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==सांची-सांची कह रह्यो== काशी में सन्यासी होय, वासी हों उजार हूँ को,
निरगुन उपासी होय, जोग साध रहे बन में ।
तापते चौरासी धूनी, केते वह सिद्ध मुनि,
शिवदीन कहे सुनी यही, भस्म लगा तन में ।
एते सब प्रपंच, केते बने हुए परमहंस,
ग्यान के बिना से जांको, ध्यान जाय धन में ।
जब लग है स्वांग सकल, सांचा से राच्यो नहिं,
कैसे हो उमंग, राम बस्यो नाहीं मन में ।