भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-139

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भागवत धर्म मिमांसा

9. पारतन्त्र्य-मीमांसा

यावदस्यास्वतंत्रत्वं तावदीश्वरतो भयम् ।
य एतत् समुपासीरन् ते मुह्यन्ति शुचार्पिताः ।।[1]

अस्वतन्त्रत्वम् यानी पारतन्त्र्य। जब तक पारतन्त्र्य रहेगा, तब तक ईश्वर का भय भी रहेगा – यावत् अस्य अस्वतंत्रत्वं तावत् ईश्वरतः भयम्। वैसे ईश्वर का भय रखना आवश्यक भी है। फिर कहा : ये एतत् समुपासीरन् – जो गुण-वैषम्य की उपासना करेंगे, वे शुचार्पिताः मुह्यन्ति – शोकवश होकर मोहित होंगे। जब तक गुण-वैषम्य रहेगा, तब तक ईश्वर भी हाथ में नहीं आयेगा। परमात्मा के पास पहुँच भी नहीं सकेंगे।

(24.4) काल आत्माऽऽगमो लोकः स्वभावो धर्म एव च ।
इति मां बहुधा प्राहुर् गुणव्यतिकरे सति ।।[2]

फिर तरह-तरह के ईश्वर बनेंगे। लोग तरह-तरह के ईश्वर को मानने लगेंगे। कौन-कौन-से ईश्वर? काल-ईश्वर, आत्मा-ईश्वर, आगम-ईश्वर, लोक-ईश्वर, स्वभाव-ईश्वर, धर्म-ईश्वर। परमात्मा को अनेक प्रकार के ईश्वर मानकर पहचानेंगे। कब तक? जब तक गुण-वैषम्य है, तब तक – गुणव्यतिकरे सति। कुछ लोग काल-ईश्वर को मानेंगे – ‘कालेश्वर’। मतलब, ईश्वर की जगह काल ने ले ली। इस तरह जो काल को ईश्वर मानते हैं, वे कालवादी बने। दूसरे कुछ लोग आत्मा-ईश्वर को मानते हैं। यहाँ ‘आत्मा’ का अर्थ है बुद्धि। कहते हैं कि हम बुद्धि स्वतन्त्र रखेंगे। हमारी बुद्धि को जो जँचेगा, वही मानेंगे। अपनी बुद्धि की ताकत कितनी है, इसका खयाल करके उसी को सर्वस्व मानेंगे। इसी को ‘बुद्धि-प्रामाण्य’ कहते हैं। मतलब यह कि ये लोग बुद्धि के वश में होकर उसी को मानेंगे, बुद्धि के गुलाम बनेंगे। फिर है आगम-ईश्वर। आगम यानी शास्त्र-वाक्य। शास्त्र-वाक्य प्रमाण माना जाता है। कुछ लोग इस तरह शास्त्रवादी बने। कुछ लोग लोक-ईश्वर मानते हैं। इनके सिर पर लोग बैठ गये हैं। यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धम् – लोगों के डर से ये अपना काम करेंगे। कुछ लोग स्वभाव-ईश्वर को माननेवाले हैं। वे कहते हैं कि हमें क्रोध आता है, यह हमारा स्वभाव ही है। स्वभाव को हम काबू में नहीं ला सकते। इसका मतलब है कि वे स्वभाव के गुलाम बन गये। फिर एक है धर्म-ईश्वर। धर्म है, इसलिए करना ही पड़ेगा। मेरी माँ की मृत्यु हुई, तो मुझे श्मशान में चलने के लिए कहा गया। मैंने कहा : ‘वहाँ जो विधि करनी है, वह मैं खुद करूँगा, ब्राह्मण द्वारा नहीं होने दूँगा।’ लेकिन लोगों ने यह बात नहीं मानी, तो मैं भी श्मशान नहीं गया। प्रायः धर्म की रूढ़ि होती है। उसी के अनुसार सारा किया जाता है। भगवान् कह रहे हैं : मां बहुधा प्राहुः – मुझ (परमात्मा) को भूलकर लोग मुझे अनेक नाम देते हैं। अलग-अलग आत्मा देखते हैं, तो स्वयं द्वेष खड़े हो जाते हैं। फिर अनेक ईश्वर खड़े हो जाते हैं। यह कब तक जारी रहेगा? जब तक गुण-वैषम्य रहेगा। तो, इसके लिए क्या करना चाहिए? तुकाराम महाराज कहते हैं :

आमिकांचे कानी। गुणदोष मना नाणी ।।

यानी ‘दूसरों के गुण-दोष कान पर मत आने दो।’ गुण-दोष सुनो ही मत। कहीं कान पर आ ही जाएँ, तो मन में मत आने दो। सार यह कि गुण-दोषों की ओर न देखें। यदि गुण-दोष की झंझट में पड़ेंगे, तो अनेक आत्मा बन जायेंगे। फिर पारतन्त्र्य बना ही रहेगा और कोई-न-कोई ईश्वर सिर पर चढ़ बैठेगा।


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टीका टिप्पणी और संदर्भ

  1. 11.10.33
  2. 11.10.34

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