लिङ्ग पुराण

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'लिंग पुराण' शैव सम्प्रदाय का पुराण है। 'लिंग' का अर्थ शिव की जननेन्द्रिय से नहीं अपितु उनके 'पहचान चिह्न' से है, जो अज्ञात तत्त्व का परिचय देता है। इस पुराण में लिंग का अर्थ विस्तार से बताया गया है। यह पुराण प्रधान प्रकृति को ही लिंग रूप मानता है-

प्रधानं प्रकृतिश्चैति यदाहुर्लिंगयुत्तमम्।

गन्धवर्णरसैर्हीनं शब्द स्पर्शादिवर्जितम् ॥ (लिंग पुराण 1/2/2)

अर्थात् प्रधान प्रकृति उत्तम लिंग कही गई है जो गन्ध, वर्ण, रस, शब्द और स्पर्श से तटस्थ या वर्जित है।

कथा भाग

'लिंग पुराण' का कथा भाग 'शिव पुराण' के समान ही है। शैव सिद्धान्तों का अत्यन्त सरल, सहज, व्यापक और विस्तृत वर्णन जैसा इस पुराण में किया गया है, वैसा किसी अन्य पुराण में नहीं है। इस पुराण में कुल एक सौ तिरसठ अध्याय हैं। पूर्वार्द्ध में एक सौ आठ और उत्तरार्द्ध में पचपन अध्याय हैं। इसमें शिव के अव्यक्त ब्रह्मरूप का विवेचन करते हुए उनसे ही सृष्टि का उद्भव बताया गया है।

सृष्टि का प्रारम्भ

भारतीय वेदों, उपनिषदों तथा दर्शनों में सृष्टि का प्रारम्भ 'शब्द ब्रह्म' से माना जाता रहा है। उस ब्रह्म का न कोई आकार है और न कोई रूप। उसी 'शब्द ब्रह्म' का प्रतीक चिह्न साकार रूप में 'शिवलिंग' है। यह शिव अव्यक्त भी है और अनेक रूपों में प्रकट भी होता है।

तीन रूप

भारतीय मनीषियों ने भगवान के तीन रूपों- 'व्यक्त', 'अव्यक्त' और 'व्यक्ताव्यक्त' का जगह-जगह उल्लेख किया है। 'लिंग पुराण' ने इसी भाव को शिव के तीन स्वरूपों में व्यक्त किया है-

एकेनैव हृतं विश्वं व्याप्त त्वेवं शिवेन तु।

अलिंग चैव लिंगं च लिंगालिंगानि मूर्तय:॥ (लिंग पुराण 1/2/7)

अर्थात् शिव के तीन रूपों में से एक के द्वारा सृष्टि (विश्व) का संहार हुआ और उस शिव के द्वारा ही यह व्याप्त है। उस शिव की अलिंग, लिंग और लिगांलिंग तीन मूर्तियां हैं।

सृष्टि

भाव यही है कि शिव अव्यक्त लिंग (बीज) के रूप में इस सृष्टि के पूर्व में स्थित हैं। वही अव्यक्त लिंग पुन: व्यक्त लिंग के रूप में प्रकट होता है। जिस प्रकार ब्रह्म को पूरी तरह न समझ पाने के कारण 'नेति-नेति' कहा जाता है, उसी प्रकार यह शिव व्यक्त भी है और अव्यक्त भी। वस्तुत: अज्ञानी और अशिक्षित व्यक्ति को अव्यक्त ब्रह्म (निर्गुण) की शिक्षा देना जब दुष्कर जान पड़ता है, तब व्यक्त मूर्ति की कल्पना की जाती है। शिवलिंग वही व्यक्त मूर्ति है। यह शिव का परिचय चिह्न है। शिव के 'अर्द्धनारीश्वर' स्वरूप से जिस मैथुनी-सृष्टि का जन्म माना जा रहा है, यदि उसे ही जनसाधारण को समझाने के लिए लिंग और योनि के इस प्रतीक चिह्न को सृष्टि के प्रारम्भ में प्रचारित किया गया हो तो क्या यह अनुपयुक्त और अश्लील कहलाएगा। जो लोग इस प्रतीक चिह्न में मात्र भौतिकता को तलाशते हैं, उन्हें इस पर विचार करना चाहिए।

'लिंग पुराण' में लिंग का अर्थ ओंकार (ॐ) बताया गया है। इस पुराण में शिव के अट्ठाईस अवतारों का वर्णन है। उसी प्रसंग में अंधक, जलंधर, त्रिपुरासुर आदि राक्षसों की कथाओं का भी उल्लेख है।

सृष्टि का आविर्भाव

'लिंग पुराण' में सृष्टि की उत्पत्ति पंच भूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) द्वारा बताई गई है। प्रत्येक तत्त्व का एक विशेष गुण होता है, जिसे 'तन्मात्र' कहा जाता है। भारतीय मनीषियों के अनुसार, सृष्टि सृजन का विचार जब ब्रह्म के मन में आया तो उन्होंने अविद्या अथवा अहंकार को जन्म दिया। यह अहंकार सृष्टि से पूर्व का गहन अन्धकार माना जा सकता हें इस अहंकार से पांच सूक्ष्म तत्त्व- शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गंध उत्पन्न हुए। यही तन्मात्र कहलाए। इनके पांच स्थूल तत्त्व- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी प्रकट हुए। भारतीय सिद्धान्त के अनुसार तत्त्वों के इसी विकास क्रम से सृष्टि का आविर्भाव होता है। यह सिद्धान्त हज़ारों वर्षों से विद्वानों को मान्य है।

ब्रह्माण्ड

'लिंग पुराण' के अनुसार सम्पूर्ण विश्व में करोड़ों की संख्या में ब्रह्माण्ड हैं। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के चारों ओर दस गुना जल का आवरण है। यह जल से दस गुना अधिक तेज से आवृत्त रहता है। तेज से दस गुना आवरण वायु का है, जो तेज को ढके रहता है। वायु से भी दस गुना आवरण आकाश का है, जो वायु के ऊपर रहता है। प्रत्येक ब्रह्माण्ड के पृथक् ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र (शिव) अर्थात् कर्त्ता, धर्त्ता तथा संहारकर्त्ता हैं। ब्रह्माण्डों की यह कल्पना विज्ञान सम्मत है। क्योंकि बड़ी-बड़ी दूरबीनों से देखने पर अनेक सूर्यों का पता चलता है जिनका प्रकाश पृथ्वी पर पहुंचने में हज़ारों वर्ष लग जाते हैं।

'लिंग पुराण' इस दृष्टि से विज्ञान पर आधारित है कि इस संसार में जो भी भिन्नता (यथा-धर्म, जाति, सम्प्रदाय, समुदाय, वर्ग, गोत्र आदि) दिखाई पड़ती है, वह सब हमारे द्वारा कल्पित है। यदि मूल रूप से विचार किया जाए तो मनुष्य ही नहीं, समस्त प्राणी उसी प्रकार से एक हैं, जिस प्रकार मुट्ठी भर रेत के सभी कण या किसी पात्र में भरे हुए जल की प्रत्येक बूंद।

धर्म की व्याख्या

'धर्म' की व्याख्या करते हुए यह पुराण कहता है कि धर्म और अध्यात्म का वास्तविक सार इसी बात में निहित है कि मनुष्य अपनी संकीर्ण दृष्टि त्याग कर समस्त प्राणियों से आत्मीय भाव का अनुभव करे। कहा गया है- आत्मवत् सर्वभूतेषु य: पश्यति स पंडित: अर्थात् जो समस्त प्राणियों में आत्मीय भाव रखता है, वही पंडित है।

विकास क्रम

इस संसार में जितने भी छोटे-बड़े जड़-चेतन पदार्थ दिखाई पड़ते हैं, वे सभी पंचभूतों के ही खेल हैं। 'लिंग पुराण' इस तथ्य को पूरी तरह से स्वीकार करता है। भारतीय दृष्टि में 'सूक्ष्म से स्थूल की ओर' जाने की प्रवृति देखी जा सकती है। इसीलिए भारतीय मनीषियों ने आकाश से पृथ्वी तक के विकास क्रम को प्रकट किया, जैसा कि ऊपर पदार्थ नहीं मानते, वरन् वे उन्हें उनकी मूल अवस्था के रूप में स्वीकार करते हैं। पृथ्वी तत्त्व में उसकी 'ठोस अवस्था' है। जल तत्त्व से तात्पर्य उसकी 'तरल अवस्था' से है। अग्नि तत्त्व का तात्पर्य उसकी 'ऊष्मता' से है। वायु तत्त्व का आशय उसके 'प्रवहमान स्वरूप' से है और आकाश तत्त्व का आशय उसके 'सूक्ष्म तत्त्व' से है।

सार्वजनिक हित

'लिंग पुराण' में जो उपदेश प्राप्त होते हैं, वे सभी सार्वजनिक हित के हैं। सर्वप्रथम इस पुराण में सदाचार पर सर्वाधिक बल दिया गया है। भगवान शिव ऐसे लोगों से प्रसन्न होते है। जो संयमी, धार्मिक दयावान, तपस्वी, साधु, संन्यासी, सत्यवादी, वेदों और स्मृतियों के ज्ञाता तथा साम्प्रदायिक वैमनस्य से दूर धर्म में आस्था रखते हों। विद्या की साधना करने वाला ही साधु कहलाता है। कल्याणकारी कर्म ही धर्म है। सत्कर्म ही मनुष्य को साधारण से असाधारण बनाते हैं।


पुराणकार राजा क्षुप और दधीचि ऋषि की कथा के माध्यम से ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का प्रतिपादन करता है। दोनों का प्रतिवाद भक्त और शिव-भक्त के मध्य युद्ध के रूप में परिवर्तित हो जाता है। अन्त में विजय दधीचि की होती है, जिन्हें भौतिकता से कोई मोह नहीं है। यही दधीचि ऋषि इन्द्र को वज्र बनाने के लिए अपनी अस्थियों तक का दान दे डालते हैं।

युगों का वर्णन

चारों युगों के वर्णन से पुराणकार सृष्टि के क्रमिक विकास को ही स्पष्ट करता है। 'सतयुग' के प्राणी परम तृप्त थे। उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं था। वे अधिकतर पर्वतों और कन्दराओं में रहते थे। निष्काम और कर्मशील थे। उस समय वर्णाश्रम व्यवस्था नहीं थी। यह मनुष्य की आदिम अवस्था थी। उनकी आवश्यकताएं सीमित थीं। 'त्रेता युग' में जनसंख्या में भारी वृद्धि होने के कारण आहार की कमी होने लगी। सघन वृक्ष उग आए थे। भोजन के लिए वनस्पतियों और फलों का सहारा लेना पड़ता था। इस युग में आपाधापी के कारण वृक्षों को भारी हानि हुई। फिर वे परस्पर मिलकर रहने लगे।

पृथ्वी से जल और खाद्य पदार्थों को प्राप्त करने का ज्ञान उन्हें होने लगा। इसी युग में वर्णों का विभाजन हुआ। 'द्वापर युग' में खाद्य पदार्थों, स्त्रियों और अपने पारिवारिक समुदायों की सुरक्षा के लिए संघर्ष बढ़ गए। भाषा का जन्म हुआ। ग्राम, नगर और राज्य बन गए। 'कलि युग' में जैसे स्वार्थ प्रमुख हो गया और स्वयं के प्रदर्शन की प्रवृत्ति बढ़ गई। आचरणों का पालन दुष्कर प्रतीत होने लगा। पारस्परिक सीमांए, ईर्ष्या और दुराग्रह बढ़ गया। लोग हिंसक होने लगे। वास्तव में युगों का यह वर्णन मानव विकास की ही कहानी है, जो अत्याचार और पतन की चरम स्थिति पर पहुंचकर नष्ट हो जाती है।

खगोल विद्या

खगोल विद्या पर भी 'लिंग पुराण' काफ़ी विस्तृत प्रकाश डालता है। इसमें बताया गया है कि चन्द्रमा, नक्षत्र और ग्रह आदि सभी सूर्य से निकले हैं तथा एक दिन उसी में लीन हो जाएंगे। सूर्य ही तीनों लोकों का स्वामी है। काल, ऋतु और युग उसी से उत्पन्न होते हैं तथा उसी में लय हो जाते हैं। जीवनी-शक्ति उसी से प्राप्त होती है।

धार्मिक सहिष्णुता

'लिंग पुराण' में धार्मिक सहिष्णुता पर विशेष बल दिया गया है। नग्न रहने वाले और जल को छानकर पीने वाले अहिंसावादी जैन साधुओं को यथोचित आदर दिया गया है। सांसारिक कष्टों की निवृत्ति के लिए मुख्य मार्ग 'ध्यान' को बताया गया है। ज्ञान द्वारा अविद्या जन्य कामनाओं को नष्ट किया जा सकता है।

योग

इस पुराण में 'योग' के पांच प्रकार बताए गए हैं- मन्त्र योग, स्पर्श योग, भाव योग, अभाव योग और महायोग। 'मन्त्र योग' में मन्त्रों का जप और ध्यान किया जाता है। 'स्पर्श योग' में योगियों द्वारा बताए गए 'अष्टांग योग' का वर्णन आता है। 'भाव योग' में राजयोग की भांति शिव की मन से आराधना की जाती है। 'अभाव योग' इस संसार को सर्वथा शून्य और मिथ्या मानता है। यह क्षणभंगुर है। जन्दी ही समाप्त हो जाने वाला है। 'महायोग' इन सभी प्रकार के योगों का संकलित एवं कल्याणकारी स्वरूप है।

'लिंग पुराण' के अन्य प्रतिपाद्य विषयों में शिव की उपासना, गायत्री महिमा, पंच यज्ञ विधान, भस्म और स्नान विधि, सप्त द्वीप, भारतर्ष की वर्णन, ज्योतिष चक्र आख्यान, ध्रुव आख्यान, सूर्य और चन्द्र वंश वर्णन, काशी माहात्म्य, दक्ष-यज्ञ विध्वंस, मदन दहन, उमा स्वयंवर, शिव तांडव, उपमन्यु चरित्र, अम्बरीष चरित्र, अघोर रूप धारी शिव की प्रतिष्ठा तथा त्रिपुर वध आदि का वर्णन शामिल है।

पंचमुखी ब्रह्मा

पौराणिक दृष्टि से 'लिंग पुराण' अनेक पुराणों से अधिक शिक्षाप्रद और सदुपदेश परक है। शिव तत्त्व की गम्भीर समीक्षा इसी पुराण में प्राप्त होती है। शिव ही पंचमुखी ब्रह्मा के रूप में प्रकट होते हैं। वे ही सृष्टि के नियन्ता और संहारक हैं। वस्तुत: शैव मत का प्रतिपादन करते हुए भी 'लिंग पुराण' ब्रह्म की एकता का सिद्धान्त प्रतिपादित करता है। सभी विद्धान इस तथ्य को स्वीकार भी करते हैं।