पितृमेध या अन्त्यकर्म संस्कार
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- हिन्दू धर्म संस्कारोंमें पितृमेध या अन्त्यकर्म या अंत्येष्टि संस्कार षोदश संस्कार है। यह अन्तिम संस्कार है। मृत्यु के पश्चात यह संस्कार किया जाता है। इस संस्कार को पितृमेध, अन्त्कर्म, दाह-संस्कार, श्मशानकर्म तथा अन्त्येष्टि-क्रिया आदि भी कहते हैं। यह संस्कार भी वेदमंत्रों के उच्चारण के द्वारा होता है। हिन्दू धर्म में मृत्यु के बाद दाह-संस्कार करने का विधान है। केवल संन्यासी-महात्माओं के लिए—निरग्रि होने के कारण शरीर छूट जाने पर भूमिसमाधि या जलसमाधि आदि देने का विधान है। कहीं-कहीं संन्यासी का भी दाह-संस्कार किया जाता है और उसमें कोई दोष नहीं माना जाता है। ये वे सोलह संस्कार हैं, जो हिन्दू धर्म के मेरुदण्ड के समान हैं।[1]
- मनुष्य के प्राण निकल जाने पर मृत शरीर को अग्नि में समर्पित कर अंत्येष्टि-संस्कार करने का विधान हमारे ऋषियों ने इसलिए बनाया, ताकि सभी स्वजन, संबधी, मित्र, परिचित अपनी विदाई देने आएं और इससे उन्हें जीवन का उद्देश्य समझने का मौक़ा मिले, साथ ही यह भी अनुभव हो कि भविष्य में उन्हें भी शरीर छोड़ना है।[2]
- हिन्दू धर्म में मृतक को जलाने की परंपरा है, जबकि अन्य धर्मों में प्रायः ज़मीन में गाडने की। जलाने की परंपरा वैज्ञानिक है। शव को जला देने पर मात्र राख बचती है, शेष अंश जलकर समाप्त हो जाते हैं। राख को नदी आदि में प्रवाहित कर दिया जाता है। इससे प्रदूषण नहीं फैलता, जबकि शव को ज़मीन में गाड़ने से पृथ्वी में प्रदूषण फैलता है, दुर्गन्ध फैलती है तथा भूमि अनावश्यक रुप से फंसी रहती है।
- चूडामण्युपनिषद् में कहा गया है की ब्रह्म से स्वयं प्रकाशरुप आत्मा की उत्पत्ति हुई। आत्मा से आकाश, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल, जल से पृथ्वी की उत्पत्ति हुई। इन पाँच तत्त्वों से मिलकर ही मनुष्य शरीर की रचना हुई है। हिन्दू अंत्येष्टि-संस्कार में मृत शरीर को अग्नि में समर्पित करके आकाश, वायु, जल, अग्नि और मिट्टी इन्हीं पंचतत्त्वों में पुनः मिला दिया जाता है।
मृतक देह को जलाने यानी शवदाय करने के सबंध में अथर्ववेद में लिखा है -
इमौ युनिज्मि ते वहनी असुनीताय वोढवे।
ताभ्यां यमस्य सादनं समितीश्चाव गाच्छ्तात्।।[2]
अर्थात है जीव! तेरे प्राणविहिन मृतदेह को सदगाति के लिए मैं इन दो अग्नियों को संयुक्त करता हूं। अर्थात तेरी मृतक देह में लगाता हूँ। इन दोनों अग्नियों के द्धारा तू सर्वनियंता यम परमात्मा के समीप परलोक को श्रेष्ठ गातियों के साथ प्राप्त हो।
आ रभस्व जातवेदस्तेजस्वदधरो अस्तु ते।
शरीरमस्य सं दहाथैनं धेहि सुकृतामु लोके।।[2]
अर्थात हे अग्नि! इस शव को तू प्राप्त हो। इसे अपनी शरण में ले। तेरा सामर्थ्य तेजयुक्त होवे। इस शव को तू जला दे और है अग्निरुप प्रभो, इस जीवात्मा को तू सुकृतलोक में धारण करा।
वायुरनिलममृतमथेदं भस्मांतं शरीरम् ।
ओद्दम् क्रतो स्मर। क्लिवे स्मर। कृतं स्मर।।[2]
अर्थात हे कर्मशील जीव, तू शरीर छूटते समय परमात्मा के श्रेष्ठ और मुख्य नाम ओम् का स्मरण कर। प्रभु को याद कर। किए हुए अपने कर्मों को याद कर। शरीर में आने जाने वाली वायु अमृत है, परंतु यह भौतिक शरीर भस्मपर्यन्त है। भस्मांत होने वाला है। यह शव भस्म करने योग्य है।
- हिंदुओं में यह मान्यता भी है की मृत्यु के बाद भी आत्मा शरीर के प्रति वासना बने रहने के कारण अपने स्थूलशरीर के आस-पास मंडराती रहती है, इसलिए उसे अग्नि को समर्पित कर दिया जाता है, ताकि उनके बीच कोई संबध न रहे।[2]
- अंत्येष्टि-संस्कार में कपाल-क्रिया क्यों की जाती है, उसका उल्लेख गरुड़पुराण में मिलता है। जब शवदाह के समय मृतक की खोपडी को घी की आहुति सात बार देकर डंडे से तीन बार प्रहार करके फोड़ा जाता है, तो उस समय प्रक्रिया को कपालक्रिया के नाम से जाना जाता है। चूंकि खोपडी की हड्डी इतनी मज़बूत होती है कि उसे आग से भस्म होने में भी समय लगता है। वह टूटकर मस्तिष्क में स्थित ब्रह्मरंध्र पंचतत्त्व में पूर्ण रुप से विलीन हो जाएं, इसलिए उसे तोड़ना जरुरी होता है। इसके अलावा अलग-अलग मान्यताएं भी प्रचलित है। मसलन कपाल का भेदन होने पर प्राण पूरी तरह स्वतंत्र होते है और नए जन्म की प्रक्रिया में आगे बढते हैं। दूसरी मान्यता यह है की खोपड़ी को फोड़कर मस्तिष्क को इसलिए जलाया जाता है। ताकि वह अंधजला न रह जाए अन्यथा अगले जन्म में वह अविकसित रह जाता है। हमारे शरीर के प्रत्येक अंग में विभिन्न देवताओं का वास होने की मान्यता का विवरण श्राद्धचंद्रिका में मिलता है। चूँकि सिर में ब्रह्मा का वास माना जाता है इसलिए शरीर को पूर्णरुप से मुक्ति प्रदान करने के लिए कपालक्रिया द्धारा खोपड़ी को फोड़ा जाता है। पुत्र के द्धार पिता को अग्नि देना व कपालक्रिया इसलिए करवाई जाती है ताकि उसे इस बात का एहसास हो जाए कि उसके पिता अब इस दुनिया में नहीं रहे और घर-परिवार का संपूर्ण भार उसे ही वहन करना है।[2]
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