ईस्टर द्वीप

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ईस्टर द्वीप / ईस्टर आइसलैंड (Easter Island)

दक्षिण अमेरिकी देश चिली से 2500 मील दूर स्थित द्वीप ईस्टर आईलैंड है। पिट केरियन द्वीप के पास स्थित ईस्टर आइसलैंड अपनी विचित्रता और डरावने स्‍थल के लिए दुनियाभर में मशहूर है। ईस्टर द्वीप दुनिया की सबसे रहस्यमय जगहों में से एक है। प्रशांत महाद्वीप में सुदूर स्थित ईस्टर द्वीप पर प्राचीनतम विशाल शिलाओं के मानव सिरों वाली प्रतिमाएं अब तक सारी दुनिया के लिए आश्चर्य से भरपूर हैं। यह दुनिया में मुख्य भूमि से सबसे दूर स्थित इंसानी आबादी वाला द्वीप है। ईस्टर आइलैंड दक्षिणी प्रशांत महासागर में 64 वर्ग मील क्षेत्र में फैला हुआ है। ये अपने आप में एक अद्भुत खोज है।

ईस्टर आइसलैंड का स्पेनिश नाम "इसला डी पैसकुआ" है। स्थानीय भाषा में 'रापा नुई' कहलाने वाले इस द्वीप पर एक ही पत्थर से तराशी हुई विशालकाय इंसानी मूर्तियां जगह-जगह बिखरी हुई है, जिन्हे 'मोआई' कहा जाता है। इनमें से सबसे बड़ी मूर्ति 33 फिट ऊंची और लगभग 75 टन भारी है। यहां पर एक अधूरी मूर्ति भी दिखाई देती है जो अगर पूरी हो जाती तो 69 फिट ऊंची और लगभग 270 टन भार की होती। यह मूर्तियां लगभग 1200 साल पुरानी मानी जाती है और यूनेस्को ने इस स्थान को विश्व विरासत की सूची में रखा है। यहां पर जुलाई और अगस्त के महीनों में तापमान कम होने पर सबसे अधिक पर्यटक देखे जा सकते है।

सभ्यता

मुख्य प्रशांत महासागर से 1500 मील दूर समुद्री चट्टानों के बीच छिपे इस द्वीप पर कभी प्राचीन पॉलीनेजिया सभ्यता के लोग रहते थे। सात अजूबे वाले इस निर्जन द्वीप पर 7 मीटर ऊंची विशाल मानव आकृतियों के लिए ये तक कहा जाता रहा है कि इनका निर्माण किसी प्राचीन मानव सभ्यता के लिए असंभव लगता है।

यह मूर्तियां किसने और क्यों बनाई, के सवाल को लेकर दुनियाभर में विभिन्न विश्वास है। कुछ लोगों का कहना है कि इन्हे दूसरे ग्रह से आये जीवधारियों ने तैयार किया था, तो वहीं कुछ का विश्वास है कि इन्हे इस द्वीप पर बस गये दक्षिण अमेरिकी आदिवासियों ने अपने मृत पुरखों की याद में गढ़ा था।

यह सिद्धांत अब कुछ ज्यादा ही स्पष्ट हो रहा है। दरअसल हाल ही में इस द्वीप में शोध के लिए पहुंचे ब्रिटिश पुरातत्वविदों के एक दल ने इसका सूत्र तलाश लिया है। यूनिवर्सिटी कॉलेज, लंदन की डॉ. सू हैमिल्टन और यूनिवर्सिटी ऑफ मैनचेस्टर के डा. पोलेन रिचर्ड्स इस द्वीप पर कुछ प्रतिमाओं के सिर पर रखी लाल चट्टानी टोपी का रहस्य तलाशते हुए पुना पाओ ज्वालामुखी के मुहाने पर पहुंच गए। यहां का दृश्य देखकर वे दंग रह गये। इस सुप्त ज्वालामुखी के अंदर एक छुपी हुई खदान थी और उन्हे यहां पुकाओ के काफी अवशेष प्राप्त हुए। यहीं पर उन्हे ढलवां धातु की बनी 7 इंच लंबी कुल्हाड़ी भी मिली। ज्वालामुखी के मुख से लेकर मैदान में स्थित मूर्तियों तक पुकाओ को लुढ़काते हुए ले जाने के लिए एक रास्ता बना हुआ था, जिसकी एक तरफ ऊंचा प्लेटफार्म था।

डा. रिचर्ड का कहना है, अब हम जान चुके है कि पुकाओ को लावे की लाल राख से बनी सड़क पर लुढ़काते हुए मूर्तियों तक ले जाया जाता था। निश्चित रूप से यह मूर्तियां आदिवासियों के अनुष्ठान का अंग थीं। ज्वालामुखी में मिली छोटी सी कुल्हाड़ी की बढि़या स्थिति यह साफ करती है कि संभवत: यह ज्वालामुखी को आदिवासियों की ओर से चढ़ाई गई भेंट थी क्योंकि इसने उन्हे पुकाओ बनाने के लिए पत्थर उपलब्ध कराये।

डा. सू का मानना है कि मूर्ति स्थल से ज्वालामुखी तक जाने वाला रास्ता कोई आम मार्ग नहीं, बल्कि अनुष्ठान के लिए प्रयोग होने वाला पवित्र रास्ता रहा होगा। आदिवासियों का विश्वास रहा होगा कि चट्टान तराशने के बाद मृतक की आत्मा मूर्ति में प्रवेश कर जाएगी। संभवत: लाल टोपी पहनाना इसी अनुष्ठान का अंग रहा होगा, लेकिन उलझन यह है कि यह सभी मूर्तियों में क्यों नहीं पाई जाती? जो भी हो अब हम यह दावा तो कर ही सकते है कि मोआई और पुकाओ के पीछे की मेहनत का क्रेडिट इंसानों को ही मिलना चाहिए, न कि दूसरे ग्रहों से पृथ्वी पर आने वाले काल्पनिक पात्रों को!

प्रतिमाओं की खुदाई

लेकिन अब एक हजार से अधिक प्रतिमाओं की खुदाई में पता चला है कि इन प्रतिमाओं का सिर्फ सिर ही नहीं जमीन के नीचे कई फीट की गहराई तक इनका पूरा धड़ भी बना हुआ है।

इस्टर आइलैंड स्टैच्यू प्रोजेक्ट के तहत इन रहस्मयीय चट्टानों के निचले सिरे ढूंढने के लिए प्रतिमाओं वाले स्थान की खुदाई की गई। इसमें पाया गया कि कई फिट गहरे तक इन प्रतिमाओं का पूरा धड़ बना हुआ है। इसके गर्भ में जाने के लिए चौड़ी सीढि़यां भी बनी हुई हैं। रापा नुई तकनीक से इस प्राचीन स्थल की खुदाई की गई। इन प्रतिमाओं के नीचे कई गुप्त तहखाने भी हैं जहां प्राचीनकाल में कुछ रस्में निभाई जाती रही होंगी। इन प्रतिमाओं के जमीन के नीचे के हिस्से में लाल रंग के पेंट के निशान भी मिले हैं। इन पर कुछ खास किस्म के निशान बनाए गए हैं जैसे कुछ लोगों ने इस पर अपनी पहचान अंकित कर रखी हो। इस निशान को विज्ञानियों की भाषा में वाका कहते हैं। इन तहखानों में इन विशालकाय प्रतिमाओं को सीधा खड़ा रखने की दुर्लभ व्यवस्था की गई है। जमीन के नीचे चट्टानों को विशाल चूना पत्थरों और रस्सियों की मदद से बांध के रखा गया है।

उल्लेखनीय है कि इस प्राचीनतम प्रतिमाओं की खोज सबसे पहले 17वीं शताब्दी में की थी। माना जाता है कि यहां की प्राचीन मूल आबादी ने इन प्रतिमाओं को दूर से दिखने देने के लिए आसपास के वन काट डाले थे। लिहाजा यही बात इस सभ्यता के विनाश की वजह भी बनी।



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