भागवत धर्म सार -विनोबा भाग-151
भागवत धर्म मिमांसा
11. ब्रह्म-स्थिति
(28.9) यदि स्म पश्यत्यसदिंद्रियार्थं
नानानुमानेन विरुद्धमन्यत् ।
न मन्यते वस्तुतया मनीषी
स्वाप्नं यथोत्थाय तिरोदधानम् ।।[1]
यह एक कठिन श्लोक है : यदि स्म पश्यति असदिंद्रियार्थं न मन्यते वस्तुतया मनीषी – यद्यपि ज्ञानी मिथ्या इन्द्रियों के विषयों को देखता है, तथापि वह मानता है कि वे यथार्थ में वास्तविक नहीं है। वह समझता है कि भासिक कार्य हो रहा है। मन्यते वस्तुतया मनीषी – यह एक वाक्य है। मनीषी इसे वास्तविक नहीं मानता। जैसे मृगजल को देखते हैं, पर यह वास्तव में होता नहीं, वह भासमात्र मालूम होता है, वैसे ही ज्ञानी इन्द्रियों के विषयों को देखता है। वह वैसा क्यों देख पाता है? नानानुमानेन। उसके चित्त में तर्क बैठा है कि ये तो ‘नाना’ हैं। उसका यह अनुमान है। अनुमान यानी तर्क। ‘नाना’ वाला तर्क उसके चित्त में बैठ गया है। यह ‘नाना’ वाला तर्क क्या है? हमारे शिक्षक ने हमें एक मिसाल दी थी। एक बर्तन में उबलता हुआ पानी रखा, दूसरे बर्तन में बरफ का ठंडा पानी रखा और तीसरे बर्तन में सादा पानी रखा। फिर एक लड़के को गरम पानी में उँगली डालने को कहा और दूसरे को ठंडे पानी में। थोड़ी देर के बाद दोनों को सादे पानीवाले बर्तन में उँगली डालने को कहा। जिसने गरम पानी में उँगली डाली थी, वह कहने लगा : ‘अहा! कितना ठण्डा पानी है।’ जिसने ठंडे पानी में उँगली डाली थी, वह कहने लगा : ‘कितना अच्छा गरम पानी है।’ पानी तो एक ही था, लेकिन एक को गरम लगा, तो दूसरे को ठंडा। वह पानी ठंडा है या गरम? जवाब है : वह ‘नाना’ है। चीज वही है, लेकिन उसी चीज का तर्क अनेक प्रकार से किया जा सकता है। चीज का स्वरूप ‘नाना’ है। ज्ञानी के चित्तर में ‘नाना’ वाला तर्क पैठ गया है। इसे ‘नाना-सिद्धांत’ कहते हैं। चीज के अनेक रूप होते हैं, लेकिन वे वास्तविक नहीं, मिथ्या हैं। यही बँगला देखिये। इन दिनों हम दिनभर अन्दर नहीं, बाहर बैठते हैं। लेकिन गरमी के दिनों में अन्दर बैठेंगे। तो, यह बँगला अच्छा है, या नहीं? वह ‘नाना’ है। सत्य वस्तु शाश्वत होती है। जो मिथ्या है, वह ‘नाना’ है। मनुष्य के चित्र होते हैं। महात्मा गांधी के चित्र बताये जाते हैं – दो साल का बच्चा, छह साल का बच्चा, जवान, बूढ़ा! छह साल के बच्चे का बूढ़े के साथ कोई साम्य नहीं दीखता। पहचान नहीं हो पाती कि यह इसी बूढ़े का चित्र है। इसका मतलब है कि शरीर भी ‘नाना’ है। ज्ञानी सभी विषयों को देखता है, फिर भी समझता है कि वे ‘नाना’ हैं। वे लफंगे हैं। ‘लफंगा’ यानी जिसका रूप स्थिर नहीं। नित रूप बदलता ही रहता है। आज एक रूप, तो कल दूसरा! आजकल फोटो लेने का रिवाज है। हमारी माँ का एक भी फोटो नहीं। माँ को फोटो के लिए बैठने को कहा जाता, तो वह कहा करती : ‘देह तो मिथ्या है, उसका क्या फोटो लेगा? चित्र तो भगवान् का होना चाहिए।’ तो, ज्ञानी पुरुष सब विषयों को ‘नाना’ मानता है। उसका निश्चय हो गया है कि आत्मा से भिन्न जो वस्तु है, वह अपने आत्म-हित के विरुद्ध है। ज्ञानी कुछ देखता-सुनता नहीं, ऐसा नहीं। वह देखता, सुनता है। वह ठंडा है या गरम है, यह देखता है। उसे वेदना भी होती है, फिर भी अन्दर से पहचानता है। नानानुमानेन – नानावाले तर्क में जो पकड़ा जायेगा, वह अन्यत् विरुद्धम्– आत्म-हित के विरुद्ध वस्तु है, यही माना जायेगा। इसलिए मनीषी यानी जिसका अपने मन पर काबू है, वह देखता है, फिर भी मानता नहीं – न मन्यते। उसके चित्त में उन चीजों का कोई आकर्षण नहीं रहता। स्वाप्नं यथा तिरोदधानम्– ‘स्वाप्नम्’ यानी स्वप्न-दर्शन। जैसे स्वप्न का दर्शन तिरोहित यानी समाप्त हो जाता है। कब? उत्थाय – जाग जाने के बाद। मनुष्य नींद की अवस्था में स्वप्न को सत्य मानता है, पर जागृति आने पर वह टिकता, तो लोग उसे भी सत्य मानते। लेकिन जागृति में वह दीखता नहीं। इसी तरह दूसरी चीजें, जो जागृति में दीखती हैं, गाढ़ निद्रा में खतम हो जाती है। इसलिए उनकी भी क्या आसक्ति रखी जाए? आजकल ‘रिएलिज्म’ या वास्तव-वाद बहुत चलता है। कहते हैं, इन्द्रियों से जो चीजें पहचानी जाती हैं, वे ही वास्तव हैं। लेकिन यह वास्तव-वाद भी ‘नानानुमानेन’ – नानानुमान से टिकता नहीं। वह अवास्तव-वाद है।
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टीका टिप्पणी और संदर्भ
- ↑ 11.28.32
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