अंजना

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रामभक्त हनुमान की माता, जिनका उल्लेख पुराणों और बौद्ध ग्रन्थों में भिन्न-भिन्न प्रकार से मिलता है।

अंजना का उल्लेख इन लेखों में भी है: केसरी वानर राज, हनुमान एवं किष्किन्धा

पुराणों के अनुसार

यह पहले इन्द्र की सभा में पुंजिकस्थली नाम की अप्सरा थी। एक बार जब दुर्वासा ऋषि भी इन्द्र की सभा में उपस्थित थे, तो वह बार-बार भीतर आ-जा रही थी। इससे रुष्ट होकर ऋषि ने उसे वानरी हो जाने का शाप दे डाला। जब उसने बहुत अनुनय-विनय की, तो उसे इच्छानुसार रूप धारण करने का वर मिल गया। इसके बाद गिरज नामक वानर की पत्नी के गर्भ से इसका जन्म हुआ और अंजना नाम पड़ा। केसरी नाम के वानर से इनका विवाह हुआ और उनके गर्भ से हनुमान का जन्म हुआ।

बौद्ध ग्रंथों के अनुसार

राजा महेन्द्र की कन्या का नाम अंजनासुंदरी था। राजा ने उसका विवाह प्रह्लाद के पुत्र पवनंजय से किया था। विवाह से पूर्व ही पवनंजय ने उसकी सखी को अपनी निन्दा करते सुना और अंजनासुंदरी को मौन देखकर उसकी सहमति मान ली। इस कारण से विवाह के उपरान्त उसने अपनी पत्नी से सम्पर्क नहीं रखा। कुछ वर्ष के उपरान्त रावण और वरुण के युद्ध में रावण की सहायता के लिए पवनंजय घर से निकला। वन में उसने एक विरहिणी चकवी का विलाप देखा तो वह उद्धेलित हो उठा और उसी रात दूसरे व्यक्ति को सेनापति नियुक्त करके अंजनासुंदरी के पास गया। रात्रि व्यतीत होने पर अपने आने के प्रमाणस्वरूप अपनी मुद्रिका देकर वह युद्ध में भाग लेने के लिए चला गया।

अंजनासुंदरी को गर्भवती जानकर उसकी सास ने उसको कलंकनी समझा। मुद्रिका दिखाने पर भी वह विश्वास नहीं दिला पाई तथा उसे राज्य से निकाल दिया गया। पिता ने भी उसके साथ में वैसा ही व्यवहार किया। वह अपनी सखी के साथ ही वन में रहने लगी। कालान्तर में उसने पुत्र को जन्म दिया। संयोगवश उसका मामा प्रतिसूर्य उधर से जा रहा था। समस्त घटनाओं के विषय में सुनकर वह अंजनासुंदरी को अपने साथ विमान में बैठाकर ले चला। बचपन में अंजना का पुत्र फिसलकर पर्वत की शिला पर गिर पड़ा-जो चूर्ण हो गई थी। अत: उसका नाम श्रीशैल रखा गया। क्योंकि हनुरुहनगर में उसे विशेष सत्कार मिला था, अत: वह हनुमान कहलाया। वरुण को पराजित करके लौटने पर पवनंजय को अंजनासुंदरी नहीं मिली तो वह महेन्द्र के पास गया। अपनी पत्नी को वहाँ भी न पाकर वह दुखी था कि तभी प्रतिसूर्य से साक्षात्कार हुआ। उसने पवनंजय को समस्त कथा सुनाकर उन दोनों का सम्मिलन करवा दिया।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

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