बरगद
बरगद
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जगत | पादप |
संघ | मैग्नोलियोफाइटा (Magnoliophyta) |
वर्ग | मैग्नोलियोप्सिडा (Magnoliopsida) |
गण | रोसेल्स (Rosales) |
कुल | मोरेसी (Moraceae) |
जाति | फ़ाइकस (Ficus) |
प्रजाति | वेनगैलेंसिस (benghalensis) |
द्विपद नाम | फ़ाइकस वेनगैलेंसिस (Ficus benghalensis) |
अन्य जानकारी | बरगद, भारत का राष्ट्रीय वृक्ष है। |
बरगद (अंग्रेज़ी:Banyan Tree) भारत का राष्ट्रीय वृक्ष है। इसे 'बर', 'बट' या 'वट' भी कहते हैं। बरगद 'मोरेसी' या 'शहतूत' कुल का पेड़ है। इसका वैज्ञानिक नाम 'फ़ाइकस वेनगैलेंसिस (Ficus bengalensis) और अंग्रेज़ी नाम 'बनियन ट्री' है। हिंदू लोग इस वृक्ष को पूजनीय मानते हैं। इसके दर्शन स्पर्श तथा सेवा करने से पाप दूर होता है तथा दु:ख और व्याधि नष्ट होती है। अत: इस वृक्ष के रोपण और ग्रीष्म काल में इसकी जड़ में पानी देने से पुण्य संचय होता है, ऐसा माना जाता है। उत्तर से दक्षिण तक समस्त भारत में वट वृक्ष उत्पन्न होते देखा जाता है। इसकी शाखाओं से बरोह निकलकर ज़मीन पर पहुंचकर स्तंभ का रूप ले लेती हैं। इससे पेड़ का विस्तार बहुत ज़ल्द बढ़ जाता है।[1] बरगद के पेड़ को मघा नक्षत्र का प्रतीक माना जाता है। मघा नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति बरगद की पूजा करते है। इस नक्षत्र में जन्म लेने वाले व्यक्ति अपने घर में बरगद के पेड़ को लगाते है।[2]
पौराणिक मान्यता
भारत में बरगद के वृक्ष को एक महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इस वृक्ष को 'वट' के नाम से भी जाना जाता है। यह एक सदाबहार पेड़ है, जो अपने प्ररोहों के लिए विश्वविख्यात है। इसकी जड़ें ज़मीन में क्षैतिज रूप में दूर-दूर तक फैलकर पसर जाती है। इसके पत्तों से दूध जैसा पदार्थ निकलता है। यह पेड़ 'त्रिमूर्ति' का प्रतीक है। इसकी छाल में विष्णु, जड़ों में ब्रह्मा और शाखाओं में शिव विराजते हैं। अग्निपुराण के अनुसार बरगद उत्सर्जन को दर्शाता है। इसीलिए संतान के लिए इच्छित लोग इसकी पूजा करते हैं। इस कारण से बरगद काटा नहीं जाता है। अकाल में इसके पत्ते जानवरों को खिलाए जाते हैं। अपनी विशेषताओं और लंबे जीवन के कारण इस वृक्ष को अनश्वर माना जाता है। इसीलिए इस वृक्ष को अक्षयवट भी कहा जाता है। लोक मान्यता है कि बरगद के एक पेड़ को काटे जाने पर प्रायश्चित के तौर पर एक बकरे की बलि देनी पड़ती है। वामनपुराण में वनस्पतियों की व्युत्पत्ति को लेकर एक कथा भी आती है। आश्विन मास में विष्णु की नाभि से जब कमल प्रकट हुआ, तब अन्य देवों से भी विभिन्न वृक्ष उत्पन्न हुए। उसी समय यक्षों के राजा 'मणिभद्र' से वट का वृक्ष उत्पन्न हुआ।
यक्षाणामधिस्यापि मणिभद्रस्य नारद।
वटवृक्ष: समभव तस्मिस्तस्य रति: सदा।।
- स्कन्दपुराण का उल्लेख
यक्ष से निकट सम्बन्ध के कारण ही वट वृक्ष को 'यक्षवास', 'यक्षतरु', 'यक्षवारूक' आदि नामों से भी पुकारा जाता है। पुराणों में ऐसी अनेक प्रतीकात्मक कथाएँ, प्रकृति, वनस्पति व देवताओं को लेकर मिलती हैं। जिस प्रकार अश्वत्थ अर्थात् पीपल को विष्णु का प्रतीक कहा गया, उसी प्रकार इस जटाधारी वट वृक्ष को साक्षात जटाधारी पशुपति शंकर का रूप मान लिया गया है। स्कन्दपुराण में कहा गया है-
अश्वत्थरूपी विष्णु: स्याद्वरूपी शिवो यत:
अर्थात् पीपलरूपी विष्णु व जटारूपी शिव हैं।
- हरिवंश पुराण का उल्लेख
हरिवंश पुराण में एक विशाल वृक्ष का वर्णन आता है, जिसका नाम 'भंडीरवट' था और उसकी भव्यता से मुग्ध हो स्वयं भगवान ने उसकी छाया में विश्राम किया।
न्यग्रोधर्वताग्रामं भाण्डीरंनाम नामत:।
दृष्ट्वा तत्र मतिं चक्रे निवासाय तत: प्रभु:।।
- रामायण का उल्लेख
- 'सुभद्रवट' नाम से एक और वट वृक्ष का भी वर्णन मिलता है, जिसकी डाली गरुड़ ने तोड़ दी थी। रामायण के अक्षयवट की कथा तो लोक प्रचलित है ही। परन्तु वाल्मीकि रामायण में इसे 'श्यामन्यग्रोध' कहा गया है। यमुना के तट पर वह वट अत्यन्त विशाल था। उसकी छाया इतनी ठण्डी थी कि उसे 'श्यामन्योग्राध' नाम दिया गया। श्याम शब्द कदाचित वृक्ष की विशाल छाया के नीचे के घने अथाह अंधकार की ओर संकेत करता है और गहरे रंग की पत्रावलि की ओर। रामायण के परावर्ति साहित्य में इसका अक्षयवट के नाम से उल्लेख मिलता है। राम, लक्ष्मण और सीता अपने वन प्रवास के समय जब यमुना पार कर दूसरे तट पर उतरते हैं, तो तट पर स्थित इस विशाल वट वृक्ष को सीता प्रणाम करती हैं।
विभिन्न नाम
बरगद 'मोरेसी' परिवार का वृक्ष है, जिसे अंग्रेज़ी में 'फ़ाइकस वेनगैलेंसिस' कहा जाता है। हिन्दी में इसे वट, बर, बड़ आदि नामों से जाना जाता है। विश्व तथा भारत में अलग-अलग स्थानों पर बरगद के विभिन्न नाम हैं। इसे अरबी में कतिरूल अश्जार और जातुज्ज वानिब, फ़ारसी में दरख्ते रीश और दरख्ते रेशा, इंडोनेशिया में सर्द, पुर्तग़ाली में डी रैज़ और अलबेरो डी रैज़ तथा रूसी में देरेवो और फीगोवोए कहते हैं। भारतीय भाषाओं में इसे कन्नड़ में गोड़ियर, गुजराती में बड़, तमिल में आलमरम, तेलुगू में पेद्दामार्रि, पंजाबी में बूहड़ और बोहड़, बंगाली में बड़गाछ, मराठी में वड़, वर, मलयालम में आलमरम और सिंधी में नुग कहा जाता है।
संस्कृत में यह वृक्ष न्यग्रोथ, वट आदि नामों से पुकारा जाता है। वनस्पति निघंटुओं में इसके 29 नामों का उल्लेख किया गया है। अवरोही, क्षीरी, जटाल, दांत, ध्रुव, नील, न्यग्रोथ, पदारोही, पादरोहिण, पादरोही, बहुपाद, मंडली, महाच्छाय, यक्षतरु, यक्षवासक, यक्षावास, रक्तपदा, रक्तफल, रोहिण, वट, वनस्पति, वास, विटपी, वैश्रवण, श्रृंगी, वैष्णवणावास, शिफारूह, स्कंधज एवं स्कंधरूहा, ये सभी नाम बरगद की संरचना सम्बन्धी विशेषताओं और इसके गुणों पर आधारित हैं।
कृष्णवट
भारत के कुछ भागों में एक विशेष प्रकार का बरगद पाया जाता है। इसे 'कृष्णवट' कहते हैं। कृष्णवट के पत्ते मुड़े हुए होते हैं। ये देखने में दोने के आकार के होते हैं। इस वृक्ष के सम्बन्ध में यह मान्यता है कि भगवान कृष्ण बाल्यावस्था से ही गायों को चराने के लिए वन में जाया करते थे। जब गाय चर रही होती थीं, तब कृष्ण किसी वृक्ष पर बैठकर मधुर बांसुरी बजाया करते थे। बाँसुरी की आवाज सुनते ही गोपियाँ सभी कार्य छोड़ कर उनके पास दौड़ी चली आती थीं। वे अपने साथ दही-मख्खन आदि भी ले आती थीं। कृष्ण को बरगद के पत्तों से दोने बनाने में बहुत समय लगता था और गोपियाँ भी बेचैनी अनुभव करने लगती थीं। कृष्ण गोपियों के मन की बात सच समझ गये। उन्होंने तुरंत ही अपनी माया से वृक्ष के सभी पत्तों को दोनों के आकार वाले पत्तों में बदल दिया। इस प्रकार बरगद की एक नई प्रजाति का जन्म हुआ।
विशेषता
भारत में बरगद के दो सबसे बड़े पेड़ कोलकाता के राजकीय उपवन में और महाराष्ट्र के सतारा उपवन में हैं। शिवपुर के वटवृक्ष की मूल जड़ का घेरा 42 फुट और अन्य छोटे छोटे 230 स्तंभ हैं। इनकी शाखा प्रशाखाओं की छाया लगभग 1000 फुट की परिधि में फैली हुई है। सतारा के वट वृक्ष, 'कबीर वट', की परिधि 1,587 फुट और उत्तर-दक्षिण 565 फुट और पूरब-पश्चिम 442 फुट है। लंका में एक वट वृक्ष है, जिसमें 340 बड़े और 3000 छोटे - छोटे स्तंभ हैं। बरगद की छाया घनी, बड़ी, शीतल और ग्रीष्म काल में आनंदप्रद होती है। इसकी छाया में सैकड़ों, हज़ारों व्यक्ति एक साथ बैठ सकते हैं। बरगद के फल पीपल के फल सदृश छोटे छोटे होते हैं। साधारणतया ये फल खाए नहीं जाते पर दुर्भिक्ष के समय इसके फलन पर लोग निर्वाह कर सकते हैं। इसकी लकड़ी कोमल और सरंध्र होती है। अत: केवल जलावन के काम में आती है। इसके पेड़ से सफेद रस निकलता है जिससे एक प्रकार का चिपचिपा पदार्थ तैयार होता है जिसका उपयोग बहेलिए चिड़ियों के फँसाने में करते हैं। इसके रस (आक्षीर), छाल, और पत्तों का उपयोग आयुर्वेदीय ओषधियों में अनेक रोगों के निवारण में होता है। इसके पत्तों को जानवर, विशेषत: बकरियाँ, बड़ी रुचि से खाती हैं। वृक्ष पर लाख के कीड़े बैठाए जा सकते हैं जिससे लाख प्राप्त हो सकती है।[1]
महत्त्वपूर्ण तथ्य
- बरगद भारत का 'राष्ट्रीय वृक्ष' (फ़ाइकस वेनगैलेंसिस) है।
- बरगद के वृक्ष की शाखाएँ दूर-दूर तक फैली तथा जड़ें गहरी होती हैं। इतनी गहरी जड़ें किसी और वृक्ष की नहीं होती हैं।
- जड़ों और अधिक तने से शाखाएँ बनती हैं और इस विशेषता और लंबे जीवन के कारण इस वृक्ष को अनश्वर माना जाता है।
- वट, यानी बरगद को 'अक्षय वट' भी कहा जाता है, क्योंकि यह पेड कभी नष्ट नहीं होता है।
- अब भी बरगद के वृक्ष को ग्रामीण जीवन का केंद्र बिन्दु माना जाता है और आज भी गांव की परिषद इसी पेड़ की छाया में पंचायत करती है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 1.0 1.1 बरगद (हिंदी) (पी.एच.पी.) भारतखोज। अभिगमन तिथि: 25 जून, 2012।
- ↑ मघा नक्षत्र (हिंदी) भारतकोश। अभिगमन तिथि: 29 अगस्त, 2013।
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