंने कुछ स्वामिभक्त साथियों को संगठित किया। धीरे धीरे उनका विदेशी शासन की बेड़ियाँ तोड़ने का संकल्प प्रबल होता गया। शिवाजी का विवाह साइबाईं निम्बालकर के साथ सन् 1641 में बंगलौर में हुआ था। उनके गुरु और संरक्षक कोणदेव की 1647 में मृत्यु हो गई। इसके बाद शिवाजी ने स्वतंत्र रहने का निर्णय लिया। ये भारत में मराठा साम्राज्य के संस्थापक थे।
आरंभिक जीवन और उल्लेखनीय सफलताएँ
शिवाजी प्रभावशाली कुलीनों के वंशज थे। उस समय भारत पर मुस्लिम शासन था। उत्तरी भारत में मुग़लों तथा दक्षिण में बीजापुर और गोलकुंडा में मुस्लिम सुल्तानों का, ये तीनों ही अपनी शक्ति के जोर पर शासन करते थे और प्रजा के प्रति कर्तव्य की भावना नहीं रखते थे। शिवाजी की पैतृक जायदाद बीजापुर के सुल्तान द्वारा शासित दक्कन में थी। उन्होंने मुसलमानों द्वारा किए जा रहे दमन और धार्मिक उत्पीड़न को इतना असहनीय पाया कि 16 वर्ष की आयु तक पहुँचते-पहुँचते उन्हें विश्वास हो गया कि हिंदूओं की मुक्ति के लिए ईश्वर ने उन्हें नियुक्त किया है। उनका यही विश्वास जीवन भर उनका मार्गदर्शन करता रहा। उनकी विधवा माता, जो स्वतंत्र विचारों वाली हिंदू कुलीन महिला थी, ने जन्म से ही उन्हें दबे-कुचले हिंदूओं के अधिकारों के लिए लड़ने और मुस्लिम शासकों को उखाड़ फैंकने की शिक्षा दी थी। अपने अनुयायियों का दल संगठित कर उन्होंने लगभग 1655 में बीजापुर की कमजोर सीमा चौकियों पर कब्जा करना शुरू किया। इसी दौर में उन्होंने सुल्तानों से मिले हुए स्वधर्मियों को भी समाप्त कर दिया। इस तरह उनके साहस व सैन्य निपुणता तथा हिंदूओं को सताने वालों के प्रति कड़े रूख ने उन्हें आम लोगों के बीच लोकप्रिय बना दिया। उनकी विध्वंसकारी गतिविधियाँ बढ़ती गई और उन्हें सबक सिखाने के लिए अनेक छोटे सैनिक अभियान असफल ही सिद्ध हुए। जब 1659 में बीजापुर के सुल्तान ने उनके ख़िलाफ अफ़ज़ल खाँ के नेतृत्व में 20,000 लोगों की सेना भेजी तब शिवाजी ने डरकर भागने का नाटक कर सेना को कठिन पहाड़ी क्षेत्र में फुसला कर बुला लिया और आत्मसमर्पण करने के बहाने एक मुलाकात में अफ़ज़ल खाँ की हत्या कर दी। उधर पहले से घात लगाए उनके सैनिकों ने बीजापुर की बेखबर सेना पर अचानक हमला करके उसे खत्म कर डाला, रातों रात शिवाजी एक अजेय योद्धा बन गए। जिनके पास बीजापुर की सेना की बंदूकें, घोड़े और गोला-बारूद का भंडार था।
शिवाजी की बढ़ती हुई शक्ति से चिंतित हो कर मुग़ल बादशाह औरंगज़ेब ने दक्षिण में नियुक्त अपने सूबेदार को उन पर चढ़ाई करने का आदेश दिया। उससे पहले ही शिवाजी ने आधी रात को सूबेदार के शिविर पर हमला कर दिया। जिसमें सूबेदार के एक हाथ की उंगलियाँ कट गई और उसका बेटा मारा गया। इससे सूबेदार को पीछे हटना पड़ा। शिवाजी ने मानों मुग़लों को और चिढ़ाने के लिए संपन्न तटीय नगर सूरत पर हमला कर दिया और भारी संपत्ति लूट ली। इस चुनौती की अनदेखी न करते हुए औरंगज़ेब ने अपने सबसे प्रभाशाली सेनापति मिर्जा राजा जयसिंह के नेतृत्व में लगभग 1,00,000 सैनिकों की फौज भेजी। इतनी बड़ी सेना और जयसिंह की हिम्मत और दृढ़ता ने शिवाजी को शांति समझौते पर मजबूर कर दिया और उन्हें वायदा करना पड़ा की वह मुग़लों के अधीन जागीरदारी स्वीकार करने के लिए अपने पुत्र के साथ आगरा में औरंगज़ेब के दरबार में हाजिर होंगे। अपने घर से सैंकड़ों मील दूर आगरा में शिवाजी और उनके पुत्र को नजरबंद कर दिये गये, जहाँ वह निरंतर मृत्युदंड के भय में रहे।
दुर्गों पर नियंत्रण
बीजापुर के सुल्तान की राज्य सीमाओं के अंतर्गत रायगढ़ (1646) में चाकन, सिंहगढ़ और पुरन्दर सरीखे दुर्ग भी शीघ्र उनके अधिकारों में आ गये। 1655 ई॰ तक शिवाजी ने कोंकण में कल्याण और जाबली के दुर्ग पर भी अधिकार कर लिया। उन्होंने जाबली के राजा चंद्रदेव का बलपूर्वक वध करवा दिया। शिवाजी की राज्य विस्तार की नीति से क्रुद्ध होकर बीजपुर के सुल्तान ने 1659 ई॰ में अफ़ज़ल खाँ नामक अपने एक वरिष्ठ सेनानायक को विशाल सैन्य बल सहित शिवाजी का दमन करने के लिए भेजा। दोनों पक्षों को अपनी विजय का पूर्ण विश्वास नहीं था। अतः उन्होंने संधिवार्ता प्रारम्भ कर दी। दोनों की भेंट के अवसर पर अफ़ज़ल खाँ ने शिवाजी को दबोच कर मार डालने का प्रयत्न किया। परन्तु वे इसके प्रति पहले से हि सजग थे। उन्होंने अपने गुप्त शस्त्र बघनखा का प्रयोग करके मुसलमान सेनानी का पेट फाड़ डाला। जिससे उसकी तत्काल मृत्यु हो गई। तदुपरान्त शिवाजी ने एक विकट युद्ध में बीजापुर की सेनाओं को परास्त कर दिया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने शिवाजी का सामना करने का साहस नहीं किया।
अब उन्हें एक और प्रबल शत्रु मुग़ल सम्राट औरंगज़ेब का सामना करना पड़ा। 1660 ई॰ में औरंगजेब ने अपने मामा शायस्ता खाँ नामक सेनाध्यक्ष शिवाजी के विरुद्ध भेजा। शायस्ता खाँ ने शिवाजी के कुछ दुर्गों पर अधिकार करके उनके केन्द्र-स्थल पूना पर भी अधिकार कर लिया। किन्तु शीघ्र ही शिवाजी ने अचानक रात्रि में शायस्ता खाँ पर आक्रमण कर दिया। जिससे उसको अपना एक पुत्र अपने हाथ की तीन अँगुलियाँ गँवाकर अपने प्राण बचाने पड़े। शायस्ता खाँ को वापस बुला लिया गया। फिर भी औरंगज़ेब ने शिवाजी के विरुद्ध नये सेनाध्यक्षों की संरक्षा में नवीन सैन्यदल भेजकर युद्ध जारी रखा। शिवाजी ने 1664 ई॰ में मुग़लों के अधीनस्थ सूरत को लूट लिया, किन्तु मुग़ल सेनाध्यक्ष मिर्जा राजा जयसिंह ने उनके अधिकांश दुर्गों पर अधिकार कर लिया, जिससे शिवाजी को 1665 ई॰ में पुरन्दर की संधि करनी पड़ी। उसके अनुसार उन्होंने केवल 12 दुर्ग अपने अधिकार में रखकर 23 दुर्ग मुग़लों को दे दिये और राजा जयसिंह द्वारा अपनी सुरक्षा के प्रति आश्वस्त होकर आगरा में मुग़ल दरबार में उपस्थित होने के लिए प्रस्थान किया।
आगरा से बच निकलना
शिवाजी नहीं हारे और अपनी बीमारी का बहाना बनाया। उन्होंने मिठाई के बड़े-बड़े टोकरे गरीबों में बाँटने के लिए भिजवाने शुरू किए। 17 अगस्त 1666 को वह अपने पुत्र के साथ टोकरे में बैठकर पहरेदारों के सामने से छिप कर निकल गए। उनका बच निकलना, जो शायद उनके नाटकीय जीवन का सबसे रोमांचक कारनामा था, भारतीय इतिहास की दिशा बदलने में निर्णायक साबित हुआ। उनके अनुगामियों ने उनका अपने नेता के रूप में स्वागत किया और दो वर्ष के समय में उन्होंने न सिर्फ अपना पुराना क्षेत्र हासिल कर लिया, बल्कि उसका विस्तार भी किया। वह मुग़ल ज़िलों से धन वसूलते थे और उनकी समृद्ध मंडियों को भी लूटते थे। उन्होंने अपनी सेना का पुनर्गठन किया और प्रजा की भलाई के लिए अपेक्षित सुधार किए। अब तक भारत में पाँव जमा चुके पुर्तग़ाली और अंग्रेज़ व्यापारियों से सीख ले कर उन्होंने नौसेना का गठन शुरू किया। इस प्रकार आधुनिक भारत में वह पहले शासक थे, जिन्होंने व्यापार और सुरक्षा के लिए नौसेना की आवश्यकता के महत्व को स्वीकार किया। शिवाजी के उत्कर्ष से क्षुब्ध होकर औरंगज़ेब ने हिंदूओं पर अत्याचार करना शुरू कर दिया, उन पर कर लगाना, ज़बरदस्ती धर्म परिवर्तन कराए और मंदिरों को गिरा कर उनकी जगह पर मस्जिदें बनवाई।
राज्याभिषेक
मई 1666 ई0 में शाही दरबार में उपस्थित होने पर उनके साथ तृतीय श्रेणी के मनसबदारों सदृश व्यवहार किया गया और उन्हें नजरबंद कर दिया गया। किन्तु शिवाजी चालाकी से अपने अल्पवयस्क पुत्र शम्भुजी और अपने विश्वस्त अनुचरों सहित नजरबंदी से भाग निकले। संन्यासी के वेश में द्रुतगामी अश्वों की सहायता से वे दिसम्बर 1666 ई॰ में अपने प्रदेश में पहुँच गये। अगले वर्ष औरंगज़ेब ने निरुपाय होकर शिवाजी को राजा की उपाधि प्रदान की, और इसके बाद दो वर्षों तक शिवाजी और मुग़लों के बीच शान्ति रही। शिवाजी ने इन वर्षों में अपनी शासन-व्यवस्था संगठित की। 1671 ई॰ में उन्होंने मुग़लों से पुनः संघर्ष प्रारंभ किया और खानदेश के कुछ भू-भागों के स्थानीय मुग़ल पदाधिकारियों को सुरक्षा का वचन देकर उनसे चौथ वसूल करने का लिखित इकारारनामा ले लिया और दूसरी बार सूरत को लूटा। 1674 ई0 में रायगढ़ के दुर्ग में महाराष्ट्र के स्वाधीन शासक के रूप में उनका राज्याभिषक हुआ।
स्वतंत्र प्रभुसत्ता
1674 की ग्रीष्म ऋतु में शिवाजी ने धूमधाम से सिंहासन पर बैठकर स्वतंत्र प्रभुसत्ता की नींव रखी। दबी-कुचली हिंदू जनता ने सहर्ष उन्हें नेता स्वीकार कर लिया। अपने आठ मंत्रियों की परिषद के जरिये उन्होंने छह वर्ष तक शासन किया। वह एक धर्मनिष्ठ हिंदू थे। जो अपनी धर्मरक्षक भूमिका पर गर्व करते थे। लेकिन उन्होंने ज़बरदस्ती मुसलमान बनाए गए अपने दो रिश्तेदारों को हिंदू धर्म में वापस लेने का आदेश देकर परंपरा तोड़ी। हालांकि ईसाई और मुसलमान बल प्रयोग के जरिये बहुसंख्य जनता पर अपना मत थोपते थे। शिवाजी ने इन दोनों संप्रदायों के आराधना स्थलों की रक्षा की। उनकी सेवा में कई मुसलमान भी शामिल थे। उनके सिंहासन पर बैठने के बाद सबसे उल्लेखनीय अभियान दक्षिण भारत का रहा, जिसमें मुसलमानों के साथ कूटनीतिक समझौता कर उन्होंने मुग़लों को समूचे उपमहाद्वीप में सत्ता स्थापित करने से रोक दिया।
अन्तिम समय
शिवाजी की कई पत्नियां और दो बेटे थे, उनके जीवन के अंतिम वर्ष उनके ज्येष्ठ पुत्र की धर्मविमुखता के कारण परेशानियों में बीते। उनका यह पुत्र एक बार मुग़लों से भी जा मिला था और उसे बड़ी मुश्किल से वापस लाया गया था। घरेलु झगड़ों और अपने मंत्रियों के आपसी वैमनस्य के बीच साम्राज्य की शत्रुओं से रक्षा की चिंता ने शीघ्र ही शिवाजी को मृत्यु के कगार पर पहुँचा दिया। मैकाले द्वारा 'शिवाजी महान' कहे जाने वाले शिवाजी की 1680 में कुछ समय बीमार रहने के बाद अपनी राजधानी पहाड़ी दुर्ग राजगढ़ में मृत्यु हो गई।
उपसंहार
इस प्रकार मुग़लों, बीजापुर के सुल्तान, गोवा के पुर्तग़ालियों और जंजीरा स्थित अबीसिनिया के समुद्री डाकुओं के प्रबल प्रतिरोध के बावजूद उन्होंने दक्षिण में एक स्वतंत्र हिन्दू राज्य की स्थापना की। धार्मिक आक्रामकता के युग में वह लगभग अकेले ही धार्मिक सहिष्णुता के समर्थक बने रहे। उनका राज्य बेलगांव से लेकर तुंगभद्रा नदी के तट तक समस्त पश्चिमी कर्नाटक में विस्तृत था। इस प्रकार शिवाजी एक साधारण जागीरदार के उपेक्षित पुत्र की स्थिति से अपने पुरुषार्थ द्वारा ऎसे स्वाधीन राज्य के शासक बने, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने ही किया था। उन्होंने उसे एक सुगठित शासन-प्रणाली एवं सैन्य-संगठन द्वारा सुदृढ़ करके जन साधारण का भी विश्वास प्राप्त किया। जिस स्वतंत्रता की भावना से वे स्वयं प्रेरित हुए थे, उसे उन्होंने अपने देशवासियों के ह्रदय में भी इस प्रकार प्रज्वलित कर दिया कि उनके मरणोंपरान्त औरंगज़ेब द्वारा उनके पुत्र का वध कर देने, पौत्र को कारागार में डाल देने तथा समस्त देश को अपनी सैन्य शक्ति द्वारा रौंद डालने पर भी वे अपनी स्वतंत्रता बनाये रखने में समर्थ हो सके। उसी से भविष्य में विशाल मराठा साम्राज्य की स्थापना हुई। शिवाजी यथार्थ में एक व्यावहारिक आदर्शवादी थे।[1]
टीका-टिप्पणी
- ↑ यदुनाथ सरकार द्वारा लिखित शिवाजी एण्ड हिज टाइम्स तथा एस. एन. सेन कृत छत्रपति शिवाजी