भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-2

भारत डिस्कवरी प्रस्तुति
गोविन्द राम (वार्ता | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:27, 7 अगस्त 2015 का अवतरण ('<div style="text-align:center; direction: ltr; margin-left: 1em;">प्रकाशकीय</div> ‘भागवत-धर्म-स...' के साथ नया पन्ना बनाया)
(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ:नेविगेशन, खोजें
प्रकाशकीय

‘भागवत-धर्म-सार’ का हिंदी अनुवाद श्री सुशील बहन ने श्री कुंटेजी के मूल मराठी अनुवाद पर से किया। उसके बाद श्री गो.न. वैजापुरकर शास्त्रीजी ने उसमें दादासाहब पंडित और मनोहरजी दीवाण के परामर्श से कुछ दुरुस्तियाँ कीं। अब यह आवृत्ति पू. विनोबाजी ने मराठी में जो दुरुस्तियाँ की हैं, उसके अनुसार सुधारकर प्रकाशित की जा रही है। ‘भागवत-धर्म-सार’ के 31 अध्याय या प्रकरण है, जो मूल संस्कृत भागवत की अध्याय संख्या (31) से संवाद करते हैं। फिर भी इन 31 प्रकरणों के नाम उनसे अलग और बाबा की अपनी प्रतिभा का विलास है। मूल संस्कृत भागवत के कुल 1517 श्लोकों में से केवल 306 श्लोक इसमें लिए गए हैं। ‘भागवत-धर्म-मीमांसा’ पहले स्वतंत्र छपी थी, वह भी इसमें जोड़ दी गयी है, ताकि ‘भागवत-धर्म’ पर विनोबाजी के पूरे विचार एक साथ मिलें। ‘भागवत-धर्म-मीमांसा’ ‘भागवत-धर्म-सार’ का सार है। उसमें ‘भागवत-धर्म-सार’ के 306 श्लोकों में से केवल 93 श्लोकों पर बाबा का चिंतन है। वह चिंतन प्रवचनों के माध्यम से सुलभ हो पाया। ये प्रवचन जमशेदपुर (बिहार) के निवास-काल में दिए गए, जो ‘मैत्री’ के वर्ष 3,4,5 के कई अंकों में धारावाहिक रूप से प्रकाशित हुए हैं। ‘भागवत-धर्म-सार’ के 31 प्रकरणों में से केवल 12 प्रकरणों पर प्रवचन दिए गए हैं। उन 12 प्रकरणों में से 6 प्रकरणों के तो पूरे-पूरे श्लोक लिए गये हैं और शेष 6 प्रकरणों से कुछ श्लोक चुने गए हैं। ग्रंथ का रस तो उसमें डूबने पर ही मिल सकता है। बाबा ने इस विवेचन में संस्कृत श्लोकों के एक-एक पद को लेकर उसका अर्थ बताते हुए विषय इतना सरल बना दिया है कि जन-साधारण ‘निगम-कल्पतरु’ से पककर टपके इस फल का आसानी से स्वाद चख सकते हैं। ग्रंथ में आए हुए सभी श्लोकों के आरंभिक पदों की अनुक्रमणिका से पाठकों के लिए स्वाध्याय करने में सुविधा हो गयी है। आशा है, जनता इस नवनीत का पूरा लाभ उठाएगी।  

जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरत-
श्चार्थेप्वभिज्ञः स्वराट्
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये
मुह्यन्ति यत्सूरयः।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो
यत्र त्रिसर्गोऽमृषा
घाम्ना स्वेन सदा निरस्तकुहकं
सत्यं परं धीमहि ।।1।।
निगम-कल्पतरोर् गलितं फलं
शुकमुखादमृत-द्रव-संयुतम्।
पिबत भागवतं रसमालयं
मुहुरहो रसिका भुवि भावुकाः ।।2।।


« पीछे आगे »

टीका टिप्पणी और संदर्भ

संबंधित लेख

-