ओ रभाती नदियों, बेसुध कहाँ भागी जाती हो? वंशी-रव तुम्हारे ही भीतर है! ओ, फेन-गुच्छ लहरों की पूँछ उठाए दौड़ती नदियो, इस पार उस पार भी देखो, जहाँ फूलों के कूल सुनहरे धान से खेत हैं। कल-कल छल-छल अपनी ही विरह व्यथा प्रीति कथा कहती मत चली जाओ! सागर ही तुम्हारा सत्य नहीं वह तो गतिमय स्त्रोत की तरह