बनारस की वस्त्रकला

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बनारस अथवा वाराणसी योग, भोग और मोक्ष की नगरी के रुप में हजारों वर्ष से विख्यात है। यहाँ एक ओर जहां मणिकर्णिका घाट पर लोग अपने प्रियजनों के मृत शरीर का अन्तिम संस्कार करने आते है, वहीं बहुत से लोग आकर काशी वास करते हुए धर्मराज के आने का इन्तजार करते यहाँ हैं। ज्ञान के पिपासु विद्यार्थी यहाँ शास्रीय अध्ययन करने के लिए आते हैं। बनारस की कला विशेष रुप से रेशमी वस्र, पीतल और काष्ठ की कलात्मक चीजें समस्त वि में प्रसिद्ध है। गंगा का स्वरुप एवं आकृति जैसा बनारस में है - अर्ध चन्द्रकार - कहीं भी नहीं है। इस तरह से बनारस धर्मक्षेत्र के साथ ही मोक्षक्षेत्र, ज्ञानक्षेत्र और कलाक्षेत्र को भी अपने-आप में आत्मसात किये हुए है।

बनारसी वस्र कला

बनारसी वस्र कला एक प्राचीन और गौरवशाली परम्परा है। इस गौरव के अनेक आयाम हैं : देवालय की पवित्रता, गंगा का सौन्दर्य, महलों एवं राजदरबारों की भव्यता, लावण्यमयी तरुणी का रुप बनारसी वस्रों से निखर उठती है और श्रेष्ठजनों का व्यक्तित्व बनारसी वस्रों से गौरवान्वित होता है। कला मानव हृदय की कोमल अनुभूति है। विविध कलाएँ मानव रुचियों एवं सभ्यता को परिस्कृत करती हैं। अपने रहन-सहन, वेष-भूषा, आचरण और वातावरण को अधिकाधिक कलात्मक बनाए रखने के प्रयास में यह मानव समाज सदैव प्रयत्नशील रहा है। इस कसौटी पर बनारसी वस्र कला सामंजस्य के भव्यतम प्रतीक है। बिनकारी कला के सम्पूर्ण सुरताल और लय इसकी बुनावट में इस तरह गूंथ दिये जाते हैं जिन्हें आखें स्पष्टतः सुनती है। विश्व के किसी भी वस्र उद्योग (कला) के पास कलाकारी का वह नाद और स्वर नहीं जिन्हें आंखें सुन पाती हों।[1]

ऐतिहासिक एवं पौराणिक उल्लेख

  • बनारसी वस्र कला का हमारे प्राचीन ग्रंथों में काफी उल्लेख मिलता है। वेदों में- खासकर ऋग्वेद तथा यजुर्वेद तथा अन्य ग्रंथों में काशी के वस्रों के प्रचुर उल्लेख मिलते है। इन ग्रंथों में यहाँ निर्मित वस्रों के लिए काशी, कासिक, कासीय, काशिक, कौशेय तथा वाराणसैय्यक शब्दों का प्रयोग हुआ है। वेदों में वर्णित हिरण्य वस्र (किमख़ाब) भी काशी के वस्रों के वर्णन में प्रायः अतिविशिष्ट श्रेणी के वस्र के रुप में किया गया है तथा इनका प्रयोग भी समस्त भारतवर्ष में होता था। वैदिक साहित्य में बिनकारी के बहुत शब्द जैसे ओतु (बाना), तंतु (सूत), तंत्र (ताना), बेमन (करघा), प्राचीनतान (आगे खिंचवाना), वाय (बुनकर), मयूख (ढ़रकी) आये है।
  • ई. पू. का महाजनपद युग, शैथू, नागों और नंदयुग की जानकारी जैन सूत्रों, बौद्ध पिटकों और ब्राह्मण सूत्र में काशी के वस्रों के विषय में संक्षिप्त वर्णन है।
  • पालि साहित्य में भी काशी के बने वस्रों के उल्लेख हैं। इन्हें काशीकुत्त्तम और कहीं-कहीं कासीय कहते थे। यहाँ का वस्र इतना प्रसिद्ध था कि महपारिनिर्वाण-सूत्र का टीकाकार विहित कप्पास पर टीका करते हुए कहता है कि भगवान बुद्ध का मृत शरीर बनारसी वस्र से लपेटा गया था और वह इतना महीन और गढ़कर बुना गया था कि तेल तक नहीं सोख सकता था। इसी तरह मज्झिममनिकाय ग्रंथ में बनारसी कपड़े के बाटीक पोत का उल्लेख वाराणसैय्यक नाम से है। इस ग्रंथ का टीकाकार बनारसी वस्र की प्रशंसा करता है। उनके अनुसार काशी में अच्छी कपास होती थी, वहाँ की कत्त्तिनें और बिनकर होशियार होते थे और वहाँ का नरम पानी (शायद गंगाजल) धुलाई के लिए बहुत अच्छा पड़ता था। ये वस्र ऊपर और नीचे से मुलायम और चिकने होते थे।
  • महापरिनिब्बाणसूत्त में कही-कहीं काशी के हिरण्य वस्र (किमख़ाब) का भी उल्लेख आता है। दिव्यावदान ग्रंथ में रेशमी वस्र के लिए पट्टंशुक, चीन, कौशेश् और धौत पट्ट शब्दों का व्यवहार हुआ है। धौत पखारे हुए रेशम के वस्रों को कहते हैं। दिव्यावदान में बनारसी वस्रों के लिए काशिक वस्र, काशी तथा काशिकॉसु इत्यादि शब्दों का भी प्रयोग हुआ है। काशीक वस्र सूती भी हो सकते थे क्योंकि प्राचीनकाल में बनारस तथा इसके आसपास बहुत अच्छी कपास पैदा होती थीं और यहाँ की कत्तिनें बहुत महीन सूत कातती थी।
  • जैन ग्रंथ जैवूद्वीप प्रज्ञप्ति में जण्णग (दरजी) पट्टगार (रेशमी कपड़े बुनने वाले) तथा तंतुवाय (बिनकर) को शिल्पियों की श्रेणी में रखा गया है। इसके अतिरिक्त कार्यासिक (कपास बेचने वाले), सौत्रिक (सूत बेचने वाले) तथा दौष्यिक (बजाज) का भी सामाजिक जीवन में सम्मान-पूर्ण स्थान था। जातक कथाओं से पता लगता है कि बिनकारी में सभी वर्गों के लोग लगे हुए थे। रेशमी-वस्र बुनने वालों को पट्टगार तथा अन्य बिनकारों को तंतुवाय कहा जाता था। कालान्तर में पट्टगार के लिए पटुवा शब्द प्रयोग होने लगा और उसके बाद पटुवा समूह जाति में बदल गया। इसके समर्थन में हमें पट्टा (रेशमी कपड़े बूनने वाला) पट्टंथुक (रेशमी वस्र) जैसे शब्द भी मिलते हैं। बनारसी वस्र कला का एक नाम पाटेश्वरी जिसका अर्थ है (बिनकरों) द्वारा उत्पन्न लक्ष्मी। पटुवा जाति के लोग निरन्तर इस व्यवसाय में लगे रहे। ये लोग बिनकारी के अलावा माला एवं जेवरों की गुंथाई तथा कसीदाकारी के काम में भी प्रवीण थे। भारत में मुग़लों के आगमन के बाद काफी उथल-पुथल हुई तथा अनेक समूह इस्लाम धर्म में परिवर्तित हो गये। पटुवा जाति का भी एक बड़ा हिस्सा इस्लाम में परिवर्तित हो गया। काशी में अभी भी कुछ पटुवा परिवार हैं। बनारसी वस्रों के ऊपर सुनहली और रुपहली मनमोहक कलाकारी ने मुगल बादशाहों का मन आखिरकार मोह ही लिया। इन बादशाहों को काशी के वस्रों से अत्यन्त लगाव हो गया था। उन्होंने कला को आगे बढ़ाने में काफी दिलचस्पी भी ली। बादशाहों की विशेष पसंद हो जाने के कारण इसमें मुग़ल शैली का भी समावेश होने लगा। विशेषकर ईरान के दक्ष कलाकारों ने इसमें विशेष रुचि लेकर यहाँ की कलाकारी में अपनी कला का सामंजस्य किया। मुग़ल शैली बनारसी बिनकारी की लोकप्रियता का सबसे प्रमुख आधार इसकी कला है। परिवर्तन के अनगिनत दौर से गुजरने के बाद भी बनारस में बिनकरों की संख्या दिनानुदिन बढ़ती ही जा रही है। यह है जीता-जागता एवं चिरन्तन प्रमाण जो इस कला के प्रति कलाकारों एवं उनके पीढ़ी-दर-पीढ़ी के लोगों के स्नेह और समपंण को प्रदर्शित करता है।[1]

बिनकर और बिनकारी

बिनकर सामान्यतया बड़े एवं संयुक्त परिवार में रहते हैं। इस कला में लोग बचपन से ही लग जाते हैं। कला की जटिलता इतनी है कि अगर बचपन से ही इसपर ध्यान न दिया जाय तो फिर इसे सीखना मुश्किल हो जाता है। इसमें परिवार के सभी लोग बच्चे-बूढ़े, जवान, औरत और मर्द लगे रहते हैं। सभी लड़के-चाहे वे स्कूल जाते हो या न जाते हों - बिनकारी दस से बारह वर्ष की अवस्था में प्रारंभ कर देते है। पांच से छह वर्ष का प्रशिक्षण (जो घर में ही मिल जाता है) के बाद एक बच्चा एक कुशल बिनकर के आधे के आसपास कमाई कर लेता है और अगले दो से चार वर्ष में वह पूर्ण कारीगर बन जाता है एवं पूरी कमाई करने लगता है। महिलाएं सामान्यतया बिनने का कार्य नहीं करती परन्तु अन्य मदद जैसे धागे को सुलझाना, बोबिंग में डालना, चर्खा पर तैयार करना इत्यादि कर देती है। इसीलिए बिना औरत के बिनाई लगभग असम्भव सा लगता है। जब एक बच्चा इस कला को सीखना प्रारंभ करता है तो सामान्यतया वह बुटी काढ़ने का या ढ़रकी को फेकने का कार्य करता है। इसीलिए उसे बुटी कढ़वा या ढ़रकी फेकवा भी कहा जाता है। जब एक बिनकर अपनी कला में समग्रता के साथ पारंगत हो जाता है तब उसे गीरहस्ता (प्रमुख बिनकर) कहकर पुकारा जाता है।[1]

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बनारसी (बिनकर गज)
  • 16 गीरह का एक गज होता है।
  • 4 अंगुली का एक गीरह होती है।
  • 1 गीरह में सवा दो ईंच होता है।
फन्नी की लम्बाई

फन्नी की लम्बाई साढ़े सत्रह गीरह के लगभग होती है

पनहा फन्नी के साईज पर निर्भर करता है। साड़ी की चौड़ाई अथवा अर्ज को पनहा कहा जाता है।
भरुई की फन्नी भरुई की फन्नी ही परम्परागत फन्नी है जो लुप्त प्राय हो रही है। भरुई की फन्नी के दोनों बेस एक प्रकार की लकड़ी से बना होता है जिसे साठा कहा जाता है।
सीक सीक नरकट से बना होता है। नरकट को सीक की तरह बनाकर चौड़ाई में डाला जाता है। भरुई के फन्ने के सीक की चौड़ाई लगभग 3 ईंच होती है।
वेवर भरुई के फन्नी के दोनों छोर पर लोहे के समान आकार के (सीक की आकृति एवं आकार के समान) सींके लगी होती हैं, जिसे वेवर कहा जाता है।
गेवा सींक को पारम्परिक तथा प्रचलित भाषा में गेवा कहा जाता है। गेवा दो प्रकार का होता है:
  1. सींक का गेवा
  2. लोहे का गेवा।

साड़ी के पनहे के दोनों हिस्सों को ठोस तथा मजबूती देने के लिए लोहे का गेवा दिया जाता है।

हत्था फन्नी के फ्रेम को हत्था कहा जाता है। अर्थात् फन्नी हत्थे में लगी होती है। हत्था लकड़ी का बना होता है।
तरौधी हत्थे के नीचे के भाग को तरौधी कहा जाता है। हत्थे और तरौधी के अन्दर वाले भाग में एक नाली खुदी होती है जिसमें फन्नी बैठी होती है।
खड्डी खड्डी जमीन में गड़ी होती है, जिसपर हत्था खड़ा होता है। अर्थात हत्था खड्डी के ऊपर खड़ा होता है। खड्डी लकड़ी की बनी होती है जो दो खूंटे पर खड़ी होती है। इसमें खड्डीदार सीकी बनी होती है, जिसके बेस पर लकड़ी का माला लगा होता है।
गेठुआ (गेठवा, गेतवा) गेठुआ या गेतवा में लकड़ी के कांटी नायलोन के धागे से बना जाला होता है। इसी को गेठुआ कहा जाता है। कई वर्ष पूर्व जब नायलोन का प्रचार प्रसार नहीं हुआ था उस समय वाराणसी के बिनकर सूती धागों का ही गेठुआ बनाया करते थे। हालांकि आजकल सूती गेठुआ कही भी व्यवहार में नहीं लाया जाता है।
पौंसार पौंसार कारखाने में पैर के पास लगा होता है। सामान्यतः बेलबूटे पर चार पौंसार होते हैं जिसमें दो दम्मा का पौसार तथा दो मशीन का पौसार होता है। मशीन के पौसार को जब दबाया जाता है तब यह नाका उठाता है, जबकि दम के पौंसार दबाने से यह तानी उठाता है।
सिरकी सिरकी बांस का बना होता है, तथा इसका उपयोग ज़री तथा कढ़ाई बनाने के लिए किया जाता है।
नौलक्खा (बोझा) पौसार दबाने पर नाका या तानी ऊपर की ओर उठता है जिससे कपड़े की बिनाई तथा कढ़ाई की प्रक्रिया चलती रहती है। नाका या तानी ऊपर की ओर उठने के बाद यह जरुरी है कि वह फिर अपने पूर्व स्थान पर यथावत आ जाए और कहीं फंसे भी नहीं। इसी के लिए कारखाने में एक वजन दोनों तरफ दो-दो कर डाल दिया जाता है, जिसे नौलक्खा या बोझा कहते हैं। पहले नौलक्खा कुम्हार की मिट्टी को पकाकर सुन्दर आकृति में बनाता था। हालांकि आजकल इसके बदले ईंटा या बालू के बोझ का भी प्रयोग किया जाता है।
पटबेल आंचल के दोनों पट्टी को पटबेल कहा जाता है।
लप्पा लप्पा करघे के सबसे ऊपरी भाग को कहते हैं। लप्पा बांस या लकड़ी के चार टुकड़े से बनाया जाता है। बांस या लकड़ी के टुकड़े को आरी-तिरछी रखकर उस पर रखा जाता है। यहां के लोग जैक्वार्ड को अपनी भाषा में मशीन कहते हैं। लप्पा लकड़ी या बांस के टुकड़े को ही कहते हैं।
मशीन का डन्डा यह जैक्वर्ड मशीन का डंडा होता है। मशीन का डंडा लकड़ी से बना होता है। हरेक डंडे में दो छेद किया जाता है जिन्हें दो लकड़ियों के बीच नट तथा बोल्ट से कस दिया जाता है।
मांकड़ी मांकड़ी लप्पे के ऊपर होता है। यह डंडानुमा आकृति का होता है। मांकड़ी से वय की गठुआ उठता है।
चिड़ैया (चिड़ई का डंडा) जिस डंडे से जकार्ड मशीन के स्लाइड को उठाया जाता है उसे चिड़ैया या फिर चिड़ई का डण्डा कहा जाता है। चिड़ैया नीचे की ओर मशीन पर हमेशा झुका हो इस ख्याल से लोहे के प्लेट से इसे बांध दिया जाता है। मशीन के डण्डे का पिछला हिस्सा एक डोरी द्वारा नीचे कारखाने में एक लीवर द्वारा कसा होता है जिसको पैर से दबाने से मशीन अपना कार्य शुरु कर देता है।



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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 मिश्र, डॉ. कैलाश कुमार। बनारस की वस्र कला (हिंदी) (एच.टी.एम.एल) ignca.nic.। अभिगमन तिथि: 22 नवंबर, 2012।

बाहरी कड़ियाँ

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