ऋतुसंहार

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ऋतुसंहार महाकवि कालिदास की प्रथम रचना है। निश्चित रूप से जो औदात्य तथा सौन्दर्य महाकवि के अन्य काव्यों से प्राप्त होता है, उसका यहाँ अभाव है। सम्पूर्ण संस्कृत साहित्य में ऋतुसंहार ही पहली ऐसी रचना है, जिसमें भारतवर्ष में प्राप्त समस्त छ: ऋतुओं का स्वतंत्र रूप से तथा क्रमश: निरूपण किया गया है। आलोचकों का कहना है कि कवि ने विक्रमादित्य का राज्याश्रय प्राप्त होने के पूर्व ही इसकी रचना हो होगी और यह नवयौवन की अवस्था में रचा गया होगा।

विवाद

कुछ विद्वान ऋतुसंहार को कालिदास की कृति नहीं मानते। इस पक्ष में प्राय: तीन तर्क दिये जाते हैं-

  1. ऋतुसंहार में कालिदास की कमनीय शैली नहीं है।
  2. काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में इसके उद्धरण प्राप्त नहीं होते और
  3. मल्लिनाथ ने इस पर टीका नहीं लिखी है।

कालिदास की प्रथम रचना

ऋतुसंहार को कालिदास की प्रथम रचना स्वीकार किया गया है। अत: प्रथम सोपान होने के कारण रघुवंश अथवा शाकुंतलम जैसी परिपक्वता का अभाव स्वाभाविक है। काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में ऋतुसंहार के उद्धरण आलङ्कारिकों ने इसलिए नहीं दिये कि महाकवि कालिदास के ही अधिक प्रौढ़ उदाहरण विद्यमान थे। मल्लिनाथ ने भी सरल ग्रंथ होने के कारण इस पर टीका नहीं लिखी होगी। इस प्रकार ये तर्क कमज़ोर है। वस्तुत: ऋतुसंहार के पर्यालोचन से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इसमें कालिदासीय प्रतिभा बीज-रूप में विद्यमान है। ऋतुसंहार में छ: सर्ग हैं। इन सर्गों में क्रमश: छ: ऋतुओं -

  1. ग्रीष्म,
  2. वर्षा,
  3. शरद,
  4. हेमंत,
  5. शिशिर तथा
  6. बसंत का चित्रण किया गया है।
यथार्थ दृष्टि-

ऋतुसंहार में कविकल्पना की मनोहारिता भी आकर्षित करती है तथा कवि का यथार्थबोध भी। पहला ही पद्य ग्रीष्म की प्रखरता तथा संताप के वर्णन से आरम्भ होता है। इसके आगे कवि कहता है कि धूल के बवंडर उठ रहे हैं, कड़ी धूप से धरती दरक रही है, प्रिया के वियोग से दग्थ मानस वाले प्रवासी तो इस दृश्य को देख तक नहीं पा रहे हैं [1] प्यास से चटकते कण्ठ वाले मृग एक जंगल से दूसरे जंगल की ओर भाग रहे हैं।[2] ग्रीष्म ने वन के प्राणियों को ऐसा आकुल कर दिया है कि सांप मयूर के पिच्छ के नीचे धूप से बचने को आ बैठा है और मयूर को उसकी खबर नहीं। प्यास से सिंह का मृगया का उद्यम ठंडा पड़ गया है, जीभ लटकाये हाँफता हुआ वह पास से निकलते हिरणों पर भी आक्रमण नहीं कर रहा। तृषा से व्याकुल हाथियों ने भी सिंह से भय खाना छोड़ दिया है। शूकर भद्रमुस्ता से युक्त सूखते कीचड़ मात्र बचे सरोवर की धरती में धँसे से जा रहे हैं[3] ग्रीष्मवर्णन के इस पहले सर्ग में वनप्रांत की भीषणता का वास्तविक चित्र कवि ने अत्यंत विशद रूप में अंकित कर दिया है। दावाग्नि से जल कर काष्ठ मात्र बचे वृक्ष, सूखते पत्तों का जहाँ-तहाँ ढेर और सूखे हुए सरोवर-इन सबका विस्तार देखने पर चित्त को भयभीत कर डालना है[4] दावाग्नि का वर्णन भी कालिदास ने इसी यथार्थ दृष्टि से किया है।

ऋतुसंहार का भौगोलिक परिवेश

ऋतुसंहार की रचना के समय कवि विन्ध्य के आसपास के क्षेत्र में रम रहा था, ऐसा इस रचना के वर्णनों से स्पष्ट होता है। पहले सर्ग में भीषण और दुर्गम कांतारों का उल्लेख बाणभट्ट के 'विन्ध्याटवी वर्णन' का स्मारक है। जिन पशु-पक्षियों तथा वनस्पतियों का वर्णन किया गया है, वे भी विन्ध्य क्षेत्र में बहुतायत से पाये जाते हैं। यदि ग्रीष्म वर्णन में कवि विन्ध्य के वनों की मनोहारिता से आकर्षित है-

वनानि वैन्ध्यानि हरंति मानसं
विभूषितान्युद्गतपल्लवैर्द्रुमै:॥[5]

  • बादलों ने विन्ध्य का अभिषेक कर डाला हैं, जो अभी तक दावाग्नि से झुलस रहा था। अब वह आह्लादित हो उठा है-

अतिशयपरुषाभिर्दाववह्ने: शिखाभि:
समुपजनिततापं ह्लादयंतीव विन्ध्यम ॥[6]

विषयवस्तु

ऋतुसंहार कालिदास की काव्ययात्रा का पहला पड़ाव लगता है। किशोरावस्था में होने वाले सौन्दर्य के प्रति आकर्षण की यहाँ प्रधानता है। कवि ने ऋतुओं के वर्णन में प्रकृति.चित्रण करने के साथ-साथ कामिजनों की विलासिता का भी निरूपण किया है। यह कहना उपयुक्त होगा कि ऋतुसंहार में प्रकृति-सौन्दर्य का चित्रण गौण है और श्रृङ्गारित वर्णन प्रधान। प्राय:प्रत्येक सर्ग में कुछ पद्यों में कवि ने अपनी प्रिया को सम्बोधित किया है। ग्रीष्म, वर्षा, शिशिर और वसंत ऋतुओं का वर्णन तो प्रिया के सम्बोधन से ही प्रारम्भ होता है। कहीं-कहीं रसिक सह्रदयों को भी सम्बोधित किया गया है। कवि प्रत्येक सर्ग में ऋतुओं का चित्रण करने के साथ-साथ ऋतुओं का स्त्री-पुरुषों पर क्या प्रभाव होता है, इसका भी वर्णन किया है। ऋतुसंहार में कथानक का अभाव है। ग्रीष्म, वर्षा तथा शरद् का वर्णन प्रस्तुत करने वाले प्रथम तीन सर्गो में नैसर्गिक सुषमा के अनुरूप अतिशय मनोहर कल्पनाओं के साथ नयनाभिराम चित्र हैं।

हेमंत के वर्णन

हेमंत के वर्णन में कवि ने प्राकृतिक दृश्यों का निरूपण कम और भोग-विलास का वर्णन आधिक किया है। यहाँ सम्भोग शृङ्गार का चित्रण अधिक है, प्रकृति का वर्णन कम। वस्तुत: अंतिम तीन सर्गों में कवि ने उद्दीपन सामग्री का सम्भार प्रस्तुत कर दिया है।

षष्ठ सर्ग

षष्ठ सर्ग सबसे बड़ा है। इस सर्ग में कालिदास ने अपेक्षाकृत अधिक सुन्दर चित्रण किया है। कुछेक पद्यों में तो प्रकृति का वर्णन है, किंतु अधिंकाश पद्यों में वासांतिक वातावरण से प्रभावित मानव-मन का चित्रण है। इस प्रकार वसंत का चित्रण प्राय: कामोद्दीपक रूप में किया गया है। प्रस्तुत पद्यों में वासंतिक सुषमा का बहुत ही सुन्दर निरूपण है-

द्रुमा: सपुष्पा: सलित सपद्मं स्त्रिय: सकाया: पवन:सुगन्धि:।
सुखा: प्रदोषा दिवसाश्च रम्या: सर्व प्रिये! चारुतरं वसंते॥[7]
वापीजलानां मणिमेखलाना शशाङ्कभासां प्रमदाजनानाम्।
चूतद्रुमाणां कुसुमांविततानां ददाति सौभाग्यमयं वसंत:॥[8]

वृक्ष फूलों से लद गये हैं। जल में कमल खिल उठे हैं, स्त्रियों के मन में काम जाग उठा है। पवन सुगन्ध से भर गया है। सन्ध्यायें सुखद होने लगी हैं और दिन अच्छे लगने लगें हैं। प्रिये! वसंत ऋतु में प्रत्येक वस्तु पहले से अधिक सुन्दर हो गयी है। बसंत ने बावलियों के जलों को, मणियों से निर्मित मेखलाओं को चन्द्रमा की चाँदनी को, प्रमदाओं को, आम के वृक्षों को सौभाग्य प्रदान कर दिया है। इस प्रकार वह कौन सी वस्तु है जो वसंत में रमणीय नहीं हो जाती।

ऋतुसंहार का काव्यसौन्दर्य

ऋतुसंहार एक महान कवि की प्रतिभा के प्रथम परिस्पन्द की श्रेष्ठ और सरस अभिव्यक्ति है। टीकाकार मणिराम का यह कथन सत्य है कि इस काव्य की उपेक्षा होती है।[9] इस उपेक्षा का कारण यही प्रतीत होता है कि ऋतुसंहार के पश्चात रची गयी काव्यकृतियों में कवि की जीवनदृष्टि विकसित हुई है, संवेदना और मनोविज्ञान के ज्ञान में प्रौढ़ता आयी है तथा इन कृतियों में परिष्कृत सौन्दर्य. चेतना के साथ उदात्त जीवनमूल्यों तथा सांस्कृतिक बोध को भी अभिव्यक्ति मिली है। स्वभावत: ही कवि की परवर्ती श्रेष्ठ कृतियों की तुलना में ऋतुसंहार जैसी लघुकाय और आरम्भिक कृति उपेक्षित होती चली आयी है, तथापि कल्पनाओं की कमनीयता, भाषा की प्रौढता और सरलता की दृष्टि से यह यह कृति महत्त्वपूर्ण है। मेघदूत, कुमारसम्भव तथा रघुवंश के परिणति प्रज्ञ तथा परिपक्व प्रतिभा सम्पन्न कवि का कमनीय किशोर रूप यहाँ मिलता है। ग्रीष्म और वर्षा के वर्णनों में ओजोगुण की दुर्लभ अभिव्यक्ति ऋतुसंहार के कवि ने की है। राजा के समान घनागम (वर्षा) के आगमन का रूपक तदनुरूप ओजस्वी बन्ध में बाँधा गया है-

ससीकराम्भोधरमत्तकुञ्जरस्तडित्पताकाशनिशब्दमर्दल:।
समागतो राजवदुद्धतद्युतिर्घनागम: कामिजनप्रिय: प्रिये॥[10]

मेघ ही इस राजा के मतवाले हाथी हैं, बिजलियाँ उसकी पताकाएँ है, मेघ का गर्जन उसका मर्दल[11] है। परवर्ती काव्यों में प्राप्त कालिदास की अनेक अभिव्यक्तियों का पूर्वाभास भी ऋतुसंहार में है। मेघ के लिए गर्भवती प्रमदा के उरोज का उपमान [12] मेघदूत तथा रघुवंश में प्रकारांतर से पुनरावृत्त हुआ है। इसी प्रकार बिजली की कौंध में अभिसारिकाओं का मार्ग देख पाने के दृश्य को भी[13] कवि मेघदूत में फिर से बाँधा है। शरद वर्णन में कोविदार वृक्ष के चित्रण में यमक का बन्ध रघुवंश के नवम सर्ग के यमक-बन्धों की स्मृति करा देता है-

मत्तद्विरेफपरिपीतमधुप्रसेकश्चित्तं विदारयति कस्य न कोविदार:॥[14]

शरद ऋतु के वर्णन में तो कविकल्पनाओं की उज्ज्वलता देखते ही बनती है। शरद ऋतु का पदार्पण रमणीय नववधु के समान होता है। पके हुए धान से सुन्दर एवं झुके हुए शरीर वाली तथा खिले हुए कमलों के मुखवाली शरद ऋतु काश-पुष्पं का उज्ज्वल वस्त्र धारण किये हुए, मतवाले हंसों के कलरवों का नूपुर पहने हुए अवतरित होती है-

काशांशुका विकचपद्ममनोज्ञवक्त्रा सोन्मादहंसरवनूपुरनादरम्या।
आपक्वशालिरूचिरानतगात्रयष्टि: प्राप्ता शरन्नववधूरिव रूपरम्या॥[15]

कवि ने यहाँ रूपक (काशांशुका आदि प्रथम तीन विशेषण) उत्प्रेक्षा तथा उपमा की उत्कृष्ट संसृष्टि प्रस्तुत की है। इसी प्रकार नैसर्गिक सौन्दर्य को कृत्रिम या मानवीय सौन्दर्य से अधिक मनोहर बताते हुए व्यतिरेक के प्रयोग के साथ वह कहता है कि रमणियों की मनोरम चाल को हंसों ने, उनके चन्द्रमा जैसे मुख की शोभा को खिले हुए कमलों ने, मदभरी मधुर चितवन को नील कमलों ने और भौंहो के विलास को सूक्ष्म लहरोयों ने जीत लिया है

हंसैर्जिता सुललिता गतिररङ्गनानामम्भोरुहैर्विकसितैर्मुखचन्द्रकांति:।
नीलोत्पलैर्मदकलानि विलोकितानि भ्रूविभ्रमाश्च रुचिरास्तनुभिस्तरङ्गै:॥[16]

ऋतुसंहार महाकवि कालिदास की प्रथम काव्य रचना मानी जाती है, जिसके छह सर्गो में ग्रीष्म से आरंभ कर वसंत तक की छह ऋतुओं का सुंदर प्रकृतिचित्रण प्रस्तुत किया गया है। ऋतुसंहार का कलाशिल्प महाकवि की अन्य कृतियों की तरह उदात्त न होने के कारण इसके कालिदास की कृति होने के विषय में संदेह किया जाता रहा है।

टीका

मल्लिनाथ ने इस काव्य की टीका नहीं की है तथा अन्य किसी प्रसिद्ध टीकाकार की भी इसकी टीका नहीं मिलती है। जे. नोबुल तथा प्रो.ए.बी. कीथ ने अपने लेखों में ऋतुसंहार को कालिदास की ही 'प्रामाणिक एवं प्रथम रचना' सिद्ध किया है। इस खंडकाव्य में कवि ने अपनी प्रिया को संबोधित कर छहों ऋतुओं का वर्णन किया है। प्रकृति के आलंबनपरक तथा उद्दीपनपरक दोनों तरह के रमणीय चित्र काव्य की वास्तविक आत्मा हैं।

सर्वप्रथम संपादन

ऋतुसंहार का सर्वप्रथम संपादन कलकत्ता से सन 1792 में 'सर विलियम जोन्स' ने किया था। सन 1840 में इसका एक अन्य संस्करण पी.फॉन बोलेन द्वारा लातीनी तथा जर्मन पद्यानुवाद सहित प्रकाशित किया गया था। 1906 में 'निर्णयसागर प्रेस' से यह रचना मणिराम की संस्कृत टीका के साथ छपी थी, जिसके अब तक अनेक संस्करण हो चुके हैं।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. ऋतुसंहार, 1।10
  2. ऋतुसंहार, 1।11
  3. ऋतुसंहार, 1|13-15
  4. ऋतुसंहार, 1।22
  5. ऋतुसंहार, 2।8
  6. ऋतुसंहार, 2.27
  7. ऋतुसंहार, 6.2
  8. ऋतुसंहार,6.4
  9. अप्रचारतमोमग्ना कालिदासकृतिर्यत: ऋतुसंहार, मणिरामकृतटीका, निर्णयसागर, 1931 ई., पृ.1
  10. ऋतुसंहार, 2.1
  11. वाद्यविशेष
  12. ऋतुसंहार, 2।1
  13. ऋतुसंहार,2।10
  14. ऋतुसंहार,3.6
  15. ऋतुसंहार,3.1।।
  16. ऋतुसंहार,3.17

बाहरी कड़ियाँ

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