वाचस्पतिमिश्र

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वाचस्पतिमिश्र का नाम भारतीय दर्शनों के छात्रों के लिए सुपरिचित है, क्योंकि भारत के विविध आस्तिक दर्शनों को वाचस्पतिमिश्र का महत्त्वपूर्ण योगदान है। न्याय, मीमांसा, सांख्य-योग तथा अद्वैत वेदांत, इन सब दर्शनों में वाचस्पतिमिश्र ने व्याख्या ग्रन्थ लिखे हैं। इससे उन दर्शनों का विशदीकरण बहुत अच्छी तरह हुआ है। इस कारण दर्शनशास्त्र के विद्यार्थियों के लिए दर्शनों का रहस्य जान लेने के लिए वाचस्पति के ग्रन्थों का अध्ययन आवश्यक सा हो गया है।

उपाधि

वाचस्पति का योगदान सिर्फ़ प्राचीन दर्शनों के विशदीकरण में नहीं है, बल्कि उन दर्शनों में नए विचार लाते हुए उनका विकास करने का कार्य भी वाचस्पति ने किया है। सभी दर्शनों में स्वतंत्र प्रज्ञा से विहार करने का उनका विलक्षण स्वभाव देखते हुए उन्हें पंडितों ने 'सर्वतंत्र स्वतंत्र' यह सार्थक उपाधि दी है।

परिचय

कई विद्वानों के अनुसार वाचस्पतिमिश्र नेपाल के सीमावर्ती क्षेत्र के नजदीक रहते थे। वहाँ एक देहात के नजदीक 'भामा' नाम की नदी बहती है, उसका नामकरण वाचस्पति की कन्या 'भामती' के नाम के आधार पर किया गया है। वाचस्पति ने अपने अद्वैत वेदांत पर लिखे व्याख्या ग्रन्थ को अपनी कन्या का ही नाम दिया था।[1] लेकिन दिनेश चंद्र भट्टाचार्य के अनुसार वाचस्पतिमिश्र का निवास स्थान आज जहाँ दरभंगा की पूर्वसीमा है, उस प्रदेश में था। उमेश मिश्र के अनुसार वाचस्पतिमिश्र दरभंगा ज़िले में 'थारही' नामक गांव में रहते थे। अनेक विद्वानों का कहना है कि वाचस्पतिमिश्र 'मैथिल' ब्राह्मण थे। वाचस्पतिमिश्र का काल नवीं सदी का उत्तरार्ध या दसवीं सदी बताया जाता है।

वाचस्पति ने अपने गुरु का निर्देश करते समय उन्हें 'न्याय मंजरी' का कर्ता बताया है। अब ज़्यादातर पंडितों का मत यह है कि वाचस्पतिमिश्र का गुरु त्रिलोचन नाम का था तथा त्रिलोचन के न्याय ग्रन्थ का नाम न्याय मंजरी था। यह ग्रन्थ आज उपलब्ध नहीं है, लेकिन उसमें से कुछ परिच्छेदों के उद्धरण दूसरे ग्रन्थों में मिलते हैं। न्यायमंजरीकार जयंतभट्ट वाचस्पतिमिश्र का गुरु नहीं था।

रचनाएँ

वाचस्पतिमिश्र के ग्रन्थों में जो वाचस्पतिमिश्र के ही अन्य ग्रन्थों के निर्देश आते हैं, उनकी मदद लेते हुए उमेश मिश्र ने वाचस्पतिमिश्र के ग्रन्थों का क्रम इस प्रकार बताया है-

  1. न्यायकणिका
  2. ब्रह्मतत्त्व समीक्षा
  3. तत्त्वबिंदु
  4. न्यायसूची निबंध
  5. न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका
  6. तत्त्वकौमुदी
  7. तत्त्ववैशारदी
  8. भामती

वाचस्पतिमिश्र के इन ग्रन्थों का परिचय क्रमश इस प्रकार है-

न्यायकणिका

मंडनमिश्र के 'विधिविवेक' नामक ग्रन्थ पर वाचस्पतिमिश्र की यह टीका है। नाम से यह न्याय ग्रन्थ लगता है, लेकिन वस्तुत: यह पूर्वमीमांसा शास्त्र का ग्रन्थ है। 'स्वर्गकामो यजेन' अर्थात 'जिसे स्वर्ग की इच्छा है, वह यज्ञ करे', इस प्रकार के जो विधिवाक्य हैं, उनका स्वरूप, अर्थ तथा प्रयोजन स्पष्ट करना विधिविवेक का मुख्य उद्देश्य है। यही न्यायकणिका का भी उद्देश्य है। विधिवाक्यों का मुख्य प्रयोजन कौन सा है? कुछ मीमांसकों के अनुसार विधिवाक्यों के आधार वेद का प्रमाण सिद्ध कर सकते हैं, क्योंकि जो दूसरे प्रत्यक्ष, अनुमान आदि प्रमाणों से सिद्ध नहीं होता, वह यागादिकर्तव्यविषयक वाक्यों के अर्थ का ज्ञान सिर्फ़ शब्द प्रमाण से ही हो सकता है। लेकिन वाचस्पतिमिश्र को यह मत पसंद नहीं है। अगर कृतिप्रेरक वाक्यों के अर्थ का ज्ञान दूसरे प्रमाणों से नहीं हो सकता, यह मुक्ति वेद का प्रमाण्य सिद्ध करने के लिए काफ़ी है, तो इसी आधार पर 'चैत्य का वंदन करना चाहिए', इस प्रकार के बौद्धों के वचन भी प्रमाण साबित होंगे।[2]

विधिवाक्य

दूसरे कुछ लोगों ने विधिवाक्यों का प्रयोजन 'शब्द और अर्थ में होने वाले सम्बन्ध का ज्ञान' बताया है। लेकिन वाचस्पति ने इस विकल्प का भी खंडन किया है। शब्दार्थ सम्बन्ध मालूम कराने के लिए विधिवाक्यों की ही ज़रूरत हो, ऐसी बात नहीं है। वर्णनात्मक वाक्यों से भी यह सिद्ध हो सकता है। तीसरे कुछ मीमांसकों का कहना है कि विधिवाक्यों का उद्देश्य 'किससे फायदा होगा, किससे नहीं होगा' इसका ज्ञान कराता है। लेकिन वाचस्पति ने इस विकल्प को भी अमान्य कर दिया है और कहा है कि 'गर्मी में जल का सिंचन शरीर का ताप कम करता है' और 'अग्नि ज्वाला से लिपट जाने से आदमी जल जाता है' इस तरह के वाक्य, जो विधि वाक्य नहीं हैं, खाली तथ्य सूचक वाक्य हैं। वे भी मनुष्य को अच्छा क्या है तथा बुरा क्या है, इसका ज्ञान कराते हैं। वाचस्पतिमिश्र मानते हैं कि विधिवाक्यों का प्रयोजन है 'पुरुषार्थसाधनत्वावबोध' अर्थात् पुरष का जो इष्ट या साध्य अर्थ हो, जैसे कि स्वर्ग, उसका साधन कौन सा है, यह बताना। व्यवहार में जो हमारा छोटा-मोटा इष्ट फल होता है, उसके साधनों का ज्ञान ज़्यादातर दूसरे प्रमाणों से ही हो जाता है। लेकिन स्वर्ग जैसे पुरुषार्थ के साधन के बारे में ज्ञान वेद ही कराता है। स्वर्ग के लिए वह उपाय है। यह ज्ञान दूसरे किसी साधन से नहीं प्राप्त हो सकता। सिर्फ़ वेद वाक्यों से ही योग में होने वाला 'स्वर्गसाधनत्व' ज्ञान हो सकता है। इसीलिए यही विधिवाक्यों का प्रयोजन है तथा उनका अर्थ भी इसी दृष्टि से लगाना चाहिए।

विधि का स्वरूप

इस प्रकार विधिवाक्यों से बोधित होने वाला ज्ञान आदमी को पुरुषार्थसाधन के लिए प्रवृत्त करता है। लेकिन इस विधि का स्वरूप क्या है? उसी की चर्चा विधिविवेक तथा न्यायनिर्णय का प्रमुख विषय है। कुछ मीमांसकों के अनुसार 'स्वर्गकामो यजेन' इस तरह का वाक्य ही विधि है। लेकिन विधि तो वह होनी चाहिए कि जिसके ज्ञान से साक्षात् प्रवृत्ति हो जाए। लेकिन वाक्य के ज्ञान से साक्षात् प्रवृत्ति नहीं होती है। वाक्य के ज्ञान से वाक्यार्थ की प्रमा (यथार्थ ज्ञान) होती है, इसीलिए तो वाक्य प्रमाण कहलाता है। अगर वाक्य से साक्षात् प्रवृत्ति होने लगी तो वाक्य प्रमाण नहीं होगा। इसीलिए वाचस्पतिमिश्र विधि का स्वरूप वाक्य (या शब्द) नहीं मानते।

दूसरे कुछ मीमांसक कहेंगे कि विधि शब्द व्यापार है। लेकिन शब्द में होने वाली अभिधाशक्ति या भावनारूप व्यापार, जिससे अर्थ ज्ञान होता है, अपने आप हमें कृति के प्रति प्रवृत्त नहीं कर सकता। वैसे तो सभी शब्दों में अभिधा है। अगर व्यापार ही विधि होता तो हम 'घट' जैसा कोई शब्द सुनते ही कार्य के प्रति प्रवृत्त होते, इसलिए तीसरा विकल्प यह रह जाता है कि विधि का अर्थ है प्रवर्तक वाक्य का अर्थ। इस विकल्प की वाचस्पति ने बड़े विस्तार से चर्चा की है, तथा लिंग के अर्थ के बारे में प्रभाकर के मत की जोरदार आलोचना की है।[3] प्रभाकर के अनुसार लिंग का अर्थ है 'नियोग' (नियुक्त करना), यह अर्थ वर्तमान, भूत या भविष्य किसी काल का निर्देश नहीं करता। लिंगयुक्त वाक्य सुनते ही यह नियोग रूप अर्थ जाना जाता है तथा सुनने वाले को प्रवृत्त करता है। प्रभाकर के अनुसार यह नियोग रूप अर्थ जानने का एक मात्र मार्ग शब्द प्रमाण है। वाचस्पतिमिश्र इसका खंडन करते हुए कहते हैं कि अगर शब्दार्थ सम्बन्ध रूप संकेत का ज्ञान न हो तो वेद वाक्यों को, उनमें होने वाले लिंग का अर्थ कैसे समझ में आयेगा। संकेत रूप सम्बन्ध का ज्ञान होने के लिए पहले अर्थ का स्वतंत्र रूप से ज्ञान होना ज़रूरी है। इसीलिए लिंग के नियोग रूप अर्थ का ज्ञान शब्द से ही होता है, ऐसा मानना उचित नहीं है।

सिद्धांत पक्ष

नियोग ही विधिलिंग का अर्थ है, प्रभाकर के इस मत के खंडन के बाद वास्पतिमिश्र ने सिद्धांत पक्ष का विवरण किया है। मंडनमिश्र विधिविवेक में कहते हैं, 'वह कृति इष्टफल का साधन है' यही अर्थ लिंग का हो सकता है और इसी अर्थ का ज्ञान आदमी को प्रवृत्त कर सकता है। मंडन के इस मत की व्याख्या करते समय वाचस्पतिमिश्र ने न्याय वैशेषिकों की रीति अपनायी है, जिसके अनुसार किसी भी सुबुद्ध व्यक्ति में जो प्रवृत्ति होती है, उसके प्रति प्रयत्न कारण होता है। प्रयत्न के प्रति इच्छा तथा इच्छा के प्रति इष्टसाधनता का ज्ञान कारण होता है। यह इष्टसाधनत्व ही वाचस्पति के अनुसार विधिलिंग का अर्थ है।

विधिविवेक में मंडन ने तथा न्याय निर्णय में वाचस्पति ने जो विवेचन किया है, वह सिर्फ़ 'वेदवाक्यों का अर्थ' या 'वैदिक कर्मकांड' के संदर्भ में ही महत्त्व नहीं रखता, बल्कि उसका सम्बन्ध अधिनैतिक प्रश्नों से भी है। अधिनीतिशास्त्र में 'चाहिए' तथा 'है' के बारे में एक प्रश्न इस प्रकार उपस्थित किया जा सकता है- क्या चाहिए का अर्थ हम, पूर्णतया 'है' के द्वारा बता सकते हैं? या चाहिए का कोई स्वतंत्र अर्थ है, जो 'है' से बिल्कुल भिन्न है? प्रभाकर का पक्ष है कि चाहिए का नियोगरूप अर्थ है, जो हम दूसरे किसी प्रमाण से नहीं जान सकते। शब्द प्रमाण को छोड़कर बाकी सब प्रमाण क्या 'है? यह बता सकते हैं, क्या करना 'चाहिए', यह नहीं, जबकि लिंग से ही यह 'चाहिए' वाला अर्थ ज्ञात कर सकते हैं। लेकिन मंडन तथा वाचस्पति के पक्ष के अनुसार इष्टसाधन या सुखसाधन की अवधारणा के आधार पर हम 'है' और 'चाहिए' में प्रतीत होने वाला तार्किक अंतर या निरोध दूर कर सकते हैं।

विधि के स्वरूप के साथ वाचस्पति ने न्यायनिर्णय में दूसरे भी कई प्रश्नों पर चर्चा की है, जैसे-

  1. स्फोटवाद[4]
  2. वेदों का अपौरुषेय
  3. वेदों का कर्ता सर्वज्ञ ईश्वर है- इस सिद्धांत की आलोचना
  4. बौद्धों के क्षणिकवाद की आलोचना

ब्रह्मतत्त्व समीक्षा

वाचस्पतिमिश्र का यह ग्रन्थ मंडनमिश्र की 'ब्रह्मसिद्धि' पर टीका है। भामती तथा अन्य ग्रन्थों में वाचस्पति ने इस ग्रन्थ का नाम उद्धृत किया है। लैकिन इसके अलावा ग्रन्थ की ज़्यादा जानकारी नहीं मिलती।

तत्त्वबिन्दु

वाचस्पतिमिश्र के इस ग्रन्थ का विषय है 'शाब्दबोध' यानी प्रमाणभूत वाक्य से होने वाले अर्थ का यथार्थज्ञान। वह कैसे होता है? इस समस्या का समाधान विविध आस्तिक दार्शनिकों ने अपनी अपनी प्रणाली के अनुसार करने का यत्न किया था। वैयाकरणों के अनुसार वाक्यार्थज्ञान कराने वाला कोई वाक्यस्फोट नाम का पदार्थ है, जो ध्वनिसमूहरूप वाक्य से प्रकट होता है और खुद अजन्मा और अविनाशी है। कई प्राचीन मीमांसकों का मत था कि जब वाक्य सुनते हैं, तब हर एक शब्द का श्रवण होते ही उसका संस्कार आत्मा में कायम हो जाता है तथा शब्द नष्ट भी हो जाता है। वाक्य का आखिरी शब्द सुनते ही पहले शब्दों का संस्कार उद्बोधित होता है तथा उन संस्कारों सहित अंतिम वर्ण का ज्ञान होते ही वाक्य के अर्थ का भी ज्ञान होता है।[5]

अन्य मीमांसक कथन

दूसरे कई मीमांसकों के अनुसार वाक्य में होने वाली वर्णमाला जब हर एक वर्ण, पद और पदार्थ माला ही शाब्दबोध कराती है। प्रभाकर तथा उसके मतानुयायी मीमांसकों के अनुसार जब शब्द (पद) विशिष्ट रीति से परस्पर संबद्ध हुए हों, तब वाक्य में होने वाले अन्य पदों के अर्थों से सम्बन्ध अपना-अपना अर्थ, अर्थात् वाक्यार्थ प्रकट करते हैं। कुमारिल भट्ट तथा उनके मतानुयायियों का कहना है कि वाक्य में होने वाले पद शाब्दबोध का करण नहीं हैं, बल्कि पदों के अर्थ वह करण हैं। जब पद तथा उनके अर्थ विशिष्ट रीति से परस्पर संबद्ध हो जाते हैं, तब वाक्यार्थ का ज्ञान कराते हैं। इन विविध मतों में से वाचस्पतिमिश्र ने अन्य मतों का खंडन करते हुए कुमारिल भट्ट का मत अपनाया है।

वाक्यार्थ का ज्ञान

वाक्यार्थ का ज्ञान कैसे होता है? इस प्रश्न के बारे में दो मत भारतीय दर्शनशास्त्र में प्रसिद्ध हैं। एक है 'अन्विताभिधानवाद', जो प्रभाकर का मत है, तथा दूसरा है 'अभिहितान्वयवाद', जो कुमारिल भट्ट का मत है। अन्विताभिधान तथा अभिहितान्वयवाद की बड़ी विस्तृत चर्चा तत्त्वबिंदु में मिलती है।

अन्विताभिधानवाद के अनुसार वाक्य में होने वाले शब्द जब हम सुनते हैं, तब वे शब्द अपना-अपना अर्थ परस्पर संबद्ध (अन्वित) रूप में ही बताते हैं (अभिधान)। पहले शब्दों का अर्थ ध्यान में आता है, बाद में उन अर्थों का संबद्ध यानी वाक्य का समुचित अर्थ ध्यान में आता है। इस तरह का क्रम मानने की कोई ज़रूरत नहीं है, लेकिन अभिहितान्वयवाद के अनुसार वाक्य में होने वाले शब्द पहले अपना-अपना अर्थ बताते हैं (अभिहित) और बाद में उन अभिहित अर्थों का परस्पर सम्बन्ध (अन्वय) हमारी समझ में आता है। इस प्रकार अन्विताभिधानवाद के अनुसार पदों का तथा वाक्य का अर्थ पदों की अभिधा शक्ति से ही समझ में आता है, लेकिन अभिहितान्वयवाद के अनुसार पदों का अर्थ अभिधा शक्ति से जाना जाता है और वाक्य का अर्थ लक्षणा शक्ति से जाना जाता है। अन्विताभिधान की आलोचना करते हुए वाचस्पतिमिश्र ने अभिहितान्वयवाद का समर्थन तत्त्वबिंदु में किया है।

न्यायसूची निबंध

यह ग्रन्थ गौतम के न्यायसूत्र का विषयविभाग मात्र है।

न्यायवार्तिक/तात्पर्य/टीका

गौतम के न्यायसूत्र पर वात्स्यायन ने भाष्य लिखा, उस भाष्य पर उद्योतकर ने वार्तिक लिखा। उद्योतकर के वार्तिक पर वाचस्पतिमिश्र ने जो टीका लिखी, उसी का नाम 'न्यायवार्तिक/तात्पर्य/टीका' है। भारतीय दार्शनिक विचार सूत्र, भाष्य (या वार्तिक), भाष्य पर टीका के रूप में प्रस्तुत किया गया हुआ ज़्यादातर दिखाई देता है। लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि इस दार्शनिक विचार में कुछ प्रगति हुई ही नहीं। नए विचार प्रस्तुत किये गए पर उन्हें भी इस सूत्र भाष्य टीका पद्धति के कारण परम्परा में जोड़ दिया गया। न्यायवार्तिक/तात्पर्य/टीका में वाचस्पतिमिश्र के द्वारा न्याय दर्शन में किया गया योगदान मिलता है। उद्योतकर के काल में नैयायिकों के सामने एक बड़ा प्रश्न था, बौद्ध तार्किकों की आलोचनाओं का जवाब देना। उद्योतकर ने अपने न्यायवार्तिक में बौद्धों की प्रखर आलोचना की, लेकिन उसमें ज़्यादातर वितण्डा की झलक मिलती है, क्योंकि बौद्ध तर्क शास्त्र को जवाब देने के लिए नैयायिकों का तर्क शास्त्र उस समय उतना सामर्थ्य तथा सुघटित नहीं था। बाद में बौद्धों के ही कुछ विचार अपनाते हुए तथा उनमें कुछ सुधार करते हुए नैयायिकों ने अपना प्रमाणशास्त्र प्रबल बनाया। इसलिए वाचस्पतिमिश्र के बौद्ध खंडन में इस प्रबल प्रमाणशास्त्र की पार्श्वभूमि स्पष्टतया दिखाई देती है। तात्पर्य टीका में गौतम प्रणीत न्याय दर्शन के स्पष्टीकरण तथा समर्थन के अलावा दिखाई देने वाला वाचस्पतिमिश्र का प्रमुख योगदान इस प्रकार है-

  • प्रत्यक्ष, अनुमान आदि जिन प्रमाणों से हमें ज्ञान मिलता है, उनका प्रमाणत्व कैसे सिद्ध हो सकता है? यानी उस प्रमाण से यथार्थ ज्ञान ही मिल रहा है, अयथार्थ नही, यह कैसे सिद्ध हो सकता है? क्या इन प्रमाणों में ही ऐसा सामर्थ्य है, कि जिससे प्रमाण से ज्ञान मिलते ही हम यह भी जान जाते हैं कि ज्ञान यथार्थ है। या दूसरे किसी साधन से उस प्रमाण का प्रमाणत्व (प्रमाण्य) सिद्ध करने की ज़रूरत आ पड़ती है। जो प्रमाण में ही प्रामाण्यसिद्धि का सामर्थ्य मानते हैं, वे स्वत: प्रामाण्यवादी कहलाते हैं तथा जो प्रमाण का प्रामाण्य सिद्ध करने के लिए दूसरे किसी साधन की ज़रूरत महसूस करते हैं, वे परत: प्रामाण्यवादी माने जाते हैं। नैयायिक परत: प्रामाण्यवादी हैं। नैयायिकों का मत है कि कोई ज्ञान यथार्थ है या अयथार्थ, इसका निश्चय हमें उसी ज्ञान से नहीं, बल्कि उस ज्ञान से होने वाली प्रवृत्ति की सफलता से होता है। अर्थात् इस प्रामाण्यसिद्धि के लिए हम अनुमान करते हैं कि 'यह ज्ञान यथार्थ है, क्योंकि यह सफल प्रवृत्ति का कारण है ...'। यहाँ प्रश्न उठता है कि इस प्रकार का अनुमान प्रमाण है या नहीं, उससे होने वाला ज्ञान यथार्थ है या नहीं, इसका निश्चय कैसे किया जाए। दूसरे अनुमान से तो इसमें अनवस्था का दोष आ जायेगा। इस प्रश्न की चर्चा करते हुए वाचस्पतिमिश्र ने अपना मत व्यक्त किया है कि यद्यपि बाकी सब ज्ञानों का यथार्थत्व सिद्ध करना अनुमानों पर निर्भर है, पर इस प्रकार का प्रामाण्य (या अप्रामाण्य) सिद्ध करने वाला अनुमान अपने प्रामाण्य की सिद्धि के लिए दूसरे किसी प्रमाण पर निर्भर नहीं। इस प्रकार का अनुमान स्वत: प्रमाण ही है। प्रामाण्य साधक या अप्रामाण्यसाधक अनुमान के बारे में अगर कोई संशय नहीं हो तो वह अनुमान स्वत: सिद्ध ही है, ऐसा वाचस्पतिमिश्र का कहना है।
  • 'जहाँ-जहाँ धूम है, वहाँ वहाँ अग्नि है', इस प्रकार के वाक्य से व्यक्त होने वाला जो धूम और अग्नि में नियत सम्बन्ध होता है, उस सम्बन्ध के यानी व्याप्ति के स्वरूप के बारे में वाचस्पति के काल में बड़ी चर्चा चल रही थी। बौद्धों ने व्याप्ति के दो प्रकार बताये थे- तादात्म्य सम्बन्ध तथा तदुत्पत्ति सम्बन्ध। लेकिन नैयायिकों के अनुसार तादात्म्य तथा तदुत्पत्ति के अलावा भी दूसरे सम्बन्ध व्याप्ति में आ सकते हैं। वाचस्पतिमिश्र ने व्याप्ति का स्वरूप 'स्वाभाविक सम्बन्ध' तथा निरुपाधिक सम्बन्ध, इन दो पदों में स्पष्ट करने का यत्न किया। ऐसा महसूस होता है कि व्याप्ति का यह स्वरूप वाचस्पति के गुरु त्रिलोचन ने अपनी 'न्यायमंजरी' में प्रकट किया था। उसी का समर्थन तथा विवरण वाचस्पतिमिश्र ने किया है। इस मत के अनुसार 'जहाँ धूम है, वहाँ अग्नि है' इस वाक्य से व्यक्त होने वाला सम्बन्ध स्वाभाविक है। अर्थात् धूम का ऐसा स्वभाव ही है कि जिससे वह अग्नि के साथ नियत रूप से बद्ध होता है। लेकिन अगर हम कहें कि 'जहाँ अग्नि है, वहाँ धूम है' तो वह गलत होगा, क्योंकि अग्नि का धूम के साथ स्वाभाविक सम्बन्ध नहीं है। अग्नि का वह स्वभाव नहीं है कि उसके साथ हमेशा धूम हो।[6] अग्नि का धूम के साथ सम्बन्ध सोपाधिक है, अर्थात् अगर अग्नि 'आर्द्र ईधन से उत्पन्न' हुआ हो, तभी उससे धूम निकलता है। इस प्रकार 'आर्द्र ईधन से उत्पन्न होना' यह उपाधि है, एक तरह की शर्त है जो अग्नि को धूम से संबद्ध होने के लिए पूरी करनी ज़रूरी है। व्याप्ति सम्बन्ध निरुपाधिक याने बिना शर्त होना चाहिए।
  • शब्द प्रमाण की चर्चा करते समय वाचस्पति ने स्वाभाविक सम्बन्ध की कल्पना की मदद ली है। वाचस्पति कहते हैं कि शब्द प्रमाण का अंतर्भाव अनुमान में नहीं किया जा सकता, क्योंकि अनुमान में हेतु और साध्य में जो 'स्वाभाविक सम्बन्ध' होता है, उस प्रकार का स्वाभाविक सम्बन्ध शब्द और अर्थ में नहीं होता। शब्द का यह स्वभाव नहीं है कि वह विशिष्ट अर्थ का बोध कराए। शब्द और अर्थ का सम्बन्ध संकेत पर ईश्वरेच्छा पर अवलम्बित है, सोपाधिक है।
  • नैयायिकों ने प्रमाणों की चर्चा करते हुए समय अभाव पदार्थ को स्वीकार किया था, लेकिन किसी वस्तु का अभाव जान लेने के लिए अनुपलब्धि नामक स्वतंत्र प्रमाण की कोई ज़रूरत नहीं मानी जाती थी। वात्स्यायन ने अभाव पदार्थ की स्वीकृति करते हुए अभाव का वर्गीकरण भी किया था। उद्योतकर के बाद अभाव पदार्थ के सुस्पष्ट वर्णन के प्रयास नैयायिकों ने किए। वाचस्पति ने अभाव का मूलत: इन दो वर्गों में वर्गीकरण किया- तादात्म्यभाव (इसी को अन्योन्याभाव भी कहते हैं) तथा संसर्गाभाव। अन्योन्याभाव का अर्थ है भेद। 'पत्थर पेड़ नहीं है', इस प्रकार के वाक्य में अन्योन्याभाव का प्रतिपादन है। संसर्गाभाव के तीन प्रकार वाचस्पति ने बताए। प्रागभाव, प्रध्वंसाभाव तथा अत्यंताभाव। उत्पत्ति से पहले किसी वस्तु का जो अभाव होता है, उसे प्रागभाव कहते हैं। वस्तु के नष्ट होते ही उसका जो अभाव पैदा होता है, वह प्रध्वंसाभाव कहलाता है तथा 'पवन का रंग नहीं होता', इस प्रकार के वाक्य में जिस अभाव का प्रतिपादन होता है, उसे अत्यंताभाव कहते हैं। अभाव का यह वर्गीकरण बाद में न्याय वैशेषिक दर्शन में सर्वमान्य हो गया।

तत्त्वकौमुदी

तत्त्वकौमुदी या सांख्यतत्त्वकौमुदी वाचस्पतिमिश्र की ईश्वर कृष्ण की 'सांख्यकारिका' पर व्याख्या है। सांख्यकारिका में ग्रन्थित सांख्य दर्शन का अच्छी तरह से ज्ञान कराने के लिए वह बहुत ही उपयुक्त सिद्ध हुई है।

तत्त्ववैशारदी

पतंजलि कृत 'योगसूत्र' पर जो 'व्यासभाष्य' है, उस भाष्य का विवरण वाचस्पतिमिश्र के 'तत्त्ववैशारदी नामक ग्रन्थ में मिलता है। लेकिन सांख्यतत्त्वकौमुदी तथा तत्त्ववैशारदी इन दोनों ग्रन्थों में वाचस्पतिमिश्र का कुछ विशेष निजी योगदान हम नहीं पाते हैं।

भामती

विविध आस्तिक दर्शनों पर वाचस्पतिमिश्र ने जो टीकाएं लिखीं, उन्हें देखने से विदित होता है कि वाचस्पतिमिश्र इन विविध दर्शनों के अंतरंग से बहुत अच्छी तरह से परिचित थे। उन दर्शनों के बलस्थान तथा मर्मस्थान उन्हें मालूम हुए थे तथा इन दर्शनों का समन्वय कैसे, कितनी हद तक किया जा सकता है, इसके बारे में भी वाचस्पतिमिश्र को एक दृष्टि प्राप्त हुई थी। इसीलिए विद्वानों का कहना है कि वाचस्पतिमिश्र भामती में कभी कभी यह समन्वय की दृष्टि अपनाते हैं। एक हद तक बाकी दर्शन भी मौलिक हैं, तथा अद्वैत दर्शन की समग्र प्रतिभा में उन दर्शनों का भी एक स्थान है। ऐसा एक समन्वय का दृष्टिकोण वाचस्पति का भामती में दिखाई देता है।[7] 'भामती' शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र भाष्य पर लिखी हुई टीका मानी जाती है।

शांकरवेदांत

शंकराचार्य के बाद शांकरवेदांत के अनेक व्याख्याकार हुए तथा शांकरवेदांत के कुछ सिद्धांतों के निश्चित स्वरूप के बारे में कुछ मतभेद भी उत्पन्न हुए। शंकराचार्य के बाद जो प्रमुख दो सम्प्रदाय शांकरवेदांत में उत्पन्न हुए, वे हैं 'विवरण सम्प्रदाय' और 'भामती सम्प्रदाय'। शंकराचार्य के एक शिष्य पद्मपाद ने 'पश्चपादिका विवरण' नामक टीका लिखी। इन ग्रन्थों में से आविष्कृत होने वाला 'वेदांत सम्प्रदाय', 'विवरण सम्प्रदाय' या 'विवरण प्रस्थान' कहा जाता है। शंकराचार्य के दूसरे एक शिष्य 'सुरेश्वराचार्य' जी से जिस सम्प्रदाय का प्रारम्भ हुआ, वह भी 'आखिर विवरण सम्प्रदाय' में शामिल हुआ। लेकिन शंकराचार्य के और एक शिष्य मंडनमिश्र से जिस सम्प्रदाय का आरम्भ हुआ, उसमें विवरण सम्प्रदाय से कुछ अलग सी विचारधारा प्रकट हुई। मंडनमिर के विचारों का वाचस्पतिमिश्र पर काफ़ी प्रभाव पड़ा था तथा मंडनमिश्र के सम्प्रदाय का जोरदार प्रतिपादन वाचस्पतिमिश्र ने अपने भामती ग्रन्थ में किया। इसीलिए इस दूसरे सम्प्रदाय को भामती सम्प्रदाय या भामती प्रस्थान कहा जाता है।

'विवरण सम्प्रदाय' तथा 'भामती सम्प्रदाय' में जो वैचारिक विभिन्नता है, वह मुख्यतया जीव, ब्रह्म और विद्या के परस्पर सम्बन्ध के बारे में है। पंचपादिका विवरणकार प्रकाशात्मा के अनुसार अज्ञान (अविद्या) ब्रह्म के मूल स्वरूप को ढक देता है तथा गलत स्वरूप को सामने लाता है। अत: जो अविद्या है, वह ब्रह्म के बारे में है। लेकिन यह अविद्या या अज्ञान किसको होता है? इस अविद्या का आधार या अधिष्ठान कौन सा है? इस प्रश्न पर प्रकाशात्मा का जवाब है कि इस अविद्या का आधार या अधिष्ठान भी ब्रह्म ही है। ब्रह्म को अपने स्वरूप के बारे में विस्मरण या मिथ्याज्ञान होता है तथा उसी से प्रपंच का आभास होता है। वाचस्पतिमिश्र का मत इससे अलग है। वाचस्पतिमिश्र के अनुसार यद्यपि अविद्या ब्रह्म के बारे में है, अविद्या का विषय ब्रह्म है, लेकिन इस अविद्या का आधार या अधिष्ठान ब्रह्म नहीं है, बल्कि जीव है। ब्रह्म के सच्चे स्वरूप के बारे में जीव में अज्ञान है, अर्थात् ब्रह्म विषयक अज्ञान जीव में रहता है। इस प्रकार एक तरह से हम कह सकते हैं कि विवरणकार के अनुसार जीव ब्रह्म को अपने ही बारे में होने वाली विस्मृति का फल है तथा उस विस्मृति के नाश पर जीव का नाश निर्भर है। लेकिन वाचस्पतिमिश्र के अनुसार जीव अज्ञान से या मिथ्या ज्ञान से नया उत्पन्न नहीं होता है, बल्कि मिथ्या ज्ञान के आश्रय के रूप में वह अनादिकाल से इस दुनिया में मौजूद है। इस प्रकार जीव और मिथ्या ज्ञान दोनों वाचस्पतिमिश्र के अनुसार अनादि सिद्ध होते हैं।

ऐसा प्रतीत होता है कि जीव अविद्या का आश्रय है तथा जीव अनेक हैं, यह विचार वाचस्पतिमिश्र ने मंडनमिश्र से अपनाया। लेकिन मंडनमिश्र का यह भी मत था कि जीव मिथ्याकल्पना से जन्म लेता है। मंडनमिश्र के सामने यह समस्या थी कि अगर मिथ्या कल्पना का आश्रय जीव है तो उस मिथ्या कल्पना की उत्पत्ति से पहले जीव को मौजूद होना चाहिए। लेकिन अगर जीव ही मिथ्या कल्पना से उत्पन्न होता है तो जीव से पहले मिथ्या कल्पना होनी चाहिए। इस समस्या का समाधान करते हुए मंडनमिश्र कहते हैं कि माया या अविद्या का स्वरूप ही मूलत: अनुपपत्ति है, इसीलिए माया से प्रपंच कैसे होता है। इसके स्पष्टीकरण में भी अनुपपत्ति आना स्वाभाविक ही है। वाचस्पतिमिश्र इस प्रकार का उत्तर पसंद नहीं करते हैं। उनके अनुसार यद्यपि अध्यास से विषयत्व की अर्थात् विषयीभूत आत्मा के जीव के स्वरूप की उत्पत्ति होती है तथा विषयत्व से अध्यास की उत्पत्ति होती है, फिर भी इसमें अन्योन्याश्रय जैसा दोष नहीं आता है। जैसे बीज से अंकुर की तथा अंकुर से नये बीज की उत्पत्ति होती है, उसी प्रकार जीव से अविद्या की तथा अविद्या से जीव की उत्पत्ति होती है। इस प्रकार की अविद्या और जीव की अनादि उत्पत्ति परम्परा मानने से हम समस्या का समाधान कर सकते हैं।

जीव अनेक हैं तथा वे अविद्या के आश्रय हैं, ऐसा मानने से एक और सवाल का जवाब मिलता है। व्यवहार में हर एक जीव में होने वाली अविद्या अलग-अलग माननी चाहिए। स्वाभाविक रूप से ही, अगर एक जीव में आश्रित अविद्या नष्ट हो जाए तो वह जीव मुक्त हो सकता है। लेकिन एक जीव के मुक्त होने पर भी ब्रह्म विषयक पूरी अविद्या का नाश नहीं होता। इसलिए एक जीव के मुक्त होने से सारे जीवों के मुक्त होने का प्रसंग उपस्थित नहीं होता। लेकिन विवरण सम्प्रदाय के मत में ब्रह्म को ही अविद्या का विषय तथा आश्रय मानने से यह प्रसंग बना रहता है। यहाँ पर एक प्रश्न उठाया जा सकता है कि अगर हर एक जीव में ब्रह्म के बारे में होने वाला अज्ञान तथा मिथ्या ज्ञान भिन्न-भिन्न है तो जगत के बारे में जो अनेक जीवों को एक जैसा ज्ञान होता है तथा जीवों में ज्ञान का आदान-प्रदान भी होता है, वह कौन से आधार पर होता है। इस प्रश्न की चर्चा वाचस्पतिमिश्र ने भामती में नहीं की है। लेकिन वाचस्पतिमिश्र के संभाव्य उत्तर के बारे में हम दो दिशाओं में सोच सकते हैं-

  1. वाचस्पतिमिश्र ने अनेक अविद्याओं की चर्चा करते हुए अविद्यात्व सामान्य माना है तथा सब अविद्याओं में अविद्यात्व के समान होने के कारण ज्ञान का आदान-प्रदान सम्भव होता है, ऐसा वे मानते हैं। यहाँ वाचस्पति ने न्यायदर्शन की सारणी अपनाई है।
  2. भामती के एक आरम्भिक श्लोक में वाचस्पति ने 'अविद्याद्वितय' (दो अविद्याएं) का निर्देश किया है। ये दो अविद्याएँ 'मूलाविद्या' तथा 'तूलाविद्या' कहलाती हैं। मूलाविद्या जीवगत अनेक अविद्याओं का (मूलाविद्याओं का) बीज स्वरूप हैं तथा तूलाविद्या हर एक जीव में अलग अलग है, ऐसा हम कह सकते हैं।

सिद्धांत

अद्वैत वेदांत में प्रचलित एक वाद के संदर्भ में भी वाचस्पतिमिश्र का विशेष स्थान है। जीव के स्वरूप के संदर्भ में अद्वैत वेदांत में दो सिद्धांत प्रचलित हैं। एक प्रतिबिंबवाद कहलाता है तथा दूसरा अवच्छेदवाद। प्रतिबिंबवाद के अनुसार 'जीव अविद्या में पड़ा हुआ ब्रह्म का प्रतिबिंब जैसा है। यहाँ जल में पड़े सूर्य के प्रतिबिंब की उपमा दी जाती है। विविध जलाशयों में एक ही सूर्य के अनेक प्रतिबिंब दिखाई देते हैं। लेकिन सब प्रतिबिंब सूर्य पर अवलंबित हैं, किंबहुना सूरज से वे अलग नहीं हैं। जिस जलाशय का पानी सूख जाए, उसमें सूरज का प्रतिबिंब नहीं पड़ेगा। मानो वह प्रतिबिंब अपने बिंब में विलीन हो जायेगा, लेकिन उसका बिंब पर कोई असर नहीं पड़ेगा। जीव की मुक्ति भी इसी तरीके से होती है। अवच्छेदवाद के अनुसार जीव अविद्या रूप उपाधि से अवच्छिन्न चैतन्य ही है। इसका स्पष्टीकरण करते समय 'घटावच्छिन्न आकाश' (घटाकाश) की उपमा दी जाती है। घट में होने वाला आकाश या मठ में होने वाला आकाश मूल आकाश से भिन्न नहीं होता है। सिर्फ़ घट में होने वाला आकाश घट से अवच्छिन्न यानी मर्यादित सा लगता है। वह आकाश घट की मर्यादा में बद्ध सा महसूस होता है। घट के टूट जाने से ऐसा महसूस होता है कि घटाकाश मूल आकाश में विलीन हो गया। वस्तुत: घटाकाश आकाश ही था। बाकी आकाश से अलग होने की जो मिथ्या प्रतीति थी, वह घट के टूट जाने से दूर हो गयी। जो भी फर्क पड़ता है, वह घट में है आकाश में नहीं। उसी प्रकार मुक्ति के समय जीव, जो वस्तुत: ब्रह्म रूप होते हुए भी अलग-सा प्रतीत होता था, ब्रह्म रूप ही है, यह ज्ञान हो जाता है। सिर्फ़ अविद्या का अवच्छेद नष्ट हो जाता है।

इन दो वादों में से वाचस्पतिमिश्र अवच्छेदवाद के प्रभावी प्रतिपादक थे। यद्यपि प्रतिबिंबवाद तथा अवच्छेवाद दोनों यह प्रदर्शित करने के लिए प्रस्तावित हुए कि जीव ब्रह्म से अलग नहीं है, फिर भी प्रतिबिंबवाद से 'जीव ब्रह्म पर आश्रित है', यह बात स्पष्ट होती है। 'जीव ब्रह्म रूप है', यह बात उतनी स्पष्ट नहीं होती, जितनी अवच्छेदवाद से स्पष्ट होती है।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. दूसरे कई विद्वानों के अनुसार भामती वाचस्पति की पत्नी का नाम था।
  2. लेकिन कोई भी वैदिक इसे मान्यता नहीं देगा
  3. लिंग विध्यर्थक वाक्य में क्रियापद से जोड़ा जाने वाला प्रत्यय है। जैसे कि 'स्वर्गेच्छु व्यक्ति यज्ञ करे' इसमें 'करे' में रहने वाला 'ए' प्रत्यय।
  4. इसके बारे में एक उल्लेखनीय बात यह मानी जाती है कि मंडनमिश्र ने अपनी 'ब्रह्मसिद्धि' में स्फोटवाद का आग्रही समर्थन किया है, लेकिन उसी मंडनमिश्र के विश्वविवेक की टीका में वाचस्पतिमिश्र ने स्फोटवाद का खंडन किया है।
  5. यही मत नैयायिकों ने स्वीकृत किया है
  6. लोहे में भड़कने वाली आग से धुंआ नहीं निकलता है
  7. देखिए डॉक्टर हसुरकर, पृष्ठ 145- 149

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