वैदिक काल

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सिंधु सभ्यता के पतन के बाद जो नवीन संस्कृति प्रकाश में आयी उसके विषय में हमें सम्पूर्ण जानकारी वेदों से मिलती है। इसलिए इस काल को हम 'वैदिक काल' अथवा वैदिक सभ्यता के नाम से जानते हैं। चूँकि इस संस्कृति के प्रवर्तक आर्य लोग थे इसलिए कभी-कभी आर्य सभ्यता का नाम भी दिया जाता है। यहाँ आर्य शब्द का अर्थ- श्रेष्ठ, उदात्त, अभिजात्य, कुलीन, उत्कृष्ट, स्वतंत्र आदि हैं। यह काल 1500 ई.पू. से 600 ई.पू. तक अस्तित्व में रहा।

ऋग्वैदिक काल 1500-1000 ई.पू.

स्रोत- ऋग्वैदिक काल के अध्ययन के लिए दो प्रकार के साक्ष्य उपलब्ध हैं-

  1. पुरातात्विक साक्ष्य
  2. साहित्यिक साक्ष्य

(1) पुरातात्विक साक्ष्य- इसके अंतर्गत निम्नलिखित साक्ष्य उपलब्ध प्राप्त हुए हैं-

  • चित्रित धूसर मृदभाण्ड
  • खुदाई में हरियाणा के पास भगवान पुरा में मिले 13 कमरों वाला मकान तथा पंजाब में भी प्राप्त तीन ऐसे स्थल जिनका सम्बन्ध ऋग्वैदिक काल से जोड़ा जाता है।
  • बोगाज-कोई अभिलेख / मितल्पी अभिलेख (1400 ई.पू- इस लेख में हित्ती राजा शुब्विलुलियुम और मित्तान्नी राजा मत्तिउआजा के मध्य हुई संधि के साक्षी के रूप में वैदिक देवता इन्द्र, मित्र, वरुण और नासत्य का उल्लेख है।

(2) साहित्यिक साक्ष्य- ऋग्वेद में 10 मण्डल एवं 1028 मण्डल सूक्त है। पहला एवं दसवाँ मण्डल बाद में जोड़ा गया है जबकि दूसरा से 7 वाँ मण्डल पुराना है।

आर्यो का आगमन काल

आर्यो के आगमन के विषय में विद्धानों में मतभेद है विक्टरनित्ज ने आर्यो के आगमन की तिथि के 2500 ई. निर्धारित की है जबकि बालगंगाधर तिलक ने इसकी तिथि 6000 ई.पू. निर्धारित की है। मैक्समूलर के अनुसार इनके आगमन की तिथि 1500 ई.पू. है। वर्तमान समय में मैक्सूमूलन ने मत स्वीकार्य हैं।

आर्यो का मूल स्थान

आर्यो के आदि स्थल
आदि (मूल स्थान) मत
सप्तसैंधव क्षेत्र डॉ. अविनाश चंद्र, डॉ. सम्पूर्णानन्द
ब्रह्मर्षि देश पं गंगानाथ
मध्य देश डॉ. राजबली पाण्डेय
कश्मीर एल.डी. कल्ला
देविका प्रदेश (मुल्तान) डी.एस. त्रिवेदी
उत्तरी धु्रव प्रदेश बाल गंगाधर तिलक
हंगरी (यूरोप) (डेन्यूब नदी की घाटी) पी गाइल्स
दक्षिणी रूस नेहरिंग गार्डन चाइल्ड्स
जर्मनी पेन्का
यूरोप फिलिप्पो सेस्सेटी, सर विलियम जोन्स
पामीर एवं बैक्ट्रिया एडवर्ड मेयर एवं ओल्डेन वर्ग जे.जी. रोड
मध्य एशिया मैक्समूलर
तिब्बत दयानन्द सरस्वती
हिमालय (मानस) के.के. शर्मा
  1. डॉ. अविनाश चन्द्र द्रास ने अपनी पुस्तक 'Rigvedic India' (ऋग्वैदिक इंडिया) में भारत में सप्त सैंधव प्रदेश को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
  2. महामोपाध्याय पं. गंगानाथ झा ने भारत में ब्रहर्षि देश को आर्यो का मूल निवास स्थान माना हैं।
  3. डॉ.राजबली पाण्डेय ने भारत में मध्य देश को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
  4. एल.डी. कल्ला ने भारत में कश्मीर अथवा हिमालय प्रदेश आर्यों का मूल निवास स्थान माना है।
  5. श्री डी.एस. त्रिवेदी ने मुल्तान प्रदेश में देविका नदी के आस पास के क्षेत्र को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
  6. स्वामी दयानन्द सरस्वती ने तिब्बत को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है। यह वर्णन इनकी पुस्तक 'सत्यार्थ प्रकाश' एवं 'इण्डियन हिस्टोरिकल ट्रेडिशन' में मिलता है।
  7. मैक्स मूलर ने मध्य एशिया को आर्यो का मूल निवास स्थान बताया। मैक्स मूलन ने इसका उल्लेख लेक्चर्स आन द साइंस आफ लैग्युएजेज में किया है।
  8. जे.जी.रोड आर्यो का आदि देश बैक्ट्रिया मानते है।
  9. बाल गंगाधर तिलक ने उत्तरी ध्रुव को आर्यो का मूल निवास माना है। यह वर्णन इनकी पुस्तक 'The Arctic HOme of the Aryans' में मिलता है।
  10. पी. गाइल्स ने यूरोप में डेन्यूब नदी की घाटी एवं हंगरी को आर्यो का मूल निवास स्थान माना है।
  11. पेन्का ने जर्मनी को आर्यो का मूल निवास स्थान बताया है।
  12. एडवर्ड मेयर, ओल्डेनवर्ग, कीथ ने मध्य एशिया के पामीर क्षेत्र. को आर्यो का मूल स्थान माना है।
  13. नेहरिंग एवं गार्डन चाइल्स ने दक्षिणी रूस को आर्यो का मूल स्थान माना है।

आर्यो के मूल निवास के सन्दर्भ में सर्वाधिक प्रमाणिक मत आल्पस पर्व के पूर्वी भाग में स्थित यूरेशिया का है।

राजनीतिक विस्तार

डॉ. जैकोबी के अनुसार आर्यो ने भारत में कई बार आक्रमण किया और उनकी एक से अधिक शाखाएं भारत में आयी। सबसे महत्वपूर्ण कबीला भारत था। इसके शासक वर्ग का नाम त्रित्सु था। संभवतः सृजन और क्रीवी कबीले भी उनसे सम्बद्ध थे। ऋग्वेद में आर्यो के जिन पांच कबीलों का उल्लेख है उनमें- पुरु, यदु, तुर्वश, अनु, द्रुह्म प्रमुख थे। ये पंचयन के नाम से जाने जाते थे। चदु और तुर्वस को दास कहा जाता था। यदु और तुर्वश के विषय में ऐसा माना जाता था कि इन्द्र उन्हे बाद में लाए थे। यह ज्ञात होता है कि सरस्वती दृषद्वती एवं आपया नदी के किनारे भरत कबीले ने अग्नि की पूजा की।

आर्यो का भौगोलिक क्षेत्र

भारत में आर्यो का आगमन 1500 ई.पू. से कुछ पहले हुआ। भारत में उन्होंने सर्वप्रथम सप्त सैन्धव प्रदेश में बसना प्रारम्भ किया। इस प्रदेश में बहने वाली सात नदियों का जिक्र हमें ऋग्वेद से मिलता है। ये हैं सिंधु, सरस्वती, शतुद्रि (सतलुज) विपशा (व्यास), परुष्णी (रावी), वितस्ता (झेलम), अस्किनी (चिनाब) आदि।

कुछ अफगानिस्तान की नदियों का जिक्र भी हमें ऋग्वेद से मिलता है। ये हैं- कुभा (काबुल नदी), क्रुभु (कुर्रम), गोमती (गोमल) एवं सुवास्तु (स्वात) आदि। इससे यह पता चलता है कि अफगानिस्तान भी उस समय भारत का ही एक अंग था। हिमालय पर्वत का स्पष्ट उल्लेख हुआ है। हिमालय की एक चोटी को मूजदन्त कहा गया है जो सोम के लिए प्रसिद्व थी। इस प्रकार आर्य हिमालय से परिचत थे। आर्यों ने अगले पड़ाव के रूप में कुरूक्षेत्र के निकट के प्रदेशों पर कब्जा कर उस क्षेत्र का नाम 'ब्रह्मवर्त' (आर्यावर्त) रखा। ब्रह्मवर्त से आगे बढ़कर आर्यो ने गंगा-यमुना के दोआब क्षेत्र एवं उसके नजदीक के क्षेत्रों पर कब्जा कर उस क्षेत्र का नाम ब्रह्मर्षि देश रखा। इसके बाद हिमालय एवं विन्ध्यांचल पर्वतों के बीच के क्षेत्र पर कब्जा कर उस क्षेत्र का नाम 'मध्य प्रदेश' रखा। अन्त में बंगाल एवं बिहार के दक्षिण एवं पूर्वी भागों पर कब्जा कर समूचे उत्तर भारत पर अधिकार कर लिया, कालान्तर में इस क्षेत्र का नाम 'आर्यावत' रखा गया।

मनुस्मृति में सरस्वती और दृषद्वती नदियों के बीच के प्रदेश को ब्रह्मवर्त पुकारा गया।


ऋग्वेद में नदियों का उल्लेख

ऋग्वेद मे 25 नदियों का उल्लेख है, जिसमें सबसे महत्वपूर्ण नदी सिन्धु नदी है, जिसका वर्णन कई बार आया है। यह सप्त सैन्धव क्षेत्र की पश्चिमी सीमा थी। क्रुमु (कुर्रम),गोमती (गोमल), कुभा (काबुल) और सुवास्तु (स्वात) नामक नदियां पश्चिम किनारे में सिन्धु की सहायक नदी थीं। पूर्वी किनारे पर सिन्धु की सहायक नदियों में वितास्ता (झेलम) आस्किनी (चेनाब), परुष्णी (रावी), शतुद्र (सतलज), विपासा (व्यास) प्रमुख थी। विपास (व्यास) नदी के तट पर ही इन्द्र ने उषा को पराजित किया और उसके रथ को टुकड़े-टुकड़े कर दिया। सिन्धु नदी को उसके आर्थिक महत्व के कारण हिरण्यनी कहा गया है। सिन्धु नदी द्वार ऊनी वस्त्रों के व्यवसाय होने का कारण इसे सुवासा और ऊर्पावर्ती भी कहा गया है। ऋग्वेद में सिन्धु नदी की चर्चा सर्वाधिक बार हुयी है।

सरस्वती - ऋग्वेद में सरस्वती नदी को नदियों की अग्रवती, नदियों की माता, वाणी, प्रार्थना एवं कविता की देवी, बुद्धि को तीव्र करने वाली और संगीत प्रेरणादायी कहा गया है। सरस्वती ऋग्वेद की सबसे पवित्र नदी मानी जाती थी। इसे नदीतमा (नदियों की माता) कहा गया। सरस्वती जो अब राजस्थान की रेगिस्तान में विलीन हो गई है। इसकी जगह अब घग्घर नदी बहती है।

दृषद्वती- (आधुनिक चितंग अथवा घघ्घर) यह सिन्धु समूल की नदी नही थी।

आपया- यह दृषद्वती एवं सरस्वती नदी के बीच में बहती थी।

सरयू - यह गंगा की सहायक नदी थी। ऋग्वेद के अनुसार संभवतः यदु एवं तुर्वस के द्वारा चित्ररथ और अर्ण सरयू नदी के किनारे ही पराजित किए गए थे।

यमुना- ऋग्वेद में यमुना की चर्चा तीन बार की गयी हैं।

गंगा - गंगा का उल्लेख ऋग्वेद में एक ही बार हुआ है। नदी सूक्त की अन्तिम नदी गोमती है।

समुद्र- ऋग्वेद में समुद्र की चर्चा हुई है और भुज्य की नौका दुर्घटना वाली कहानी में जलयात्रा पर प्रकाश पड़ता है। वैदिक तौल की ईकाई मन एवं वेबीलोन की इकाई मन में समानता से भी समुद्र यात्रा पर पड़ता है। ऋग्वेद के दो मन्त्रों (9वें ओर 10वें मण्डल के) में चार समुद्रों का उल्लेख है।

पर्वत - ऋग्वैदिक आर्य हिमालय पहाड़ से परिचित थे। परन्तु विन्ध्य या सतपुड़ा से परिचित नहीं थें। कुछ महत्वपूर्ण चोटियों की चर्चा है, यथा जैसे हिमवंत, मंजदंत, शर्पणावन्, आर्जीक तथा सुषोम।

मरुस्थल- ऋग्वेद में मरुस्थल के लिए धन्व शब्द आया है। आर्यो को सम्भवतः मरुस्थल का ज्ञात था, क्योंकि इस बात की चर्चा की जाती है कि पर्जन्य ने मरुस्थल को पर करने योग्य बनाया।

क्षेत्र- प्रारम्भिक वैदिक साहित्य में केवल एक क्षेत्र 'गांधारि' की चर्चा है। इसकी पहचान आधुनिक पेशावर एवं रावलपिण्डी ज़िलों से की गई है।


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