मकर संक्रांति निकल गयी, सर्दी कम होने के आसार थे, लेकिन हुई नहीं, होती भी कैसे 'चिल्ला जाड़े' जो चल रहे हैं। उपन्यास सम्राट मुंशी प्रेमचंद लिखते हैं-
"हवा का ऐसा ठंडा, चुभने वाला, बिच्छू के डंक का-सा झोंका लगा"
अमर कहानीकार मोपासां ने लिखा है-
"ठंड ऐसी पड़ रही थी कि पत्थर भी चटक जाय"
जाड़ा इस बार ज़्यादा पड़ रहा है। ज़बर्दस्त जाड़ा याने कि 'किटकिटी' वाली ठंड के लिए मेरी माँ कहती हैं-"चिल्ला जाड़ा चल रहा है"
मैं सोचा करता था कि जिस ठंड में चिल्लाने लगें तो वही 'चिल्ला जाड़ा!' लेकिन मन में ये बात तो रहती थी कि शायद मैं ग़लत हूँ। बाबरनामा (तुज़कि बाबरी) में बाबर ने लिखा है कि इतनी ठंड पड़ रही है कि 'कमान का चिल्ला' भी नहीं चढ़ता याने धनुष की प्रत्यंचा (डोरी) जो चमड़े की होती थी, वह ठंड से सिकुड़ कर छोटी हो जाती थी और आसानी से धनुष पर नहीं चढ़ पाती थी, तब मैंने सोचा कि शायद कमान के चिल्ले की वजह से चिल्ला जाड़े कहते हैं लेकिन बाद में मेरे इस हास्यास्पद शोध को तब बड़ा धक्का लगा जब पता चला कि 'चिल्ला' शब्द फ़ारसी भाषा में चालीस दिन के अंतराल के लिए कहा जाता है, फिर ध्यान आया कि अरे हाँ... कहा भी तो 'चालीस दिन का चिल्ला' ही जाता है।
17 जनवरी, 2014
हमको मालूम है इन सब की हक़ीक़त लेकिन
दिल-ए-ख़ुशफ़हमी को कुछ दिन ये 'आप' अच्छा है
-जनाब असद उल्ला ख़ां ग़ालिब की याद में
15 जनवरी, 2014
विश्व के महानतम निर्देशकों में अल्फ़्रेड हिचकॉक का नाम आता है। वे मेरे बेहद पसंदीदा सिनेमा निर्देशकों में से एक रहे हैं। पिछले वर्ष उनके जीवन पर बनी फ़िल्म 'Hichcock' देखी। इसमें ऍन्थनी हॉपकिन (Anthony Hopkins) ने हिचकॉक की भूमिका की है। वे भी महान कलाकार हैं और मेरे पसंदीदा ऍक्टर हैं। यह फ़िल्म मेरी पसंदीदा और हिचकॉक की मशहूर फ़िल्म साइको (Psycho) के निर्माण पर आधारित है। हमेशा की तरह इस फ़िल्म में भी ऍन्थनी हॉपकिन का अभिनय देखने लायक़ है।
हिचकॉक की फ़िल्मों की नक़लें सारी दुनिया में होती रही है। उनकी फ़िल्म वर्टीगो (Vertigo) मुझे बहुत पसंद है। ये एक ज़बर्दस्त थ्रिलर है। इसमें हीरो ऍक्रोफ़ोबिया (Acrophobia) का मरीज़ होता है। ऍक्रोफ़ोबिया एक ऐसी फ़ोबिया है जिसमें बहुत ऊँचाई से नीचे देखने पर चक्कर आते हैं। राज़ की बात ये है कि मैं मुझे भी ऍक्रोफ़ोबिया है। हा हा हा
14 जनवरी, 2014
जो सीमाओं में बंधकर जीते हैं
उनका जीवन
उनकी मृत्यु के साथ ही समाप्त हो जाता है सीमाओं के परे, खुले आकाश में
विचरण करने वालों का जीवन
अनन्त काल तक चलता है।
14 जनवरी, 2014
भारत जैसे विशाल गणतंत्र के समग्र विकास के लिए
60-70 वर्ष का समय सामान्यत: बहुत कम है
भारत की आज़ादी को अभी इतना समय नहीं हुआ
कि भारत के संविधान का सही मूल्यांकन हो सके
भारत का गणतंत्र और संविधान अभी शैशवावस्था में ही हैं
फिर भी यह कहने में मुझे कोई संकोच नहीं है कि इस शताब्दी में भारत विश्व का सबसे शक्तिशाली देश होगा।
14 जनवरी, 2014
आपसी रिश्तों में या समाज में
शिकायतों और उलाहनों के प्रति
यदि हमारा दृष्टिकोण
उन्हें गंभीरता से लेकर
स्वयं का विश्लेषण करने का रहता है
तो निश्चित ही हम ख़ुद को
एक सकारात्मक व्यक्ति के रूप में
देख सकते हैं
यह महान व्यक्तियों का एक ऐसा गुण भी जो उनको महान बनाता है
14 जनवरी, 2014
कभी-कभी ऐसा लगता है कि विश्वास वह भ्रम है जो अब तक टूटा नहीं...
14 जनवरी, 2014
उम्रे दराज़ मांग के लाए थे चार रोज़
दो FB पे कट गए दो बिग बज़ार में
(आज 'ज़फ़र' होते शायद तो यही लिखते)
14 जनवरी, 2014
प्राचीन काल के दक्षिण भारत में ग्राम प्रशासन, पंचायत और प्रजातांत्रिक व्यवस्था के बेहतरीन नमूने हैं।
उत्तिरमेरूर की राजनैतिक व्यवस्थाएं चोंकाने वाली हैं। यह दक्षिण भारत में तमिलनाडु राज्य के कांचीपुरम ज़िले का एक पंचायती ग्राम है। चोल राज्य के अंतर्गत ब्राह्मणों (अग्रहार) के एक बड़े ग्राम में दसवीं शताब्दी के पश्चात अनेक शिलालेख स्थानीय राजनीति पर प्रकाश पर प्रकाश डालते हैं।
7 जनवरी, 2014
आम आदमी को परिभाषित करने और आम आदमी की समस्याओं को प्रस्तुत करने के काम जितने बढ़िया तरह से महान कार्टूनिस्ट आर॰ के॰ लक्ष्मण ने किया है उतना किसी ने नहीं।
इसके बदले में उनको लगभग हरेक सरकार द्वारा ऐसा न करने की चेतावनी दी गई और मुक़दमे चले।
अब दिल्ली सदन में आम आदमी की एक नई परिभाषा की गई है जो मेरी समझ के परे है। कहा गया है कि 'वह हरेक आदमी, आम आदमी है जो कि ईमानदार सरकार चाहता है चाहे वह ग्रेटरकैलाश और डिफ़ेन्स कॉलोनी का ही रहने वाला क्यों न हो।'
ईमानदार सरकार तो सभी चाहते हैं। मैंने किसी करोड़पति या अरबपति को कभी यह कहते नहीं सुना कि वे बेईमान सरकार चाहते हैं।
तो क्या अब 5-10 करोड़ के बंगले में रहने वाला भी आम आदमी है? बी॰ऍम॰डब्ल्यू और मर्सडीज़ का स्वामी भी आम आदमी है?
मैंने पहले लिखा था कि सत्ता की एक अपनी भाषा और संस्कृति होती है। जो सत्ता में आने के बाद अपनानी होती है। यदि ऐसा न करें तो ब्यूरो क्रेट ऐसा करवा देते हैं क्योंकि जनता को ग़लतफ़हमी चाहे कुछ भी हो लेकिन देश तो ब्यूरो क्रेट ही चला रहे हैं। -और ज़्यादा विस्तार से पढ़ना चाहें तो भारतकोश पर मेरा एक लेख पढ़ें-
7 जनवरी, 2014
ईमानदारी और सादगी की सार्थकता
विनम्रता के साथ ही है
यदि हमें अपनी ईमानदारी और सादगी
का अहंकार है तो ये भौंडे आडम्बरों
के अलावा और कुछ नहीं है।
6 जनवरी, 2014
हिन्दू, मुसलमान, ईसाई आदि उसे कहते हैं जो कि अपने धर्म के धार्मिक और आध्यात्मिक रूप-स्वरूप में आस्था रखता है।
कट्टर हिन्दू, कट्टर मुसलमान, कट्टर ईसाई उसे कहते हैं जो अपने धर्म के व्यावसायिक और राजनैतिक रूप-स्वरूप में आस्था रखता है।
यदि ईमानदारी और गंभीरता से विचार करेंगे तो यह समझ में आ जाएगा कि धार्मिक या साम्प्रदायिक कट्टरता हमें अध्यात्म और धर्म दूर ले जाती है।
6 जनवरी, 2014
शेक्सपीयर तो अपने मशहूर नाटक हॅमलेट में "Frailty, thy name is woman." लिख कर जन्नत नशीं हो गए। मेरी तो हमेशा की तरह शामत आई हुई है, कि व्याख्या करो इसकी। सवाल इस वाक्य का अर्थ करने का नहीं है बल्कि पूछा गया है कि क्या यह सही है?
जैसे रामचरितमानस की एक-एक चौपाई के 24-24 अर्थ आजकल होते हैं वैसे ही शेक्सपीयर के नाटकों के मशहूर संवादों के भी कई-कई अर्थ होते हैं। हॅमलेट के ही एक और संवाद "To be or not to be" के अनुवाद का भी एक ज़माने में बड़ा हल्ला रहा। इसका अनुवाद रांगेय राघव जी ने भी किया, अमृतराय जी ने भी किया। कुल मिला कर ये तय हुआ कि मामला आत्महत्या करने का है कि 'करें या नहीं'।
...ख़ैर...
"Frailty, thy name is woman." का अर्थ तो ये निकलता है कि 'कमज़ोरी' तेरा ही नाम औरत है लेकिन नाटक हॅमलेट में इसका संदर्भ है कि औरत कमज़ोर होने के कारण ही बेवफ़ा हो जाती है, तो इसका अर्थ किया गया "बेवफ़ाई, तेरा ही दूसरा नाम औरत है।"
असल में यह बात आदमी पर भी लागू होती है। आदमी का भी दूसरा नाम बेवफ़ाई ही है। पुरुष के लिए स्त्री को और स्त्री के लिए पुरुष को वफ़ादार बनाने का काम प्रकृति ने तो किया नहीं है। नर और मादा एक दूसरे के लिए वफ़ादार हों ऐसा नियम प्रकृति का नहीं है, तो फिर ये निष्ठा और वफ़ा कहाँ से आयी?
असल में बात यह है कि जो पुरुष, इंसान पहले और बाद में पुरुष होगा वही किसी स्त्री के प्रति निष्ठा या वफ़ा निभाएगा। जो स्त्री इंसान पहले और बाद में स्त्री होगी वही किसी पुरुष के प्रति निष्ठा या वफ़ा निभाएगी।
जब हम अपने आप को आदमी या औरत पहले समझते हैं और इंसान बाद में, तो हम इंसानियत के नियमों से दूर हट जाते हैं। जब हम इंसानियत से ही दूर हट गए तो फिर वफ़ा का क्या काम? इसी तरह किसी आदमी या औरत के कमज़ोर होने अनेक संभावनाएँ हो सकती है लेकिन इंसान कभी कमज़ोर नहीं होता। ऐसा लगता है कि स्त्री-पुरुष के बीच सच्ची वफ़ादारी की वजह केवल इंसानियत ही होती है। बाक़ी और वजहें तो समाज का डर या किसी स्वार्थ आदि से प्रभावित होने की संभावना रखती हैं।
6 जनवरी, 2014
राजा महाराजाओं के काल में तो यह कहा जाना सही रहा होगा-
"यथा राजा तथा प्रजा" याने जैसा राजा वैसी प्रजा।
लेकिन लोकतंत्र में तो अपना राजा, हम चुनते हैं।
अब तो इसका ठीक उल्टा याने
"यथा प्रजा तथा राजा" ही सही बैठता है।
नेता जैसे भी हैं, उनके आचरण के लिए,
वे नहीं, बल्कि सिर्फ़ और सिर्फ़ हम ज़िम्मेदार हैं।
प्रजातांत्रिक व्यवस्था में अयोग्य नेताओं को गाली देने का अर्थ है,
अपने आप को ही गाली देना।
कभी यह सोचने में भी समय लगाना चाहिए कि क्या कारण है कि नेता दिन ब दिन 'अनेता' होते जा रहे हैं ?
कहीं इसका कारण ये तो नहीं कि हम में ही कुछ गड़बड़ है ?
ज़रा हम अपने गरेबाँ में भी झांक कर देखें...
28 दिसम्बर, 2013
यदि पड़ोस से रोते हुए बच्चे के रोने की आवाज़ से आपके ध्यान, पूजा या स्तुति जैसे कार्य में बाधा नहीं पड़ती और आपका ध्यान भंग नहीं होता, तो आप किसी संन्यासी, साधु, सन्त या धर्मात्मा की श्रेणी में नहीं बल्कि दुष्टात्मा की श्रेणी में आते हैं।
28 दिसम्बर, 2013
प्रताप सिंह कैरों पचास के दशक में पंजाब के मुख्यमंत्री रहे। उनके शासन का उदाहरण आज भी दिया जाता है और महान नेता सरदार वल्लभ भाई पटेल से उनकी तुलना की जाती है। उस दौर में भी अनाज की कालाबाज़ारी ज़ोरों पर थी। देश नया-नया आज़ाद हुआ था। राज्य सरकारों के पास संसाधन कम थे। जमाख़ोरों और दलालों ने अनाज गोदामों में बंद किया हुआ था, मंहगाई आसमान को छूने लगी थी, जनता त्राहि-त्राहि कर रही थी। किसी के समझ में नहीं आ रहा था कि क्या किया जाना चाहिए। कैरों ने एक गंभीर जनहितकारी चाल चली... केन्द्र सरकार और रेल मंत्रालय की सहायता से कई मालगाड़ियाँ रेलवे स्टेशनों पर जा पहुँची जिनके डब्बे सील बंद थे और उनपर विभिन्न अनाजों के नाम लिखे हुए थे। शहरों में आग की तरह से ये ख़बर फैल गयी कि सरकार ने 'बाहर' से अनाज मंगवा लिया है। इतना सुनना था कि जमाख़ोरो ने अपना अनाज बाज़ार में आनन-फानन में बेचना शुरू कर दिया। मंहगाई तुरंत क़ाबू में आ गई।
एक सप्ताह बाद मालगाड़ियाँ ज्यों की त्यों वापस लौट गईं क्योंकि वे ख़ाली थीं।... यदि सरकार ठान ले तो देश की तरक्की के लिए हज़ार-लाख तरीक़े निकाल सकती है लेकिन...
14 दिसम्बर, 2013
माता, पिता, पुत्री और गुरु को हर जगह महिमा मंडित किया जाता है। पुत्र, शिष्य, पत्नी और पति को नहीं... ऐसा क्यों?
हो सकता है कि इसका कारण ये हो कि माल-मत्ता तो सब पुत्र, शिष्य, पत्नी और पति के हाथ पड़ता है...
अब बाक़ी बचे माता-िपता, पुत्री और गुरु तो इन बेचारों की प्रशंसा करते रहो तो 'सैट' रहेंगे... ऐसा है क्या ?
ये हो भी सकता है... और नहीं भी... !
एक नज़र इस नज़रिये पर भी-
पत्नी अपने पति को माँ से अधिक लाड़ और स्नेह, बहन से अधिक साथ, पुत्री से अधिक सम्मान और गुरु से अधिक शिक्षा देकर भी
अपने पति से सार्वजनिक प्रशंसा की चार लाइनों के लिए महरूम क्यों ? पति अपनी पत्नी को पिता से अधिक लाड़ और स्नेह, भाई से अधिक सुरक्षा, पुत्र से अधिक उसके ममत्व की संतृप्ति और गुरु से अधिक शिक्षा देकर भी अपनी पत्नी से सार्वजनिक प्रशंसा की चार लाइनों के लिए महरूम क्यों ? पति या पत्नी की प्रशंसा में लिखने में हमें क्या हिचक है ? कोई शर्म है क्या ?
एक बात और है जो लोग यारी-दोस्ती में ज़्यादा मशग़ूल रहते हैं। उनको शायद यह नहीं मालूम कि पति-पत्नी, आपस में सबसे बड़े राज़दार होते हैं। इसलिए सबसे बड़े दोस्त भी। ये दोस्ती ऐसी होती है जो कि रिश्ता ख़त्म होने पर भी एक-दूसरे के राज़ बनाए रखती है, खोलती नहीं।
वो बात अलग है कि जब ये उन राज़ों को खोलने पर आते हैं तो वो राज़ भी खुल जाते हैं जिनको हम भगवान से भी छुपाते हैं लेकिन सामान्यत: ऐसा होता नहीं है।
याद रखिए अपनी जान तो हमारे लिए कोई भी दे सकता है लेकिन अपना जीवन तो एक दूसरे को पति-पत्नी ही देते हैं।
यह सही है कि 'माता-पिता ही हमारे साक्षात् भगवान हैं'।
लेकिन यह भी मत भूलिए कि पति-पत्नी भी एक दूसरे के लिए
साक्षात न सही तो 'मिनी भगवान' हैं।
ऐसा नहीं है कि पति-पत्नी के रिश्ते का आधार केवल संतान है।
14 दिसम्बर, 2013
'पॉज़टिव थिंकिंग' याने सकारात्मक सोच के संबंध में कुछ लोग सिखाते हैं कि अपने प्रयत्न के अच्छे परिणाम के संबंध में आश्वस्थ रहना ही पॉज़िटिव थिंकिंग है। कुछ लोग इस शिक्षा को सीख भी जाते हैं। यह सकारात्मक सोच नहीं है बल्कि अति आशावादी होना है।
सकारात्मक सोच है परिणाम की प्रतीक्षा के प्रति सहज हो जाना। याने बिना बेचैनी के प्रतीक्षा करना। प्रतीक्षा में सहज होना ही सकारात्मक सोच है।
वैसे तो जीवन बहुत कुछ है लेकिन जीवन एक प्रतीक्षा भी है। सभी को किसी न किसी की प्रतीक्षा है और प्रतीक्षा करने में बेचैनी होना सामान्य बात है। बहुत कम लोग ऐसे हैं जो प्रतीक्षा करने में बेचैन नहीं होते। असल में हम जितने अधिक नासमझ होते हैं उतना ही प्रतीक्षा करने में बेचैन रहते हैं। बच्चों को यदि हम देखें तो आसानी से समझ सकते हैं कि किसी की प्रतीक्षा करने में बच्चे कितने अधीर होते हैं। धीरे-धीरे जब उम्र बढ़ती है तो यह अधीरता कम होती जाती है क्योंकि उनमें 'समझ' आ जाती है। इसी 'समझ' को समझना ज़रूरी है क्योंकि जब तक हम यह नहीं समझेंगे कि हमारे जीवन में प्रतीक्षा का क्या महत्त्व है और इसका हमारे जीवन पर क्या प्रभाव होता है तब तक हम सकारात्मक सोच नहीं समझ सकते।
सीधी सी बात है कि सकारात्मक सोच के व्यक्ति बहुत कम ही होते हैं। राजा हो या रंक इससे कोई अंतर नहीं पड़ता। साधु-संत भी ईश्वर के दर्शन की या मोक्ष की प्रतीक्षा में रहते हैं। यहाँ समझने वाली बात ये है कि हम प्रतीक्षा कैसे कर रहे हैं। यदि कोई संत मोक्ष की प्रतीक्षा में है और वह सहज रूप से यह प्रतीक्षा नहीं कर रहा तो उसका मार्ग ही पूर्णतया अर्थहीन है। यदि और गहराई से देखें तो मोक्ष को 'प्राप्त' करने जैसा भी कुछ नहीं है। मोक्ष तो 'होता' और 'घटता' है, बस इसे समझना ज़रूरी है। जीवन में सहजता को प्राप्त हो जाना ही मोक्ष को प्राप्त हो जाना है।
प्रतीक्षा के प्रति सहज भाव हो जाना ही हमें सकारात्मक सोच वाला व्यक्ति बनाता है। असल में प्रतीक्षा के प्रति निर्लिप्त हो जाना ही सकारात्मक सोच है। जो कि निश्चित रूप से कठिन है।
13 दिसम्बर, 2013
बहादुर उसे माना गया, जिसने अपने डर को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सहिष्णु वह माना गया, जिसने अपनी ईर्ष्या को प्रदर्शित नहीं होने दिया
विनम्र वह माना गया, जिसने अपने अहंकार को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सुन्दर वह माना गया, जिसने अपनी कुरूपता को प्रदर्शित नहीं होने दिया
चरित्रवान वह माना गया, जिसने अपने दुश्वरित्र को प्रदर्शित नहीं होने दिया
ईमानदार वह माना गया, जिसने अपनी बेईमानी को प्रदर्शित नहीं होने दिया
बुद्धिमान वह माना गया, जिसने अपनी मूर्खताओं को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सफल शिक्षक वह माना गया, जिसने अपने अज्ञान को प्रदर्शित नहीं होने दिया
अहिंसक और दयालु वह माना गया, जिसने अपनी हिंसा को प्रदर्शित नहीं होने दिया
सफल प्रेमी/प्रेमिका, वे माने गए जिन्होंने अपनी पारस्परिक घृणा को प्रदर्शित नहीं होने दिया
किन्तु महान केवल वह ही है जिसने अपने 'उन कारणों' के पीछे छुपी कमज़ोरियों को भी नहीं छुपाया
'जिन कारणों' के चलते वह प्रशंसनीय और सफल हुआ।
13 दिसम्बर, 2013
मुझे गर्व है कि मैं, चौधरी दिगम्बर सिंह जी का बेटा हूँ। आज 10 दिसम्बर को उनकी पुन्य तिथि है। पिताजी स्वतंत्रता सेनानी थे। 4 बार लोकसभा सांसद रहे (तीन बार मथुरा, एक बार एटा) और 25 वर्ष लगातार, मथुरा ज़ि. सहकारी बैंक के अध्यक्ष रहे । सादगी का जीवन जीते थे। कभी कोई नशा नहीं किया और आजीवन पूर्ण स्वस्थ रहे। राजनैतिक प्रतिद्वंदी ही उनके मित्र भी होते थे। उनकी व्यक्तिगत निकटता पं. नेहरू, लोहिया जी, शास्त्री जी, पंत जी, इंदिरा जी, चौ. चरण सिंह जी, अटल जी, चंद्रशेखर जी आदि से रही।
सभी विचारधारा के लोग उनकी मित्रता की सूची में थे चाहे वह जनसंघी हो या मार्क्सवादी। सभी धर्मों का अध्ययन उन्होंने किया था। जातिवाद से उनका कोई लेना-देना नहीं था। वे बेहद 'हैंडसम' थे। उन्हें पहली संसद 1952 में मिस्टर पार्लियामेन्ट का ख़िताब भी मिला। संसद में दिए उनके भाषणों को राजस्थान में सहकारी शिक्षा के पाठ्यक्रम में लिया गया। उनकी सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह थी कि जब वे संसद में बोलते थे तो अपनी पार्टी के लिए नहीं बल्कि निष्पक्ष रूप से किसानों के हित में बोलते थे। इस कारण उनको केन्द्रीय मंत्रिमंडल में लेने से नेता सकुचाते थे कि पता नहीं कब सरकार के ही ख़िलाफ़ बोल दें। �उन्होंने ज़मींदार परिवार से होने के बावजूद अपना खेत उन्हीं को दान कर दिए थे जो उन्हें जोत रहे थे। सांसद काल में उन्होंने राजा-महाराजाओं को मिलने वाले प्रीवीपर्स के ख़िलाफ़ वोट दिया था जब कि उन्हें उस वक्त लाखों रुपये का लालच दिया गया था। उन जैसा नेता और इंसान होना अब मुमकिन नहीं है। वे मेरे हीरो थे, गुरु थे और मित्र थे। आज भारतकोश के कारण विश्व भर में मुझे पहचान और सम्मान मिल रहा है किंतु मेरी सबसे बड़ी पहचान यही है कि मैं उनका बेटा हूँ।
10 दिसम्बर, 2013
फाँसी ग़रीब का जन्मसिद्ध अधिकार है क्या ?
कभी हिसाब-किताब लगाएँ और फाँसी लगने वालों के आँकड़े देखें तो पता चलेगा कि इस सूची में शायद ही कोई भी अरबपति हो। शायद एक भी नहीं...
ये कैसा संयोग है कि कोई भी अमीर व्यक्ति फाँसी के योग्य अपराध नहीं करता? यदि यह माना भी जाय कि सीधे-सीधे अपराध में शामिल होने की संभावना किसी बड़े पूँजीपति की नहीं बनती तो भी षड़यंत्रकारी की सज़ा भी तो वही है जो अपराध कारित करने वाले की है।
6 दिसम्बर, 2013
'सन्यास' ही एकमात्र
ऐसा 'पलायन' है
जिसे समाज ने प्रतिष्ठा दी हुई है
24 नवम्बर, 2013
भारत का सर्वोच्च पद्म सम्मान, भारतरत्न से सम्मानित व्यक्ति, सम्मान देने वालों को यदि मूर्ख बता रहा है तो और कुछ हो न हो यह तो निर्विवाद ही है कि जिस व्यक्ति को यह सम्मान दिया गया है वह इस सम्मान से बड़ा है। निश्चित ही वैज्ञानिक श्री राव की गंभीर प्रतिष्ठा को किसी पद्म पुरस्कार की अपेक्षा नहीं है।
कोई भी सम्मान या पुरस्कार यदि किसी कुपात्र को दिया जाता है तो उन व्यक्तियों की प्रतिष्ठा को बहुत धक्का पहुँचता है जिनको कि वास्तविक योग्यता के आधार पर पुरस्कृत या सम्मानित किया जाता है। यहाँ उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है पर सभी जानते हैं कि भारतरत्न मिलने वालों की सूची में कुछ नाम ऐसे भी हैं जो इस सम्मान के योग्य नहीं हैं।
सचिन तेन्दुलकर नि:संदेह हमारे देश की शान हैं। उनका क्रिकेट के मैदान में आना ही हमें स्फूर्ति से भर देता था। सचिन को सम्मानित या पुरस्कृत करना हम सभी के लिए अपार हर्ष का विषय है लेकिन हॉकी के महान खिलाड़ी ध्यानचंद जी से सचिन की तुलना करना व्यर्थ है। मेजर ध्यानचंद को भारतरत्न सम्मान से सम्मानित किया जाना तो एक बहुत ही सामान्य सी बात है। सही मायने में तो मेजर ध्यानचंद की प्रतिमा, संसद, राजपथ, इंडियागेट आदि पर लगनी चाहिए।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सारी दुनिया हिटलर से दहशत खाती थी। जर्मनी में किसी की हिम्मत नहीं थी कि हिटलर का प्रस्ताव ठुकरा दे। जर्मनी में, हिटलर के सामने, हिटलर के प्रस्ताव को ठुकराने वाले मेजर ध्यानचंद ही थे?
ध्यानचंद जी भारत के एकमात्र खिलाड़ी हैं जो भारत में ही नहीं पूरे विश्व में, अपने जीवनकाल में ही किंवदन्ती ('मिथ') बन गए थे। यह सौभाग्य अभी तक किसी खिलाड़ी को प्राप्त नहीं है।
24 नवम्बर, 2013
मेरे एक पूर्व कथन पर पाठकों ने प्रश्न किए हैं कि कैसे पता चले किसी की नीयत का ?
मैंने लिखा था- "दोस्त का मूल्याँकन करना हो या जीवन साथी चुनना हो, तो... केवल और केवल उसकी 'नीयत' देखनी चाहिए। नीयत का स्थान सर्वोपरि है। बाक़ी सारी बातें तो महत्वहीन हैं। जैसे... रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि..."
मेरा उत्तर प्रस्तुत है:-
/) मेरा अभिप्राय केवल इतना था कि हम, रूप, रंग, गुण, शरीर, धन, प्रतिभा, शिक्षा, बुद्धि, ज्ञान आदि... के आधार पर ही चुनाव करते हैं। किसी को यदि चुन रहे हैं तो हमें उसकी नीयत को अनदेखा नहीं करना चाहिए। हम यह जानते हुए भी कि नीयत बुरी है, अनदेखा करते हैं जिसका कारण बहुत सीधा-सादा होता है। जब हम अपनी नीयत के बारे में सोचते हैं कि क्या हमारी नीयत अच्छी है? जो हम किसी की नीयत को बुरा समझें!
/) हम मित्र या जीवन साथी को चुनते या मूल्याँकन करते समय नीयत के अलावा कुछ और ही देखते हैं। नीयत देखने से तो हम बचते हैं क्योंकि हम स्वयं ही नीयत के कौन से अच्छे होते हैं जो उसकी नीयत देखें... वैसे भी दूसरे कारण अधिक रुचिकर और आकर्षक होते हैं। अक्सर सुनने में आता है "मुझे कोई भाई साब टाइप का पति नहीं चाहिए" या "मुझे कोई बहन जी टाइप की पत्नी नहीं चाहिए।"
/) सीधी सी बात है भई! अच्छी नीयत वाला लड़का तो 'भाई साब टाइप' ही होगा और अच्छी नीयत वाली लड़की भी 'बहन जी टाइप' ही होगी। (मुझे मालूम है कि मैं इन पंक्तियों को लिखकर, बहुतों को नाराज़ कर रहा हूँ...)। इन 'भाई साब' और 'बहन जी' को बड़ी मुश्किल से दोस्त और जीवन साथी मिलते हैं। लेकिन ये बहुत सुखी और आनंदित जीवन जीते हैं।
/) क्या ये सच नहीं है कि यदि हमें बिल्कुल अपनी नीयत जैसा ही कोई व्यक्ति मिल जाय तो हम ही सबसे पहले उससे दूर भागेंगे क्योंकि हम अपनी नीयत की अस्लियत जानते हैं। यही सोचकर हम समझौता कर लेते हैं कि चलो हमसे तो अच्छी नीयत का ही होगा। दूसरे की नज़र में हम कितने भी अच्छी नीयत वाले बनें लेकिन हमें काफ़ी हद तक अपना तो पता होता है।
/) जिस क्षण हमारे मन में यह प्रश्न आता है कि फ़लाँ व्यक्ति सत्यनिष्ठ है या नहीं ? समझ लीजिए कि उसके सत्यनिष्ठ होने की संभावना डावांडोल है। किसी ईमानदार व्यक्ति की ईमानदारी पर कभी प्रश्नचिन्ह नहीं होता। जिस पर प्रश्न चिन्ह हो वह नीयत का साफ़ नहीं।
... लेकिन ज़रूरत क्या पड़ी दूसरे की नीयत जाँचने की ? यदि हमारी नीयत साफ़ है तो सामने वाले की नीयत कैसी भी हो, क्या फ़र्क़ पड़ता है ? अक्सर दूसरे की नीयत पर शक़ करने का अर्थ ही यह है कि हमारी नीयत में खोट है। जब बात लेन-देन की हो तो वह व्यापार की भाषा है, दोस्ती या प्यार की नहीं।
/) और अंत में एक बात और... कि यह सरासर झूठ होता है कि हमें फ़लां की ख़राब नीयत का पता नहीं था। असल में हम जानते हुए भी अनदेखा करते हैं।
17 नवम्बर, 2013
यूँ तो बहुत से कारण हैं, जिनसे मनुष्य, जानवरों से भिन्न है- जैसे कि हँसना, अँगूठे का प्रयोग, सोचने की क्षमता आदि... लेकिन वह कुछ और ही है जिसने मनुष्य को हज़ारों वर्ष तक चले, दो-दो हिम युगों को सफलता पूर्वक सहन करने की क्षमता प्रदान की।
प्रकृति की यह देन है 'पसीना'।
मनुष्य, जानवरों को भोजन बनाने की चाह में जानवरों से ज़्यादा दूरी तक भाग पाता था। पसीना बहते रहने के कारण मनुष्य का शारीरिक तापमान नियंत्रित रहता था। जानवर पसीना न बहने के कारण बहुत अधिक दूरी तक भाग नहीं पाते थे। पसीना न बहने से उनके शरीर का बढ़ता तापमान उनको रुकने पर मजबूर कर देता था और उन्हें हर हाल में लम्बे समय के लिए रुक जाना होता था।
जानवरों में मुख्य रूप से घोड़ा एक ऐसा जानवर है जो पसीना बहाने में लगभग मनुष्य की तरह ही है।
इसलिए शिकार करने में, घोड़ा मनुष्य का साथी भी बना और वाहन भी।
13 नवम्बर, 2013
जब बुद्धि थी तब अनुभव नहीं था अब अनुभव है तो बुद्धि नहीं है।
जब विचार थे तब शब्द नहीं थे, अब शब्द हैं तो विचार नहीं हैं।
जब भूख थी तब भोजन नहीं था अब भोजन है तो भूख नहीं है।
जब नींद थी तब बिस्तर नहीं था अब बिस्तर है तो नींद नहीं है।
जब दोस्त थे तो समझ नहीं थी अब समझ है तो दोस्त नहीं हैं।
जब सपने थे तब रास्ते नहीं थे अब रास्ते हैं तो सपने नहीं हैं।
जब मन था तो धन नहीं था अब धन है तो मन नहीं है।
जब उम्र थी तो प्रेम नहीं था अब प्रेम है तो उम्र नहीं है।
एक पुरानी कहावत भी है न कि-
जब दांत थे तो चने नहीं थे अब चने हैं तो दांत नहीं हैं।
और अंत में-
जब फ़ुर्सत थी तो फ़ेसबुक नहीं था अब फ़ेसबुक है तो...
11 नवम्बर, 2013
जब बुद्धि थी तब अनुभव नहीं था अब अनुभव है तो बुद्धि नहीं है।
जब विचार थे तब शब्द नहीं थे, अब शब्द हैं तो विचार नहीं हैं।
जब भूख थी तब भोजन नहीं था अब भोजन है तो भूख नहीं है।
जब नींद थी तब बिस्तर नहीं था अब बिस्तर है तो नींद नहीं है।
जब दोस्त थे तो समझ नहीं थी अब समझ है तो दोस्त नहीं हैं।
जब सपने थे तब रास्ते नहीं थे अब रास्ते हैं तो सपने नहीं हैं।
जब मन था तो धन नहीं था अब धन है तो मन नहीं है।
जब उम्र थी तो प्रेम नहीं था अब प्रेम है तो उम्र नहीं है।
एक पुरानी कहावत भी है न कि-
जब दांत थे तो चने नहीं थे अब चने हैं तो दांत नहीं हैं।
और अंत में-
जब फ़ुर्सत थी तो फ़ेसबुक नहीं था अब फ़ेसबुक है तो...