कंदुकूरी वीरेशलिंगम

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कंदुकूरी वीरेशलिंगम
कंदुकूरी वीरेशलिंगम
कंदुकूरी वीरेशलिंगम
पूरा नाम कंदुकूरी वीरेशलिंगम
जन्म 16 अप्रैल, 1848
जन्म भूमि राजमंड्री, आंध्र प्रदेश
मृत्यु 27 मई, 1919
कर्म भूमि भारत
कर्म-क्षेत्र तेलुगु साहित्य
मुख्य रचनाएँ 'मार्कंडेय शतकम्‌', 'गोपाल शतकम्‌', 'रसिक जन मनोरंजनम्‌', 'शुद्धांध्र निर्‌‍ओष्ठ्य निर्वचन नैषधम्‌', 'शुद्धांध्र उत्तर रामायण' आदि।
भाषा तेलुगु
प्रसिद्धि तेलुगु साहित्यकार, नाटककार, उपन्यासकार।
नागरिकता भारतीय
विशेष जिस तरह हिन्दी साहित्य के इतिहास में भारतेंदु हरिश्चंद्र प्रगतिशील चेतना के प्रतिनिधि थे, उसी तरह कंदुकूरी वीरेशलिंगम पंतुलु तेलुगु साहित्य के इतिहास में प्रगतिशील चेतना के प्रतिनिधि थे।
अन्य जानकारी वीरेशलिंगम का जीवन लक्ष्य आदर्श नहीं बल्कि आचरण था। इसीलिए उन्होंने विधवा आश्रमों की स्थापना की। स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए 1874 में राजमंड्री के समीप धवलेश्‍वरम्‌ में और 1884 में इन्निसपेटा में बालिकाओं के लिए पाठशालाओं की स्थापना की।
इन्हें भी देखें कवि सूची, साहित्यकार सूची

कंदुकूरी वीरेशलिंगम (अंग्रेज़ी: Kandukuri Veeresalingam ; जन्म- 16 अप्रैल, 1848, राजमंड्री, आंध्र प्रदेश; मृत्यु- 27 मई, 1919) तेलुगु भाषा के प्रसिद्ध विद्वान, जिन्हें आधुनिक तेलुगु साहित्य में 'गद्य ब्रह्मा' के नाम से ख्याति मिली। सनातनपंथी ब्राह्मण परिवार में जन्मे वीरेशलिंगम जाति-पांति के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने जाति विरोध आंदोलन का सूत्रपात किया। वीरेशलिंगम का जीवन लक्ष्य आदर्श नहीं, बल्कि आचरण था। इसीलिए उन्होंने विधवा आश्रमों की स्थापना की। स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए उन्होंने 1874 में राजमंड्री के समीप धवलेश्‍वरम में और 1884 में इन्निसपेटा में बालिकाओं के लिए पाठशालाओं की स्थापना की। आधुनिक तेलुगु गद्य साहित्य के प्रवर्तक वीरेशलिंगम ने प्रथम उपन्यासकार, प्रथम नाटककार और आधुनिक पत्रकारिता के प्रवर्तक के रूप मे ख्याति अर्जित की थी।

जन्म

कंदुकूरी वीरेशलिंगम का जन्म 16 अप्रैल, 1848 को राजमहेंद्रवरम (अब राजमंड्री), आंध्र प्रदेश में हुआ था। वे सनातन पंथी ब्राह्मण परिवार से सम्बंध रखते थे। उनका बाल्यकाल विपन्नता में गुजरा, जिससे उन्होंने विषम परिस्थितियों का सामना करना सीखा। इतना ही नहीं, उन्होंने अपने अंदर की जिजीविषा को हमेशा जगाए रखा।[1]

प्रगतिशील चेतना के प्रतिनिधि

वीरेशलिंगम के युग में अर्थात 19वीं शती के अंतिम चरण में संपूर्ण देश में सांस्कृतिक जागरण की लहर दौड़ रही थी। सामंती ढाँचा टूट चुका था। देश में संवेदनशील मध्यवर्ग तैयार हो गया था, जो व्यापक राष्‍ट्रीय और सामाजिक हितों की दृष्‍टि से सोचने लगा था। इस वर्ग ने यह अनुभव किया कि सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक सभी क्षेत्रों में सुधार की आवश्‍कता है। जिस तरह हिन्दी साहित्य के इतिहास में भारतेंदु हरिश्चंद्र इस प्रगतिशील चेतना के प्रतिनिधि थे, उसी तरह कंदुकूरी वीरेशलिंगम पंतुलु तेलुगु साहित्य के इतिहास में प्रगतिशील चेतना के प्रतिनिधि थे। उन्होंने समाज सुधार के कार्यों, भाषणों और साहित्य के माध्यम से जागरण का संदेश दिया।

ब्रह्म समाज की स्थापना

वीरेशलिंगम जाति-पांति के कट्टर विरोधी थे। उन्होंने जाति विरोध आंदोलन का सूत्रपात किया। जिस तरह राजा राममोहन राय ने ब्रह्म समाज की स्थापना की थी, उसी तरह आंध्र प्रदेश में सर्वप्रथम कंदुकूरी वीरेशलिंगम ने ब्रह्म समाज की स्थापना की। उन्होंने 1887 में राजमंड्री में ‘ब्रह्मो मंदिर’ की स्थापना की थी।

समाज सेवा

तत्कालीन सामाजिक और राजनैतिक परिस्थितियों से प्रभावित होकर वीरेशलिंगम ने जनता को चिरनिद्रा से जगाया, चेताया, स्त्री सशक्‍तीकरण को प्रोत्साहित किया, स्त्री शिक्षा पर बल दिया, बाल विवाह का खंडन किया, विधवा पुनर्विवाह का समर्थन किया और जमींदारी प्रथा का विरोध किया। उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर दिखाई नहीं देता था। उन्होंने 11 दिसम्बर, 1881 को 'प्रथम विधवा पुनर्विवाह' संपन्न करवाया, जिसके कारण उनकी कीर्ति देश-विदेश में फैल गई। उनके सेवा कार्यों से प्रभावित होकर ईश्वरचन्द्र विद्यासागर ने भी उन्हें बधाई दी।[1]

वीरेशलिंगम का जीवन लक्ष्य आदर्श नहीं बल्कि आचरण था। इसीलिए उन्होंने विधवा आश्रमों की स्थापना की। स्त्री शिक्षा को प्रोत्साहित करने के लिए 1874 में राजमंड्री के समीप धवलेश्‍वरम्‌ में और 1884 में इन्निसपेटा में बालिकाओं के लिए पाठशालाओं की स्थापना की। इतना ही नहीं, स्त्री को अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करने के लिए ‘विवेकवर्धनी’ (1874), ‘सतीहितबोधनी’, ‘सत्यवादी’, ‘चिंतामणि’ आदि पत्र-पत्रिकाएँ आरंभ कीं। वस्तुतः ‘विवेकवर्धनी’ पत्रिका का मुख्य उद्‍देश्‍य ही था- "समाज में व्याप्‍त राजनैतिक विसंगतियों, भ्रष्‍टाचार, घूसखोरी, वेश्‍या वृत्ति, जात-पांत, छुआछूत, बाल विवाह, सांप्रदायिकता और सती प्रथा का उन्मूलन।"

लेखन कार्य

वीरेशलिंगम ने अपनी साहित्यिक यात्रा प्रबंध काव्यों से शुरू की। उनकी प्रमुख प्रारंभिक प्रबंध रचनाएँ हैं-

  1. मार्कंडेय शतकम्‌ (1868-69)
  2. गोपाल शतकम्‌ (1868-69)
  3. रसिक जन मनोरंजनम्‌ (1879-71)
  4. शुद्धांध्र निर्‌‍ओष्ठ्य निर्वचन नैषधम्‌ (1871)
  5. शुद्धांध्र उत्तर रामायण (1872)

1895 में वीरेशलिंगम ने ‘सरस्वती नारद विलापमु’ (सरस्वती नारद संवाद) में वाक्‌देवी सरस्वती और देव ऋषि नारद के बीच काल्पनिक संवाद का सृजन लघुकाव्य के रूप में किया। इसमें उन्होंने सरस्वती और नारद के बीच संवादों के माध्यम से वाग्विदग्धता, कृत्रिम अलंकार, झूठे आडंबर आदि पर विचार विमर्श किया। इस काव्य को पढ़ने से स्पेंसर कृत ‘टियर्स ऑफ़ दी म्यूसस’ की याद दिलाने वाला माना जाता है। उन्होंने शृंगार परक काव्यों का भी सृजन किया था।

आशु कविता

वीरेशलिंगम 'आशु कविता' की ओर भी उन्मुख हुए। तेलुगु साहित्य में आशु कविता अवधान विधा के रूप में उपलब्ध है। यह विधा तेलुगु साहित्य की अनुपम और विलक्षण देन है। इस प्रक्रिया में कवि एक ही समय में अनेक अंशों, प्रश्‍नों का समाधान छंदोबद्ध काव्य के रूप में करता है। यह एक तरह से बौद्धिक व्यायाम है। इस विधा के अनेक प्रकार हैं- 'अष्‍टावधान', 'शतावधान', 'सहस्रावधान', 'द्विसहस्रावधान', 'पंच सहस्रावधान', 'नवरस नवावधान', 'अलंकार अष्‍टावधान' और 'समस्या पूर्ति' आदि।[1]

प्रथम उपन्यासकार

आधुनिक तेलुगु गद्य साहित्य के प्रवर्तक वीरेशलिंगम ने प्रथम उपन्यासकार, प्रथम नाटककार और आधुनिक पत्रकारिता के प्रवर्तक के रूप मे ख्याति अर्जित की। हिन्दी साहित्य के इतिहास में प्रथम उपन्‍यास और उपन्यासकार के बारे में काफ़ी मतभेद हैं। उसी तरह तेलुगु साहित्य के इतिहास में भी प्रथम उपन्यास और उपन्यासकार के बारे में मतभेद हैं। कुछ विद्वान नरहरि गोपाल कृष्‍णम शेट्टी कृत ‘श्री रंगराज चरित्रमु’[2] को तेलुगु का प्रथम उपन्यास मानते हैं, लेकिन लेखक ने अपनी रचना के संबंध में स्वयं कहा है कि- "ई रचना हिंदुवुला आचारमुलनु तेलुपु नवीन प्रबंधम्‌। ई रचना कुला मतालकु अतीतंगायुंडि प्रेमकु प्राधान्यतनु इच्चिंदी।"[3] इसका दूसरा नाम है- ‘सोनाबाई परिणयमु’।[4] इसके विपरीत कंदुकूरी वीरेशलिंगम पंतुलु कृत ‘राजशेखर चरित्र’[5] में आधुनिक उपन्यास के तत्व विद्यमान हैं। अतः इस उपन्यास को ही तेलुगु का प्रथम उपन्यास माना गया है। इसके माध्यम से लेखक ने तत्कालीन हिन्दुओं की जीवन शैली, उनकी संस्कृति, रीति रिवाज, अंधविश्‍वास, स्त्रियों की मनोदशा आदि को उकेरा है। यह उपन्यास अंग्रेज़ी में ‘फार्च्यून्स ऑफ़ दी व्हील’ के नाम से अनूदित है।

तेलुगु के प्रथम नाटक के रचनाकार

तेलुगु का प्रथम नाटक किसे माना जाए, इस विषय में भी काफ़ी मतभेद हैं। कुछ विद्वान कोराडा रामचंद्र शास्त्री कृत ‘मंजरी मधुकरीयम्‌’ (1861) को तेलुगु साहित्य का प्रथम नाटक मानते हैं, लेकिन इसमें आधुनिक नाटक के तत्व नहीं हैं, अतः वीरेशलिंगम कृत ‘ब्रह्म विवाहमु’[6] को यह ख्याति प्राप्‍त है। यह एक व्यंग्यपूर्ण सामाजिक नाटक है। तत्कालीन समाज में यह प्रथा प्रचलित थी कि किसी भी विधि विधान या अनुष्‍ठान को संपन्न करने के लिए पत्‍नी के सहयोग की आवश्‍यकता होती है। इस नाटक का मुख्य पात्र 'पेद्‍दैया' (बड़े साहब) विधुर है। तीसरी पत्‍नी के देहांत के पश्‍चात्‌ वह तीन साल की मासूम बच्ची से विवाह करता है। माँ-बाप भी धन के लालच में अपनी बच्ची का सौदा करते हैं। नाटककार ने इन सब पर करारा प्रहार किया है।

निधन

तेलुगु साहित्य के लिए महत्त्वपूर्ण योगदान करने वाले कंदुकूरी वीरेशलिंगम का निधन 27 मई, 1919 ई. को हुआ। आधुनि तेलुगु साहित्य के 'गद्य ब्रह्मा', प्रथम उपन्यासकार, प्रथम नाटककार, प्रथम आत्मकथाकार, व्यावहारिक भाषा आंदोलन के प्रवर्तक कंदुकूरी वीरेशलिंगम पंतुलु के बारे में चिलकमर्ति लक्ष्मी नरसिंहम ने निम्नलिखित उद्‍गार व्यक्‍त किए थे, जो आज भी उनकी समाधी पर चिन्हित हैं[1]-

"तना देहमु, तना गेहमु,
तना कालमु तना धनम्‌भु तना विद्‍या
जगज्जनुलके विनियोगिंचिना
घनुडी वीरेशलिंगकवि जनुलारा!"

अर्थात "अपना तन, मन, धन, निवास, समय और विद्या सब कुछ जनता के हित के लिए निछावर करने वाले महापुरुष हैं 'वीरेशलिंगम्‌'।"


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 1.0 1.1 1.2 1.3 वीरेशलिंगम -आंध्र के भारतेंदु (हिन्दी) सागरिका। अभिगमन तिथि: 05 सितम्बर, 2014।
  2. श्री रंगराज का इतिहास, 1872
  3. यह रचना वस्तुतः हिन्दुओं के रीति रिवाजों को व्यक्‍त करने वाली नवीन प्रबंध काव्य है तथा जाति-पांति के विरुद्ध प्रेम भावना को प्रधानता देने वाली है।
  4. सोनाबाई का परिणय
  5. राजशेखर का इतिहास, 1880
  6. ब्रह्म विवाह, 1876

बाहरी कड़ियाँ

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