नृत्य कला

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जयमंगल के मतानुसार चौंसठ कलाओं में से यह एक कला है।

यह कला नृत्य (नाचना) कला है। हाव-भाव आदि के साथ की गयी गति नृत्य कहा जाता है। नृत्य में करण, अंगहार, विभाव, भाव, अनुभाव और रसों की अभिव्यक्ति की जाती है। नृत्य के दो प्रकार हैं-

  • एक नाटय।
  • दूसरा अनाटय।

स्वर्ग-नरक या पृथ्वी के निवासियों की कृतिका अनुकरण को 'नाटय' कहा जाता है और अनुकरण-विरहित नृत्य को 'अनाटय' कहा जाता है। यह कला अति प्राचीन काल से यहाँ बड़ी उन्नत दशा में थी। श्रीशंकर का ताण्डवनृत्य प्रसिद्ध है। आज तो इस कला का पेशा करने वाली एक जाति ही 'कत्थक' नाम से प्रसिद्ध है। वर्षाऋतु में घनगर्जना से आनन्दित मोर का नृत्य बहुतों ने देखा होगा। नृत्य एक स्वाभाविक वस्तु है, जो हृदय में प्रसन्नता का उद्रेक होते ही बाहर व्यक्त हो उठती है। कुछ कलाविद पुरुषों ने इसी स्वाभाविक नृत्य को अन्यान्य अभिनय-वेशषों से रँगकर कला का रूप दे दिया है। जंगली-से-जंगली और सभ्य-से-सभ्य समाज में नृत्य का अस्तित्व किसी-न-किसी रूप में देखा ही जाता है। आधुनिक पाश्चात्त्यों में नृत्यकला एक प्रधान सामाजिक वस्तु हो गयी है। प्राचीन काल में इस कला की शिक्षा राजकुमारों तक के लिये आवश्यक समझी जाती थीं। अर्जुन द्वारा अज्ञातवासकाल में राजा विराट की कन्या उत्तरा को बृहन्नला रूप में इस कला की शिक्षा देने की बात 'महाभारत' में प्रसिद्ध है। दक्षिण-भारत में यह कला अब भी थोड़ी-बहुत विद्यमान है। 'कथकली' में उसकी झलक मिलती है। श्री उदयशंकर आदि कुछ कला प्रेमी इस प्राचीन कला को फिर जाग्रत करने के प्रयत्न में लगे हुए हैं।