क़ाफ़िया
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क़ाफ़िया वह शब्द है जो प्रत्येक शे'र में रदीफ़़ के ठीक पहले आता है और सम तुकांतता के साथ हर शे'र में बदलता रहता है। शे'र का आकर्षण क़ाफ़िये पर ही टिका होता है, क़ाफ़िये का जितनी सुंदरता से निर्वहन किया जायेगा शे'र उतना ही प्रभावशाली होगा।
- उदाहरण
किस महूरत में दिन निकलता है
शाम तक सिर्फ हाथ मलता है
वक़्त की दिल्लगी के बारे में
सोचता हूँ तो दिल दहलता है -(बाल स्वरूप राही)[1]
- उपरोक्त उदाहरण से हम 'रदीफ़' की पहचान कर सकते हैं इसलिए स्पष्ट है कि प्रस्तुत अश'आर में 'है' शब्द रदीफ़़ है तथा उसके पहले के शब्द निकलता, मलता, दहलता सम तुकान्त शब्द हैं तथा प्रत्येक शे'र में बदल रहे हैं इसलिए यह क़ाफ़िया है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ (हिंदी) open books online। अभिगमन तिथि: 23 फ़रवरी, 2013।
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